Font by Mehr Nastaliq Web

कूटवाणिज जातक

kutvanij jatak

अज्ञात

अज्ञात

कूटवाणिज जातक

अज्ञात

और अधिकअज्ञात

    प्राचीन काल में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व ने एक वणिक के यहाँ जन्म लिया था। नामकरण के दिन उनका नाम 'पंडित' रखा गया था। जब बोधिसत्व बड़े हुए, तब उन्होंने एक दूसरे वणिक के साथ, जिसका नाम 'अति पंडित' था, साझे में व्यापार करना आरंभ किया। दोनों व्यापारियों ने पाँच सौ बैल-गाड़ियाँ माल से लाद लीं और व्यापार करने निकले। देशांतर में माल बेचने पर उन्हें ख़ूब लाभ हुआ और वे वाराणसी लौटे। जब लाभ के बँटवारे का समय आया, तब 'अति पंडित' ने कहा—इसमें से दो अंश मेरे हैं। पंडित ने पूछा—भाई तुम दो अंश क्यों माँगते हो? अति पंडित ने उत्तर दिया—तुम तो केवल 'पंडित' हो और मैं 'अति पंडित' हूँ; इसलिए मुझे दो अंश चाहिए। इस पर पंडित ने कहा—भाई देखो, हम दोनों साझीदार हैं। बैल-गाड़ियों तथा व्यापार की वस्तुओं में दोनों का समान भाग था। अतः यह उचित है कि हम लोगों के भाग समान हों। पर अति पंडित ने फिर वही उत्तर दिया—मैं 'अति पंडित' हूँ; इसलिए मुझे दो अंश मिलने चाहिए। इसी प्रकार बातचीत बढ़ते-बढ़ते दोनों आपस में लड़ने लगे।

    'अति पंडित' ने मन में एक युक्ति सोची। उसने अपने पिता को एक वृक्ष के कोटर में छिपा दिया और उसको समझा दिया कि जब हम दोनों निर्णय कराने आएँ, तब यह कहना कि अति पंडित' दो अंश पावे। इसके उपरांत अति पंडित बोधिसत्व के पास जाकर बोला—भाई, हम लोगों में से हर एक को कितना मिलना चाहिए, इसका निर्णय वृक्ष-देवता ही करेंगे। अतः चलकर उनसे पूछना चाहिए।

    इस प्रकार विचार कर वे और अति पंडित ने प्रार्थना की दोनों उसी वृक्ष के नीचे आए हे वृक्ष—देवता! आप हमारे झगड़े का निर्णय कर दें। उस समय अति पंडित के पिता ने अपना स्वर बदलकर पूछा—भाई तुम लोगों के झगड़े का कारण क्या है? अति पंडित ने कहा—हे वृक्ष देवता, मेरा यह साथी तो पंडित है और मैं 'अति पंडित' हूँ। हम दोनों ने एक साथ व्यापार आरंभ किया था। उसमें हम लोगों को ख़ूब लाभ हुआ। अब आप ही निर्णय कीजिए कि हम लोगों में से किसको कितना अंश मिलना चाहिए। वृक्ष के अंदर से सुनाई दिया—पंडित को एक अंश और अति पंडित को दो अंश मिलने चाहिए। बोधिसत्व मन में विचार करने लगे कि वास्तव में वृक्ष देवता ही बोल रहे हैं या इसमें और ही कोई रहस्य है। इसका निश्चय कर लेना चाहिए। उन्होंने सूखे पत्ते और घास इकट्ठी की और उम कोटर में आग लगा दी। आग सुलग उठी। अति पंडित के पिता का शरीर झुलस गया और वह वृक्ष की शाखाओं को पकड़कर किसी तरह नीचे उतरता हुआ बोला—तुम्हारा पंडित नाम ही सार्थक है और यह अति पंडित मूर्ख है; क्योंकि इसकी मूर्खता के कारण मुझे व्यर्थ ही इतना दुःख सहना पड़ा।

    पश्चात् उन दोनों ने लाभ का अंश आपस में बराबर-बराबर बाँट लिया; और वे अपने-अपने कर्मों का फल भोगने के लिए दूसरे लोक को चले गए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 153)
    • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

    संबंधित विषय

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY