सौंदर्य वर्णन (छह)
saundarya warnan (chhah)
अधर सुरंग पान जनु खाए। के रे घोरि सकर गहि लाए।
पात चीरि नह सत सो कीन्हां। अमिअ आनि तेहि उप्पर दीन्हां।
मक्खन लेखें अधर सुहाए। जानिय जानु अमिय रस आए।
एहि रंग अधर न देखेउं धाए। सुरंग पंवार आन धरि लाए।
रकत हमार अधर सेउं पिया। जासेउं बकति सगति धाए॥
अस कै चुहेसि अधर सेउं पियर भएउं जस आंब।
जेहि कै बिरह पवन मिस रस हमार लै लांब॥
उसके अधर ऐसे रक्तिम हैं मानो वे पान खाए हुए हों। अथवा शर्करा घोलकर उनमें चुपड़ दी गई हो। अथवा नखों के बल से कोई पत्ता चीर कर द्विधा किया गया हो और उस पर लाकर अमृत रख दिया गया हो। मक्खन से भी अधिक कोमल उसके अधर हैं; वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो अमृत-रस हों। ऐ धाय! ऐसे अधर मैंने नहीं देखे हैं। वे सुरंग प्रवाल हैं जो लाकर लगाए गए हैं। उन्हीं अधरों से उसने मेरा रक्त पिया, जिससे मेरी वाक् शक्ति चली गई। उसी ने मेरा रक्त अधरों से ऐसा चूसा कि मैं आम जैसा पीला हो गया। जिसने पवन के मिस से विरह उपस्थित कर मेरा जीवन रस लिया और चली गई।
- पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 47)
- संपादक : माताप्रसाद गुप्त
- रचनाकार : कुतुबन
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1968
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