प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
श्रीकृष्ण उपप्लव्य लौट आए और हस्तिनापुर की चर्चा का हाल पांडवों को सुनाया। युधिष्ठिर अपने भाइयों से बोले—“भैया! अब सेना सुसज्जित करो और व्यूह रचना सुचारु रूप से कर लो।”
पांडवों की विशाल सेना को सात हिस्सों में बाँट दिया गया। द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्न, शिखंडी, सात्यकि, चेकितान, भीमसेन आदि सात महारथी इन सात दलों के नायक बने। अब प्रश्न उठा कि सेनापति किसे बनाया जाए? सबकी राय ली गई। अंत में युधिष्ठिर ने कहा—“सबने जिन-जिन वीरों के नाम लिए हैं, वे सभी सेनापति बनने के योग्य हैं। किंतु अर्जुन की राय मुझे हर दृष्टि से ठीक प्रतीत होती है। मैं उसी का समर्थन करता हूँ। धृष्टद्युम्न को ही सारी सेना का नायक बनाया जाए।”
वीर कुमार धृष्टद्युम्न को पांडवों की सेना का नायक बनाया गया और उसका विधिवत् अभिषेक किया गया। अपने कोलाहल से दिशाओं को गुँजाती हुई पांडवों की सेना मैदान में आ पहुँची।
उधर कौरवों की सेना के नायक थे भीष्म पितामह। भीष्म ने कहा—“युद्ध का संचालन करके अपना ऋण अवश्य चुका दूँगा। लड़ाई की घोषणा करते समय मेरी सम्मति किसी ने नहीं ली थी। इसी कारण मैंने निश्चय कर लिया था कि जान-बूझकर स्वयं आगे होकर पांडु पुत्रों का वध मैं नहीं करूँगा। कर्ण, तुम लोगों का बहुत ही प्यारा है। शुरू से ही वह मेरा तथा मेरी सम्मतियों का विरोध करता आया है। अतः अच्छा हो कि अगर वह सेनापति बन जाए। इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी।”
कर्ण का उद्दंड व्यवहार भीष्म को सदा से ही बहुत खटकता रहता था। कर्ण ने भी हठ कर लिया था कि जब तक भीष्म जीवित रहेंगे, तब तक वह युद्ध भूमि में प्रवेश नहीं करेगा। भीष्म के मारे जाने के बाद ही वह लड़ाई में भाग लेगा और केवल अर्जुन को ही मारेगा। दुर्योधन ने सब सोच-समझकर पितामह भीष्म की शर्त मान ली और उन्हीं को सेनापति नियुक्त किया। फलतः कर्ण तब तक के लिए युद्ध से विरत रहा।
पितामह के नायकत्व में कौरव-सेना समुद्र की भाँति लहरें मारती हुई कुरुक्षेत्र की ओर प्रवाहित हुई।
इधर युद्ध की तैयारियाँ हो रही थीं और उधर एक रोज़ बलराम पांडवों की छावनी में एकाएक जा पहुँचे। बलराम जी ने अपने बड़े-बूढ़े विराटराज और द्रुपदराज को विधिवत् प्रणाम किया और धर्मराज के पास बैठ गए। वह बोले—“कितनी ही बार मैंने कृष्ण को कहा था कि हमारे लिए तो पांडव और कौरव दोनों ही एक समान हैं। इसमें हमें बीच में पड़ने की आवश्यकता नहीं है, पर कृष्ण ने मेरी बात नहीं मानी। अर्जुन के प्रति उसका इतना स्नेह है कि उसने तुम्हारे पक्ष में रहकर युद्ध करना भी स्वीकार कर लिया। जिस तरफ़ कृष्ण हो, उसके विपक्ष में मैं भला कैसे जाऊँ? भीम और दुर्योधन दोनों ने ही मुझसे गदा-युद्ध सीखा है। दोनों ही मेरे शिष्य हैं। दोनों पर मेरा एक जैसा प्यार है। इन दोनों कुरुवंशियों को यों आपस में लड़ते-मरते देखना मुझसे सहन नहीं होता है। लड़ो तुम लोग, परंतु यह सब देखने के लिए मैं यहाँ नहीं रह सकता हूँ। मुझे अब संसार से विराग हो गया है। अतः मैं जा रहा हूँ।”
युद्ध के समय सारे भारतवर्ष में दो ही राजा युद्ध में सम्मिलित नहीं हुए और तटस्थ रहे—एक बलराम और दूसरे भोजकट के राजा रुक्मी। रुक्मी की छोटी बहन रुक्मिणी श्रीकृष्ण की पत्नी थी।
कुरुक्षेत्र में होने वाले युद्ध के समाचार सुनकर रुक्मी एक अक्षौहिणी सेना लेकर युद्ध में सम्मिलित होने को गया। उसने सोचा कि यह अवसर वासुदेव की मित्रता प्राप्त कर लेने के लिए ठीक होगा। इसलिए वह पांडवों के पास पहुँचा और अर्जुन से बोला—“पांडु-पुत्र! आपकी सेना से शत्रु-सेना कुछ अधिक मालूम होती है। इसी कारण मैं आपकी सहायता करने आया हूँ।”
यह सुनकर अर्जुन हँसते हुए रुक्मी से बोला—“राजन्! आप बिना शर्त के सहायता करना चाहते हैं, तो आपका स्वागत है। नहीं तो आपकी जैसी इच्छा।”
यह सुनकर रुक्मी बड़ा क्रुद्ध हुआ और अपनी सेना लेकर दुर्योधन के पास चला गया। रुक्मी ने दुर्योधन से कहा—“पांडव मेरी मदद नहीं चाहते हैं। इस कारण मैं आपकी सहायता हेतु आया हूँ।”
पांडवों ने जिसकी सहायता स्वीकार नहीं की, हमें उसकी सहायता स्वीकार करने की ज़रूरत नहीं है।” यह कहकर दुर्योधन ने भी रुक्मी की सहायता ठुकरा दी। बेचारा रुक्मी दोनों तरफ़ से अपमानित होकर भोजकट वापस लौट गया। रुक्मी कर्तव्य से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के उद्देश्य से कुरुक्षेत्र गया और अपमानित हुआ।
कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों तरफ़ की सेनाएँ लड़ने को तैयार खड़ी थीं। उन दिनों की रीति के अनुसार दोनों पक्ष के वीरों ने युद्ध-नीति पर चलने की प्रतिज्ञाएँ लीं।
कौरवों की सेना की व्यूह रचना देखकर युधिष्ठिर ने अर्जुन को आज्ञा दी—“एक जगह सब वीरों को इकट्ठे रहकर लड़ना होगा। अतः सेना को सूची-मुख (सूई की नोंक के समान) व्यूह में सज्जित करो।”
इस प्रकार दोनों पक्षों की सेनाओं की व्यूह-रचना हो गई। अर्जुन ने युद्ध के लिए तैयार हुए वीरों को देखा, तो उसके मन में शंका हुई कि हम यह क्या करने जा रहे हैं। उसने अपनी यह शंका श्रीकृष्ण पर प्रकट की। तब अर्जुन के इस भ्रम को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में जिस कर्मयोग का उपदेश दिया, वह तो विश्वविख्यात है।
सब लोग इसी की राह देख रहे थे कि कब युद्ध शुरू हो, पर एकाएक पांडव-सेना के बीच में हलचल मच गई। देखते क्या हैं कि युधिष्ठिर ने अचानक अपना कवच और धनुष-बाण उतारकर रथ पर रख दिया है और रथ से उतरकर हाथ जोड़े कौरव सेना की हथियारबंद पंक्तियों को चीरते हुए भीष्म की ओर पैदल जा रहे हैं। बिना सूचना दिए उनको इस प्रकार जाते देखकर दोनों ही पक्षवाले अचंभे में पड़ गए।
अर्जुन तुरंत रथ से कूद पड़ा और युधिष्ठिर के पीछे कौरव-सेना में घुस गया। दूसरे, पांडव और श्रीकृष्ण भी उनके साथ ही हो लिए।
इतने में श्रीकृष्ण बोले—“अर्जुन, मैं समझ गया हूँ कि महाराज युधिष्ठिर की इच्छा क्या है। बिना बड़ों की आज्ञा लिए युद्ध करना अनुचित माना जाता है। धर्मराज का उद्देश्य अच्छा ही है।”
शत्रु-सेना के हथियारबंद वीरों की क़तार को चीरते हुए युधिष्ठिर सीधे पितामह भीष्म के पास पहुँचे और झुककर उनके चरण छुए। फिर बोले—“पितामह! हमने आपके साथ लड़ने का दुःसाहस कर ही लिया। कृपया हमें युद्ध की अनुमति दीजिए और आशीर्वाद भी कि हम युद्ध में विजय प्राप्त करें।”
भीष्म बोले—“बेटा युधिष्ठिर, मुझे तुमसे यही आशा थी। मैं स्वतंत्र नहीं हूँ। विवश होकर मुझे तुम्हारे विपक्ष में रहना पड़ रहा है। फिर भी मेरी यही कामना है कि रण में विजय तुम्हारी हो।”
भीष्म की आज्ञा और आशीर्वाद प्राप्त कर लेने के बाद युधिष्ठिर आचार्य द्रोण के पास गए और परिक्रमा करके उनको दंडवत् किया। आचार्य ने आशीर्वाद देते हुए कहा—“मैं भी कौरवों के अधीन हूँ। उनका साथ देने को विवश हूँ। फिर भी मेरी यही कामना है कि जीत तुम्हारी ही हो।” आचार्य द्रोण से आशीष लेकर धर्मराज ने आचार्य कृप एवं मद्रराज शल्य के पास जाकर उनके भी आशीर्वाद प्राप्त किए और सेना में लौट आए।
युद्ध शुरू हुआ, तो पहले बड़े योद्धाओं में द्वंद्व होने लगा। बराबर की ताक़त वाले एक ही जैसे हथियार लेकर दो-दो की जोड़ी में लड़ने लगे। अर्जुन के साथ भीष्म, सात्यकि के साथ कृतवर्मा और अभिमन्यु बृहत्पाल के साथ भिड़ गए। भीमसेन दुर्योधन से जा भिड़ा। युधिष्ठिर शल्य के साथ लड़ने लगे। धृष्टद्युम्न ने आचार्य द्रोण पर सारी शक्ति लगाकर हमला बोल दिया और इसी प्रकार प्रत्येक वीर युद्ध-धर्म का पालन करता हुआ द्वंद्व करने लगा।
भीष्म के नेतृत्व में कौरव-वीरों ने दस दिन तक युद्ध किया। दस दिन के बाद भीष्म आहत हुए और द्रोणाचार्य सेनापति नियुक्त किए गए। द्रोणाचार्य भी जब खेत रहे, तो कर्ण को सेनापतित्व ग्रहण करना पड़ा। सत्रहवें दिन की लड़ाई में कर्ण का भी स्वर्गवास हो गया। इसके बाद शल्य ने कौरवों का सेनापति बनकर सेना का संचालन किया। इस प्रकार महाभारत का युद्ध कुल अट्ठारह दिन चला।
shrikrishn upaplavya laut aaye aur hastinapur ki charcha ka haal panDvon ko sunaya. yudhishthir apne bhaiyon se bole—“bhaiya! ab sena susajjit karo aur vyooh rachna sucharu roop se kar lo. ”
panDvon ki vishal sena ko saat hisson mein baant diya gaya. drupad, virat, dhrishtadyumn, shikhanDi, satyaki, chekitan, bhimasen aadi saat maharathi in saat dalon ke nayak bane. ab parashn utha ki senapati kise banaya jaye? sabki raay li gai. ant mein yudhishthir ne kaha—“sabne jin jin viron ke naam liye hain, ve sabhi senapati banne ke yogya hain. kintu arjun ki raay mujhe har drishti se theek pratit hoti hai. main usi ka samarthan karta hoon. dhrishtadyumn ko hi sari sena ka nayak banaya jaye. ”
veer kumar dhrishtadyumn ko panDvon ki sena ka nayak banaya gaya aur uska vidhivat abhishek kiya gaya. apne kolahal se dishaon ko gunjati hui panDvon ki sena maidan mein aa pahunchi.
udhar kaurvon ki sena ke nayak the bheeshm pitamah. bheeshm ne kaha—“yuddh ka sanchalan karke apna rin avashya chuka dunga. laDai ki ghoshna karte samay meri sammati kisi ne nahin li thi. isi karan mainne nishchay kar liya tha ki jaan bujhkar svayan aage hokar panDu putron ka vadh main nahin karunga. karn, tum logon ka bahut hi pyara hai. shuru se hi wo mera tatha meri sammatiyon ka virodh karta aaya hai. atः achchha ho ki agar wo senapati ban jaye. ismen mujhe koi apatti nahin hogi. ”
karn ka uddanD vyvahar bheeshm ko sada se hi bahut khatakta rahta tha. karn ne bhi hath kar liya tha ki jab tak bheeshm jivit rahenge, tab tak wo yuddh bhumi mein pravesh nahin karega. bheeshm ke mare jane ke baad hi wo laDai mein bhaag lega aur keval arjun ko hi marega. duryodhan ne sab soch samajhkar pitamah bheeshm ki shart maan li aur unhin ko senapati niyukt kiya. phalatः karn tab tak ke liye yuddh se virat raha.
pitamah ke nayakatv mein kaurav sena samudr ki bhanti lahren marti hui kurukshetr ki or prvahit hui.
idhar yuddh ki taiyariyan ho rahi theen aur udhar ek roz balram panDvon ki chhavani mein ekayek ja pahunche. balram ji ne apne baDe buDhe viratraj aur drupadraj ko vidhivat prnaam kiya aur dharmaraj ke paas baith ge. wo bole—“kitni hi baar mainne krishn ko kaha tha ki hamare liye to panDav aur kaurav donon hi ek saman hain. ismen hamein beech mein paDne ki avashyakta nahin hai, par krishn ne meri baat nahin mani. arjun ke prati uska itna sneh hai ki usne tumhare paksh mein rahkar yuddh karna bhi svikar kar liya. jis taraf krishn ho, uske vipaksh mein main bhala kaise jaun? bheem aur duryodhan donon ne hi mujhse gada yuddh sikha hai. donon hi mere shishya hain. donon par mera ek jaisa pyaar hai. in donon kuruvanshiyon ko yon aapas mein laDte marte dekhana mujhse sahn nahin hota hai. laDo tum log, parantu ye sab dekhne ke liye main yahan nahin rah sakta hoon. mujhe ab sansar se virag ho gaya hai. atः main ja raha hoon. ”
yuddh ke samay sare bharatvarsh mein do hi raja yuddh mein sammilit nahin hue aur tatasth rahe—ek balram aur dusre bhojakat ke raja rukmi. rukmi ki chhoti bahan rukmini shrikrishn ki patni thi.
kurukshetr mein honevale yuddh ke samachar sunkar rukmi ek akshauhini sena lekar yuddh mein sammilit hone ko gaya. usne socha ki ye avsar vasudev ki mitrata praapt kar lene ke liye theek hoga. isliye wo panDvon ke paas pahuncha aur arjun se bola—“panDu putr! apaki sena se shatru sena kuch adhik malum hoti hai. isi karan main apaki sahayata karne aaya hoon. ”
ye sunkar arjun hanste hue rukmi se bola—“rajan! aap bina shart ke sahayata karna chahte hain, to aapka svagat hai. nahin to apaki jaisi ichchha. ”
ye sunkar rukmi baDa kruddh hua aur apni sena lekar duryodhan ke paas chala gaya. rukmi ne duryodhan se kaha—“panDav meri madad nahin chahte hain. is karan main apaki sahayata hetu aaya hoon. ”
panDvon ne jiski sahayata svikar nahin ki, hamein uski sahayata svikar karne ki zarurat nahin hai. ” ye kahkar duryodhan ne bhi rukmi ki sahayata thukra di. bechara rukmi donon taraf se apmanit hokar bhojakat vapas laut gaya. rukmi kartavya se prerit hokar nahin, balki apni pratishtha baDhane ke uddeshya se kurukshetr gaya aur apmanit hua.
kurukshetr ke maidan mein donon taraf ki senayen laDne ko taiyar khaDi theen. un dinon ki riti ke anusar donon paksh ke viron ne yuddh niti par chalne ki prtigyayen leen.
kaurvon ki sena ki vyooh rachna dekhkar yudhishthir ne arjun ko aagya di—“ek jagah sab viron ko ikatthe rahkar laDna hoga. atः sena ko suchi mukh (sui ki nonk ke saman) vyooh mein sajjit karo. ”
is prakar donon pakshon ki senaon ki vyooh rachna ho gai. arjun ne yuddh ke liye taiyar hue viron ko dekha, to uske man mein shanka hui ki hum ye kya karne ja rahe hain. usne apni ye shanka shrikrishn par prakat ki. tab arjun ke is bhram ko door karne ke liye shrikrishn ne kurukshetr mein jis karmayog ka updesh diya, wo to vishvvikhyat hai.
sab log isi ki raah dekh rahe the ki kab yuddh shuru ho, par ekayek panDav sena ke beech mein halchal mach gai. dekhte kya hain ki yudhishthir ne achanak apna kavach aur dhanush baan utarkar rath par rakh diya hai aur rath se utarkar haath joDe kaurav sena ki hathiyarband panktiyon ko chirte hue bheeshm ki or paidal ja rahe hain. bina suchana diye unko is prakar jate dekhkar donon hi pakshvale achambhe mein paD ge.
arjun turant rath se kood paDa aur yudhishthir ke pichhe kaurav sena mein ghus gaya. dusre, panDav aur shrikrishn bhi unke saath hi ho liye.
itne mein shrikrishn bole—“arjun, main samajh gaya hoon ki maharaj yudhishthir ki ichchha kya hai. bina baDon ki aagya liye yuddh karna anuchit mana jata hai. dharmaraj ka uddeshya achchha hi hai. ”
shatru sena ke hathiyarband viron ki katar ko chirte hue yudhishthir sidhe pitamah bheeshm ke paas pahunche aur jhukkar unke charan chhue. phir bole—“pitamah! hamne aapke saath laDne ka duःsahas kar hi liya. kripaya hamein yuddh ki anumti dijiye aur ashirvad bhi ki hum yuddh mein vijay praapt karen. ”
bheeshm bole—“beta yudhishthir, mujhe tumse yahi aasha thi. main svtantr nahin hoon. vivash hokar mujhe tumhare vipaksh mein rahna paD raha hai. phir bhi meri yahi kamna hai ki ran mein vijay tumhari ho. ”
bheeshm ki aagya aur ashirvad praapt kar lene ke baad yudhishthir acharya dron ke paas ge aur parikrama karke unko danDvat kiya. acharya ne ashirvad dete hue kaha—“main bhi kaurvon ke adhin hoon. unka saath dene ko vivash hoon. phir bhi meri yahi kamna hai ki jeet tumhari hi ho. ” acharya dron se ashish lekar dharmaraj ne acharya krip evan madrraj shalya ke paas jakar unke bhi ashirvad praapt kiye aur sena mein laut aaye.
yuddh shuru hua, to pahle baDe yoddhaon mein dvandv hone laga. barabar ki takatvale ek hi jaise hathiyar lekar do do ki joDi mein laDne lage. arjun ke saath bheeshm, satyaki ke saath kritvarma aur abhimanyu brihatpal ke saath bhiD ge. bhimasen duryodhan se ja bhiDa. yudhishthir shalya ke saath laDne lage. dhrishtadyumn ne acharya dron par sari shakti lagakar hamla bol diya aur isi prakar pratyek veer yuddh dharm ka palan karta hua dvandv karne laga.
bheeshm ke netritv mein kaurav viron ne das din tak yuddh kiya. das din ke baad bheeshm aahat hue aur dronacharya senapati niyukt kiye ge. dronacharya bhi jab khet rahe, to karn ko senaptitv grhan karna paDa. satrahven din ki laDai mein karn ka bhi svargavas ho gaya. iske baad shalya ne kaurvon ka senapati bankar sena ka sanchalan kiya. is prakar mahabharat ka yuddh kul attharah din chala.
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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