घोटिहि घोटि' पीठि ‘बइसारी'। 'कइ रे बिनानी ‘सांचइं' ढारी॥
करि ‘जन हीन पाट कर' डोरा। 'पेट' ठाउं सहस ‘इक' मोरा॥
लंक बार ‘जसि दीठि न आवइ'। चांद चीर महि भरम ‘दिखावइ॥
‘बररइं' लंक ‘बिसेषइ' धनां। ‘अउरु लंक पातरि को गुनां॥
फूंकत टूटि ‘होत दुइ' आधा। नैनि देखि मनि ‘उपजइ' साधा॥
मूरिखु होइ जो ‘तिरइ न जानइ’ ‘छीलरि बोडै (डइ)' पाउ।
करि गुन ‘गहे' ‘बइठ भा’ बूडत काढा' राउ॥
चांदा की पीठ या तो घोंट-घोंट कर बिठाई हुई है, या किसी कुशल कारीगर द्वारा सांचे में ढाल कर निर्मित की हुई है। उसकी कटि मानो हल्के पाट रेशम का डोरा धागा हो; पेट के स्थान पर उसमें एक सहस्र मोड़ हैं। बाल के जैसी उसकी लंक ऐसी पतली है कि वह दृष्टि में नहीं आती है, वह उसके चंद्र चीर में भ्रम जैसी दिखाई पड़ती है। उस स्त्री की कटि बरे की कटि से भी अधिक वैशिष्ट्य-युक्त है। उसकी तुलना में दूसरी कटि को कौन पतली गुन सकता है? फूँक लगने से ही वह टूट कर दो भागों में विभक्त हो जाएगी। नेत्रों से देखने पर उसे प्राप्त करने की आकांक्षा अनायास उत्पन्न होती है। वह मूर्ख होगा जो तैरना न जानता हो और फिर भी झील के जल में अपने पैर डाले।” [इस वर्णन को सुन कर] राजा उस स्त्री-नौका की कटि-करिया का आसरा लेकर बैठ रहा। वह उस सौंदर्य-सरोवर से डूबते-डूबते निकाला जा सका।
- पुस्तक : चांदायन (पृष्ठ 77)
- रचनाकार : मुल्ला दाउद
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1967
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