नखशिख (पंद्रह)
nakhshikh (pandrah)
नाभी कुंडर मलै समीरू। समुँद भँवर जस भँवै गँभीरू॥
बहुतै भँवर बौंडरा भए। पहुँचि न सके सरग कहँ गए॥
चंदन माँझ कुरंगिनि खोजू। दहुँ को पाव को राजा भोजू॥
को ओहि लागि हिवंचल सीझा। का कहँ लिखी ऐस को रीझा॥
तीवइ कँवल सुगंध सरीरू। समुँद लहरि सोहै तन चीरू॥
झूलहिं रतन पाट के झोंपा। साजि मदन दहुँ काकहँ कोपा॥
अबहिं सो हि कँवल कै करी। न जन कवन भँवर कहँ धरी॥
बेधि रहा जग बासना परिमल मेद सुगंध।
तेहि अरघानि सँवर सब लुबुधे तजहिं न नीवी-बंध॥
पद्मावती के नाभि कुंड में मलय की सुगंधित वायु बहती है। समुद्र के भँवर की भाँति वह गंभीर नाभि घूमी हुई है। अनेक लोग उस भँवर के बवंडर में आ गए और निश्चित स्थान तक न पहुँचकर स्वर्ग को चले गए। नाभि कुंड से नीचे चंदन में हिरनी का पद चिह्न (गुह्य स्थान) बना है। न जाने कौन उसको पाएगा? हे राजा, कौन उसका भोग करने वाला है, अथवा भानुमती के प्रेमी राजा भोज के समान कौन भाग्यशाली उसे पाएगा? कौन उसके लिए हिमालय में तप करके सिद्ध हुआ है? किसके लिए वह लिखी है? उसके लिए ऐसा कौन रीझा है? उस युवती की देह कमल की बास से सुगंधित है। उसके तन पर समुद्र-लहर नामक वस्त्र शोभित है। रत्न लगे हुए रेशम के झुग्गे सामने लटकते हैं। न जाने कामदेव अपना साज सजाकर किस पर कुपित हुआ है? अभी वह कमल की कली है। न जाने किस भौंरे के लिए सुरक्षित है?
- पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 113)
- रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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