‘सोवन थार' हिएं ‘जनु धरे'। ‘रतन पदारथ मानिक भरे'॥
‘सहज सेंद(ध)उरा' सेंदुर ‘भरे'। थनहर फेरि ‘कुंदेरइं धरे’॥
नारिंग थनहर उठे अमोला। ‘सूर न देखइ' पवनु न डोला॥
समुंद भरा जनु लहरइं देई। पोइनि क रस जस भंवरइं लेई॥
अंब्रित ‘हिरदेउं बेल उपाए'। ‘साजि कचोरा हिरदेउं लाए॥
‘कुसुम (कुसुंभ?) चीर' तरि ‘देखेउं’ ‘फरे बेल’ बहु भांति।
‘राजहि घाय बिसरि गए' सुनि ‘अस्थन' भइ सांति॥
भावार्थ: गोवर की राजकुमारी चांदा के उरोज ऐसे हैं मानो रत्नों, पदार्थों और माणिक्यों से भरे हुए सोने के थाल हृदय पर रक्खे हुए हों। वे सहज ही सिंदूर भरे हुए सिंदूर-पात्र जैसे हैं, और वे चिकने ऐसे हैं मानो उन भारी स्तनों को कुँदेरे ने खराद पर फेर कर रक्खा हो। वे भारी स्तन उभरे हुए अमूल्य नारंगे हैं, जिन्हें वस्त्रों के आच्छादन के कारण न सूर्य देख पाता है और न जिनके निकट पवन डोल पाता है। वे अपनी उठान में ऐसे लगते हैं मानो भरा हुआ समुद्र लहरें दे रहा हो, और उनका काला भाग ऐसा लगता है जैसे कोई भौंरा पद्मिनी का रस पी रहा हो। वे ऐसे लगते हैं मानो उसके हृदय ने अमृत के बेल उत्पन्न किए हों, अथवा उसने कच्चोल सजा कर रक्खे हों। उसके कुसुंभी चीर के तले मैंने देखा कि वे बेल बहुत अच्छे से फले हुए थे। अमृत-युक्त स्तनों के इस वर्णन को सुनकर राजा को विरह के घाव विस्मृत हो गए और उस को शांति मिली।
- पुस्तक : चांदायन (पृष्ठ 75)
- रचनाकार : मुल्ला दाउद
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1967
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.