प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
पाँचों पांडव माता कुंती के साथ वारणावत के लिए चल पड़े। उनके हस्तिनापुर छोड़कर वारणावत जाने की ख़बर पाकर नगर के लोग उनके साथ हो लिए। बहुत दूर जाने के बाद युधिष्ठिर का कहा मानकर नगरवासियों को लौट जाना पड़ा। दुर्योधन के षड्यंत्र और उससे बचने का उपाय विदुर ने युधिष्ठिर को इस तरह गूढ़ भाषा में सिखा दिया था कि जिससे दूसरे लोग समझ न सकें। वारणावत के लोग पांडवों के आगमन की ख़बर पाकर बड़े ख़ुश हुए और उनके वहाँ पहुँचने पर उन्होंने बड़े ठाठ से उनका स्वागत किया। जब तक लाख का भवन बनकर तैयार हुआ, पांडव दूसरे घरों में रहते रहे, जहाँ पुरोचन ने पहले से ही उनके ठहरने का प्रबंध कर रखा था। लाख का भवन बनकर तैयार हो गया, तो पुरोचन उन्हें उसमें ले गया। भवन में प्रवेश करते ही युधिष्ठिर ने उसे ख़ूब ध्यान से देखा। विदुर की बातें उन्हें याद थीं। ध्यान से देखने पर युधिष्ठिर को पता चल गया कि यह घर जल्दी आग लगने वाली चीज़ों से बना हुआ है। युधिष्ठिर ने भीम को भी यह भेद बता दिया; पर साथ ही उसे सावधान करते हुए कहा—“यद्यपि यह साफ़ मालूम हो गया है कि यह स्थान ख़तरनाक है, फिर भी हमें विचलित नहीं होना चाहिए। पुरोचन को इस बात का ज़रा भी पता न लगे कि उसके षड्यंत्र का भेद हम पर खुल गया है। मौक़ा पाकर हमें यहाँ से निकल भागना होगा। पर अभी हमें जल्दी से ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे शत्रु के मन में ज़रा भी संदेह पैदा होने की संभावना हो।
युधिष्ठिर की इस सलाह को भीमसेन सहित सब भाइयों तथा कुंती ने मान लिया। वे उसी लाख के भवन में रहने लगे। इतने में विदुर का भेजा हुआ एक सुरंग बनाने वाला कारीगर वारणावत नगर में आ पहुँचा। उसने एक दिन पांडवों को अकेले में पाकर उन्हें अपना परिचय देते हुए कहा—“आप लोगों की भलाई के लिए हस्तिनापुर से रवाना होते समय विदुर ने युधिष्ठिर से सांकेतिक भाषा में जो कुछ कहा था, वह बात मैं जानता हूँ। यही मेरे सच्चे मित्र होने का सबूत है। आप मुझ पर भरोसा रखें। मैं आप लोगों की रक्षा का प्रबंध करने के लिए आया हूँ।
इसके बाद वह कारीगर महल में पहुँच गया और गुप्त रूप से कुछ दिनों में ही उसमें एक सुरंग बना दी इस रास्ते से पांडव महल के अंदर से नीचे-ही-नीचे चहारदीवारी और गहरी खाई को लाँघकर सुरक्षित बेखटके बाहर निकल सकते थे। यह काम इतने गुप्त रूप से और इस ख़ूबी से हुआ कि पुरोचन को अंत तक इस बात की ख़बर न होने पाई। पुरोचन ने लाख के भवन के द्वार पर ही अपने रहने के लिए स्थान बनवा लिया था। इस कारण पांडवों को भी सारी रात हथियार लेकर चौकन्ने रहना पड़ता था।
एक दिन पुरोचन ने सोचा कि अब पांडवों का काम तमाम करने का समय आ गया है। समझदार युधिष्ठिर उसके रंग-ढंग से ताड़ गए कि वह क्या सोच रहा है। युधिष्ठिर की सलाह से माता कुंती ने उसी रात को एक बड़े भोज का प्रबंध किया। नगर के सभी लोगों को भोजन कराया गया। बड़ी धूमधाम रही, मानो कोई बड़ा उत्सव हो। ख़ूब खा-पीकर भवन के सब कर्मचारी गहरी नींद में सो गए। पुरोचन भी सो गया। आधी रात के समय भीमसेन ने भवन में कई जगह आग लगा दी और फिर पाँचों भाई माता कुंती के साथ सुरंग के रास्ते अँधेरे में रास्ता टटोलते टटोलते बाहर निकल गए। भवन से बाहर वे निकले ही थे कि आग ने सारे भवन को अपनी लपटों में ले लिया। पुरोचन के रहने के मकान में भी आग लग गई। सारे नगर के लोग इकट्ठे हो गए और पांडवों के भवन को भयंकर आग की भेंट होते, देखकर हाहाकार मचाने लगे। कौरवों के अत्याचार से जनता क्षुब्ध हो उठी और तरह-तरह से कौरवों की निंदा करने लगी। लोग क्रोध में अनाप-शनाप बकने लगे, हाय-तौबा मचाने लगे और उनके देखते-देखते सारा भवन जलकर राख हो गया। पुरोचन का मकान और स्वयं पुरोचन भी आग की भेंट हो गया।
वारणावत के लोगों ने तुरंत ही हस्तिनापुर में ख़बर पहुँचा दी कि पांडव जिस भवन में ठहराए गए थे, वह जलकर राख हो गया है और भवन में कोई भी जीता नहीं बचा।धृतराष्ट्र और उनके बेटों ने पांडवों की मृत्यु पर बड़ा शोक मनाया। वे गंगा किनारे गए और पांडवों तथा कुंती को जलांजलि दी। फिर सब मिलकर बड़े ज़ोर-ज़ोर से रोते और विलाप करते हुए घर लौटे। परंतु दार्शनिक विदुर ने शोक को मन ही में दवा लिया। अधिक शोक-प्रदर्शन न किया। इसके अलावा विदुर को यह भी पक्का विश्वास था कि पांडव लाख के भवन से बचकर निकल गए होंगे। पितामह भीष्म तो मानो शोक के सागर ही में थे, पर उनको विदुर ने धीरज बँधाया और पांडवों के बचाव के लिए किए गए अपने सारे प्रबंध का हाल बताकर उन्हें चिंतामुक्त कर दिया।
लाख के घर को जलता हुआ छोड़कर पाँचों भाई माता कुंती के साथ बच निकले और जंगल में पहुँच गए। जंगल पहुँचने पर भीमसेन ने देखा कि रातभर जगे होने तथा चिंता और भय से पीड़ित होने के कारण चारों भाई बहुत थके हुए हैं। माता कुंती की दशा तो बड़ी ही दयनीय थी। बेचारी थककर चूर हो गई थी। सो महाबली भीम ने माता को उठाकर अपने कंधे पर बैठा लिया और नकुल एवं सहदेव को कमर पर ले लिया। युधिष्ठिर और अर्जुन को दोनों हाथों से पकड़ लिया और वह उस जंगली रास्ते में उन्मत्त हाथी के समान झाड़-झंखाड़ और पेड़-पौधों को इधर-उधर हटाता व रौंदता हुआ तेज़ी से चलने लगा। जब वे सब गंगा के किनारे पहुँचे, तो वहाँ विदुर की भेजी हुई एक नाव मिली। युधिष्ठिर ने मल्लाह से सांकेतिक प्रश्न करके जाँच लिया कि वह मित्र है। वे लोग अगले दिन शाम होने तक चलते ही रहे, ताकि किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँच जाएँ।
सूरज डूब गया और रात हो चली थी। चारों तरफ़ अँधेरा छा गया। कुंती और पांडव एक तो थकावट के मारे चूर हो रहे थे, ऊपर से प्यास और नींद भी उन्हें सताने लगी चक्कर-सा आने लगा। एक पग भी आगे बढ़ना असंभव हो गया। भीम के सिवाए और सब भाई वहीं ज़मीन पर लगती थीं। बैठ गए। कुंती से तो बैठा भी नहीं गया। वह दीनभाव से बोली—“मैं तो प्यास से मरी जा रही हूँ। अब मुझसे बिलकुल चला नहीं जाता। धृतराष्ट्र के बेटे चाहें तो भले ही मुझे यहाँ से उठा ले जाएँ, मैं तो यहीं पड़ी रहूँगी। यह कहकर कुंती वहीं ज़मीन पर गिरकर बेहोश हो गई।
माता और भाइयों का यह हाल देखकर क्षोभ के मारे भीमसेन का हृदय दग्ध हो उठा। वह उस भयानक जंगल में बेधड़क घुस गया और इधर-उधर घूम-घामकर उसने एक जलाशय का पता लगा ही लिया। उसने पानी लाकर माता व भाइयों की प्यास बुझाई। पानी पीकर चारों भाई और माता कुंती ऐसे सोए कि उन्हें अपनी सुध-बुध तक न रही। अकेला भीमसेन मन-ही-मन कुछ सोचता हुआ चिंतित भाव से बैठा रहा। पाँचों भाई माता कुंती को लिए अनेक विघ्न-बाधाओं का सामना करते और बड़ी मुसीबतें झेलते हुए उस जंगली हो जाते। रास्ते में आगे बढ़ते ही चले गए। वे कभी माता को उठाकर तेज़ चलते, कभी थके-माँदे बैठ जाते। कभी एक-दूसरे से होड़ लगाकर रास्ता पार करते। वे ब्राह्मण ब्रह्मचारियों का वेश धरकर एकचक्रा नगरी में जाकर एक ब्राह्मण के घर में रहने लगे।
माता कुंती के साथ पाँचों पांडव एकचक्रा नगरी में भिक्षा माँगकर अपनी गुज़र करके दिन बिताने लगे। भिक्षा के लिए जब पाँचों भाई निकल जाते, तो कुंती का जी बड़ा बेचैन हो उठता था। वह बड़ी चिंता से उनकी बाट जोहती रहती। उनके लौटने में ज़रा भी देर हो जाती तो कुंती के मन में तरह-तरह की आशंकाएँ उठने लगती थीं।
पाँचों भाई भिक्षा में जितना भोजन लाते, कुंती उसके दो हिस्से कर देती। एक हिस्सा भीमसेन को दे देती और बाक़ी आधे में से पाँच हिस्से करके चारों बेटे और ख़ुद खा लेती थी। तिसपर भी भीमसेन की भूख नहीं मिटती थी। हमेशा ही भूखा रहने के कारण वह दिन-पर-दिन दुबला होने लगा। भीमसेन का यह हाल देखकर कुंती और युधिष्ठिर बड़े चिंतित रहने लगे। थोड़े से भोजन से पेट न भरता था, सो भीमसेन ने एक कुम्हार से दोस्ती कर ली। उसने मिट्टी आदि खोदने में मदद करके उसको ख़ुश कर दिया। कुम्हार भीम से बड़ा ख़ुश हुआ और एक बड़ी भारी हाँडी बनाकर उसको दी। भीम उसी हाँडी को लेकर भिक्षा के लिए निकलने लगा। उसका विशाल शरीर और उसकी वह विलक्षण हाँडी देखकर बच्चे तो हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते।
एक दिन चारों भाई भिक्षा के लिए गए। अकेला भीमसेन ही माता कुंती के साथ घर पर रहा। इतने में ब्राह्मण के घर के भीतर से बिलख-बिलखकर रोने की आवाज़ आई। अंदर जाकर देखा कि ब्राह्मण और उसकी पत्नी आँखों में आँसू भरे सिसकियाँ लेते हुए एक-दूसरे बातें कर रहे हैं।
ब्राह्मण बड़े दुखी हृदय से अपनी पत्नी से कह रहा था—“कितनी ही बार मैंने तुम्हें समझाया कि इस अँधेर नगरी को छोड़कर कहीं और चले जाएँ, पर तुम नहीं मानीं यही हठ करती रहीं कि यह मेरे बाप-दादा का गाँव है, यहीं रहूँगी। बोलो, अब क्या कहती हो? अपनी बेटी की भी बलि कैसे चढ़ा दूँ और पुत्र को कैसे काल कवलित होने दूँ? यदि मैं शरीर त्यागता हूँ, तो फिर इन अनाथ बच्चों का भरण-पोषण कौन करेगा? हाय! मैं अब क्या करूँ? और कुछ करने से तो अच्छा उपाय यह है कि सभी एक साथ मौत को गले लगा लें। यही अच्छा होगा।” कहते-कहते ब्राह्मण सिसक-सिसककर रो पड़ा।
ब्राह्मण की पत्नी रोती-रोती बोली—“प्राणनाथ! मुझे मरने का कोई दुख नहीं है मेरी मृत्यु के बाद आप चाहें तो दूसरी पत्नी ला सकते हैं। अब मुझे प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दें, ताकि मैं राक्षस का भोजन बनूँ।”
पत्नी की ये व्यथाभरी बातें सुनकर ब्राह्मण से न रहा गया। वह बोला—“प्रिये! मुझसे बड़ा दुरात्मा और पापी कौन होगा, जो तुम्हें राक्षस की बलि चढ़ा दे और ख़ुद जीवित रहे?”
माता-पिता को इस तरह बातें करते देख ब्राह्मण की बेटी से न रहा गया। उसने करुण स्वर में कहा—“पिताजी, अच्छा तो यह है कि राक्षस के पास आप मुझे भेज दें। सबको इस तरह रोते देखकर ब्राह्मण का नन्हा सा बालक पास में पड़ी हुई सूखी लकड़ी हाथ में लेकर घुमाता हुआ बोला—“उस राक्षस को तो मैं ही इस लकड़ी से इस तरह ज़ोर से मार डालूँगा।”
कुंती खड़ी-खड़ी यह सब देख रही थी। अपनी बात कहने का उसने ठीक मौक़ा देखा। वह बोली—“हे ब्राह्मण, क्या आप कृपा करके मुझे बता सकते हैं कि आप लोगों के इस असमय दुख का कारण क्या है?”
ब्राह्मण ने कहा—“देवी! सुनिए, इस नगरी के समीप एक गुफ़ा है, जिसमें बक नामक एक बड़ा अत्याचारी राक्षस रहता है। पिछले तेरह वर्षों से इस नगरी के लोगों पर वह बड़े ज़ुल्म ढा रहा है। इस देश का राजा, जो वेत्रकीय नाम के महल में रहता है, इतना निकम्मा है कि प्रजा को राक्षस के अत्याचार से बचा नहीं रहा है। इससे घबराकर नगर के लोगों ने मिलकर उससे बड़ी अनुनय-विनय की कि कोई-न-कोई नियम बना ले। बकासुर ने लोगों की यह बात मान ली और तब से इस समझौते के अनुसार यह नियम बना हुआ है कि लोग बारी-बारी से एक-एक आदमी और खाने की चीज़ें हर सप्ताह उसे पहुँचा दिया करते हैं। इस सप्ताह में उस राक्षस के खाने के लिए आदमी और भोजन भेजने की हमारी बारी है। अब तो मैंने यही सोचा है कि सबको साथ लेकर ही राक्षस के पास चला जाऊँगा। आपने पूछा सो आपको बता दिया। इस कष्ट को दूर करना तो आपके बस में भी नहीं है।”
ब्राह्मण की बात का कोई उत्तर देने से पहले कुंती ने भीमसेन से सलाह की। उसने लौटकर कहा—“विप्रवर, आप इस बात की चिंता छोड़ दें। मेरे पाँच बेटे हैं, उनमें से एक आज राक्षस के पास भोजन लेकर चला जाएगा।”
सुनकर ब्राह्मण चौंक पड़ा और बोला—“आप भी कैसी बात कहती हैं! आप हमारी अतिथि हैं। हमारे घर में आश्रय लिए हुए हैं। आपके बेटे को मौत के मुँह में मैं भेजूँ, यह कहाँ का न्याय है? मुझसे यह नहीं हो सकता।”
कुंती को डर था कि यदि यह बात फैल गई, तो दुर्योधन और उनके साथियों को पता लग जाएगा कि पांडव एकचक्रा नगरी में छिपे हुए हैं। इसीलिए उसने ब्राह्मण से इस बात को गुप्त रखने का आग्रह किया था। कुंती ने जब भीमसेन को बताया कि उसे बकासुर के पास भोजन-सामग्री लेकर जाना होगा, तो युधिष्ठिर खीझ उठे और बोले—“यह तुम कैसा दुस्साहस आगे करने चली हो माँ!”
युधिष्ठिर की इन कड़ी बातों का उत्तर देते हुए कुंती बोली—“बेटा युधिष्ठिर! इस ब्राह्मण के घर में हमने कई दिन आराम से बिताए हैं। जब इन पर विपदा पड़ी है, तो मनुष्य होने के नाते हमें उसका बदला चुकाना ही चाहिए। मैं बेटा भीम की शक्ति और बल से अच्छी तरह परिचित हूँ। तुम इस बात की चिंता मत करो। जो हमें वारणावत से यहाँ तक उठा लाया, जिसने हिडिंब का वध किया, उस भीम के बारे में मुझे न तो कोई डर है, न चिंता भीम को बकासुर के पास भेजना हमारा कर्तव्य है।”
इसके बाद नियम के अनुसार नगर के लोग खाने-पीने की चीज़ें गाड़ी में रखकर ले आए। भीमसेन उछलकर गाड़ी में बैठ गया। शहर के लोग भी बाजे बजाते हुए कुछ दूर तक उसके पीछे-पीछे चले। एक निश्चित स्थान पर लोग रुक गए और अकेला भीम गाड़ी दौड़ाता हुआ आगे गया।
उधर राक्षस मारे भूख के तड़प रहा था। जब बहुत देर हो गई, तो बड़े क्रोध के साथ वह गुफ़ा के बाहर आया। देखता क्या है कि एक मोटा सा मनुष्य बड़े आराम से बैठा हुआ भोजन कर रहा है। यह देखकर बकासुर की आँखें क्रोध से एकदम लाल हो उठीं। इतने में भीमसेन की भी निगाह उस पर पड़ी। उसने हँसते हुए उसका नाम लेकर पुकारा। भीमसेन की यह ढिठाई देखकर राक्षस ग़ुस्से में भर गया और तेज़ी से भीमसेन पर झपटा। भीमसेन ने बकासुर को अपनी ओर आते देखा, तो उसने उसकी तरफ़ पीठ फेर ली और कुछ भी परवाह न करके खाने में ही लगा रहा। ख़ाली हाथों काम न बनते देखकर राक्षस ने एक बड़ा सा पेड़ जड़ से उखाड़ लिया और उसे भीमसेन पर दे मारा, परंतु भीमसेन ने बाएँ हाथ पर उसे रोक लिया। दोनों में भयानक मुठभेड़ हो गई। भीमसेन ने बकासुर को ठोकरें मारकर गिरा दिया और कहा—“दुष्ट राक्षस! जरा विश्राम तो करने दे।”
थोड़ी देर सुस्ताकर भीम ने फिर कहा—“अच्छा! अब उठो!” बकासुर उठकर भीम के साथ लड़ने लगा। भीमसेन ने उसको ठोकरें लगाकर फिर गिरा दिया। इस तरह बार-बार पछाड़ खाने पर भी राक्षस उठकर भिड़ जाता था। आख़िर भीम ने उसे मुँह के बल गिरा दिया और उसकी पीठ पर घुटनों की मार देकर उसकी रीढ़ तोड़ डाली। राक्षस पीड़ा के मारे चीख़ उठा और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। भीमसेन उसकी लाश को घसीट लाया और उसे नगर के फाटक पर जाकर पटक दिया। फिर उसने घर आकर माँ को सारा हाल बताया।
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kunti khaDi khaDi ye sab dekh rahi thi. apni baat kahne ka usne theek mauka dekha. wo boli—“he brahman, kya aap kripa karke mujhe bata sakte hain ki aap logon ke is asamay dukh ka karan kya hai?”
brahman ne kaha—“devi! suniye, is nagri ke samip ek gufa hai, jismen bak namak ek baDa atyachari rakshas rahta hai. pichhle terah varshon se is nagri ke logon par wo baDe zulm Dha raha hai. is desh ka raja, jo vetrkiy naam ke mahl mein rahta hai, itna nikamma hai ki praja ko rakshas ke atyachar se bacha nahin raha hai. isse ghabrakar nagar ke logon ne milkar usse baDi anunay vinay ki ki koi na koi niyam bana le. bakasur ne logon ki ye baat maan li aur tab se is samjhaute ke anusar ye niyam bana hua hai ki log bari bari se ek ek adami aur khane ki chizen har saptah use pahuncha diya karte hain. is saptah mein us rakshas ke khane ke liye adami aur bhojan bhejne ki hamari bari hai. ab to mainne yahi socha hai ki sabko saath lekar hi rakshas ke paas chala jaunga. aapne puchha so aapko bata diya. is kasht ko door karna to aapke bas mein bhi nahin hai. ”
brahman ki baat ka koi uttar dene se pahle kunti ne bhimasen se salah ki. usne lautkar kaha—“viprvar, aap is baat ki chinta chhoD den. mere paanch bete hain, unmen se ek aaj rakshas ke paas bhojan lekar chala jayega. ”
sunkar brahman chaunk paDa aur bola—“ap bhi kaisi baat kahti hain! aap hamari atithi hain. hamare ghar mein ashray liye hue hain. aapke bete ko maut ke munh mein main bhejun, ye kahan ka nyaay hai? mujhse ye nahin ho sakta. ”
kunti ko Dar tha ki yadi ye baat phail gai, to duryodhan aur unke sathiyon ko pata lag jayega ki panDav ekchakra nagri mein chhipe hue hain. isiliye usne brahman se is baat ko gupt rakhne ka agrah kiya tha. kunti ne jab bhimasen ko bataya ki use bakasur ke paas bhojan samagri lekar jana hoga, to yudhishthir kheejh uthe aur bole—“yah tum kaisa dussahas aage karne chali ho maan!”
yudhishthir ki in kaDi baton ka uttar dete hue kunti boli—“beta yudhishthir! is brahman ke ghar mein hamne kai din aram se bitaye hain. jab in par vipda paDi hai, to manushya hone ke nate hamein uska badla chukana hi chahiye. main beta bheem ki shakti aur bal se achchhi tarah parichit hoon. tum is baat ki chinta mat karo. jo hamein varnavat se yahan tak utha laya, jisne hiDimb ka vadh kiya, us bheem ke bare mein mujhe na to koi Dar hai, na chinta bheem ko bakasur ke paas bhejna hamara kartavya hai. ”
iske baad niyam ke anusar nagar ke log khane pine ki chizen gaDi mein rakhkar le aaye. bhimasen uchhalkar gaDi mein baith gaya. shahr ke log bhi baje bajate hue kuch door tak uske pichhe pichhe chale. ek nishchit sthaan par log ruk ge aur akela bheem gaDi dauData hua aage gaya.
udhar rakshas mare bhookh ke taDap raha tha. jab bahut der ho gai, to baDe krodh ke saath wo gufa ke bahar aaya. dekhta kya hai ki ek mota sa manushya baDe aram se baitha hua bhojan kar raha hai. ye dekhkar bakasur ki ankhen krodh se ekdam laal ho uthin. itne mein bhimasen ki bhi nigah us par paDi. usne hanste hue uska naam lekar pukara. bhimasen ki ye Dhithai dekhkar rakshas ghusse mein bhar gaya aur tezi se bhimasen par jhapta. bhimasen ne bakasur ko apni or aate dekha, to usne uski taraf peeth pher li aur kuch bhi parvah na karke khane mein hi laga raha. khali hathon kaam na bante dekhkar rakshas ne ek baDa sa peD jaD se ukhaaD liya aur use bhimasen par de mara, parantu bhimasen ne bayen haath par use rok liya. donon mein bhayanak muthbheD ho gai. bhimasen ne bakasur ko thokren markar gira diya aur kaha—“dusht rakshas! jara vishram to karne de. ”
thoDi der sustakar bheem ne phir kaha—“achchha! ab utho!” bakasur uthkar bheem ke saath laDne laga. bhimasen ne usko thokren lagakar phir gira diya. is tarah baar baar pachhaD khane par bhi rakshas uthkar bhiD jata tha. akhir bheem ne use munh ke bal gira diya aur uski peeth par ghutnon ki maar dekar uski reeDh toD Dali. rakshas piDa ke mare cheekh utha aur uske praan pakheru uD ge. bhimasen uski laash ko ghasit laya aur use nagar ke phatak par jakar patak diya. phir usne ghar aakar maan ko sara haal bataya.
panchon panDav mata kunti ke saath varnavat ke liye chal paDe. unke hastinapur chhoDkar varnavat jane ki khabar pakar nagar ke log unke saath ho liye. bahut door jane ke baad yudhishthir ka kaha mankar nagarvasiyon ko laut jana paDa. duryodhan ke shaDyantr aur usse bachne ka upaay vidur ne yudhishthir ko is tarah gooDh bhasha mein sikha diya tha ki jisse dusre log samajh na saken. varnavat ke log panDvon ke agaman ki khabar pakar baDe khush hue aur unke vahan pahunchne par unhonne baDe thaath se unka svagat kiya. jab tak laakh ka bhavan bankar taiyar hua, panDav dusre gharon mein rahte rahe, jahan purochan ne pahle se hi unke thaharne ka prbandh kar rakha tha. laakh ka bhavan bankar taiyar ho gaya, to purochan unhen usmen le gaya. bhavan mein pravesh karte hi yudhishthir ne use khoob dhyaan se dekha. vidur ki baten unhen yaad theen. dhyaan se dekhne par yudhishthir ko pata chal gaya ki ye ghar jaldi aag lagnevali chizon se bana hua hai. yudhishthir ne bheem ko bhi ye bhed bata diya; par saath hi use savdhan karte hue kaha—“yadyapi ye saaf malum ho gaya hai ki ye sthaan khatarnak hai, phir bhi hamein vichlit nahin hona chahiye. purochan ko is baat ka zara bhi pata na lage ki uske shaDyantr ka bhed hum par khul gaya hai. mauka pakar hamein yahan se nikal bhagna hoga. par abhi hamein jaldi se aisa koi kaam nahin karna chahiye jisse shatru ke man mein zara bhi sandeh paida hone ki sambhavna ho.
yudhishthir ki is salah ko bhimasen sahit sab bhaiyon tatha kunti ne maan liya. ve usi laakh ke bhavan mein rahne lage. itne mein vidur ka bheja hua ek surang bananevala karigar varnavat nagar mein aa pahuncha. usne ek din panDvon ko akele mein pakar unhen apna parichay dete hue kaha—“ap logon ki bhalai ke liye hastinapur se ravana hote samay vidur ne yudhishthir se sanketik bhasha mein jo kuch kaha tha, wo baat main janta hoon. yahi mere sachche mitr hone ka sabut hai. aap mujh par bharosa rakhen. main aap logon ki raksha ka prbandh karne ke liye aaya hoon.
iske baad wo karigar mahl mein pahunch gaya aur gupt roop se kuch dinon mein hi usmen ek surang bana di is raste se panDav mahl ke andar se niche hi niche chaharadivari aur gahri khai ko langhakar surakshit bekhatke bahar nikal sakte the. ye kaam itne gupt roop se aur is khubi se hua ki purochan ko ant tak is baat ki khabar na hone pai. purochan ne laakh ke bhavan ke dvaar par hi apne rahne ke liye sthaan banva liya tha. is karan panDvon ko bhi sari raat hathiyar lekar chaukanne rahna paDta tha.
ek din purochan ne socha ki ab panDvon ka kaam tamam karne ka samay aa gaya hai. samajhdar yudhishthir uske rang Dhang se taaD ge ki wo kya soch raha hai. yudhishthir ki salah se mata kunti ne usi raat ko ek baDe bhoj ka prbandh kiya. nagar ke sabhi logon ko bhojan karaya gaya. baDi dhumdham rahi, mano koi baDa utsav ho. khoob kha pikar bhavan ke sab karmachari gahri neend mein so ge. purochan bhi so gaya. aadhi raat ke samay bhimasen ne bhavan mein kai jagah aag laga di aur phir panchon bhai mata kunti ke saath surang ke raste andhere mein rasta tatolte tatolte bahar nikal ge. bhavan se bahar ve nikle hi the ki aag ne sare bhavan ko apni lapton mein le liya. purochan ke rahne ke makan mein bhi aag lag gai. sare nagar ke log ikatthe ho ge aur panDvon ke bhavan ko bhayankar aag ki bhent hote, dekhkar hahakar machane lage. kaurvon ke atyachar se janta kshubdh ho uthi aur tarah tarah se kaurvon ki ninda karne lagi. log krodh mein anap shanap bakne lage, haay tauba machane lage aur unke dekhte dekhte sara bhavan jalkar raakh ho gaya. purochan ka makan aur svayan purochan bhi aag ki bhent ho gaya.
varnavat ke logon ne turant hi hastinapur mein khabar pahuncha di ki panDav jis bhavan mein thahraye ge the, wo jalkar raakh ho gaya hai aur bhavan mein koi bhi jita nahin bacha. dhritarashtr aur unke beton ne panDvon ki mrityu par baDa shok manaya. ve ganga kinare ge aur panDvon tatha kunti ko jalanjali di. phir sab milkar baDe zor zor se rote aur vilap karte hue ghar laute. parantu darshanik vidur ne shok ko man hi mein dava liya. adhik shok pradarshan na kiya. iske alava vidur ko ye bhi pakka vishvas tha ki panDav laakh ke bhavan se bachkar nikal ge honge. pitamah bheeshm to mano shok ke sagar hi mein the, par unko vidur ne dhiraj bandhaya aur panDvon ke bachav ke liye kiye ge apne sare prbandh ka haal batakar unhen chintamukt kar diya.
laakh ke ghar ko jalta hua chhoDkar panchon bhai mata kunti ke saath bach nikle aur jangal mein pahunch ge. jangal pahunchne par bhimasen ne dekha ki ratbhar jage hone tatha chinta aur bhay se piDit hone ke karan charon bhai bahut thake hue hain. mata kunti ki dasha to baDi hi dayniy thi. bechari thakkar choor ho gai thi. so mahabali bheem ne mata ko uthakar apne kandhe par baitha liya aur nakul evan sahdev ko kamar par le liya. yudhishthir aur arjun ko donon hathon se pakaD liya aur wo us jangli raste mein unmatt hathi ke saman jhaaD jhankhaD aur peD paudhon ko idhar udhar hatata va raundta hua tezi se chalne laga. jab ve sab ganga ke kinare pahunche, to vahan vidur ki bheji hui ek naav mili. yudhishthir ne mallah se sanketik parashn karke jaanch liya ki wo mitr hai. ve log agle din shaam hone tak chalte hi rahe, taki kisi surakshit sthaan par pahunch jayen.
suraj Doob gaya aur raat ho chali thi. charon taraf andhera chha gaya. kunti aur panDav ek to thakavat ke mare choor ho rahe the, uupar se pyaas aur neend bhi unhen satane lagi chakkar sa aane laga. ek pag bhi aage baDhna asambhav ho gaya. bheem ke sivaye aur sab bhai vahin zamin par lagti theen. baith ge. kunti se to baitha bhi nahin gaya. wo dinbhav se boli—“main to pyaas se mari ja rahi hoon. ab mujhse bilkul chala nahin jata. dhritarashtr ke bete chahen to bhale hi mujhe yahan se utha le jayen, main to yahin paDi rahungi. ye kahkar kunti vahin zamin par girkar behosh ho gai.
mata aur bhaiyon ka ye haal dekhkar kshobh ke mare bhimasen ka hriday dagdh ho utha. wo us bhayanak jangal mein bedhaDak ghus gaya aur idhar udhar ghoom ghamkar usne ek jalashay ka pata laga hi liya. usne pani lakar mata va bhaiyon ki pyaas bujhai. pani pikar charon bhai aur mata kunti aise soe ki unhen apni sudh budh tak na rahi. akela bhimasen man hi man kuch sochta hua chintit bhaav se baitha raha. panchon bhai mata kunti ko liye anek vighn badhaon ka samna karte aur baDi musibten jhelte hue us jangli ho jate. raste mein aage baDhte hi chale ge. ve kabhi mata ko uthakar tez chalte, kabhi thake mande baith jate. kabhi ek dusre se hoD lagakar rasta paar karte. ve brahman brahmchariyon ka vesh dharkar ekchakra nagri mein jakar ek brahman ke ghar mein rahne lage.
mata kunti ke saath panchon panDav ekchakra nagri mein bhiksha mangakar apni guzar karke din bitane lage. bhiksha ke liye jab panchon bhai nikal jate, to kunti ka ji baDa bechain ho uthta tha. wo baDi chinta se unki baat johti rahti. unke lautne mein zara bhi der ho jati to kunti ke man mein tarah tarah ki ashankayen uthne lagti theen.
panchon bhai bhiksha mein jitna bhojan late, kunti uske do hisse kar deti. ek hissa bhimasen ko de deti aur baki aadhe mein se paanch hisse karke charon bete aur khud kha leti thi. tispar bhi bhimasen ki bhookh nahin mitti thi. hamesha hi bhukha rahne ke karan wo din par din dubla hone laga. bhimasen ka ye haal dekhkar kunti aur yudhishthir baDe chintit rahne lage. thoDe se bhojan se pet na bharta tha, so bhimasen ne ek kumhar se dosti kar li. usne mitti aadi khodne mein madad karke usko khush kar diya. kumhar bheem se baDa khush hua aur ek baDi bhari hanDi banakar usko di. bheem usi hanDi ko lekar bhiksha ke liye nikalne laga. uska vishal sharir aur uski wo vilakshan hanDi dekhkar bachche to hanste hanste lotpot ho jate.
ek din charon bhai bhiksha ke liye ge. akela bhimasen hi mata kunti ke saath ghar par raha. itne mein brahman ke ghar ke bhitar se bilakh bilakhkar rone ki avaz aai. andar jakar dekha ki brahman aur uski patni ankhon mein ansu bhare siskiyan lete hue ek dusre baten kar rahe hain.
brahman baDe dukhi hriday se apni patni se kah raha tha—“kitni hi baar mainne tumhein samjhaya ki is andher nagri ko chhoDkar kahin aur chale jayen, par tum nahin manin yahi hath karti rahin ki ye mere baap dada ka gaanv hai, yahin rahungi. bolo, ab kya kahti ho? apni beti ki bhi bali kaise chaDha doon aur putr ko kaise kaal kavlit hone doon? yadi main sharir tyagta hoon, to phir in anath bachchon ka bharan poshan kaun karega? haay! main ab kya karun? aur kuch karne se to achchha upaay ye hai ki sabhi ek saath maut ko gale laga len. yahi achchha hoga. ” kahte kahte brahman sisak sisakkar ro paDa.
brahman ki patni roti roti boli—“prannath! mujhe marne ka koi dukh nahin hai meri mrityu ke baad aap chahen to dusri patni la sakte hain. ab mujhe prasannatapurvak aagya den, taki main rakshas ka bhojan banun. ”
patni ki ye vythabhri baten sunkar brahman se na raha gaya. wo bola—“priye! mujhse baDa duratma aur papi kaun hoga, jo tumhein rakshas ki bali chaDha de aur khud jivit rahe?”
mata pita ko is tarah baten karte dekh brahman ki beti se na raha gaya. usne karun svar mein kaha—“pitaji, achchha to ye hai ki rakshas ke paas aap mujhe bhej den. sabko is tarah rote dekhkar brahman ka nanha sa balak paas mein paDi hui sukhi lakDi haath mein lekar ghumata hua bola—“us rakshas ko to main hi is lakDi se is tarah zor se maar Dalunga. ”
kunti khaDi khaDi ye sab dekh rahi thi. apni baat kahne ka usne theek mauka dekha. wo boli—“he brahman, kya aap kripa karke mujhe bata sakte hain ki aap logon ke is asamay dukh ka karan kya hai?”
brahman ne kaha—“devi! suniye, is nagri ke samip ek gufa hai, jismen bak namak ek baDa atyachari rakshas rahta hai. pichhle terah varshon se is nagri ke logon par wo baDe zulm Dha raha hai. is desh ka raja, jo vetrkiy naam ke mahl mein rahta hai, itna nikamma hai ki praja ko rakshas ke atyachar se bacha nahin raha hai. isse ghabrakar nagar ke logon ne milkar usse baDi anunay vinay ki ki koi na koi niyam bana le. bakasur ne logon ki ye baat maan li aur tab se is samjhaute ke anusar ye niyam bana hua hai ki log bari bari se ek ek adami aur khane ki chizen har saptah use pahuncha diya karte hain. is saptah mein us rakshas ke khane ke liye adami aur bhojan bhejne ki hamari bari hai. ab to mainne yahi socha hai ki sabko saath lekar hi rakshas ke paas chala jaunga. aapne puchha so aapko bata diya. is kasht ko door karna to aapke bas mein bhi nahin hai. ”
brahman ki baat ka koi uttar dene se pahle kunti ne bhimasen se salah ki. usne lautkar kaha—“viprvar, aap is baat ki chinta chhoD den. mere paanch bete hain, unmen se ek aaj rakshas ke paas bhojan lekar chala jayega. ”
sunkar brahman chaunk paDa aur bola—“ap bhi kaisi baat kahti hain! aap hamari atithi hain. hamare ghar mein ashray liye hue hain. aapke bete ko maut ke munh mein main bhejun, ye kahan ka nyaay hai? mujhse ye nahin ho sakta. ”
kunti ko Dar tha ki yadi ye baat phail gai, to duryodhan aur unke sathiyon ko pata lag jayega ki panDav ekchakra nagri mein chhipe hue hain. isiliye usne brahman se is baat ko gupt rakhne ka agrah kiya tha. kunti ne jab bhimasen ko bataya ki use bakasur ke paas bhojan samagri lekar jana hoga, to yudhishthir kheejh uthe aur bole—“yah tum kaisa dussahas aage karne chali ho maan!”
yudhishthir ki in kaDi baton ka uttar dete hue kunti boli—“beta yudhishthir! is brahman ke ghar mein hamne kai din aram se bitaye hain. jab in par vipda paDi hai, to manushya hone ke nate hamein uska badla chukana hi chahiye. main beta bheem ki shakti aur bal se achchhi tarah parichit hoon. tum is baat ki chinta mat karo. jo hamein varnavat se yahan tak utha laya, jisne hiDimb ka vadh kiya, us bheem ke bare mein mujhe na to koi Dar hai, na chinta bheem ko bakasur ke paas bhejna hamara kartavya hai. ”
iske baad niyam ke anusar nagar ke log khane pine ki chizen gaDi mein rakhkar le aaye. bhimasen uchhalkar gaDi mein baith gaya. shahr ke log bhi baje bajate hue kuch door tak uske pichhe pichhe chale. ek nishchit sthaan par log ruk ge aur akela bheem gaDi dauData hua aage gaya.
udhar rakshas mare bhookh ke taDap raha tha. jab bahut der ho gai, to baDe krodh ke saath wo gufa ke bahar aaya. dekhta kya hai ki ek mota sa manushya baDe aram se baitha hua bhojan kar raha hai. ye dekhkar bakasur ki ankhen krodh se ekdam laal ho uthin. itne mein bhimasen ki bhi nigah us par paDi. usne hanste hue uska naam lekar pukara. bhimasen ki ye Dhithai dekhkar rakshas ghusse mein bhar gaya aur tezi se bhimasen par jhapta. bhimasen ne bakasur ko apni or aate dekha, to usne uski taraf peeth pher li aur kuch bhi parvah na karke khane mein hi laga raha. khali hathon kaam na bante dekhkar rakshas ne ek baDa sa peD jaD se ukhaaD liya aur use bhimasen par de mara, parantu bhimasen ne bayen haath par use rok liya. donon mein bhayanak muthbheD ho gai. bhimasen ne bakasur ko thokren markar gira diya aur kaha—“dusht rakshas! jara vishram to karne de. ”
thoDi der sustakar bheem ne phir kaha—“achchha! ab utho!” bakasur uthkar bheem ke saath laDne laga. bhimasen ne usko thokren lagakar phir gira diya. is tarah baar baar pachhaD khane par bhi rakshas uthkar bhiD jata tha. akhir bheem ne use munh ke bal gira diya aur uski peeth par ghutnon ki maar dekar uski reeDh toD Dali. rakshas piDa ke mare cheekh utha aur uske praan pakheru uD ge. bhimasen uski laash ko ghasit laya aur use nagar ke phatak par jakar patak diya. phir usne ghar aakar maan ko sara haal bataya.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।