आधुनिक नृत्य-कला
adhunik nrity kala
हिन्दू-जाति ने कला-कौशल में जो उन्नति की है वह धार्मिक भाव की प्रेरणा से। नृत्य-कला की उत्पत्ति भले ही स्वाभाविक सुख-लिप्सा के कारण हुई हो, परंतु उसकी उन्नति का कारण धार्मिक भाव है। आजकल असभ्य जातियों में भी नृत्य धार्मिक उत्सवों में ही होते हैं। हिन्दू-जाति में नृत्य के प्रचार के विषय में जो कथा प्रचलित है उससे उसकी धार्मिकता सिद्ध होती है। कहा जाता है कि ब्रह्माजी ने एक बार स्वरचित एक नाटक का अभिनय कराया। उसमें महादेवजी भी उपस्थित थे। नाटक का अभिनय देखकर महादेवजी बड़े प्रसन्न हुए। परंतु आपने नृत्य का समावेश कराना चाहा। ब्रह्माजी भी इससे सहमत हुए। तब महादेवजी की आज्ञा से तण्डु ने भरतमुनि को नृत्य के सब भेद बतलाए। ये नृत्य तण्डु से प्राप्त हुए थे, अतः इनका नाम ‘ताण्डव’ पड़ा।
प्राचीन काल में भारतवर्ष अपने कला-कौशल के लिए विख्यात था। यहाँ सभी कलाएँ उन्नति की चरमावस्था को पहुँच गई थीं। नृत्य-कला की भी अच्छी उन्नति हुई थी। बड़े-बड़े राजे-महाराजे इस कला के पृष्ठ-पोषक थे। इतना ही नहीं, उनके अंतःपुर में भी नृत्य-कला का अच्छा मान था। महाभारत में लिखा है कि अर्जुन राजकुमारी उत्तरा को नृत्य-कला की शिक्षा देते थे। कालिदास के ‘मालविकाग्निमित्र’ नाटक में मालविका का नृत्य-कला-कौशल बतलाया गया है। क्रमशः इस कला का अद्य:पतन होने लगा। आजकल तो यह कला उन लोगों के पास रह गई है जिनका स्थान समाज में ऊँचा नहीं है। यही कारण है कि अब नृत्य-कला का आदर नहीं है। पाश्चात्य देशों में नृत्य-कला का अच्छा प्रचार है। वहाँ छोटे-बड़े सभी लोग नृत्य में सम्मिलित होते हैं। इससे उसकी बराबर उन्नति होती जा रही है।
आधुनिक पाश्चात्य नृत्य-कला का जन्मदाता फ़्रांस है। फ़्रांस में सभी देशों के नृत्यों का प्रदर्शन होता था और फिर नृत्य-कला-विशारद उनकी त्रुटियों की अच्छी तरह परीक्षा करते थे। तब उनका संशोधन किया जाता था। इसके बाद उसका प्रचार होता था। फ़्रांस के नृत्यों में मिन्यूएट (Minuet) नामक नृत्य की बड़ी प्रसिद्धि हुई। यह सन् 1650 में फ़्रांस देश में लाया गया। फिर इसको विशुद्ध रूप दिया गया और जब यह कला-कोविदों की दृष्टि में निर्दोष हो गई, तब इसका प्रचार बढ़ने लगा। चार्ल्स द्वितीय के समय में इसका प्रचार इंग्लैंड में हुआ। पाश्चात्य देशों में पचीसों तरह के नृत्य प्रचलित हैं। उन सबका इतिहास है। नृत्य-कला पर सैकड़ों ग्रंथ हैं। उसकी शिक्षा देने के लिए कितने ही आचार्य हैं। वहाँ नृत्य सामाजिक विधियों में सम्मिलित है। इसीलिए सभी लोगों को नृत्य का थोड़ा-बहुत ज्ञान होता है। हम लोगों के लिए यह नृत्य-शास्त्र बड़ा जटिल है। परंतु हमें स्मरण रखना चाहिए कि कभी हमारे देश में भी नृत्य-शास्त्र था जिसमें नृत्यों की सूक्ष्म विवेचना की गई थी। उसकी सूक्ष्मता का आभास पाठक निम्नलिखित अवतरण से पा सकते हैं।
भिन्न-भिन्न भावों का प्रकाशन करने के लिए, हाथ और पैर के संयोग से, विविध प्रकार के नृत्य होते हैं। चरण-हस्तादिकों को एकत्र करना नृत्यों का करण कहाता है। दो करणों की एक नृत्य-मातृका होती है। दो, तीन अथवा चार मातृकाओं का एक अंगहार होता है। भरतमुनि ने स्थिरहस्त, अपविद्ध, विष्कम्भ-पर्यन्तिक, मत्ताक्रीड, आक्षिप्त, अपराजित, स्वस्तिक, सूचीविद्ध, उद्योतित इत्यादि 32 प्रकार के अंगहारों की गणना की है। करण भी 108 प्रकार के होते हैं, जैसे पुष्पपुट, चलितोरु, विक्षिप्ताक्षिप्त इत्यादि। सुंदर भावों द्वारा नृत्य के विराम दिखलाने को रेचक कहते हैं। वह चार प्रकार का होता है—अर्थात् पाद-रेचक, कटि-रेचक, तृतीय रेचक और चतुर्थ रेचक।
भारतीय नृत्य-शास्त्र की सूक्ष्मता इसी से प्रकट हो जाती है।
‘सरस्वती’ में कुछ वर्ष पहले पण्डित गिरिधारी लाल तिवारी नामक एक नर्त्तकाचार्य का संक्षिप्त परिचय निकला था। उसमें नर्त्तकाचार्यजी के विलक्षण नृत्यों का वर्णन था। नर्त्तकाचार्यजी की कला की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि आप लोगों के हृदय में अलौकिकता का भाव ला देते थे। आप तलवारों पर, आरों की धारों पर, पहिये पर लगी हुई कीलों की नोकों पर सुगमतापूर्वक नाचते थे। अपने शरीर का हलकापन दिखाने के लिए आप फ़र्श पर शकर के बताशे बिछवाकर उन पर नाचते थे। बताशा एक भी नहीं फूटता था। आपके नृत्यों से दर्शक विस्मय-विमुग्ध अवश्य हो जाते रहे होंगे। पर क्या उनके चित्त पर नृत्यों का प्रभाव चिरस्थायी होता था? कला के दो उद्देश हैं, एक तो यह कि उससे मनोरंजन हो और दूसरा यह कि उससे हृदय उन्नत हो। तिवारीजी की असाधारण नृत्य-कला से मनोरंजन अवश्य होता था, परंतु उसमें कौतूहलोद्दीपन के सिवा भावों के उद्रेक करने की शक्ति नहीं थी। जो बात असाधारण होती है उस पर मनुष्यों का चित्त आकृष्ट होता है। इसीलिए कला का पहला गुण असाधारणता है। कला-कोविद की कृति ऐसी होती है कि वह अन्य लोगों के लिए अगम्य हो। परंतु असाधारणता के साथ ही वह बात होनी चाहिए जो सभी लोगों के हृदय में हो। जब चित्रकार कोई चित्र अंकित कर देता है तब लोग उसकी असाधारणता पर मुग्ध हो जाते हैं, परंतु जब वे देखते हैं कि चित्र उनके ही हृदय का प्रतिबिंब है, तब वे उसमें तन्मय हो जाते हैं। किसी भी कला की उत्कृष्टता का सबसे अच्छा प्रमाण यह तन्मयता ही है। असाधारणता से विस्मय प्रकट होता है, परंतु साधारणता से तन्मयता होती है। बाज़ीगरों का तमाशा देख कर कोई तन्मय नहीं होता, क्योंकि उसमें सिर्फ़ विलक्षणता रहती है। उससे दर्शकों के चित्र में कौतूहल-मात्र होता है। पर समान भावों की उत्पत्ति से अर्थात् सहानुभूति के उद्रेक से तन्मयता होती है।
आधुनिक नृत्य-कला में अब भावों की अभिव्यक्ति पर अधिक ध्यान दिया जाता है। मन में जो भाव उदित होता है, वह शरीर के द्वारा प्रकट किया जाता है। जो अलक्षित है वह दृग्गोचर होता है। जो इंद्रियातीत है, वह इंद्रिय-ग्राह्य बनाया जाता है। कल्पना मूर्तिमती हो जाती है। नृत्य-कला में मिस ऐलन की अच्छी प्रसिद्धि है।
वह अपने अंग-संचालन से मनोगत भाव को प्रत्यक्ष कर देती है। उसका कथन है कि जितना ही विलक्षण भाव होगा उतना ही विलक्षण शरीर के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति होगी। नृत्य को हम नीरव संगीत कह सकते हैं। मिस ऐलन के कई नृत्य प्रसिद्ध हैं। पर उसका सर्वश्रेष्ठ नृत्य है ‘Vision of Salome’। बाइबिल में एक कथा है। सलोमी नाम की एक युवती हेरोद के पास नाचने गई। अपने नृत्य से राजा को प्रसन्न कर उसने जान नामक धर्मगुरु को प्राणदंड दिलाया। इसके बाद अचानक उसने देखा कि उसका पाप कितना भीषण है। इसी कथा को मिस ऐलन ने अपने नृत्य से प्रत्यक्ष कर दिया है। यहाँ जो पहला चित्र दिया जाता है, उसमें इसी नृत्य का दृश्य अंकित किया गया है। सलोमी का यह नृत्य अब ख़ूब प्रसिद्ध हो गया है। मिस ऐलन ने इससे धन और यश दोनों प्राप्त किए। अमरीका और योरप के सभी देशों में यह नृत्य लोकप्रिय हो गया है। बड़े-बड़े कला-कोविदों ने इसकी प्रशंसा की। एक समालोचक की यह सम्मति है—‘‘Its originality of conception, its intensity, its realism, and the horror of its story are things not easily to be forgotten’’; अर्थात् इसमें भाव की मौलिकता है, तीव्रता है, यथार्थता है और कथा की भयोत्पादकता है। ये सब बातें मन में अंकित हो जाती हैं। एक बार देखने से फिर वे चिरस्मरणीय हो जाती हैं।
अब एक दूसरी नर्तकी का कला-नैपुण्य सुनिए। इस नर्तकी का नाम है आडेट वेलेरी। इसकी राय है कि नृत्य सर्वश्रेष्ठ संगीत का मूर्तिमान रूप है। इसकी नृत्य-कला का नमूना है क्लियोपैट्रा नामक नृत्य। इस नृत्य में क्लियोपैट्रा की समस्त जीवन-कथा अंग-संचालन द्वारा व्यक्त की जाती है। जिन्होंने शेक्सपियर का ‘एंटनी एंड क्लियोपैट्रा’ नामक नाटक एक बार भी पढ़ा है, वे क्लियोपैट्रा को भूल नहीं सकते। क्लियोपैट्रा की कथा कल्पित नहीं है, यद्यपि शेक्सपियर ने उसे कल्पना के रंग में रँग दिया है। क्लियोपैट्रा मिस्त्र देश की रानी थी। उसकी मृत्यु के विषय में एक कथा प्रचलित है। कहा जाता है एंटनी ने उसके पास फूल भेजे। उन फूलों में सर्प छिपा हुआ था। जब क्लियोपैट्रा ने उन फूलों को ग्रहण किया तब सर्प उससे लिपट गया। क्लियोपैट्रा ने सर्प को वशीभूत करने की चेष्टा की। वह उसके साथ कुछ देर तक खेलती रही। अंत में सर्प ने उसे काट खाया। वेलेरी अपने नृत्य में यह भाव बड़े कौशल से प्रकट करती है। उसने तीन सर्प पाल रक्खे हैं और इन्हीं सर्पों को गले में डालकर वह नाचती है। कहना नहीं होगा कि ये विषधर सर्प नहीं हैं। यहाँ जो दूसरा चित्र दिया गया है, उसमें यही दृश्य अंकित है।
एक और विलक्षण नृत्य है ‘The Dancr of the Butterfly’ अर्थात् तितली का नाच। इसका भी चित्र यहाँ दिया गया है। जो नर्तकी इस नृत्य में निपुण है, उसका नाम है फिलिस मांकमैन। इसमें तितली का जीवन प्रदर्शित किया जाता है। इसके लिए बड़े परिश्रम से पोशाक तैयार की जाती है।
जो देश ऋद्धि-सिद्धि-संपन्न हैं, वे नृत्य-कला को उन्नत कर आमोद-प्रमोद में निरत हो सकते हैं। पर जो देश दुःख-दारिद्रय से पीड़ित हैं, रोग-शोक से जर्जर हैं, उसके लिए नृत्य-कला का यह भव्य दृश्य किस काम का?
- पुस्तक : सरस्वती (पृष्ठ 41)
- रचनाकार : हरिनारायणलाल श्रीवास्तव
- संस्करण : 1921
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