प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
शांति की बातचीत करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण हस्तिनापुर गए। उनके साथ सात्यकि भी गए थे। रास्ते में कुशस्थल नामक स्थान में वह एक रात विश्राम करने के लिए ठहरे। हस्तिनापुर में जब यह ख़बर पहुँची कि श्रीकृष्ण पांडवों की ओर से दूत बनकर संधि चर्चा के लिए आ रहे हैं तो धृतराष्ट्र ने आज्ञा दी कि नगर को ख़ूब सजाया जाए। पुरवासियों ने द्वारिकाधीश के स्वागत की धूमधाम से तैयारियाँ कीं दुःशासन का भवन दुर्योधन के भवन से अधिक ऊँचा और सुंदर था। इसलिए धृतराष्ट्र ने आज्ञा दी कि उसी भवन में श्रीकृष्ण को ठहराने का प्रबंध किया जाए। श्रीकृष्ण हस्तिनापुर पहुँच गए। पहले श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र के भवन में गए। फिर धृतराष्ट्र से विदा लेकर वह विदुर के भवन में गए। कुंती वहीं कृष्ण की प्रतीक्षा में बैठी थीं।
श्रीकृष्ण को देखते ही उन्हें अपने पुत्रों का स्मरण हो आया। श्रीकृष्ण ने उन्हें मीठे वचनों से सांत्वना दी और उनसे विदा लेकर दुर्योधन के भवन में गए। दुर्योधन ने श्रीकृष्ण का शानदार स्वागत किया और उचित आदर-सत्कार करके भोजन का न्यौता दिया। श्रीकृष्ण ने कहा—“राजन! जिस उद्देश्य को लेकर मैं यहाँ आया हूँ, वह पूरा हो जाए, तब मुझे भोजन का न्यौता देना उचित होगा।” यह कहकर वे विदुर के यहाँ चले गए और वहाँ भोजन करके विश्राम किया।
इसके बाद श्रीकृष्ण और विदुर में आगे के कार्यक्रम के बारे में सलाह हुई। विदुर ने कहा—“उनकी सभा में आपका जाना भी उचित नहीं है।”
दुर्योधनादि के स्वभाव से जो भी परिचित थे, उनका भी यही कहना था कि वे लोग कोई-न-कोई कुचक्र रचकर श्रीकृष्ण के प्राणों तक को हानि पहुँचाने की चेष्टा करेंगे। विदुर की बातें ध्यान से सुनने के बाद श्रीकृष्ण बोले—“मेरे प्राणों की चिंता आप न करें।”
दूसरे दिन सवेरे दुर्योधन और शकुनि ने आकर श्रीकृष्ण से कहा—“महाराज धृतराष्ट्र आपको प्रतीक्षा कर रहे हैं।” इस पर विदुर को साथ लेकर श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र के भवन में गए।
वासुदेव के सभा में प्रविष्ट होते ही सभी सभासद उठ खड़े हुए श्रीकृष्ण ने बड़ों को विधिवत् नमस्कार किया और आसन पर बैठे राजदूत एवं सम्भ्रांत अतिथि सा उनका सत्कार किया गया। इसके बाद श्रीकृष्ण उठे और पांडवों की माँग सभा के सामने रखी। फिर वह धृतराष्ट्र की ओर देखकर बोले—“राजन्! पांडव शांतिप्रिय है, परंतु साथ ही यह भी समझ लीजिए कि वे युद्ध के लिए भी तैयार हैं। पांडव आपको पिता स्वरूप मानते हैं। ऐसा उपाय करें, जिससे आप भाग्यशाली बने।”
यह सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा—“सभासदो में भी वही चाहता हूँ, जो श्रीकृष्ण को प्रिय है।”
इस पर श्रीकृष्ण दुर्योधन से बोले—“मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि पांडवों को आधा राज्य लौटा दो और उनके साथ संधि कर लो। यदि यह बात स्वीकृत हो गई, तो स्वयं पांडव तुम्हें युवराज और धृतराष्ट्र को महाराज के रूप में सहर्ष स्वीकार कर लेंगे।”
भीष्म और द्रोण ने भी दुर्योधन को बहुत समझाया। फिर भी दुर्योधन ने अपना हठ नहीं छोड़ा। वह श्रीकृष्ण का प्रस्ताव स्वीकार करने पर राज़ी न हुआ। धृतराष्ट्र ने दुबारा पुत्र से आग्रह किया कि श्रीकृष्ण का प्रस्ताव मान ले नहीं तो कुल का सर्वनाश हो जाएगा। दुर्योधन ने अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने को जो चेष्टा की थी, उससे श्रीकृष्ण को हँसी आ गई। तभी श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को उन सब अत्याचारों का विस्तार से स्मरण दिलाया, जो उसने पांडवों पर किए थे। भीष्म, द्रोण आदि प्रमुख वृद्धों ने भी श्रीकृष्ण के इस वक्तव्य का समर्थन किया।
यह देखकर दुःशासन क्रुद्ध हो उठा और दुर्योधन से बोला—“भाई मालूम होता है, ये लोग आपको क़ैद करके कहीं पांडवों के हवाले न कर दें। इसलिए चलिए, यहाँ से निकल चलें।” इस पर दुर्योधन उठा और अपने भाइयों के साथ सभा से बाहर चला गया।
इसी बीच धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा—“तुम ज़रा गाधारी को सभा में ले आओ। उसकी समझ बहुत स्पष्ट है और वह दूर की सोच सकती है। हो सकता है, उसकी बातें दुर्योधन मान ले।” यह सुनकर विदुर ने सेवकों की आज्ञा देकर गांधारी को बुला लाने को भेजा। गांधारी भी सभा में आई और धृतराष्ट्र मे दुर्योधन को भी सभा में फिर से बुलाया। दुर्योधन सभा में लौट आया। क्रोध के कारण उसकी आँखें लाल हो रही थी। गांधारी ने भी उसे कई तरह से समझाया, परंतु दुर्योधन ये बातें मानने वाला कब था। अपनी माँ को भी उसने मना कर दिया और दुबारा सभा से निकलकर चला गया। बाहर जाकर दुर्योधन ने अपने साथियों के साथ मिलकर एक षड्यंत्र रचा और राजदूत श्रीकृष्ण को पकड़ने का प्रयत्न किया। श्रीकृष्ण ने तो पहले ही से इन बातों की कल्पना कर ली थी। दुर्योधन की यह चेष्टा देखकर वह हँस पड़े। श्रीकृष्ण उठे। सात्यकि और विदुर उनके दोनों और हो गए। सब सभासदों से विधिवत् आज्ञा ली। सभा से चलकर सीधे कुंती के पास पहुँचे और उनको सभा का सारा हाल कह सुनाया।
कुंती बोली—“हे कृष्ण! अब तुम्हीं मेरे पुत्रों के रक्षक हो।” श्रीकृष्ण रथ पर आरूढ़ होकर उपप्लव्य की ओर तेज़ी से रवाना हो गए। युद्ध अब अनिवार्य हो गया था। श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर से लौटते ही शांति स्थापना की जो थोड़ी-बहुत आशा थी, वह भी लुप्त हो गई। कुंती को जब पता चला कि कुलनाशी युद्ध छिड़ेगा ही, तो वह बहुत व्याकुल हो गई।
चिंता के कारण आकुल हो रही कुंती अपने पुत्रों को सुरक्षा का विचार करती हुई गंगा के किनारे पहुँची, जहाँ कर्ण रोज़ संध्या वंदन किया करता था। मध्याह्न के बाद कर्ण का जप पूरा हुआ तो उसे यह जानकर असीम आश्चर्य हुआ कि महाराज पांडु की पत्नी और पांडवों को माता कुंती हो उसका उत्तरीय सिर पर लिए खड़ी हैं।
कर्ण ने शिष्टतापूर्वक अभिवादन करके कहा—“आज्ञा दीजिए, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?”
कुंती ने गद्गद स्वर में कहा—“कर्ण यह न समझो कि तुम केवल सूत-पुत्र ही हो। न तो राधा तुम्हारी माँ है, न अधिरथ तुम्हारे पिता। तुमको जानना चाहिए कि राजकुमारी पृथा की कोख से तुम उत्पन्न हुए हो। तुम सूर्य के अंश हो।” थोड़ा सुस्ताने के बाद वह फिर बोली—“बेटा! दुर्योधन के पक्ष में होकर तुम अपने भाइयों से ही शत्रुता कर रहे हो। धृतराष्ट्र के लड़कों के आश्रित रहना तुम्हारे लिए अपमान की बात है। तुम अर्जुन के साथ मिल जाओ, वीरता से लड़ो और राज्य प्राप्त करो। वे भी तुम्हारे अधीन रहेंगे और तुम उनसे घिरे हुए प्रकाशमान होओगे।”
कर्ण माता कुंती का यह अनुरोध सुनकर बोला—“माँ यदि इस समय मैं दुर्योधन का साथ छोड़कर पांडवों की तरफ़ चला गया, तो लोग मुझे ही कायर कहेंगे। अब जब युद्ध होना निश्चित हो गया है, तो मैं उनको मझधार में कैसे छोड़ जाऊँ? यह तुम्हारी कैसी सलाह है? आज मेरा कर्तव्य यही है कि मैं पांडवों के विरुद्ध सारी शक्ति लगाकर लडूँ। मैं तुमसे असत्य क्यों बोलूँ? मुझे क्षमा कर दो। लेकिन हो, तुम्हारी भी बात एकदम व्यर्थ नहीं जाएगी। अब मैं यह करूँगा कि अर्जुन को छोड़कर और किसी पांडव के प्राण नहीं लूँगा। या तो अर्जुन इस युद्ध में काम आएगा, या मैं दोनों में से एक को तो मरना ही पड़ेगा। शेष चारों पांडव मुझे चाहे कितना भी तग करें, मैं उनको नहीं मारूँगा। माँ, तुम्हारे तो पाँच पुत्र हर हालत में रहेंगे, चाहे मैं मर जाऊँ, चाहे अर्जुन। हम दोनों में से एक बचेगा और बाक़ी चार तो रहेंगे ही। तुम चिंता न करो।”
अपने बड़े पुत्र को से सारी बातें सुनकर माता कुंती का मन बहुत विचलित हुआ, परंतु उन्होंने उसे अपने गले से लगा लिया और बोली—“तुम्हारा कल्याण हो।” कर्ण को इस प्रकार आशीर्वाद देकर कुंती अपने महल में चली आई।
shanti ki batachit karne ke uddeshya se shrikrishn hastinapur ge. unke saath satyaki bhi ge the. raste mein kushasthal namak sthaan mein wo ek raat vishram karne ke liye thahre. hastinapur mein jab ye khabar pahunchi ki shrikrishn panDvon ki or se doot bankar sandhi charcha ke liye aa rahe hain to dhritarashtr ne aagya di ki nagar ko khoob sajaya jaye. purvasiyon ne dvarikadhish ke svagat ki dhumdham se taiyariyan keen duःshasan ka bhavan duryodhan ke bhavan se adhik uncha aur sundar tha. isliye dhritarashtr ne aagya di ki usi bhavan mein shrikrishn ko thahrane ka prbandh kiya jaye. shrikrishn hastinapur pahunch ge. pahle shrikrishn dhritarashtr ke bhavan mein ge. phir dhritarashtr se vida lekar wo vidur ke bhavan mein ge. kunti vahin krishn ki prtiksha mein baithi theen.
shrikrishn ko dekhte hi unhen apne putron ka smran ho aaya. shrikrishn ne unhen mithe vachnon se santvna di aur unse vida lekar duryodhan ke bhavan mein ge. duryodhan ne shrikrishn ka shanadar svagat kiya aur uchit aadar satkar karke bhojan ka nyauta diya. shrikrishn ne kaha—“rajan! jis uddeshya ko lekar main yahan aaya hoon, wo pura ho jaye, tab mujhe bhojan ka nyauta dena uchit hoga. ” ye kahkar ve vidur ke yahan chale ge aur vahan bhojan karke vishram kiya.
iske baad shrikrishn aur vidur mein aage ke karyakram ke bare mein salah hui. vidur ne kaha—“unko sabha mein aapka jana bhi uchit nahin hai. ”
duryodhnadi ke svbhaav se jo bhi parichit the, unka bhi yahi kahna tha ki ve log koi na koi kuchakr rachkar shrikrishn ke pranon tak ko hani pahunchane ki cheshta karenge. vidur ko baten dhyaan se sunne ke baad shrikrishn bole—“mere pranon ki chinta aap na karen. ”
dusre din savere duryodhan aur shakuni ne aakar shrikrishn se kaha—“maharaj dhritarashtr aapko prtiksha kar rahe hain. ” is par vidur ko saath lekar shrikrishn dhritarashtr ke bhavan mein ge.
vasudev ke sabha mein pravisht hote hi sabhi sabhasad uth khaDe hue shrikrishn ne baDon ko vidhivat namaskar kiya aur aasan par baithe rajadut evan sambhrant atithi sa unka satkar kiya gaya. iske baad shrikrishn uthe aur panDvon ki maang sabha ke samne rakhi. phir wo dhritarashtr ki or dekhkar bole—“rajan! panDav shantipriy hai, parantu saath hi ye bhi samajh lijiye ki ve yuddh ke liye bhi taiyar hain. panDav aapko pita svarup mante hain. aisa upaay karen, jisse aap bhagyashali bane. ”
ye sunkar dhritarashtr ne kaha—“sabhasdo mein bhi vahi chahta hoon, jo shrikrishn ko priy hai. ”
is par shrikrishn duryodhan se bole—“main itna hi kahna chahta hoon ki panDvon ko aadha rajya lauta do aur unke saath sandhi kar lo. yadi ye baat svikrit ho gai, to svayan panDav tumhein yuvaraj aur dhritarashtr ko maharaj ke roop mein saharsh svikar kar lenge. ”
bheeshm aur dron ne bhi duryodhan ko bahut samjhaya. phir bhi duryodhan ne apna nahin chhoDa wo shrikrishn ka prastav svikar karne par raji na hua. raashtr ne dobara putr se agrah kiya ki shrikrishn ka prastav maan le nahin to kul ka sarvanash ho jayega. duryodhan ne apne aapko nirdosh siddh karne ko jo cheshta ki thi, usse shrikrishn ko hansi aa gai. tabhi shrikrishn ne duryodhan ko un sab atyacharon ka vistar se smran dilaya, jo usne panDvon par kiye the. bheeshm, dron aadi pramukh vriddhon ne bhi shrikrishn ke is vaktavya ka samarthan kiya.
ye dekhkar duःshasan kruddh ho utha aur duryodhan se bola—“bhai malum hota hai, ye log aapko qaid karke kahan panDvon ke havale na kar den. isliye chaliye, yahan se nikal chalen. ” is par duryodhan utha aur apne bhaiyon ke saath sabha se bahar chala gaya.
isi beech dhritarashtr ne vidur se kaha—“tum dara gadhari ko sabha mein le aao. uski samajh bahut aspasht hai aur wo door ki soch sakti hai. ho sakta hai, uski baten duryodhan maan le. ” ye sunkar vidur ne sevkon ki aagya dekar gandhari ko bula lane ko bheja. gandhari bhi sabha mein aai aur dhritarashtr mae duryodhan ko bhi sabha mein phir se bulaya. duryodhan sabha mein laut aaya. krodh ke karan uski ankhen laal ho rahi thi. gandharon ne bhi use kai tarah se samjhaya, parantu duryodhan ye baten mannevala kab tha. apni maan ko bhi usne mana kar diya aur dobara sabha se nikalkar chala gaya. bahar jakar duryodhan ne apne sathiyon ke saath milkar ek shaDyantr racha aur rajadut shrikrishn ko pakaDne ka prayatn kiya. shrikrishn ne to pahle hi se in baton ki kalpana kar li thi. duryodhan ki ye cheshta dekhkar wo hans paDe. shrikrishn uthe. satyaki aur vidur unke donon aur ho ge. sab sabhasdon se vidhivat aagya li. sabha se chalkar sodhe kunti ke paas pahunche aur unko sabha ka sara haal kah sunaya.
kunti boli—“he krishn! ab tumhi mere putron ke rakshak ho. ” shrikrishn rath par aruDh hokar upaplavya ki or tezi se ravana ho ge. yuddh ab anivarya ho gaya tha. shrikrishn ke hastinapur se lautte hi shanti sthapana ki jo thoDi bahut aasha thi, wo bhi lupt ho gai. kunti ko jab pata chala ki kulnashi yuddh chhiDega ho, to wo bahut vyakul ho gai.
chinta ke karan aakul ho rahi kriti apne putron ko suraksha ka vichar karti hui ganga ke kinare pahunchi, jahan karn roz sandhya vandan kiya karta tha. madhyah ke baad karn ka jap pura hua to use ye jankar asim ashcharya hua ki maharaj panDu ki patni aur panDvon ko mata kuti ho uska uttariy sir par liye khaDi hain.
karn ne shishttapurvak abhivadan karke kaha—“agya dijiye, main apaki kya seva karun?”
kunti ne gadgad svar mein kaha—“karn ye na samjho ki tum keval soot putr ho hoto, radha tumhari maan hai, na adhirath tumhare pita. tumko janna chahiye ki rajakumari pritha ki kokh se tum utpann hue ho. tum surya ke ansh ho. ” thoDa sustane ke baad wo phir boli—“beta! duryodhan ke paksh mein hokar tum apne bhaiyon se hi shatruta kar rahe ho. dhritarashtr ke laDkon ke ashrit rahna tumhare liye apman ki baat hai. tum arjun ke saath mil jao, virata se laDi aur rajya praapt karo. ve bhi tumhare adhin rahenge aur tum unse ghire hue prakashaman hooge. ”
karn mata kunti ka ye anurodh sunkar bola—“man yadi is samay main duryodhan ka saath chhoDkar panDvon ki taraf chala gaya, to log mujhe hi kaar kahenge. ab jab yuddh hona nishchit ho gaya hai, to main unko majhdhar mein kaise chhoD jaun? ye tumhari kaisi salah hai? aaj mera kartavya yahi hai ki main panDvon ke viruddh sari shakti lagakar lahun. main tumse asatya kyon bolu? mujhe kshama kar do. lekin ho, tumhari bhi baat ekdam vyarth nahin jayegi. ab main ye karunga ki arjun ko chhoDkar aur kisi panDav ke praan nahin lunga. ya to arjun is yuddh mein kaam ayega, ya main donon mein se ek ko to marna hi paDega. shesh charon panDav mujhe chahe kitna bhi tag karen, main unko nahin marunga. maan, tumhare to paanch putr har haalat mein rahenge, chahe main mar jaun, chahe arjun. hum donon mein se ek bachega aur baqi chaar to rahenge hi. tum chinta na karo. ”
apne baDe putr ko se sari baten sunkar mata kunti ka man bahut vichlit hua, parantu unhonne use apne gale se laga liya aur boli—“tumhara kalyan ho. ” karn ko is prakar ashirvad dekar kunti apne mahl mein chali aai.
shanti ki batachit karne ke uddeshya se shrikrishn hastinapur ge. unke saath satyaki bhi ge the. raste mein kushasthal namak sthaan mein wo ek raat vishram karne ke liye thahre. hastinapur mein jab ye khabar pahunchi ki shrikrishn panDvon ki or se doot bankar sandhi charcha ke liye aa rahe hain to dhritarashtr ne aagya di ki nagar ko khoob sajaya jaye. purvasiyon ne dvarikadhish ke svagat ki dhumdham se taiyariyan keen duःshasan ka bhavan duryodhan ke bhavan se adhik uncha aur sundar tha. isliye dhritarashtr ne aagya di ki usi bhavan mein shrikrishn ko thahrane ka prbandh kiya jaye. shrikrishn hastinapur pahunch ge. pahle shrikrishn dhritarashtr ke bhavan mein ge. phir dhritarashtr se vida lekar wo vidur ke bhavan mein ge. kunti vahin krishn ki prtiksha mein baithi theen.
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is par shrikrishn duryodhan se bole—“main itna hi kahna chahta hoon ki panDvon ko aadha rajya lauta do aur unke saath sandhi kar lo. yadi ye baat svikrit ho gai, to svayan panDav tumhein yuvaraj aur dhritarashtr ko maharaj ke roop mein saharsh svikar kar lenge. ”
bheeshm aur dron ne bhi duryodhan ko bahut samjhaya. phir bhi duryodhan ne apna nahin chhoDa wo shrikrishn ka prastav svikar karne par raji na hua. raashtr ne dobara putr se agrah kiya ki shrikrishn ka prastav maan le nahin to kul ka sarvanash ho jayega. duryodhan ne apne aapko nirdosh siddh karne ko jo cheshta ki thi, usse shrikrishn ko hansi aa gai. tabhi shrikrishn ne duryodhan ko un sab atyacharon ka vistar se smran dilaya, jo usne panDvon par kiye the. bheeshm, dron aadi pramukh vriddhon ne bhi shrikrishn ke is vaktavya ka samarthan kiya.
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karn mata kunti ka ye anurodh sunkar bola—“man yadi is samay main duryodhan ka saath chhoDkar panDvon ki taraf chala gaya, to log mujhe hi kaar kahenge. ab jab yuddh hona nishchit ho gaya hai, to main unko majhdhar mein kaise chhoD jaun? ye tumhari kaisi salah hai? aaj mera kartavya yahi hai ki main panDvon ke viruddh sari shakti lagakar lahun. main tumse asatya kyon bolu? mujhe kshama kar do. lekin ho, tumhari bhi baat ekdam vyarth nahin jayegi. ab main ye karunga ki arjun ko chhoDkar aur kisi panDav ke praan nahin lunga. ya to arjun is yuddh mein kaam ayega, ya main donon mein se ek ko to marna hi paDega. shesh charon panDav mujhe chahe kitna bhi tag karen, main unko nahin marunga. maan, tumhare to paanch putr har haalat mein rahenge, chahe main mar jaun, chahe arjun. hum donon mein se ek bachega aur baqi chaar to rahenge hi. tum chinta na karo. ”
apne baDe putr ko se sari baten sunkar mata kunti ka man bahut vichlit hua, parantu unhonne use apne gale se laga liya aur boli—“tumhara kalyan ho. ” karn ko is prakar ashirvad dekar kunti apne mahl mein chali aai.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।