Font by Mehr Nastaliq Web

बाल महाभारत : पांडवों और कौरवों के सेनापति

baal mahabharat panDvon aur kaurvon ke senapati

चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

बाल महाभारत : पांडवों और कौरवों के सेनापति

चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

और अधिकचक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

    रोचक तथ्य

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।

    श्रीकृष्ण उपप्लव्य लौट आए और हस्तिनापुर की चर्चा का हाल पांडवों को सुनाया। युधिष्ठिर अपने भाइयों से बोले—“भैया! अब सेना सुसज्जित करो और व्यूह रचना सुचारु रूप से कर लो।”

    पांडवों की विशाल सेना को सात हिस्सों में बाँट दिया गया। द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्न, शिखंडी, सात्यकि, चेकितान, भीमसेन आदि सात महारथी इन सात दलों के नायक बने। अब प्रश्न उठा कि सेनापति किसे बनाया जाए? सबकी राय ली गई। अंत में युधिष्ठिर ने कहा—“सबने जिन-जिन वीरों के नाम लिए हैं, वे सभी सेनापति बनने के योग्य हैं। किंतु अर्जुन की राय मुझे हर दृष्टि से ठीक प्रतीत होती है। मैं उसी का समर्थन करता हूँ। धृष्टद्युम्न को ही सारी सेना का नायक बनाया जाए।”

    वीर कुमार धृष्टद्युम्न को पांडवों की सेना का नायक बनाया गया और उसका विधिवत् अभिषेक किया गया। अपने कोलाहल से दिशाओं को गुँजाती हुई पांडवों की सेना मैदान में पहुँची।

    उधर कौरवों की सेना के नायक थे भीष्म पितामह। भीष्म ने कहा—“युद्ध का संचालन करके अपना ऋण अवश्य चुका दूँगा। लड़ाई की घोषणा करते समय मेरी सम्मति किसी ने नहीं ली थी। इसी कारण मैंने निश्चय कर लिया था कि जान-बूझकर स्वयं आगे होकर पांडु पुत्रों का वध मैं नहीं करूँगा। कर्ण, तुम लोगों का बहुत ही प्यारा है। शुरू से ही वह मेरा तथा मेरी सम्मतियों का विरोध करता आया है। अतः अच्छा हो कि अगर वह सेनापति बन जाए। इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी।”

    कर्ण का उद्दंड व्यवहार भीष्म को सदा से ही बहुत खटकता रहता था। कर्ण ने भी हठ कर लिया था कि जब तक भीष्म जीवित रहेंगे, तब तक वह युद्ध भूमि में प्रवेश नहीं करेगा। भीष्म के मारे जाने के बाद ही वह लड़ाई में भाग लेगा और केवल अर्जुन को ही मारेगा। दुर्योधन ने सब सोच-समझकर पितामह भीष्म की शर्त मान ली और उन्हीं को सेनापति नियुक्त किया। फलतः कर्ण तब तक के लिए युद्ध से विरत रहा।

    पितामह के नायकत्व में कौरव-सेना समुद्र की भाँति लहरें मारती हुई कुरुक्षेत्र की ओर प्रवाहित हुई।

    इधर युद्ध की तैयारियाँ हो रही थीं और उधर एक रोज़ बलराम पांडवों की छावनी में एकाएक जा पहुँचे। बलराम जी ने अपने बड़े-बूढ़े विराटराज और द्रुपदराज को विधिवत् प्रणाम किया और धर्मराज के पास बैठ गए। वह बोले—“कितनी ही बार मैंने कृष्ण को कहा था कि हमारे लिए तो पांडव और कौरव दोनों ही एक समान हैं। इसमें हमें बीच में पड़ने की आवश्यकता नहीं है, पर कृष्ण ने मेरी बात नहीं मानी। अर्जुन के प्रति उसका इतना स्नेह है कि उसने तुम्हारे पक्ष में रहकर युद्ध करना भी स्वीकार कर लिया। जिस तरफ़ कृष्ण हो, उसके विपक्ष में मैं भला कैसे जाऊँ? भीम और दुर्योधन दोनों ने ही मुझसे गदा-युद्ध सीखा है। दोनों ही मेरे शिष्य हैं। दोनों पर मेरा एक जैसा प्यार है। इन दोनों कुरुवंशियों को यों आपस में लड़ते-मरते देखना मुझसे सहन नहीं होता है। लड़ो तुम लोग, परंतु यह सब देखने के लिए मैं यहाँ नहीं रह सकता हूँ। मुझे अब संसार से विराग हो गया है। अतः मैं जा रहा हूँ।”

    युद्ध के समय सारे भारतवर्ष में दो ही राजा युद्ध में सम्मिलित नहीं हुए और तटस्थ रहे—एक बलराम और दूसरे भोजकट के राजा रुक्मी। रुक्मी की छोटी बहन रुक्मिणी श्रीकृष्ण की पत्नी थी।

    कुरुक्षेत्र में होने वाले युद्ध के समाचार सुनकर रुक्मी एक अक्षौहिणी सेना लेकर युद्ध में सम्मिलित होने को गया। उसने सोचा कि यह अवसर वासुदेव की मित्रता प्राप्त कर लेने के लिए ठीक होगा। इसलिए वह पांडवों के पास पहुँचा और अर्जुन से बोला—“पांडु-पुत्र! आपकी सेना से शत्रु-सेना कुछ अधिक मालूम होती है। इसी कारण मैं आपकी सहायता करने आया हूँ।”

    यह सुनकर अर्जुन हँसते हुए रुक्मी से बोला—“राजन्! आप बिना शर्त के सहायता करना चाहते हैं, तो आपका स्वागत है। नहीं तो आपकी जैसी इच्छा।”

    यह सुनकर रुक्मी बड़ा क्रुद्ध हुआ और अपनी सेना लेकर दुर्योधन के पास चला गया। रुक्मी ने दुर्योधन से कहा—“पांडव मेरी मदद नहीं चाहते हैं। इस कारण मैं आपकी सहायता हेतु आया हूँ।”

    पांडवों ने जिसकी सहायता स्वीकार नहीं की, हमें उसकी सहायता स्वीकार करने की ज़रूरत नहीं है।” यह कहकर दुर्योधन ने भी रुक्मी की सहायता ठुकरा दी। बेचारा रुक्मी दोनों तरफ़ से अपमानित होकर भोजकट वापस लौट गया। रुक्मी कर्तव्य से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के उद्देश्य से कुरुक्षेत्र गया और अपमानित हुआ।

    कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों तरफ़ की सेनाएँ लड़ने को तैयार खड़ी थीं। उन दिनों की रीति के अनुसार दोनों पक्ष के वीरों ने युद्ध-नीति पर चलने की प्रतिज्ञाएँ लीं।

    कौरवों की सेना की व्यूह रचना देखकर युधिष्ठिर ने अर्जुन को आज्ञा दी—“एक जगह सब वीरों को इकट्ठे रहकर लड़ना होगा। अतः सेना को सूची-मुख (सूई की नोंक के समान) व्यूह में सज्जित करो।”

    इस प्रकार दोनों पक्षों की सेनाओं की व्यूह-रचना हो गई। अर्जुन ने युद्ध के लिए तैयार हुए वीरों को देखा, तो उसके मन में शंका हुई कि हम यह क्या करने जा रहे हैं। उसने अपनी यह शंका श्रीकृष्ण पर प्रकट की। तब अर्जुन के इस भ्रम को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में जिस कर्मयोग का उपदेश दिया, वह तो विश्वविख्यात है।

    सब लोग इसी की राह देख रहे थे कि कब युद्ध शुरू हो, पर एकाएक पांडव-सेना के बीच में हलचल मच गई। देखते क्या हैं कि युधिष्ठिर ने अचानक अपना कवच और धनुष-बाण उतारकर रथ पर रख दिया है और रथ से उतरकर हाथ जोड़े कौरव सेना की हथियारबंद पंक्तियों को चीरते हुए भीष्म की ओर पैदल जा रहे हैं। बिना सूचना दिए उनको इस प्रकार जाते देखकर दोनों ही पक्षवाले अचंभे में पड़ गए।

    अर्जुन तुरंत रथ से कूद पड़ा और युधिष्ठिर के पीछे कौरव-सेना में घुस गया। दूसरे, पांडव और श्रीकृष्ण भी उनके साथ ही हो लिए।

    इतने में श्रीकृष्ण बोले—“अर्जुन, मैं समझ गया हूँ कि महाराज युधिष्ठिर की इच्छा क्या है। बिना बड़ों की आज्ञा लिए युद्ध करना अनुचित माना जाता है। धर्मराज का उद्देश्य अच्छा ही है।”

    शत्रु-सेना के हथियारबंद वीरों की क़तार को चीरते हुए युधिष्ठिर सीधे पितामह भीष्म के पास पहुँचे और झुककर उनके चरण छुए। फिर बोले—“पितामह! हमने आपके साथ लड़ने का दुःसाहस कर ही लिया। कृपया हमें युद्ध की अनुमति दीजिए और आशीर्वाद भी कि हम युद्ध में विजय प्राप्त करें।”

    भीष्म बोले—“बेटा युधिष्ठिर, मुझे तुमसे यही आशा थी। मैं स्वतंत्र नहीं हूँ। विवश होकर मुझे तुम्हारे विपक्ष में रहना पड़ रहा है। फिर भी मेरी यही कामना है कि रण में विजय तुम्हारी हो।”

    भीष्म की आज्ञा और आशीर्वाद प्राप्त कर लेने के बाद युधिष्ठिर आचार्य द्रोण के पास गए और परिक्रमा करके उनको दंडवत् किया। आचार्य ने आशीर्वाद देते हुए कहा—“मैं भी कौरवों के अधीन हूँ। उनका साथ देने को विवश हूँ। फिर भी मेरी यही कामना है कि जीत तुम्हारी ही हो।” आचार्य द्रोण से आशीष लेकर धर्मराज ने आचार्य कृप एवं मद्रराज शल्य के पास जाकर उनके भी आशीर्वाद प्राप्त किए और सेना में लौट आए।

    युद्ध शुरू हुआ, तो पहले बड़े योद्धाओं में द्वंद्व होने लगा। बराबर की ताक़त वाले एक ही जैसे हथियार लेकर दो-दो की जोड़ी में लड़ने लगे। अर्जुन के साथ भीष्म, सात्यकि के साथ कृतवर्मा और अभिमन्यु बृहत्पाल के साथ भिड़ गए। भीमसेन दुर्योधन से जा भिड़ा। युधिष्ठिर शल्य के साथ लड़ने लगे। धृष्टद्युम्न ने आचार्य द्रोण पर सारी शक्ति लगाकर हमला बोल दिया और इसी प्रकार प्रत्येक वीर युद्ध-धर्म का पालन करता हुआ द्वंद्व करने लगा।

    भीष्म के नेतृत्व में कौरव-वीरों ने दस दिन तक युद्ध किया। दस दिन के बाद भीष्म आहत हुए और द्रोणाचार्य सेनापति नियुक्त किए गए। द्रोणाचार्य भी जब खेत रहे, तो कर्ण को सेनापतित्व ग्रहण करना पड़ा। सत्रहवें दिन की लड़ाई में कर्ण का भी स्वर्गवास हो गया। इसके बाद शल्य ने कौरवों का सेनापति बनकर सेना का संचालन किया। इस प्रकार महाभारत का युद्ध कुल अट्ठारह दिन चला।

    वीडियो
    This video is playing from YouTube

    Videos
    This video is playing from YouTube

    चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

    चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

    स्रोत :
    • पुस्तक : बाल महाभारत कथा (पृष्ठ 68)
    • रचनाकार : चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
    • प्रकाशन : एनसीईआरटी
    • संस्करण : 2022
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free