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विरोचन जातक

virochan jatak

अज्ञात

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विरोचन जातक

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    प्राचीन काल में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व सिंह‌ का जन्म ग्रहण करके हिमालय की तराई में सोने की एक गुफ़ा में रहा करते थे। एक दिन उन्होंने अपनी गुफ़ा में खड़े होकर जँभाई ली और चारों ओर देखकर वे गरजते हुए मृगया के लिए बाहर निकले। उन्होंने एक बड़े बैल को मारकर उसका सारा अच्छा मांस खा लिया, एक सरोवर में उतरकर स्वच्छ जल पीया और तब तृप्त होकर अपनी गुफ़ा की ओर चल पड़े। उस समय एक गीदड़ इधर-उधर आहार ढूँढ़ रहा था। जब उसने सहसा सिंह‌ को देखा, तब वह इतना घबरा गया कि उसे कहीं भागने के लिए मार्ग न मिला और वह उसी सिंह के पैरों के पास गिरकर लोटने लगा। बोधिसत्व ने पूछा—तुम क्या चाहते हो? गीदड़ ने उत्तर दिया—मैं सेवक बनकर आपकी सेवा करना चाहता हूँ। सिंह ने कहा—अच्छी बात है। तुम मेरे साथ चलो और मेरी सेवा शुश्रूषा किया करो। मैं तुम्हें बढ़िया मांस खिलाया करूँगा। उस गीदड़ को अपने साथ लेकर सिंह अपनी कांचन गुफ़ा में चला आया। तब से गीदड़ को सिंह का प्रसाद मिलने लगा और थोड़े ही दिनों में वह बहुत दृष्ट-पुष्ट हो गया।

    एक दिन गुफ़ा में बैठे-बैठे बोधिसत्व ने गीदड़ से कहा—तुम जाकर पर्वत के शिखर पर खड़े हो। पर्वत के नीचे हाथी, घोड़े, भैंसे आदि पशु घूमा करते हैं, उनमें से जिस प्राणी का मांस खाने की तुम्हारी इच्छा हो, उसका नाम आकर मुझे बतला दो और तब मुझे प्रणाम करके कहो—'प्रभु, आप अपना तेज प्रदर्शित कीजिए।' बस मैं उसे मारकर उसका मांस खाऊँगा और तुम्हें भी दूँगा। तब से यही नियम हो गया। गीदड़ नित्य पर्वत के शिखर पर जाकर अनेक प्रकार के पशुओं को देखा करता था; और जब जिसका मांस खाने की उसकी इच्छा होती थी, तब वह आकर बोधिसत्व को उसका नाम बतला देता था और उनके चरणों पर गिरकर विरोच सामि1 कहा करता था। बोधिसत्व भी तुरंत उछलकर भैंसे या हाथी आदि पर जा पड़ते थे और उसे मारकर उसका बढ़िया मांस तो आप खा लेते थे और बचा हुआ अंश गीदड़ को दे देते थे। गीदड़ ख़ूब भर पेट मांस खाया करता था और उसी गुफ़ा में सोया करता था। जब इस प्रकार बहुत दिन बीत गए, तब गीदड़ को कुछ अभिमान होने लगा। उसने सोचा—आख़िर मैं भी तो चौपाया हूँ। मैं क्यों इस प्रकार दूसरे के द्वार पर पड़ा-पड़ा अपने दिन बिताऊँ। आज से मैं भी आप ही हाथी आदि पशुओं को मारकर उनका मांस खा लिया करूँगा। यह सिंह जो हाथियों आदि को मार लेता है, वह इसी विरोच सामि मंत्र के बल से। अब मैं भी इस सिंह से विरोच जंबुक मंत्र कहलाऊँगा और बड़े-बड़े हाथियों को मारकर उनका मांस खाया करूँगा। यह सोचकर वह सिंह के पास जाकर बोला—प्रभु, आप जिन पशुओं का आखेट करते हैं, उनका मांस तो मैं बहुत दिनों से खाता आया हूँ। अब मेरी इच्छा होती है कि मैं स्वयं भी किसी हाथी को मारकर उसका मांस खाऊँ। इस कांचन गुफ़ा में जिस स्थान पर आप बैठते हैं, उसी स्थान पर अब में बैठूँगा। आप जाकर पर्वत के नीचे घूमने वाले पशुओं आदि को देखा कीजिएगा और तब आकर मुझसे विरोच जंबुक कहा कीजिएगा। कृपाकर मेरी यह प्रार्थना अवश्य स्वीकृत कर लीजिए। इसमें कृपणता न कीजिए। उसकी इस प्रकार की बातें सुनकर बोधिसत्व ने कहा—देखो, हाथियों का वध करना केवल सिंह का ही काम है। आजतक कभी किसी ने यह न सुना होगा कि किसी गीदड़ ने हाथी को मारकर उसका मांस खाया है। तुम ऐसी असंगत इच्छा मत करो। मैं जो सूअर और हाथी आदि मारता हूँ, तुम उन्हीं का मांस खाकर चुपचाप यहाँ पड़े रहो। पर बोधिसत्व की ये बातें सुनकर भी गीदड़ ने अपना पहला विचार नहीं छोड़ा। वह बार-बार उनसे वही प्रार्थना करने लगा। जब बोधिसत्व ने देखा कि वह किसी प्रकार मानता ही नहीं, तब वे उसकी प्रार्थना के अनुसार काम करने के लिए तैयार हो गए और उसे गुफ़ा में छोड़कर पर्वत के शिखर पर जा पहुँचे। वहाँ उन्हें एक मत्त हाथी दिखाई दिया। उन्होंने गुफ़ा के द्वार पर पहुँचकर कहा—विरोच जंबुक। वह गीदड़ चट उछलकर गुफ़ा में से निकला और जँभाई लेकर चारों ओर देखते हुए उसने तीन बार कहा—मैं इस मत्त हाथी के सिर पर जा पड़ूँगा। और वह हाथी पर कूद पड़ा। पर हाथी के सिर पर न पहुँचकर वह उसके पैरों के आगे जा गिरा। हाथी ने तुरंत अपना दाहिना पैर उठाकर उसके सिर पर रख दिया, जिससे उसकी खोपड़ी चूर-चूर हो गई। इसके उपरांत हाथी ने गीदड़ के धड़ पर पैर रखकर उसे भी अच्छी तरह कुचल दिया और उसके ऊपर मल त्याग करके चिग्घाड़ता हुआ वन में चला गया। यह देखकर बोधिसत्व ने विरोच जंबुक कहते हुए नीचे लिखे आशय की गाथा कही—

    हाथी के पैरों से कुचले जाने के कारण गीदड़ की हड्डियाँ चूर-चूर हो गई और उसका मस्तक कीचड़ में मिल गया। वाह रे गीदड़! धन्य है तू और धन्य है तेरी वीरता! आज तूने अपना तेज ख़ूब दिखलाया!

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 170)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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