Font by Mehr Nastaliq Web

बाल महाभारत : जरासंध

baal mahabharat jarasandh

चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

बाल महाभारत : जरासंध

चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

और अधिकचक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

    नोट

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।

    इंद्रप्रस्थ में प्रतापी पांडव न्यायपूर्वक प्रजा-पालन कर रहे थे। युधिष्ठिर के भाइयों तथा साथियों की इच्छा हुई कि अब राजसूय यज्ञ करके सम्राट-पद प्राप्त किया जाए। इस बारे में सलाह करने के लिए युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को संदेश भेजा। जब श्रीकृष्ण को मालूम हुआ कि युधिष्ठिर उनसे मिलना चाहते हैं, तो तत्काल ही वह द्वारका से चल पड़े और इंद्रप्रस्थ पहुँचे।

    युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा—“मित्रों का कहना है कि मैं राजसूय यज्ञ करके सम्राट-पद प्राप्त करूँ। परंतु राजसूय यज्ञ तो वही कर सकता है, जो सारे संसार के नरेशों का पूज्य हो और उनके द्वारा सम्मानित हो। आप ही इस विषय में मुझे सही सलाह दे सकते हैं।”

    युधिष्ठिर की बात शांति के साथ सुनकर श्रीकृष्ण बोले—“मगधदेश के राजा जरासंध ने सब राजाओं को जीतकर उन्हें अपने अधीन कर रखा है। सभी उसका लोहा मान चुके हैं और उसके नाम से डरते हैं, यहाँ तक कि शिशुपाल जैसे शक्ति-संपन्न राजा भी उसकी अधीनता स्वीकार कर चुके हैं और उसकी छत्रछाया में रहना पसंद करते हैं। अतः जरासंध के रहते हुए और कौन सम्राट-पद प्राप्त कर सकता है? जब महाराज उग्रसेन का नासमझ बेटा कंस जरासंध की बेटी से ब्याह करके उसका साथी बन गया था, तब मैंने और मेरे बंधुओं ने जरासंध के विरुद्ध युद्ध किया था। तीन बरस तक हम उसकी सेनाओं के साथ लड़ते रहे पर आख़िर हार गए। हमें मथुरा छोड़कर दूर पश्चिम द्वारका में जाकर नगर और दुर्ग बनाकर रहना पड़ा। आपके साम्राज्याधीश होने में दुर्योधन और कर्ण को आपत्ति भी हो, फिर भी जरासंध से इसकी आशा रखना बेकार है। बग़ैर युद्ध के जरासंध इस बात को नहीं मान सकता है। जरासंध ने आज तक पराजय का नाम तक नहीं जाना है। ऐसे अजेय पराक्रमी राजा जरासंध के जीते जी आप राजसूय यज्ञ नहीं कर सकेंगे। उसने जो राजे-महाराजे बंदीगृह में डाल रखे हैं, किसी-न-किसी उपाय से पहले उन्हें छुड़ाना होगा। जब ये हो जाएगा, तभी राजसूय करना आपके लिए साध्य होगा।”

    श्रीकृष्ण की ये बातें सुनकर शांति-प्रिय राजा युधिष्ठिर बोले—“आपका कहना बिलकुल सही है। इस विशाल संसार में कितने ही राजाओं के लिए जगह है। कितने ही नरेश अपने अपने राज्य का शासन करते हुए इसमें संतुष्ट रह सकते हैं। आकांक्षा वह आग है, जो कभी बुझती नहीं है। इसलिए मेरी भलाई इसी में दिखती है। कि साम्राज्याधीश बनने का विचार छोड़ दूँ और जो है उसी को लेकर संतुष्ट रहूँ।”

    युधिष्ठिर की यह विनयशीलता भीमसेन को अच्छी लगी। उसने कहा—“श्रीकृष्ण की नीति-कुशलता, मेरा शारीरिक बल और अर्जुन का शौर्य एक साथ मिल जाने पर कौन सा ऐसा काम है, जो हम नहीं कर सकते? यदि हम तीनों एक साथ चल पड़ें, तो जरासंध की शक्ति को चूर करके ही लौटेंगे। आप इस बात की शंका करें।”

    यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा—“यदि भीम और अर्जुन सहमत हों, तो हम तीनों एक साथ जाकर उस अन्यायी की जेल में पड़े हुए निर्दोष राजाओं को छुड़ा सकेंगे।”

    परंतु युधिष्ठिर को यह बात जँची। उन्होंने कहा—“मैं तो कहूँगा कि जिस कार्य में प्राणों पर बन आने की संभावना हो, उसके विचार तक को छोड़ देना ही अच्छा होगा।”

    यह सुनकर वीर अर्जुन बोल उठा—“यदि हम यशस्वी भरतवंश की संतान होकर भी कोई साहस का काम करें, तो धिक्कार है हमें और हमारे जीवन को! जिस काम को करने की हममें सामर्थ्य है, भाई युधिष्ठिर क्यों समझते हैं कि उसे हम कर सकेंगे?”

    श्रीकृष्ण अर्जुन की इन बातों से मुग्ध हो गए। बोले—“धन्य हो अर्जुन! कुंती के लाल अर्जुन से मुझे यही आशा थी।”

    जब जरासंध के साथ युद्ध करने का निश्चय हो गया, तो श्रीकृष्ण और पांडवों ने अपनी योजना बनाई। श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन ने वल्कल पहन लिए, हाथ में कुशा ले ली और व्रती लोगों का-सा वेष धारण करके मगध देश के लिए रवाना हो गए। राह में सुंदर नगरों तथा गाँवों को पार करते हुए वे तीनों जरासंध की राजधानी में पहुँचे। जरासंध ने कुलीन अतिथि समझकर उनका बड़े आदर के साथ स्वागत किया। जरासंध के स्वागत का भीम और अर्जुन ने कोई जवाब नहीं दिया। वे दोनों मौन रहे। इस पर श्रीकृष्ण बोले—“मेरे दोनों साथियों ने मौन व्रत लिया हुआ है, इस कारण अभी नहीं बोलेंगे। आधी रात के बाद व्रत खुलने पर बातचीत करेंगे।” जरासंध ने इस बात पर विश्वास कर लिया और तीनों मेहमानों को यज्ञशाला में ठहराकर महल में चला गया। कोई भी ब्राह्मण अतिथि जरासंध के यहाँ आता, तो उनकी इच्छा तथा सुविधा के अनुसार बातें करना उनका सत्कार करना जरासंध का नियम था। इसके अनुसार आधी रात के बाद जरासंध अतिथियों से मिलने गया, लेकिन अतिथियों के रंग-ढंग देखकर मगध नरेश के मन में कुछ शंका हुई।

    राजा जरासंध ने कड़ककर पूछा—“सच-सच बताओ, तुम लोग कौन हो? ब्राह्मण तो नहीं दिखाई देते।” इस पर तीनों ने सही हाल बता दिया और कहा—“हम तुम्हारे शत्रु हैं। तुमसे अभी द्वंद्व युद्ध करना चाहते हैं। हम तीनों में से किसी एक से, जिससे तुम्हारी इच्छा हो, लड़ सकते हो। हम सभी इसके लिए तैयार हैं।”

    तभी भीमसेन और जरासंध में कुश्ती शुरू हो गई। दोनों वीर एक-दूसरे को पकड़ते, मारते और उठाते हुए लड़ने लगे। इस प्रकार पलभर भी विश्राम किए बग़ैर वे तेरह दिन और तेरह रात लगातार लड़ते रहे। चौदहवें दिन जरासंध थककर ज़रा देर को रुक गया। पर ठीक मौक़ा देखकर श्रीकृष्ण ने भीम को इशारे से समझाया और भीमसेन ने फ़ौरन जरासंध को उठाकर चारों ओर घुमाया और उसे ज़मीन पर ज़ोर से पटक दिया। इस प्रकार अजेय जरासंध का अंत हो गया।

    श्रीकृष्ण और दोनों पांडवों ने उन सब राजाओं को छुड़ा लिया, जिनको जरासंध ने बंदीगृह में डाल रखा था और जरासंध के पुत्र सहदेव को मगध की राजगद्दी पर बैठाकर इंद्रप्रस्थ लौट आए। इसके बाद पांडवों ने विजय-यात्रा की और सारे देश को महाराज युधिष्ठिर की अधीनता में ले आए।

    जरासंध के वध के बाद पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया। इसमें समस्त भारत के राजा आए हुए थे। जब अभ्यागत नरेशों का आदर-सत्कार करने की बारी आई तो प्रश्न उठा कि अग्र पूजा किसकी हो? सम्राट युधिष्ठिर ने इस बारे में पितामह भीष्म से सलाह ली। वृद्ध भीष्म ने कहा कि द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की पूजा पहले की जाए। युधिष्ठिर को भी यह बात पसंद आई। उन्होंने सहदेव को आज्ञा दी कि वह श्रीकृष्ण का पूजन करे। सहदेव ने विधिवत् श्रीकृष्ण की पूजा की। वासुदेव का इस प्रकार गौरवान्वित होना चेदि नरेश शिशुपाल को अच्छा नहीं लगा। वह एकाएक उठ खड़ा हुआ और ठहाका मारकर हँस पड़ा। सारी सभा की दृष्टि जब शिशुपाल की ओर गई, तो वह ऊँचे स्वर में व्यंग्य से बोलने लगा—“यह अन्याय की बात है कि एक मामूली से व्यक्ति को इस प्रकार गौरवान्वित किया जाता है।”

    युधिष्ठिर को यों आड़े हाथों लेने के बाद शिशुपाल सभा में उपस्थित राजाओं की ओर देखकर बोला—“उपस्थित राजागण! जिस दुरात्मा-ने कुचक्र रचकर वीर जरासंध को मरवा डाला, उसी की युधिष्ठिर ने अग्रपूजा की। इसके बाद-उसे हम धर्मात्मा कैसे कह सकते हैं? उनमें हमारा विश्वास नहीं रहा है।”

    इस तरह शब्द-बाणों की बौछार कर चुकने के बाद शिशुपाल दूसरे कुछ राजाओं को साथ लेकर सभा से निकल गया। राजाधिराज युधिष्ठिर नाराज़ हुए राजाओं के पीछे दौड़े गए और अनुनय-विनय करके उन्हें समधाने लगे। युधिष्टिर के बहुत समझाने पर भी शिशुपाल नहीं माना। उसका हठ और घमंड बढ़ता गया। अंत में शिशुपाल श्रीकृष्ण में युद्ध छिड़ गया, जिसमें शिशुपाल मारा गया। राजसूय यज्ञ संपूर्ण हुआ और राजा युधिष्टिर को राजाधिराज की पदवी प्राप्त हो गई।

    वीडियो
    This video is playing from YouTube

    Videos
    This video is playing from YouTube

    चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

    चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

    स्रोत :
    • पुस्तक : बाल महाभारत कथा (पृष्ठ 32)
    • रचनाकार : चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
    • प्रकाशन : एनसीईआरटी
    • संस्करण : 2022
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free