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अलसुबह

alasubah

मुकेश कुमार सिन्हा

और अधिकमुकेश कुमार सिन्हा

    मॉर्निंग मैसेज के प्रत्युतर में

    पता नहीं कैसे तो

    मोबाइल स्क्रीन पर

    भीगा-सा एक प्रदीप्त चेहरा मुस्काया

    कुछ बूँदें छलमलाई

    तीखे नैन नक्शों के ऊपर

    छिटकते हुए

    बूँदों ने टकरा कर कुछ तो सोचा, पर वे कह नहीं पाए

    हाय ये कैसा विघटन जल के संयोजन का

    ऑक्सीजन की लहराती दरिया

    छितरा गई गालों पर

    जबकि डिंपल पर लटकते हुए हाइड्रोजन मुस्काया

    देवी तुमने हमें आज़ाद करवाया!

    तब तक कुछ और बूँदों ने

    जो इतवार के बहाने से

    कुछ ज़्यादा ही देर तक सोते रहे थे

    कुछ देर से जगकर

    चकमक चेहरे वाली बाला

    जो जस्ट चेहरे को धोकर निहार रही थी आइना

    उसके ही

    लहराते लटों से ठुमकते हुए छिटके

    कह उठे अलसाए आवाज़ में

    झाँक ही लो मुझमें

    मेरे प्रिज्मीय अपवर्तन और परावर्तन के वजह से

    तुम कह सकते हो

    है ये बाला-चंचल चितवन, स्नेहिल और ख़ूबसूरत!

    ज़िंदगी बहती है और बहते हुए ही जाना है

    भरे हुए आँखों वाली के

    पलकों से ठिठक कर एक सुनहरी बूँद ने कहा

    नहीं जान देना है मुझे

    प्लीज़ एक बार पलकों को हौले से समेटो

    ताकि

    जैसे बाहों ने भरा हो आगोश

    और मैं यानी बूँद समा जाऊँ तुम्हारे ही नज़रों में

    खोना पाना भी तो शायद प्रेम ही है न!

    क्या ऐसा संभव नहीं है क्या।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मुकेश कुमार सिन्हा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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