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नहीं हलाहल शेष...

nahin halahal shesh

महादेवी वर्मा

महादेवी वर्मा

नहीं हलाहल शेष...

महादेवी वर्मा

और अधिकमहादेवी वर्मा

    नहीं हलाहल शेष, तरल ज्वाला से अब प्याला भरती हूँ।

    विष तो मैंने पिया, सभी को व्यापी नीलकंठता मेरी;

    घेरे नीला ज्वार गगन को बाँधे भू को छाँह अँधेरी;

    सपने जमकर आज हो गए चलती-फिरती नील शिलाएँ,

    आज अमरता के पथ को मैं जलकर उजियाला करती हूँ।

    हिम से सीझा है यह दीपक आँसू से बाती है गीली;

    दिन से धनु की आज पड़ी है क्षितिज-शिञ्जिनी उतरी ढीली,

    तिमिर-कसौटी पर पैना कर चढ़ा रही मैं दृष्टि-अग्निशर,

    आभाजल में फूट बहे जो हर क्षण को छाला करती हूँ।

    पग में सौ आवर्त बाँधकर नाच रही घर-बाहर आँधी

    सब कहते हैं यह थमेगी, गति इसकी रहेगी बाँधी,

    अंगारों को गूँथ बिजलियों में, पहना दूँ इसको पायल,

    दिशि-दिशि को अर्गला प्रभञ्जल ही को रखवाला करती हूँ!

    क्या कहते हो अंधकार ही देव बन गया इस मंदिर का?

    स्वस्ति! समर्पित इसे करूँगी आज ‘अर्घ्य अंगारक-उर का!

    पर यह निज को देख सके औ’ देखे मेरा उज्ज्वल अर्चन,

    इन साँसों को आज जला मैं लपटों की माला करती हूँ।

    नहीं हलाहल शेष, तरल ज्वाला से मैं प्याला भरती हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संधिनी (पृष्ठ 143)
    • रचनाकार : महादेवी वर्मा
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2012

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