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नखशिख (छः)

nakhshikh (chha.a)

मलिक मोहम्मद जायसी

और अधिकमलिक मोहम्मद जायसी

    अधर सुरंग अमिअ रस भरे। बिंब सुरंग लाजि बन फरे॥

    फूल दुपहरी मानहुँ राता। फूल झरहिं जब जब कह बाता॥

    हीरा गहै सो बिद्रुम धारा। बिहँसत जगत होइ उजियारा॥

    भए मँजीठ पानन्ह रंग लागे। कुसुम रंग थिर रहा आगें॥

    अस कै अधर अमिअ भरि राखे। अबहिं अछत काहूँ चाखे॥

    मुख तँबोल रँग धारहिं रसा। केहि मुख जोग सो अँब्रित बसा॥

    राता जगत देखि रँग राते। रुहिर भरे आछहिं बिहँसाते॥

    अमिअ अधर अस राजा सब जग आस करेइ।

    केहि कहँ कँवल बिगासा को मधुकर रस लेइ॥

    पद्मावती के अधर लाल हैं और अमृत रस से भरे हैं। उनसे लजाकर लाल बिंबाफल वन में जाकर फलता है। अधर क्या हैं, मानो लाल गुल दुपहरिया (बंधूक पुष्प) हैं। जब वह बोलती है मानो बंधूक के फूल झड़ने लगते हैं। जब वह हँसती है, तो दाँत रूपी हीरे अधर रूपी विद्रुम की कांति को अपनी शुभ्रता से जीत लेते हैं और संसार में उजाला हो जाता है। पानों का रंग लगने से वे ओठ मँजीठी रंग के हो गए हैं। उनके आगे मँजीठ के पुष्पों का रंग भी टटका नहीं रहा अर्थात् वे फूल मुरझाए हुए से लगते हैं। उन अधरों में अमृत ऐसे इसलिए छलकता हुआ भरा है, क्योंकि अभी भी अक्षत हैं। किसी ने उनका स्वाद नहीं लिया, अर्थात् किसी ने वह अमृत पिया नहीं इसलिए ख़ूब भरा है। मुख के तांबूल का रंग शनैः शनैः टपककर उन अधरों पर लगा है। अमृत से रसे हुए उन अधरों के पान का सौभाग्य जाने किसे मिलेगा? रंग से भरे हुए उन अधरों को देखकर सारा संसार राग से भर गया। इसे देखकर रुधिर से चुचुआते हुए वे अधर हँसते रहते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 103)
    • रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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