सौंदर्य वर्णन (चार)
saundarya warnan (chaar)
चक्कत सवन मांझ तिल भया। बिधि सिरि कमल भुजंग निरमया।
बास लुबुध तहं उड़त न देखा। पेम गहा का करहि सरेखा।
जस होइ बिरह टूटि तिल परा। जग मोहइ कारन तिसु धरा।
सो तिल महं कि भएउ सिंगारू। मनहुं निखोर भएउ सयंसारू।
तेहि तिल [.......] जिउ किया। देखहु धाइ सवन ही गया।
तिल सुभाउ न कहि सकौं राखौं आपुन छाइ।
कनक सपन जिमि हिय खुरुक सो मोहिं कही न जाइ॥
उसके चक्षुओं और कानों के बीच तिल थे मानो विधाता ने कमल का सृजन कर भ्रमरों का निर्माण किया हो। सुवास से लुब्ध होकर वहाँ उन्हें मैंने उड़ते हुए नहीं देखा, प्रेम से अभिभूत प्राणी क्या सयानापन कर सकता है? अथवा जैसे विरह ही तिल होकर टूट पड़ा हो, और जगत् को मोहित करने के लिए उसे रख दिया गया हो। अथवा उस तिल में ही शृंगार पुंजीभूत हो गया है और इस कारण संसार नीरस हो गया है। उन तिलों ने मानो जीवन धारण कर रखा है, इसीलिए ऐ धाय! देखो वे कानों के पास चले गए हैं। उन तिलों का स्वभाव मैं नहीं कह सकता हूँ। मैं अपने को आच्छादित कर रखता हूँ। वे स्वर्ण-स्वप्न के समान मेरे हृदय में खटक रहे हैं कि मुझसे कहते नहीं बनता है।
- पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 44)
- संपादक : माताप्रसाद गुप्त
- रचनाकार : कुतुबन
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1968
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.