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अकेली औरत का रोना

akeli aurat ka rona

सुधा अरोड़ा

सुधा अरोड़ा

अकेली औरत का रोना

सुधा अरोड़ा

और अधिकसुधा अरोड़ा

    ऐसी भी सुबह होती है एक दिन

    जब अकेली औरत

    फूट-फूट कर रोना चाहती है।

    रोना एक ग़ुबार की तरह

    गले में अटक जाता है

    और वह सुबह-सुबह

    किशोरी अमोनकर का राग भैरवी लगा देती है,

    उस आलाप को अपने भीतर समोते

    वह रुलाई को पीछे धकेलती है।

    अपने लिए गैस जलाती है

    कि नाश्ते में कुछ अच्छा पका ले

    शायद वह खाना आँखों के रास्ते

    मन को ठंडक पहुँचाए,

    पर खाना हलक़ से नीचे

    उतर जाता है

    और ज़बान को पता भी नहीं चलता

    कब पेट तक पहुँच जाता है।

    अब रुलाई का ग़ुबार

    अंतड़ियों में यहाँ-वहाँ फँसता है

    और आँखों के रास्ते

    बाहर निकलने की सुरंग ढूँढ़ता है।

    अकेली औरत

    अकेले सिनेमा देखने जाती है।

    और किसी दृश्य पर जब हॉल में हँसी गूँजती है

    वह अपने वहाँ होने पर शर्मिंदा हो जाती है

    बग़ल की ख़ाली कुर्सी में अपने को ढूँढ़ती है...

    जैसे पानी की बोतल रखकर भूल गई हो

    और वापस अपनी कुर्सी पर सिमट जाती है।

    अकेली औरत

    किताब का बाइसवाँ पन्ना पढ़ती है

    और भूल जाती है

    कि पिछले इक्कीस पन्नों पर क्या पढ़ा था...

    किताब बंद कर,

    बग़ल में रखे दिमाग़ को उठा कर

    अपने सिर पर टिका लेती है कस कर

    और दोबारा पहले पन्ने से पढ़ना शुरू करती है...

    अकेली औरत

    खुले मैदान में भी खुल कर

    साँस नहीं ले पाती

    हरियाली के बीच ऑक्सीजन ढूँढ़ती है।

    फेफड़ों के रास्ते तक

    एक खोखल महसूस करती है

    जिसमें आवाजाही करती साँस

    साँस जैसी नहीं लगती।

    मुँह से हवा भीतर खींचती है

    अपने ज़िंदा होने के एहसास को

    छू कर देखती है...

    अकेली औरत

    एकाएक

    रुलाई का पिटारा

    अपने सामने खोल देती है

    सब कुछ तरतीब से बिखर जाने देती है

    देर शाम तक जी भर कर रोती है

    और महसूस करती हैं

    साँसों का एकाएक

    सम पर जाना...

    ...और फिर एक दिन

    अकेली औरत अकेली नहीं रह जाती

    वह अपनी उँगली थाम लेती है,

    वह अपने साथ सिनेमा देखती है,

    पानी की बोतल बग़ल की सीट पर नहीं ढूँढ़ती,

    किताब के बाइसवें पन्ने से आगे चलती है,

    लंबी साँस को चमेली की ख़ुशबू-सा सूँघती है,

    खींच लेती है मुस्कान

    आँखों की कोरों तक

    अपने लिए नई परिभाषा गढ़ती है।

    अकेली औरत

    अकेलेपन को एकांत में ढालने का

    सलीक़ा सीखती है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुधा अरोड़ा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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