प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
पांडवों ने पहले कृपाचार्य से और बाद में द्रोणाचार्य से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा पाई। उनको जब विद्या में काफ़ी निपुणता प्राप्त हो गई, तो एक भारी समारोह किया गया, जिसमें सबने अपने कौशल का प्रदर्शन किया। सारे नगरवासी इस समारोह को देखने आए थे। तरह-तरह के खेल हुए हरेक राजकुमार यही चाहता था कि वही सबसे बढ़कर निकले। आपस में प्रतिस्पर्धा बड़े ज़ोर की थी, परंतु तीर चलाने में पांडु पुत्र अर्जुन का कोई सानी न था। अर्जुन ने धनुष-विद्या में कमाल का खेल दिखाया। उसकी अद्भुत चतुरता को देखकर सभी दर्शक और राजवंश के सभी उपस्थित लोग दंग रह गए। यह देखकर दुर्योधन का मन ईर्ष्या से जलने लगा। अभी खेल हो ही रहा था कि इतने में रंगभूमि के द्वार पर खम ठोंकते हुए एक रोबीला और तेजस्वी युवक मस्तानी चाल से आकर अर्जुन के सामने खड़ा हो गया। यह युवक और कोई नहीं, अधिरथ द्वारा पोषित कुंती पुत्र कर्ण ही था, लेकिन उसके कुंती पुत्र होने की बात किसी को मालूम न थी। रंगभूमि में आते ही उसने अर्जुन को ललकारा—“अर्जुन! जो भी करतब तुमने यहाँ दिखाए हैं, उनसे बढ़कर कौशल में दिखा सकता हूँ। क्या तुम इसके लिए तैयार हो ?
इस चुनौती को सुनकर दर्शक मंडली में बड़ी खलबली मच गई, पर ईर्ष्या की आग से जलने वाले दुर्योधन को बड़ी राहत मिली। वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने तपाक से कर्ण का स्वागत किया और उसे छाती से लगाकर बोला—“कहो कर्ण, कैसे आए? बताओ, हम तुम्हारे लिए क्या कर सकते हैं?”
कर्ण बोला—“राजन्! मैं अर्जुन से द्वंद्व युद्ध और आपसे मित्रता करना चाहता हूँ।”
कर्ण की चुनौती को सुनकर अर्जुन को बड़ा तैश आया। वह बोला—“कर्ण! सभा में जो बिना बुलाए आते हैं और जो बिना किसी के पूछे बोलने लगते हैं, वे निंदा के योग्य होते हैं।”
यह सुनकर कर्ण ने कहा—“अर्जुन, यह उत्सव केवल तुम्हारे लिए ही नहीं मनाया जा रहा है। सभी प्रजाजन इसमें भाग लेने का अधिकार रखते हैं। व्यर्थ डींगें मारने से फ़ायदा क्या? चलो, तीरों से बात कर लें!”
जब कर्ण ने अर्जुन को यों चुनौती दी, तो दर्शकों ने तालियाँ बजाईं। उनके दो दल बन गए। एक दल अर्जुन को बढ़ावा देने लगा और दूसरा कर्ण को। इसी प्रकार वहाँ इकट्ठी स्त्रियों के भी दो दल बन गए। कुंती ने कर्ण को देखते ही पहचान लिया और भय तथा लज्जा के मारे मूच्छित सी हो गई। उसकी यह हालत देखकर विदुर ने दासियों को बुलाकर उसे चेत करवाया।
इसी बीच कृपाचार्य ने उठकर कर्ण से कहा—“अज्ञात वीर! महाराज पांडु का पुत्र और कुरुवंश का वीर अर्जुन तुम्हारे साथ द्वंद्व युद्ध करने के लिए तैयार है, किंतु तुम पहले अपना परिचय तो दो! तुम कौन हो, किसके पुत्र हो, किस राजकुल को तुम विभूषित करते हो? द्वंद्व युद्ध बराबर वालों में ही होता है। कुल का परिचय पाए बग़ैर राजकुमार कभी द्वंद्व करने को तैयार नहीं होते। कृपाचार्य की यह बात सुनकर कर्ण का सिर झुक गया।
कर्ण को इस तरह देखकर दुर्योधन उठ खड़ा हुआ और बोला अगर बराबरी की बात है, तो मैं आज ही कर्ण को अंगदेश का राजा बनाता हूँ! यह कहकर दुर्योधन ने तुरंत पितामह भीष्म एवं पिता धृतराष्ट्र से अनुमति लेकर वहीं रंगभूमि में ही राज्याभिषेक की सामग्री मँगवाई और कर्ण का राज्याभिषेक करके उसे अंगदेश का राजा घोषित कर दिया।
इतने में बूढ़ा सारथी अधिरथ, जिसने कर्ण को पाला था, लाठी टेकता हुआ और भय के मारे काँपता हुआ सभा में प्रविष्ट हुआ। कर्ण, जो अभी-अभी अंगदेश का नरेश बना दिया गया था, उसको देखते ही धनुष नीचे रखकर उठ खड़ा हुआ और पिता मानकर बड़े आदर के साथ उसके आगे सिर नवाया। बूढ़े ने भी 'बेटा' कहकर उसे गले लगा लिया। यह देखकर भीम ख़ूब कहकहा मारकर हँस पड़ा और बोला—सारथी के बेटे, धनुष छोड़कर हाथ में चाबुक लो, चाबुक! वही तुम्हें शोभा देगा। तुम भला कब से अर्जुन के साथ द्वंद्व युद्ध करने के योग्य हो गए?
यह सब देखकर सभा में खलबली मच गई। इसी बीच कृपाचार्य ने उठकर कर्ण से इस समय सूरज भी डूब रहा था। इस कारण कहा—“अज्ञात वीर! महाराज पांडु का पुत्र और सभा विसर्जित हो गई। मशालों और दीपकों की रोशनी में दर्शक वृंद अपनी-अपनी पसंद के अनुसार अर्जुन, कर्ण और दुर्योधन की जय बोलते जाते थे।
इस घटना के बहुत समय बाद एक बार इंद्र बूढ़े ब्राह्मण के वेश में अंग नरेश कर्ण के पास आए और उसके जन्मजात कवच और कुंडलों की भिक्षा माँगी। इंद्र को डर था कि भावी युद्ध में कर्ण की शक्ति से अर्जुन पर विपत्ति आ सकती है। इस कारण कर्ण की ताक़त कम करने की इच्छा से ही उन्होंने उससे यह भिक्षा माँगी थी।
कर्ण को सूर्यदेव ने पहले ही सचेत कर दिया था कि उसे धोखा देने के लिए इंद्र ऐसी चाल चलने वाले हैं, परंतु कर्ण इतना दानी था कि किसी के कुछ माँगने पर वह मना कर ही नहीं सकता था। इस कारण यह जानते हुए भी कि भिखारी के वेश में इंद्र धोखा कर रहे हैं, कर्ण ने अपने जन्मजात कवच और कुंडल निकालकर भिक्षा में दे दिए।
इस अद्भुत दानवीरता को देखकर इंद्र चकित रह गए। कर्ण की प्रशंसा करते हुए बोले—“कर्ण, तुमसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जो भी वरदान चाहो, माँगो।
कर्ण ने देवराज से कहा—“आप प्रसन्न हैं, तो शत्रुओं का संहार करने वाला अपना 'शक्ति' नामक शस्त्र मुझे प्रदान करें!
बड़ी प्रसन्नता के साथ अपना वह शस्त्र कर्ण को देते हुए देवराज ने कहा—“युद्ध में तुम जिस किसी को लक्ष्य करके इसका प्रयोग करोगे, वह अवश्य मारा जाएगा, परंतु एक ही बार तुम इसका प्रयोग कर सकोगे। तुम्हारे शत्रु को मारने के बाद यह मेरे पास वापस आ जाएगा। इतना कहकर इंद्र चले गए।
एक बार कर्ण को परशुराम जी से ब्रह्मास्त्र सीखने की इच्छा हुई। इसलिए वह ब्राह्मण के वेश में परशुराम जी के पास गया और प्रार्थना की कि उसे शिष्य स्वीकार करने की कृपा करें। परशुराम जी ने उसे ब्राह्मण समझकर शिष्य बना लिया। इस प्रकार छल से कर्ण ने ब्रह्मास्त्र चलाना सीख लिया।
एक दिन परशुराम कर्ण की जाँघ पर सिर रखकर सो रहे थे। इतने में एक काला भौरा कर्ण की जाँघ के नीचे घुस गया और काटने लगा। कीड़े के काटने से कर्ण को बहुत पीड़ा हुई और जाँघ से लहू की धारा बहने लगी, पर कर्ण ने इस भय से कि कहीं गुरुदेव की नींद न खुल जाए, जाँघ को ज़रा भी हिलाया डुलाया नहीं। जब ख़ून से परशुराम की देह भीगने लगी, तो उनकी नींद खुली। उन्होंने देखा कि कर्ण की जाँघ से ख़ून बह रहा है। यह देखकर परशुराम बोले—“बेटा, सच बताओ तुम कौन हो? तब कर्ण असली बात न छिपा सका। उसने स्वीकार कर लिया कि वह ब्राह्मण नहीं, बल्कि सूत पुत्र है। यह जानकर परशुराम को बड़ा क्रोध आया। अतः उन्होंने उसी घड़ी कर्ण को शाप देते हुए कहा—“चूँकि तुमने अपने गुरु को ही धोखा दिया है, इसलिए जो विद्या तुमने मुझसे सीखी है, वह अंत समय में तुम्हारे किसी काम न आएगी। ऐन वक़्त पर तुम उसे भूल जाओगे और रणक्षेत्र में तुम्हारे रथ का पहिया पृथ्वी में धँस जाएगा।
परशुराम जी का यह शाप झूठा न हुआ। जीवनभर कर्ण को उनकी सिखाई हुई ब्रह्मास्त्र- विद्या याद रही, पर कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन से युद्ध करते समय कर्ण को वह याद न रही। दुर्योधन के घनिष्ठ मित्र कर्ण ने अंत समय तक कौरवों का साथ न छोड़ा। कुरुक्षेत्र के युद्ध में भीष्म तथा आचार्य द्रोण के बाद दुर्योधन ने कर्ण को कौरव-सेना का सेनापति बनाया था। कर्ण ने दो दिन तक अद्भुत कुशलता के साथ का संचालन किया। आख़िर जब शापवश उसके रथ का पहिया ज़मीन में धँस गया और वह धनुष-बाण रखकर ज़मीन में धँसा बाद हुआ पहिया निकालने का प्रयत्न करने लगा, तभी अर्जुन ने उस महारथी पर प्रहार किया। माता कुंती ने जब यह सुना, तो उसके दुख का पार न रहा।
panDvon ne pahle kripacharya se aur baad mein dronacharya se astra shastr ki shiksha pai. unko jab vidya mein kafi nipunta praapt ho gai, to ek bhari samaroh kiya gaya, jismen sabne apne kaushal ka pradarshan kiya. sare nagarvasi is samaroh ko dekhne aaye the. tarah tarah ke khel hue harek rajakumar yahi chahta tha ki vahi sabse baDhkar nikle. aapas mein pratispardha baDe zor ki thi, parantu teer chalane mein panDu putr arjun ka koi sani na tha. arjun ne dhanush vidya mein kamal ka khel dikhaya. uski adbhut chaturta ko dekhkar sabhi darshak aur rajvansh ke sabhi upasthit log dang rah ge. ye dekhkar duryodhan ka man iirshya se jalne laga. abhi khel ho hi raha tha ki itne mein rangbhumi ke dvaar par kham thonkte hue ek robila aur tejasvi yuvak mastani chaal se aakar arjun ke samne khaDa ho gaya. ye yuvak aur koi nahin, adhirath dvara poshit kunti putr karn hi tha, lekin uske kunti putr hone ki baat kisi ko malum na thi. rangbhumi mein aate hi usne arjun ko lalkara—“arjun! jo bhi kartab tumne yahan dikhaye hain, unse baDhkar kaushal mein dikha sakta hoon. kya tum iske liye taiyar ho ?
is chunauti ko sunkar darshak manDli mein baDi khalbali mach gai, par iirshya ki aag se jalnevale duryodhan ko baDi rahat mili. wo baDa prasann hua. usne tapak se karn ka svagat kiya aur use chhati se lagakar bola—“kaho karn, kaise aaye? batao, hum tumhare liye kya kar sakte hain?”
karn bola—“rajan! main arjun se dvandv yuddh aur aapse mitrata karna chahta hoon. ”
karn ki chunauti ko sunkar arjun ko baDa taish aaya. wo bola—“karn! sabha mein jo bina bulaye aate hain aur jo bina kisi ke puchhe bolne lagte hain, ve ninda ke yogya hote hain. ”
ye sunkar karn ne kaha—“arjun, ye utsav keval tumhare liye hi nahin manaya ja raha hai. sabhi prjajan ismen bhaag lene ka adhikar rakhte hain. vyarth Dingen marne se fayda kyaa? chalo, tiron se baat kar len!”
jab karn ne arjun ko yon chunauti di, to darshkon ne taliyan bajain. unke do dal ban ge. ek dal arjun ko baDhava dene laga aur dusra karn ko. isi prakar vahan ikatthi striyon ke bhi do dal ban ge. kunti ne karn ko dekhte hi pahchan liya aur bhay tatha lajja ke mare muchchhit si ho gai. uski ye haalat dekhkar vidur ne yogya ho ge?” dasiyon ko bulakar use chet karvaya.
isi beech kripacharya ne uthkar karn se kaha—“agyat veer! maharaj panDu ka putr aur kuruvansh ka veer arjun tumhare saath dvandv yuddh karne ke liye taiyar hai, kintu tum pahle apna
parichay to do! tum kaun ho, kiske putr ho, kis rajakul ko tum vibhushit karte ho? dvandv yuddh barabar valon mein hi hota hai. kul ka parichay pae bagair rajakumar kabhi dvandv karne ko taiyar nahin hote. kripacharya ki ye baat sunkar karn ka sir jhuk gaya.
karn ko is tarah dekhkar duryodhan uth khaDa hua aur bola agar barabari ki baat hai, to main aaj hi karn ko angdesh ka raja banata hoon! ye kahkar duryodhan ne turant pitamah bheeshm evan pita dhritarashtr se anumti lekar vahin rangbhumi mein hi rajyabhishek ki samagri mangvai aur karn ka rajyabhishek karke use angdesh ka raja ghoshit kar diya.
itne mein buDha sarthi adhirath, jisne karn ko pala tha, lathi tekta hua aur bhay ke mare kanpta hua sabha mein pravisht hua. karn, jo abhi abhi angdesh ka naresh bana diya gaya tha, usko dekhte hi dhanush niche rakhkar uth khaDa hua aur pita mankar baDe aadar ke saath uske aage sir navaya. buDhe ne bhi beta kahkar use gale laga liya. ye dekhkar bheem khoob kahakha markar hans paDa aur bola—“sarthi ke bete, dhanush chhoDkar haath mein chabuk lo, chabuk! vahi tumhein shobha dega. tum bhala kab se arjun ke saath dvandv yuddh karne ke ye sab dekhkar sabha mein khalbali mach gai. isi beech kripacharya ne uthkar karn se is samay suraj bhi Doob raha tha. is karan kaha—“agyat veer! maharaj panDu ka putr aur sabha visarjit ho gai. mashalon aur dipkon ki roshni mein darshak vrind apni apni pasand ke anusar arjun, karn aur duryodhan ki jay bolte jate the.
is ghatna ke bahut samay baad ek baar indr buDhe brahman ke vesh mein ang naresh karn ke paas aaye aur uske janmajat kavach aur kunDlon ki bhiksha mangi. indr ko Dar tha ki bhavi yuddh mein karn ki shakti se arjun par vipatti aa sakti hai. is karan karn ki takat kam karne ki ichchha se hi unhonne usse ye bhiksha mangi thi.
karn ko surydev ne pahle hi sachet kar diya tha ki use dhokha dene ke liye indr aisi chaal chalnevale hain, parantu karn itna dani tha ki kisi ke kuch mangne par wo mana kar hi nahin sakta tha. is karan ye jante hue bhi ki bhikhari ke vesh mein indr dhokha kar rahe hain, karn ne apne janmajat kavach aur kunDal nikalkar bhiksha mein de diye.
is adbhut danvirta ko dekhkar indr chakit rah ge. karn ki prshansa karte hue bole—“karn, tumse main bahut prasann hoon. tum jo bhi vardan chaho, mango.
karn ne devraj se kaha—“ap prasann hain, to shatruon ka sanhar karnevala apna shakti namak shastr mujhe pradan karen!
baDi prasannata ke saath apna wo shastr karn ko dete hue devraj ne kaha—“yuddh mein tum jis kisi ko lakshya karke iska prayog karoge, wo avashya mara jayega, parantu ek hi baar tum iska prayog kar sakoge. tumhare shatru ko marne ke baad ye mere paas vapas aa jayega. itna kahkar indr chale ge.
ek baar karn ko parshuram ji se brahmastr sikhne ki ichchha hui. isliye wo brahman ke vesh mein parshuram ji ke paas gaya aur pararthna ki ki use shishya svikar karne ki kripa karen. parshuram ji ne use brahman samajhkar shishya bana liya. is prakar chhal se karn ne brahmastr chalana seekh liya.
ek din parshuram karn ki jaangh par sir rakhkar so rahe the. itne mein ek kala bhaura karn ki jaangh ke niche ghus gaya aur katne laga. kiDe ke katne se karn ko bahut piDa hui aur jaangh se lahu ki dhara bahne lagi, par karn ne is bhay se ki kahin gurudev ki neend na khul jaye, jaangh ko jara bhi hilaya Dulaya nahin. jab khoon se parshuram ki deh bhigne lagi, to unki neend khuli. unhonne dekha ki karn ki jaangh se khoon bah raha hai. ye dekhkar parshuram bole—“beta, sach batao tum kaun ho? tab karn asli baat na chhipa saka. usne svikar kar liya ki wo brahman nahin, balki soot putr hai. ye jankar parshuram ko baDa krodh aaya. atः unhonne usi ghaDi karn ko shaap dete hue kaha—“chunki tumne apne guru ko hi dhokha diya hai, isliye jo vidya tumne mujhse sikhi hai, wo ant samay mein tumhare kisi kaam na ayegi. ain vaqt par tum use bhool jaoge aur ranakshetr mein tumhare rath ka pahiya prithvi mein dhans jayega.
parshuram ji ka ye shaap jhutha na hua. jivanbhar karn ko unki sikhai hui brahmastr vidya yaad rahi, par kurukshetr ke maidan mein arjun se yuddh karte samay karn ko wo yaad na rahi. duryodhan ke ghanishth mitr karn ne ant samay tak kaurvon ka saath na chhoDa. kurukshetr ke yuddh mein bheeshm tatha acharya dron ke baad duryodhan ne karn ko kaurav sena ka senapati banaya tha. karn ne do din tak adbhut kushalta ke saath ka sanchalan kiya. akhir jab shapvash uske rath ka pahiya zamin mein dhans gaya aur wo dhanush baan rakhkar zamin mein dhansa baad hua pahiya nikalne ka prayatn karne laga, tabhi arjun ne us maharathi par prahar kiya. mata kunti kushalta ke saath yuddh ka sanchalan kiya. akhir ne jab ye suna, to uske dukh ka paar na raha.
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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