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वानरेंद्र जातक

vanrendr jatak

अज्ञात

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वानरेंद्र जातक

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    वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व ने एक बंदर के रूप में जन्म लिया था। बड़े होने पर वे बछेड़े के समान ऊँचे और असाधारण बलवान् हुए। वे अकेले एक नदी के तट पर रहा करते थे। उस नदी के बीच में एक द्वीप था जिसमें कई प्रकार के फलों के वृक्ष थे। बोधिसत्व नदी के जिस तट पर रहा करते थे, उस तट से द्वीप के ठीक आधे मार्ग में नदी के गर्भ में एक शैल था। हाथी के समान बलवाले बोधिसत्व पहली कुदान में तट पर से उस शैल पर और दूसरी कुदान में उस शैल पर से द्वीप में पहुँच जाया करते थे। वे दिन भर वहाँ रहकर अनेक प्रकार के फल आदि खाया करते थे और संध्या समय फिर उसी प्रकार दो कुदानों में नदी पार करके अपने निवास स्थान पर आ जाया करते थे।

    उस नदी में अपनी स्त्री के साथ एक कुम्भीर रहा करता था। बोधिसत्व को नित्य नदी के आर-पार आते जाते देककर उसकी स्त्री के मन में इच्छा हुई कि किसी प्रकार इस बंदर का कलेजा खाना चाहिए। उसने अपने पति कुम्भीर से कहा—तुम मुझे किसी प्रकार इस वानरेंद्र के हृदय का मांस ला दो। कुम्भीर ने कहा अच्छा मैं तुम्हारी इच्छा पूरी कर दूँगा। आज संध्या समय जब यह बंदर लौटने लगेगा, तब मैं इसे पकड़ूँगा। यह निश्चय करके वह कुम्भीर उस शैल पर जा चढ़ा।

    बोधिसत्व नित्य यह देख लिया करते थे कि आज नदी का जल कितना चढ़ा है और यह पर्वत पानी से कितना निकला है। दिन भर द्वीप पर इधर-उधर घूमने के उपरांत संध्या समय उन्होंने जब उस शैल की ओर देखा, तब उनको बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि आज नदी का जल न तो घटा है और न बढ़ा। फिर यह उसका ऊपरी भाग इतना ऊँचा क्यों जान पड़ता है। उन्हें संदेह हुआ कि कदाचित् मुझे पकड़ने के लिए कुम्भीर यहाँ आ बैठा है। वे भेद लेने के लिए वहीं बैठ गए और कुम्भीर को सुनाने के लिए झूठ-मूठ उस शैल से बातें करने लगे। उन्होंने एक बार ज़ोर से चिल्लाकर कहा—क्यों जी पत्थर!” कुछ उत्तर न पाकर थोड़ी दे के उपरांत उन्होंने फिर उसी प्रकार ज़ोर-ज़ोर से दो तीन बार पुकारा—क्यों जी पत्थर! क्यों जी पत्थर!” पर वहाँ पत्थर क्या बोलता! अंत में उन्होंने कहा—क्यों भाई पत्थर, आज तुम बोलते क्यों नहीं हो?

    कुम्भीर ने सोचा कि कदाचित् यह पत्थर रोज़ इस बंदर की बात का उत्तर दिया करता है। आज मैं ही क्यों न इसकी बात का उत्तर दूँ। इसलिए उसने कहा—हाँ जी वानरेंद्र। बोधिसत्व ने पूछा—तुम कौन? कुम्भीर ने उत्तर दिया—मैं कुम्भीर हूँ। बोधिसत्व ने पूजा—तुम वहाँ क्यों बैठे हो?” कुम्भीर ने कहा—तुमको पकड़कर तुम्हारा कलेजा खाने के लिए। बोधिसत्व ने देखा कि अब इस द्वीप से लौटकर तट तक पहुँचने का और कोई मार्ग नहीं है; इसलिए उन्होंने कुम्भीर को छलना चाहा। उन्होंने कहा—भाई कुम्भीर, मैं अपने आपको तुम्हें पकड़ा देता हूँ। तुम मुँह खोलो। मैं यहाँ से कूद पड़ूणगा; बस तुम मुझे पकड़ लेना।

    कहते हैं कि जिस समय कु्म्भीर मुँह खोलता है, उस समय उसकी आँखें बंद हो जाती हैं।1 कुम्भीर की समझ में यह बात नहीं आई कि यह बंदर मुझे धोखा देना चाहता है। इसलिए उसने बंदर के कहने के अनुसार मुँह खोल दिया और आँखें बंद हो गई। बोधिसत्व तुरंत कूदकर पहले तो उसके मस्तक पर पहुँचे और तब वहाँ से छलाँग भरकर तट पर जा पहुँचे। यह अद्भुत व्यापार देखकर कुम्भीर ने कहा—यदि चार गुण हो तो सब शत्रुओं का दमन किया जा सकता है। मैं देखता हूँ कि ये चारों ही गुण तुममें हैं। सत्य, धृति, त्याग और विवेक ये चारों गुण संकट के समय बड़े शत्रुओं से रक्षा करते हैं।

    इस प्रकार बोधिसत्व की प्रशंसा करके कुम्भीर अपने स्थान को चला गया।        

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला पहला भाग (पृष्ठ 101)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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