प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
दसवें दिन का युद्ध शुरू हुआ। आज पांडवों ने शिखंडी को आगे किया था। आगे-आगे शिखंडी और उसके पीछे अर्जुन। शिखंडी की आड़ से अर्जुन ने पितामह पर बाण बरसाए। शिखंडी के बाणों ने वृद्ध पितामह का वक्ष-स्थल बींध डाला। भीष्म ने अपने चेहरे पर ज़रा भी शिकन न आने दी और शिखंडी के बाणों का प्रत्युत्तर नहीं दिया। अर्जुन ने जब यह देखा कि पितामह प्रतिरोध नहीं कर रहे हैं, तो ज़रा जी कड़ा करके उसने भीष्म के मर्म-स्थानों को लक्ष्य करके तीखे बाणों से बींधना शुरू कर दिया। भीष्म का सारा शरीर बिंध गया, पर इतने पर भी उनका मुख मलिन न हुआ। भीष्म ने अर्जुन पर शक्ति-अस्त्र चलाया। अर्जुन ने उसे तीन बाणों से काट गिराया। अब भीष्म को यह निश्चय हो गया था कि आज का युद्ध उनका आख़िरी युद्ध होगा। इस कारण वह हाथ में ढाल-तलवार लेकर रथ से उतरने लगे। अर्जुन का बाण बरसाना जारी था। उसके बाणों ने पितामह के शरीर में उँगली रखने की भी जगह न छोड़ी थी। पितामह के सारे शरीर में बाण-ही-बाण घुस गए थे। ऐसी अवस्था में ही भीष्म रथ से सिर के बल ज़मीन पर गिर पड़े। भीष्म गिर तो गए, लेकिन उनका शरीर भूमि से नहीं लगा। सारे शरीर में जो बाण लगे हुए थे वे एक तरफ़ से घुसकर दूसरी तरफ़ निकल आए थे। भीष्म का शरीर ज़मीन पर न गिरकर ऊँ तीरों के सहारे ही ऊपर उठा रहा। पितामह अर्जुन से बोले—“बेटा अर्जुन, मेरे सिर के नीचे कोई सहारा नहीं है। वह लटक रहा है। कोई ठीक-सा सहारा तो लगा दो।”
भीष्म ने ये वचन उसी अर्जुन से कहे, जिसने अभी-अभी प्राणहारी बाणों से उनको बींध डाला था। भीष्म का आदेश सुनते ही अर्जुन ने अपने तर्कस से तिन तेज़ बाण निकाले और पितामह का सिर उनकी नोंक पर रखकर उनके लिए उपयुक्त तकिया बना दिया।
भीष्म बोले—“हे राजागण! अर्जुन ने मेरे लिए जो सिरहाना बनाया है, उसी से मैं प्रसन्न हुआ हूँ। अभी मेरा शरीर-त्याग करने का उचित समय नहीं हुआ है। अतः सूर्यनारायण के उत्तरायण होने तक मैं यहीं और ऐसा ही पड़ा रहूँगा। आप लोगों में से जो भी उस समय तक जीवित बचें, वे आकर मुझे देख जाएँ।”
इसके बाद पितामह ने अर्जुन से कहा—“बेटा! मेरा सारा शरीर जल रहा है और प्यास लग रही है। थोड़ा पानी तो पिलाओ।”
अर्जुन ने तुरंत धनुष तानकर भीष्म की दाहिनी बग़ल में पृथ्वी पर बड़े ज़ोर से एक तीर मारा। बाण पृथ्वी में घुसकर सीधा पाताल में जा लगा। उसी क्षण उस स्थल से जल का एक सोता फूट निकला। और पितामह भीष्म ने अमृत के समान मधुर और शीतल जल पीकर अपनी प्यास बुझाई। वह बहुत ही ख़ुश और प्रसन्न दिखाई दिए।
जब कर्ण को यह पता चला कि पितामह भीष्म घायल होकर रणक्षेत्र में पड़े हैं, तो वह उनके पास गया। प्रणाम करके जब कर्ण उठा, तो पितामह को उसके मुख पर भय की छाया-सी दिखाई दी। यह देखकर भीष्म का दिल भर आया। शरीर पर लगे हुए बाणों से होने वाले कष्ट को दबाकर बोले—“बेटा, तुम राधा के पुत्र नहीं, कुंती के पुत्र हो। सूर्यपुत्र! मैंने तुमसे कभी द्वेष नहीं किया। अकारण ही तुमने पांडवों से वैर रखा। इसी कारण तुम्हारे प्रति मेरा मन मलिन हुआ तुम्हारी दानवीरता और शूरता से मैं भली-भाँति परिचित हूँ। इसमें कोई संदेह नहीं कि शूरता में तुम कृष्ण और अर्जुन को बराबरी कर सकते हो। तुम पांडवों में ज्येष्ठ हो। इस कारण तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम उनसे मित्रता कर लो मेरी यहीं इच्छा है कि युद्ध में मेरे सेनापतित्व के साथ ही पांडवों के प्रति तुम्हारे वैरभाव का भी आज हो अंत हो जाए।”
यह सुनकर कर्ण बड़ी नम्रता के साथ बोला—“पितामह! मैं जानता हूँ कि मैं कुंती का पुत्र हैं, लेकिन यह भी मुझे मालूम है कि मैं सूत-पुत्र नहीं हूँ, लेकिन यह बात मुझसे नहीं हो सकती कि अब मैं दुर्योधन का साथ छोड़ दूँ और उनके शत्रुओं से जा मिलूँ। मेरा कर्तव्य यही है कि मैं दुर्योधन के ही पक्ष में रहकर युद्ध करूँ। आप कृपया मुझे इस बात की अनुमति दें कि मैं दुर्योधन की तरफ से लड़ूँ। मैंने जो कुछ किया या कहा है, उसमें जितने दोष हो, उसके लिए मुझे क्षमा कर दें।”
कर्ण का कथन भीष्म बड़े ध्यान से सुनते रहे। उसके बाद बोले—“जो तुम्हारी इच्छा हो, वही करो।”
भीष्म पितामह से आशीष पाकर कर्ण बहुत प्रसन्न हुआ और रथ पर चढ़कर युद्धक्षेत्र में जा पहुँचा। कर्ण को देखते ही दुर्योधन आनंद के मारे फूल उठा। भीष्म के बिछोह का जो दुख उसके लिए दु:सह—सा प्रतीत हो रहा था, अब कर्ण के आ जाने पर किसी तरह उसे भूल जाना उसके लिए संभव मालूम होने लगा।
दुर्योधन और कर्ण इस बारे में सोच-विचार करने लगे कि अब सेनापति किसे बनाया जाए। रीति से द्रोणाचार्य का सेनापति-पद पर अभिषेक हुआ। द्रोणाचार्य ने पाँच दिन तक कौरवों की सेना का संचालन करते हुए घोर युद्ध किया। यद्यपि अवस्था में वह बूढ़े थे, फिर भी सात्यकि, भीम, अर्जुन, धृष्टद्युम्न, अभिमन्यु, द्रुपद, काशिराज आदि सुविख्यात वीरों के विरुद्ध द्रोणाचार्य अकेले ही भिड़ जाते थे और एक-एक को खदेड़ देते थे। पाँचों दिन तक उनके हाथों पांडवों की सेना बहुत ही सताई गई। आचार्य द्रोण ने पांडव-सेना की नाक में दम कर दिया। द्रोणाचार्य के सेनापतित्व ग्रहण करने के बाद दुर्योधन, कर्ण और दुःशासन—तीनों ने आपस में सलाह करके एक योजना बनाई। उसके अनुसार दुर्योधन आचार्य के पास जाकर बोला—“आचार्य! किसी भी उपाय से आप युधिष्ठिर को जीवित ही पकड़ कर हमारे हवाले कर सकें तो बड़ा ही उत्तम हो!”
दुर्योधन का उद्देश्य तो कुछ और ही था। दुर्योधन को यह भी पता चल गया था कि युधिष्ठिर का वध करने से कोई लाभ नहीं हो सकता। इसके विपरीत यदि युधिष्ठिर को जीवित पकड़ लिया जाए, तो युद्ध भी शीघ्र ही बंद हो जाएगा और जीत भी कौरवों की होगी। थोड़ा राज्य युधिष्ठिर को देने का बहाना करना होगा, सो वह कर देंगे और बाद में फिर जुआ खेलकर सहज ही में उसे वापस छीन भी लेंगे। इन्हीं सब विचारों से प्रेरित होकर दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से युधिष्ठिर को जीवित पकड़ लाने का अनुरोध किया था। लेकिन द्रोण को जब दुर्योधन के असली उद्देश्य का पता लगा, तो वह बहुत उदास हो गए। इससे उनके मन में दुर्योधन के प्रति तीव्र घृणा उत्पन्न हो गई। मन-ही-मन यह सोचकर उन्होंने संतोष कर लिया कि युधिष्ठिर के प्राण न लेने का कोई-न-कोई बहाना तो मिल ही गया।
पांडव तो द्रोणाचार्य की अद्वितीय शूरता एवं शस्त्र विद्या के अनुपम ज्ञान से भली-भाँति परिचित ही थे। अतः जब सुना कि द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को पकड़ने का निश्चय ही नहीं किया है, बल्कि प्रतिज्ञा भी की है, तो वे भी भयभीत हो गए। सबको यही चिंता रहने लगी कि किसी भी तरह युधिष्ठिर की रक्षा का पूरा-पूरा प्रबंध किया जाए। द्रोण ने अपने सारथी को आज्ञा दी कि रथ को उस ओर ले चलो, जिधर युधिष्ठिर युद्ध कर रहे हों। युधिष्ठिर सँभले, इससे पहले ही द्रोणाचार्य वेग से उनके निकट जा पहुँचे। धृष्टद्युम्न ने हज़ार चेष्टा की, परंतु वह द्रोण को नहीं रोक सका।
‘युधिष्ठिर पकड़े गए!’ ‘युधिष्ठिर पकड़े गए!’ की चिल्लाहट से सारा कुरुक्षेत्र गूँज उठा। इतने ही में एकाएक न जाने कहाँ से अर्जुन उधर आ पहुँचा और अर्जुन के गांडीव से बाणों की ऐसी अविरल बौछार छूट रही थी कि कोई देख ही नहीं पाता था कि कब बाण धनुष पर चढ़ते और कब छूटते थे। कुरुक्षेत्र का आकाश बाणों से भर गया। इस कारण सारे मैदान में अंधकार-सा छा गया।
अर्जुन के हमले के कारण द्रोणाचार्य को पीछे हटना पड़ा। युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने का उनका प्रयत्न विफल हो गया और संध्या होते-होते उस दिन का युद्ध भी बंद हो गया। कौरव-सेना में भय छा गया। पांडव-सेना के वीर शान से अपने-अपने शिविर को लौट चले।
सैन्य-समूह के पीछे-पीछे चलते हुए कृष्ण और अर्जुन अपने शिविर में जा पहुँचे। इस प्रकार ग्यारहवें दिन का युद्ध समाप्त हुआ।
dasven din ka yuddh shuru hua. aaj panDvon ne shikhanDi ko aage kiya tha. aage aage shikhanDi aur uske pichhe arjun. shikhanDi ki aaD se arjun ne pitamah par baan barsaye. shikhanDi ke banon ne vriddh pitamah ka vaksh sthal beendh Dala. bheeshm ne apne chehre par zara bhi shikan na aane di aur shikhanDi ke banon ka pratyuttar nahin diya. arjun ne jab ye dekha ki pitamah pratirodh nahin kar rahe hain, to zara ji kaDa karke usne bheeshm ke marm sthanon ko lakshya karke tikhe banon se bindhna shuru kar diya. bheeshm ka sara sharir bindh gaya, par itne par bhi unka mukh malin na hua. bheeshm ne arjun par shakti astra chalaya. arjun ne use teen banon se kaat giraya. ab bheeshm ko ye nishchay ho gaya tha ki aaj ka yuddh unka akhiri yuddh hoga. is karan wo haath mein Dhaal talvar lekar rath se utarne lage. arjun ka baan barsana jari tha. uske banon ne pitamah ke sharir mein ungli rakhne ki bhi jagah na chhoDi thi. pitamah ke sare sharir mein baan hi baan ghus ge the. aisi avastha mein hi bheeshm rath se sir ke bal zamin par gir paDe. bheeshm gir to ge, lekin unka sharir bhumi se nahin laga. sare sharir mein jo baan lage hue the ve ek taraf se ghuskar dusri taraf nikal aaye the. bheeshm ka sharir zamin par na girkar uun tiron ke sahare hi uupar utha raha. pitamah arjun se bole—“beta arjun, mere sir ke niche koi sahara nahin hai. wo latak raha hai. koi theek sa sahara to laga do. ”
bheeshm ne ye vachan usi arjun se kahe, jisne abhi abhi pranhari banon se unko beendh Dala tha. bheeshm ka adesh sunte hi arjun ne apne tarkas se tin tez baan nikale aur pitamah ka sir unki nonk par rakhkar unke liye upyukt takiya bana diya.
bheeshm bole—“he rajagan! arjun ne mere liye jo sirhana banaya hai, usi se main prasann hua hoon. abhi mera sharir tyaag karne ka uchit samay nahin hua hai. atः surynarayan ke uttrayan hone tak main yahin aur aisa hi paDa rahunga. aap logon mein se jo bhi us samay tak jivit bachen, ve aakar mujhe dekh jayen. ”
iske baad pitamah ne arjun se kaha—“beta! mera sara sharir jal raha hai aur pyaas lag rahi hai. thoDa pani to pilao. ”
arjun ne turant dhanush tankar bheeshm ki dahini baghal mein prithvi par baDe zor se ek teer mara. baan prithvi mein ghuskar sidha patal mein ja laga. usi kshan us sthal se jal ka ek sota phoot nikla. aur pitamah bheeshm ne amrit ke saman madhur aur shital jal pikar apni pyaas bujhai. wo bahut hi khush aur prasann dikhai diye.
jab karn ko ye pata chala ki pitamah bheeshm ghayal hokar ranakshetr mein paDe hain, to wo unke paas gaya. prnaam karke jab karn utha, to pitamah ko uske mukh par bhay ki chhaya si dikhai di. ye dekhkar bheeshm ka dil bhar aaya. sharir par lage hue banon se honevale kasht ko dabakar bole—“beta, tum radha ke putr nahin, kunti ke putr ho. suryputr! mainne tumse kabhi dvesh nahin kiya. akaran hi tumne panDvon se vair rakha. isi karan tumhare prati mera man malin hua tumhari danvirta aur shurata se main bhali bhanti parichit hoon. ismen koi sandeh nahin ki shurata mein tum krishn aur arjun ko barabari kar sakte ho. tum panDvon mein jyeshth ho. is karan tumhara kartavya hai ki tum unse mitrata kar lo meri yahin ichchha hai ki yuddh mein mere senaptitv ke saath hi panDvon ke prati tumhare vairbhav ka bhi aaj ho ant ho jaye. ”
ye sunkar karn baDi namrata ke saath bola—“pitamah! main janta hoon ki main kunti ka putr hain, lekin ye bhi mujhe malum hai ki main soot putr nahin hoon, lekin ye baat mujhse nahin ho sakti ki ab main duryodhan ka saath chhoD doon aur unke shatruon se ja milun. mera kartavya yahi hai ki main duryodhan ke hi paksh mein rahkar yuddh karun. aap kripaya mujhe is baat ki anumti den ki main duryodhan ki taraph se lahun. mainne jo kuch kiya ya kaha hai, usmen jitne dosh ho, uske liye mujhe kshama kar den. ”
karn ka kathan bheeshm baDe dhyaan se sunte rahe. uske baad bole—“jo tumhari ichchha ho, vahi karo. ”
bheeshm pitamah se ashish pakar karn bahut prasann hua aur rath par chaDhkar yuddhakshetr mein ja pahuncha. karn ko dekhte hi duryodhan anand ke mare phool utha. bheeshm ke vichhoh ka jo dukh uske liye duhsah—sa pratit ho raha tha, ab karn ke aa jane par kisi tarah use bhool jana uske liye sambhav malum hone laga.
duryodhan aur karn is bare mein soch vichar karne lage ki ab senapati kise banaya jaye. riti se dronacharya ka senapati pad par abhishek hua. dronacharya ne paanch din tak kaurvon ki sena ka sanchalan karte hue ghor yuddh kiya. yadyapi avastha mein wo buDhe the, phir bhi satyaki, bheem, arjun, dhrishtadyumn, abhimanyu, drupad, kashiraj aadi suvikhyat viron ke viruddh dronacharya akele hi bhiD jate the aur ek ek ko khadeD dete the. panchon din tak unke hathon panDvon ki sena bahut hi satai gai. acharya dron ne panDav sena ki naak mein dam kar diya. dronacharya ke senaptitv grhan karne ke baad duryodhan, karn aur duःshasan—tinon ne aapas mein salah karke ek yojna banai. uske anusar duryodhan acharya ke paas jakar bola—“acharya! kisi bhi upaay se aap yudhishthir ko jivit hi pakaD kar hamare havale kar saken to baDa hi uttam ho!”
duryodhan ka uddeshya to kuch aur hi tha. duryodhan ko ye bhi pata chal gaya tha ki yudhishthir ka vadh karne se koi laabh nahin ho sakta. iske viprit yadi yudhishthir ko jivit pakaD liya jaye, to yuddh bhi sheeghr hi band ho jayega aur jeet bhi kaurvon ki hogi. thoDa rajya yudhishthir ko dene ka bahana karna hoga, so wo kar denge aur baad mein phir jua khelkar sahj hi mein use vapas chheen bhi lenge. inhin sab vicharon se prerit hokar duryodhan ne dronacharya se yudhishthir ko jivit pakaD lane ka anurodh kiya tha. lekin dron ko jab duryodhan ke asli uddeshya ka pata laga, to wo bahut udaas ho ge. isse unke man mein duryodhan ke prati teevr ghrina utpann ho gai. man hi man ye sochkar unhonne santosh kar liya ki yudhishthir ke praan na lene ka koi na koi bahana to mil hi gaya.
panDav to dronacharya ki advitiy shurata evan shastr vidya ke anupam gyaan se bhali bhanti parichit hi the. atः jab suna ki dronacharya ne yudhishthir ko pakaDne ka nishchay hi nahin kiya hai, balki prtigya bhi ki hai, to ve bhi bhaybhit ho ge. sabko yahi chinta rahne lagi ki kisi bhi tarah yudhishthir ki raksha ka pura pura prbandh kiya jaye. dron ne apne sarthi ko aagya di ki rath ko us or le chalo, jidhar yudhishthir yuddh kar rahe hon. yudhishthir sanbhale, isse pahle hi dronacharya veg se unke nikat ja pahunche. dhrishtadyumn ne hazar cheshta ki, parantu wo dron ko nahin rok saka.
‘yudhishthir pakDe ge!’ ‘yudhishthir pakDe ge!’ ki chillahat se sara kurukshetr goonj utha. itne hi mein ekayek na jane kahan se arjun udhar aa pahuncha aur arjun ke ganDiv se banon ki aisi aviral bauchhar chhoot rahi thi ki koi dekh hi nahin pata tha ki kab baan dhanush par chaDhte aur kab chhutte the. kurukshetr ka akash banon se bhar gaya. is karan sare maidan mein andhkar sa chha gaya.
arjun ke hamle ke karan dronacharya ko pichhe hatna paDa. yudhishthir ko jivit pakaDne ka unka prayatn viphal ho gaya aur sandhya hote hote us din ka yuddh bhi band ho gaya. kaurav sena mein bhay chha gaya. panDav sena ke veer shaan se apne apne shivir ko laut chale.
sainya samuh ke pichhe pichhe chalte hue krishn aur arjun apne shivir mein ja pahunche. is prakar gyarahven din ka yuddh samapt hua.
dasven din ka yuddh shuru hua. aaj panDvon ne shikhanDi ko aage kiya tha. aage aage shikhanDi aur uske pichhe arjun. shikhanDi ki aaD se arjun ne pitamah par baan barsaye. shikhanDi ke banon ne vriddh pitamah ka vaksh sthal beendh Dala. bheeshm ne apne chehre par zara bhi shikan na aane di aur shikhanDi ke banon ka pratyuttar nahin diya. arjun ne jab ye dekha ki pitamah pratirodh nahin kar rahe hain, to zara ji kaDa karke usne bheeshm ke marm sthanon ko lakshya karke tikhe banon se bindhna shuru kar diya. bheeshm ka sara sharir bindh gaya, par itne par bhi unka mukh malin na hua. bheeshm ne arjun par shakti astra chalaya. arjun ne use teen banon se kaat giraya. ab bheeshm ko ye nishchay ho gaya tha ki aaj ka yuddh unka akhiri yuddh hoga. is karan wo haath mein Dhaal talvar lekar rath se utarne lage. arjun ka baan barsana jari tha. uske banon ne pitamah ke sharir mein ungli rakhne ki bhi jagah na chhoDi thi. pitamah ke sare sharir mein baan hi baan ghus ge the. aisi avastha mein hi bheeshm rath se sir ke bal zamin par gir paDe. bheeshm gir to ge, lekin unka sharir bhumi se nahin laga. sare sharir mein jo baan lage hue the ve ek taraf se ghuskar dusri taraf nikal aaye the. bheeshm ka sharir zamin par na girkar uun tiron ke sahare hi uupar utha raha. pitamah arjun se bole—“beta arjun, mere sir ke niche koi sahara nahin hai. wo latak raha hai. koi theek sa sahara to laga do. ”
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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