सौंदर्य वर्णन (तीन)
sau.ndary var.nan (tiina)
लोयन सेत बरन रतनारे। कंवल पत्र पर भंवर संवारे।
चपल बिलोल ते थिर न रहाहीं। जुनौ गजमोती तहां भंवाहीं।
मांते बिरह अइस मैं देखे। उलथि रहे तहं समुंद बिसेखे।
मदन दीप पदमिनि चख बारी। घूमहिं सहज ते(?) पवन अधारी।
के संग बिछुरि(?) कुरंगिनि परी। भूली पंथ निहारइ खरी।
अति तीखे ये दिप्प खर[तबहि(?) छिनछिन(?) साल(?)]।
धाइ त चक्कित अति बल भए हम तन काल॥
उसके लोचन श्वेत वर्ण के और रतनारे थे, जो ऐसे लगते थे मानो कमल-पत्र पर भ्रमर संवारे हुए हों। वे चपल और चंचल थे। वे स्थिर नहीं रहते थे, मानो गजमुक्ता वहाँ चक्कर लगा रही हों। विरह से मत्त मैंने उन्हें ऐसा देखा, मानो वे समुद्र की तरह उमड़ रहे हों। उस पद्मिनी बालिका के चक्षु मोम के दीपक थे। वे सहज भाव से इस प्रकार घूम रहे थे मानो पवन का आधार लिए हुए हों। अथवा वे उस कुरंगिनी के नेत्र थे जो अपने संग से बिछुड़ी हुई हो और भ्रमित खड़ी होकर मार्ग देख रही हो। वे अत्यंत तीक्ष्ण, दीप्त और प्रखर थे। इसी कारण वे क्षण-प्रतिक्षण साल रहे हैं। ऐ धाय, वे चक्रित लोचन अत्यधिक बल वाले थे। इसलिए वे मेरे लिए काल हो गए।
- पुस्तक : मृगावती (पृष्ठ 43)
- संपादक : माताप्रसाद गुप्त
- रचनाकार : कुतुबन
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1968
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