महासार जातक
mahasar jatak
महासार1
प्राचीन काल में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व ने सब विद्याओं में पारंगत होकर उनके अमात्य का पद प्राप्त किया था। एक बार राजा अपने साथ बहुत से अनुचरों को लेकर विहार करने के लिए उद्यान में गए थे। वहाँ घूमते फिरते उन्हें जल-विहार करने की इच्छा हुई और उन्होंने सरोवर में उतरकर रानियों को बुला लाने के लिए आदमी भेजा। रानियों ने आकर अपने मस्तक और गले से अपने-अपने आभूषण उतारे और पेटियों में रख दिए; और वे पेटियाँ दासियों को सौंपकर वे भी सरोवर में उतरीं।
उस समय एक बँदरिया एक वृक्ष की शाखा पर बैठी थी। जिस समय प्रधान महिषी ने अपने आभरण उतारकर पेटी में रखे थे, उस समय उसने देख लिया था। उसकी इच्छा हुई कि महिषी का हार मैं अपने गले में पहनूँ। वह इस बात की प्रतीक्षा करने लगी कि दासी का ध्यान कहीं इधर-उधर हो, तो अपनी इच्छा पूर्ण करूँ। दासी पहले तो कुछ देर तक सावधान रहकर आभूषण देखती रही; पर थोड़ी देर में नींद आने के कारण वह ऊँघने लगी। बँदरिया ने जब देखा कि दासी ऊँघ रही है, तब वह चट वृक्ष पर से उतरी और गजमुक्ता का हार लेकर फिर वृक्ष पर जाकर शाखाओं की ओट में छिप बैठी। इसके उपरांत उसे भय हुआ कि कहीं और कोई बंदर इसे न देख ले; इसलिए उसने वह हार वृक्ष के कोटर में रख दिया और इस प्रकार मुँह बनाकर वह उसका पहरा देने लगी कि मानों इस संबंध में वह कुछ जानती ही नहीं।
उधर जब दासी की आँख खुली तब उसने देखा कि हार नहीं है। वह भय के मारे काँपने लगी। और कोई उपाय न देखकर वह चिल्ला उठी—अरे कोई दौड़ो! महिषी का हार लेकर चोर भाग गया! उसकी बात सुनकर चारों ओर से पहरेदार दौड़ आए और दासी ने जो कुछ कहा था, उन्होंने जाकर राजा से कह दिया। राजा ने कहा—चोर को पकड़ो। तदनुसार पहरेदार उद्यान से बाहर निकलकर चारों ओर चोर को ढूँढ़ने लगे। उसी समय किसी गाँव का एक निवासी कर देने के लिए आ रहा था। जब उसने सुना कि राजा के पहरेदार चोर-चोर चिला रहे हैं, तब वह मारे भय के भाग चला। उसे भागते देखकर पहरेदार ने सोचा कि यही चोर है। उन्होंने उसका पीछा किया और कुछ दूर जाकर उसे पकड़ लिया। उसे पकड़कर वे लोग मारने लगे और कहने लगे—तूने इनना बहुमूल्य हार क्यों चुराया?
देहाती ने सोचा कि यदि मैं इस समय नहीं कहता हूँ कि मैंने हार चुराया है, तो मेरी जान नहीं बच सकती। ये लोग मुझे मारते-मारते मार ही डालेंगे। इसलिए चोरी का अपराध स्वीकृत कर लेना ही ठीक है। यह सोचकर उसने कहा—हाँ, हार मैंने चुराया तो है। उसकी यह बात सुनकर पहरेदार उसे बाँधकर राजा के पास ले गए। राजा ने उससे पूछा—तूने यह महामूल्यवान् हार चुराया है? उसने उत्तर दिया—हाँ महाराज! राजा ने पूछा—वह हार कहाँ है? उसने कहा—दुहाई महाराज की! मैं बहुत ही दरिद्र हूँ। हार की कौन कहे, मैंने तो आज तक कभी आँख से खाट या पलंग तक नहीं देखा। श्रेष्ठी ने मुझसे कहा था कि वह हार ला दो। मैंने वह हार ले जाकर उन्हीं को दे दिया। अब वह हार कहाँ है, यह वही बतला सकते हैं। मैं नहीं जानता। उसी समय राजा ने श्रेष्ठी को बुलाकर पूछा—तुमने इससे हार लिया है? श्रेष्ठी ने कहा—हाँ महाराज। राजा ने पूछा—वह कहाँ है? श्रेष्ठी ने उत्तर दिया—मैंने पुरोहित जी को दे दिया है। इसके उपरांत जब राजा ने पुरोहित को बुलाकर उनसे पूछा तो उन्होंने कहा—मैंने गंधर्व को दे दिया है। जब गंधर्व से पूछा गया, तब उसने कहा—पुरोहित जीने मुझे हार तो अवश्य दिया था; पर मैंने वह हार अमुक वेश्या को दे दिया है। जब वह वेश्या आई और उससे पूछा गया, तब उसने कहा—मुझे कोई हार नहीं मिला।
इस प्रकार इतने आदमियों को बुलाने और उनसे पूछने में संध्या हो गई। उस समय राजा ने कहा—अब आज समय नहीं रह गया। कल देखा जाएगा। वे उन सब बंदियों को एक अमात्य के सपुर्द करके नगर को लौट गए।
बोधिसत्व सोचने लगे कि हार तो गुम हुआ है उद्यान के अंदर से; और वह देहाती था पर बहुत से पहरेदार भी थे। यह संभव नहीं है कि कोई उद्यान के अंदर से हार लेकर भागे और बाहर निकल जाए। चाहे भीतर से हो और चाहे बाहर से हो, यह हार किसी प्रकार चोरी नहीं जा सकता। यह अभागा देहाती जो कहता है कि मैंने हार चुराकर श्रेष्ठी को दिया है, जो अपने आपको बचाने के लिए कह रहा है। श्रेष्ठी ने सोचा कि यदि मैं पुरोहित के मत्थे मढूँ, तो सहज में मेरा छुटकारा हो सकता है। इसीलिए उसने पुरोहित का नाम ले दिया है। पुरोहित जी ने सोचा कि कारागार में यदि गंधर्व भी साथ रहेगा, तो अच्छा आनंद रहेगा। इसलिए उन्होंने गंधर्व को मिला लिया है। और गंधर्व ने यह सोचा कि कारागार में यदि एक स्त्री रहेगी, तो अच्छा मनोविनोद होगा; इसलिए उसने इस वेश्या को फँसाया है। इन्हीं सब बातों का विचार करके उन्होंने सोचा कि इन पाँचों में से एक भी चोर नहीं है। उद्यान में बहुत से बंदर रहते हैं। उन्हीं में से किसी का यह काम है।
बोधिसत्व ने यही सिद्धांत निश्चित कर लिया और राजा के पास जाकर कहा—महाराज, आप आज्ञा दीजिए कि सब चोर मेरे सपुर्द कर दिए जाएँ, मैं स्वयं उन सब लोगों से इस विषय में कुछ पूछूँगा। राजा ने कहा—यह बहुत ही अच्छी बात है। आप ही उन सब लोगों की परीक्षा कीजिए। उस समय बोधिसत्व ने अपने सेवकों को बुलाकर आज्ञा दी कि पाँचों वंदियों को एक ही स्थान में बंद करके रख दो और चारों ओर से उन पर पहरा बैठा दो। वे लोग आपस में जो कुछ बातें करें, वह सब सुनते रहो और मुझसे आकर कहो। सेवक लोग तुरंत उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए चले गए।
जब सब बंदी एक स्थान पर बैठे, तब आपस में बातचीत करने लगे। श्रेष्ठी ने उस देहाती से कहा—क्यों रे धूर्त्त, तूने और भी पहले कभी मुझे देखा था? या मैंने कभी तुझे देखा था? बता, तूने मुझे हार कब दिया था? देहाती ने कहा—सेठजी, इतना महामूल्यवान् हार कौन कहे, मैंने तो आज तक टूटी खाट भी अपनी आँखों से नहीं देखी। मैंने तो अपने आपको बचाने की आशा से यह बात कही थी। पुरोहित जी ने कहा—सेठजी, जो चीज़ स्वयं आपको इससे नहीं मिली, वह फिर आपने मुझे कैसे दी? श्रेष्ठी ने उत्तर दिया—मैंने सोचा था कि जब हम दोनों ही उच्च पदों पर हैं, तब आपको भी अपने साथ क्यों न मिला लूँ। जब दोनों मिल जाएँगे, तब इस विपत्ति से छुटने का कोई उपाय निकल आवेगा। गंधर्व ने पूछा—क्यों पुरोहित जी, आपने मुझे कब हार दिया था? पुरोहित ने उत्तर दिया—भाई, मैंने सोचा था कि यदि तुम भी कारागार में आ जाओगे, तो समय आनंद से बीतेगा। इसीलिए मैंने तुमको भी मिला लिया। सबके अंत में वेश्या ने कहा—क्यों रे गंधर्व...तूने कब मुझे हार दिया था? क्या तू कभी मेरे पास आया था? या मैं कभी तेरे पास गई थी? गंधर्व ने कहा—मैंने भी तो यही सोचा था कि तुम्हारे साथ रहने में समय अच्छी तरह बीतेगा। इसीलिए मैंने तुम्हारा नाम ले दिया था।
जब बोधिसत्व ने अपने आदमियों के मुँह से ये सब बातें सुनीं, तब उन्हें निश्चय हो गया कि यह किसी चोर का काम नहीं है, बल्कि बंदरों का ही काम है। उन्होंने सोचा कि अब कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिसमें वह बंदर हार लौटा दे। उन्होंने पद्म बीज के कई हार बनवाए और कुछ बंदरों को पकड़वाकर उनमें से किसी के गले में, किसी के हाथ में और किसी के पैर में वे हार बँधवा दिए और उन सबको छोड़ दिया। जो बँदरिया वह मुक्ताहार ले गई थी, वह वहीं बैठी पहरा दे रही थी। बोधिसत्व ने उद्यान में रहने वाले आदमियों से कह दिया—तुम लोग उद्यान के सब बंदरों पर दृष्टि रखो; और जिसके गले में मुक्ताहार देखो, उसे डरा धमकाकर वह हार ले लो।
जिन बंदरों को पद्म बीज के हार पहनाए गए थे, वे इधर-उधर घूमने लगे। उनमें से एक बँदरिया ने उस बँदरिया से, जिसने हार उठाया था, जाकर कहा—देखो, मैंने कैसा सुंदर हार पहना है। उसने कहा—उहँ, यह कौन बहुत अच्छा हार है! यह तो पद्मबीज का है। यह कहकर उसने अपना मुक्ताहार निकाला। पहरेदार उस बँदरिया को मारने दौड़े। उसने मारे भय के वह हार फेंक दिया। उन लोगों ने वह हार लाकर बोधिसत्व को दिया। बोधिसत्व ने हार ले जाकर राजा को दिया और कहा—महाराज, लीजिए मैं आपका हार ले आया हूँ। पाँचों आदमी निरपराथ हैं। उद्यान की एक बँदरिया वह हार उठा ले गई थी। राजा ने पूछा—पंडितवर, आपने यह किस प्रकार जाना कि यह हार बँदरिया उठा ले गई थी? और फिर किस प्रकार आपने उससे हार लिया? बोधिसत्व ने सारा वृत्तांत कह सुनाया। सब बातें सुनकर राजा ने प्रसन्न होकर उनकी बहुत प्रशंसा की और नीचे लिखे आशय की गाथा कही—
संग्राम में सबसे आगे महावीरों की आवश्यकता होती है। मंत्रणा में धीर पुरुषों की आवश्यकता होती है। आमोद-प्रमोद के समय प्रसन्नचित्त मनुष्यों की आवश्यकता होती है। पर जिस समय कोई कठिन बात आ पड़ती है और सूक्ष्म विचार की आवश्यकता होती है, उस समय केवल तीक्ष्ण बुद्धिवाले पंडित से ही काम चलता है।
इस प्रकार बोधिसत्व की प्रशंसा करने के उपरांत राजा ने उन पर सातों प्रकार के रत्नों की उसी प्रकार वर्षा की, जिस प्रकार मेघ से जल की वर्षा होती है। इसके उपरांत वे सदा उन्हीं के उपदेश के अनुसार चलते रहे और पुण्य कृत्यों का अनुष्ठान करते हुए अपने कर्मों का फल भोगने के लिए उन्होंने शरीर त्याग किया।
- पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 141)
- प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय
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