षड्ऋतु वर्णन (शरद)
shaDritu warnan (sharad)
आइ सरद रितु अधिक पियारी। नौ कुवार कार्तिक उजियारी॥
पद्मावति भै पूनिवँ कला। चौदह चाँद उए सिंघला॥
सोरह करा सिंगार बनावा। नखतन्ह भरे सुरुज ससि पावा॥
भा निरमर सब धरनि अकासू। सेज सँवारि कीन्ह फुल डासू॥
सेत बिछावन औ उजियारी। हँसि हँसि मिलहिं पुरुख औ नारी॥
सोने फूल पिरिथिमी फूली। पिउ धनि सों धनि पिउ सों भूली॥
चखु अंजन है खँजन देखावा। होइ सारस जोरी पिउ पावा॥
एहि रितु कंता पास जेहि सुख तिन्हके हिय मांहँ।
धनि हँसि लागै पिय गले धनि गल पिय कै बाँह॥
फिर शरद ऋतु आई जो औरों से अधिक प्रिय लग रही थी। कुआर कार्तिक की उजियाली नई जान पड़ती थी। पद्मावती की मुख छवि पूर्णिमा के चंद्रमा जैसी हुई। उससे पूर्व जो सिंहल में चौदह चाँद उदित हुए उनसे क्रमशः उसके अंगों का संवर्धन हुआ। उसने जो आभरणों का शृंगार किया वह सोलहवीं का थी। इस प्रकार नक्षत्रों के मध्य में विराजमान पूर्ण शशि को सूर्य ने प्राप्त किया। धरती से आकाश तक सब निर्मल हो गया। सेज रचकर उस पर फूलों की चादर बिछाई गई। उजली रात में श्वेत बिछावन पर पुरुष और स्त्री रहस-रहस कर मिलने लगे। ऐसा जान पड़ता था मानो पृथ्वी सोने के पुष्पों से फूली हुई थी। प्रिया प्रियतम से और प्रियतम प्रिया से मिलकर भूले हुए थे। अंजन लगाने से नेत्र खंजन से दिखाई देते थे। सारस की जोड़ी-सी होने के लिए उसने पति प्राप्त किया था।
- पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 337)
- रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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