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पुष्परक्त जातक

pushprakt jatak

अज्ञात

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    प्राचीन काल में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय से बोधिसत्व आकाश देवता थे। एक बार कार्तिक रात्रि के उपलक्ष में वाराणसी नगरी बहुत अच्छी तरह सजाई गई थी और उसकी शोभा देवनगरी के समान हो गई थी। उस दिन सभी नगर निवासी आमोद-प्रमोद में मत्त हो रहे थे। उस समय एक दरिद्र व्यक्ति के पास केवल दो ही कपड़े थे। उन दोनों कपड़ों को वह बहुत अच्छी तरह धुलाकर और ख़ूब चुन बनाकर ले आया था।

    उसकी स्त्री ने उससे कहा—मेरी इच्छा होती है कि मैं इसमें से एक वस्त्र कुसुम के रंग का रंगाकर पहनूँ और दूसरा ओढ़कर तुम्हारे साथ कार्तिकोत्सव देखने चलूँ। उसने उत्तर दिया—भला मेरे समान दरिद्र को कुसुम के फूल कहाँ मिलेंगे। तुम ये सफ़ेद कपड़े ही पहनकर उत्सव देखने चलो। पर उसकी स्त्री ने हठ करते हुए कहा—नहीं, मैं बिना कुसुम के रंग से रंगा कपड़ा पहने उत्सव में जाऊँगी। पुरुष ने कहा—तुम व्यथ क्यों झगड़ा करती हो! मुझे कुसुम के फूल कहाँ मिलेंगे। स्त्री ने कहा—यदि तुम चाहो, तो यह कौन बड़ी बात है। राजा के उद्यान में कुसुम के बहुत से पेड़ हैं। पुरुष ने कहा—हैं तो अवश्य, पर वहाँ सैकड़ों बलवान् पहरेदार दिन-रात पहरा देते और उन पेड़ों की रक्षा करते हैं। वहाँ जाना मेरी शक्ति के बाहर है। तुम इस असंगत इच्छा का त्याग कर दो; और इस समय तुम्हारे पास जो कुछ है, उसी से अपना काम चलाओ। स्त्री ने कहा—रात के समय जब अंधकार हो जाता है, तब ऐसा कौनसा स्थान है, जहाँ पुरुष नहीं जा सकते!

    स्त्री का बार-बार इतना अधिक अनुरोध देखकर अंत में उसने विवश होकर कहा—अच्छा, तुम चिंता करो; मैं ऐसा ही करूँगा। जब रात हुई, तब वह अपने प्राणों का मोह छोड़कर नगर से बाहर निकला और राजा के उद्यान की चहारदीवारी तोड़कर उसके अंदर घुसा। पहरेदारों ने दीवार टूटने का शब्द सुनकर 'चोर-चोर' की पुकार मचाई और उसे पकड़ लिया। बहुत कुछ गालियों देने और मारने-पीटने के उपरांत उन्होंने उसे सिकड़ियों से बाँध दिया और प्रातःकाल होने पर राजा के सम्मुख उपस्थित किया। राजा ने आज्ञा दी इसे ले जाकर सूली पर चढ़ा दो। उन लोगों ने उस अभागे के दोनों हाथ पीठ की ओर ले जाकर बाँध दिए और भेरी बजाते हुए उसे ले चले। नगर के बाहर पहुँचकर उन लोगों ने उसे सूली पर चढ़ा दिया। एक तो सूली की असह्य वेदना, और दूसरे ऊपर से कौए आ-आकर उसके सिर पर बैठते थे और चोंच से उसके मस्तक तथा आँखों आदि पर आघात करते थे। परंतु ऐसे कष्ट के समय भी वह अपनी पीड़ा भूलकर अपनी स्त्री की ही बात का स्मरण कर रहा था और सोच रहा था कि मेरी स्त्री कुसुम के रंग से रंगा हुआ वस्त्र पहनकर मेरे साथ कार्तिकोत्सव देखने जा सकी और ईश्वर ने मुझे ऐसे सुख से वंचित रखा। इस प्रकार विलाप करते-करते ही वह व्यक्ति मर गया और नरक में गया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला. पहला भाग (पृष्ठ 176)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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