परिश्रम करता हूँ अविराम, बनाता हूँ क्यारी औ' कुंज।
सींचता दृग-जल से सानंद, खिलेगा कभी मल्लिका-पुंज।
न काँटों की है कुछ परवाह, सजा रखता हूँ इन्हें सयत्न।
कभी तो होगा इनमें फूल, सफल होगा यह कभी प्रयत्न।
कभी मधु राका देख इसे, करेगी इठलाती मधुहास।
अचानक फूल खिल उठेंगे, कुंज होगा मलयज-आवास।
नई कोंपल में से कोकिल, कभी किलकारेगा सानंद।
एक क्षण बैठ हमारे पास, पिला दोगे मदिरा-मकरंद।
मूक हो मतवाली ममता, खिले फूलों से विश्व अनंत।
चेतना बने अधीर मिलंद, आह वह आवे विमल वसंत।
- पुस्तक : संपूर्ण काव्य (पृष्ठ 170)
- रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
- प्रकाशन : चिंतन प्रकाशन
- संस्करण : 2003
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