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वभ्रु जातक

vabhru jatak

अज्ञात

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वभ्रु जातक

अज्ञात

प्राचीन काल में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व ने पाषाण-कुट्टक या संगतराश के घर में जन्म लिया था; और वयस्क होने पर उन्होंने अपने व्यवसाय में विलक्षण निपुणता प्राप्त की थी।

काशी राज्य के किसी गाँव में एक बहुत प्रसन्न श्रेष्ठी रहता था। उसके भांडार में चालीस करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थीं। उसकी स्त्री मरने पर धन के लोभ से चुहिया बनकर उसी धन के पास रहा करती थी। धीरे-धीरे उस श्रेष्ठी के कुल के सभी लोग मर गए; और जब वह श्रेष्ठी भी मर गया, तब मानों वह गाँव उजाड़ हो गया। जिस समय की यह बात है, उस समय बोधिसत्व उम पुराने गाँव के (खंडहरों के पत्थर निकाल निकालकर काट रहे थे। जब जब वह चुहिया कुछ खाने-पीने के लिए इधर-उधर निकला करती थी, तब वह बोधिसत्व को देखा करती थी। धीरे-धीरे उसके मन में आया कि मेरा बहुत सा धन व्यर्थ ही नष्ट हो रहा है। यदि इससे मेरी मित्रता हो जाए, तो हम लोग मिलकर इस धन का भोग करें। यह निश्चय करके एक दिन वह मुँह में एक कार्षापण1प्राचीन काल का एक प्रकार का सिक्का। लेकर बोधिसत्व के सामने पहुँची। बोधिसत्व ने उसे देखकर पूछा—क्यों जी, आज तुम यह कार्षापण क्यों ले आई हो? चुहिया ने कहा—तुम इसे ले जाकर अपने खाने-पीने की व्यवस्था करो और मुझे भी थोड़ा मांस ला दो।” बोधिसत्व ने अच्छा कहकर वह कार्षापण ले लिया और थोड़ा सा मांस लाकर उस चुहिया को दे दिया। चुहिया वह मांस लेकर अपने बिल में चली गई और वहीं बैठकर खाने लगी। तब से चुहिया नित्य बोधिसत्व को एक कार्षापण दिया करती थो और वे उसके लिए नित्य थोड़ा मांस लाया करते थे।

एक दिन एक बिल्ली ने उस चुहिया को पकड़ा। चुहिया बोली—तुम मुझे मारो मत, छोड़ दो। बिल्ली ने कहा—क्यों? मुझे तो इस समय भूख लगी है; और मैं मांस खाना चाहती हूँ। चुहिया ने पूछा—तुम आज ही मांस खाना चाहती हो या नित्य तुम्हारी मांस खाने की इच्छा होती है? बिल्ली ने उत्तर दिया यदि मिले, तो मैं नित्य ही खाना चाहती हूँ। चुहिया ने कहा यदि ऐसी बात है तो तुम मुझे छोड़ दो। मैं तुम्हें नित्य मांस खिलाया करूँगी। बिल्ली ने कहा—अच्छा, लो आज तो मैं तुमको छोड़ देती हैं। पर इस बात का ध्यान रखना कि मुझे नित्य मांस मिल जाया करे; इसमें त्रुटि न हो। यह कह‌कर बिल्ली ने चुहिया को छोड़ दिया। उस दिन से चुहिया ने यह नियम कर लिया कि अपने लिए आए हुए मांस के दो विभाग करती थी। उनमें से एक भाग आप खाती थी और एक उस बिल्ली को दे दिया करती थी।

कुछ दिनों के बाद एक दूसरी बिल्ली ने फिर उसी चुहिया को पकड़ लिया। चुहिया ने उसे भी नित्य मांस देने का वचन देकर अपने प्राण बचाए। उस दिन से मांस के तीन विभाग होने लगे, जिनमें से एक भाग उस चुहिया को और शेष दो भाग उन दोनों बिल्लियों को मिला करते थे। इसके उपरांत फिर एक और बिल्ली ने उसे पकड़ा। उसके साथ भी चुहिया की वही शर्त हो गई। तब से उसके मांस के चार भाग होने लगे। फिर एक और बिल्ली ने उसे पकड़ा। उसके साथ भी वही नियम करके उसने अपने प्राण बचाए। तब से मांस के पाँच भाग होने लगे। जब चुहिया को भोजन बहुत कम मिलने लगा, तब वह दुर्बल होकर सूखने लगी और उसकी हड्डियों दिखाई देने लगीं। एक दिन बोधिसत्व ने उससे पूछा—तुम दिन पर दिन इतनी दुबल क्यों होती जा रही हो? चुहिया ने सारा वृत्तांत उनसे कह सुनाया। सब कुछ सुन चुकने पर बोधिसत्व ने कहा—तुमने इतने दिनों तक ये सब बातें मुझसे क्यों नहीं कहीं! अच्छा, कोई चिंता नहीं। मैं इसका उपाय कर दूँगा। उसे सब प्रकार से आश्वासन देकर बोधिसत्व ने उसके लिए बहुत ही बढ़िया और स्वच्छ स्फटिक की एक गुफ़ा बनाई और उससे कहा—तुम इसी गुफ़ा में रहा करो; और जब कोई बिल्ली तुम्हारे पास मांस माँगने आए, तब उसे पुरुष वचन कहकर उत्तेजित किया करो। चुहिया उसी गुफ़ा में जा बैठी। थोड़ी देर बाद एक बिल्ली ने आकर कहा—मेरा मांस दो। चुहिया ने कहा—अरे चल! मैंने क्या तुझे नित्य मांस खिलाने की नौकरी लिखाई है? जा, अपने बच्चे का मांस खा। बिल्ली जानती नहीं थी कि चुहिया स्फटिक की गुफ़ा में बैठी है। उसने क्रोध में आकर सोचा कि मैं अभी इस चुहिया को खा जाऊँगी। यह सोचकर वह चुहिया पर झपटी। झपटते ही उसे स्फटिक के कारण छाती में बहुत तेज़ चोट लगी; उसका कलेजा फट गया; आँखें बाहर निकल आई और वह वहीं गिरकर मर गई। इसी प्रकार धीरे-धीरे और चारों बिल्लियों भी मर गई। उस दिन से चुहिया निर्भय होकर चारों ओर घूमने लगी और बोधिसत्व को दो कार्षापण देने लगी। इस प्रकार धीरे-धीरे उसने अपना सारा धन उनको दे दिया। उस चुहिया के साथ बोधिसत्व की जीवन भर मित्रता बनी रही और मरने के उपरांत कर्मों के अनुरूप उनकी गति हुई।

स्रोत :
  • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 163)
  • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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