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असमर्पित

asmarpit

रमानाथ अवस्थी

रमानाथ अवस्थी

असमर्पित

रमानाथ अवस्थी

और अधिकरमानाथ अवस्थी

    सिंधु में डूबा मैं, डूबा नयन के नीर में

    आफ़तें आईं मुझे बर्बाद करने को,

    हज़ारों बार मेरे द्वार

    किंतु पाईं कर मेरा बाल बाँका,

    लौटने को ही रहीं लाचार

    बाँधने को पाँव मेरे विघ्न आए,

    औ’ बढ़े तूफ़ान गति के रोकने को

    किंतु मेरी प्यास ने निश्चय किया है,

    आग पी-पीकर समंदर सोखने को

    मैं बंधन और यम की बाहु से बाँधा गया पर

    झुक गया मस्तक लगे जब बाँधने,

    दो नयन मुझको अश्रु की ज़ंजीर में

    यह पूछो कारवाँ इस ज़िंदगी का,

    चल चुका कितना, अभी कितना चलेगा

    और जीवन को मरण का बेरहम दिल,

    छल चुका कितना, अभी कितना छलेगा

    रो रहा है रोज़ नभ,

    सर पर अनेकों, तारकों के शव उठाकर

    एक मैं हूँ जो नहीं रोता स्वयं को,

    विश्व में तिल-तिल मिटाकर

    मानता हूँ मौत को पाकर हुआ आज़ाद,

    जीवन के समर से—

    पर हुआ लाचार जीने को पहुँचकर,

    स्वर्ग की जीवन भरी जागीर में

    मैं स्वयं को जो बनाने के लिए बिगड़ा,

    बन पाया ज़माने की नज़र में

    चाहता था पाँव के नीचे करूँ नभ,

    किंतु डूबा उम्र की नन्हीं लहर में

    है मुझको सोच मरने का यहाँ,

    जब ज़िंदगी का काम है थककर बदलना

    आदमी में हैं छिपा अमरत्व ऐसा,

    जो सिखा दे मौत को भी चाल चलना

    मैं बहुत कुछ जानकर भी,

    हूँ नहीं जान पाया—

    किस तरह मानव बँधा है,

    आयु, सीमा, काल औ’ तक़दीर में

    मैं पूजा कर सका उस देवता की,

    जो पाया तोड़ मज़हब की ज़ंजीरें

    ओर जिसके पूजने पर भी मिटतीं,

    आदमी के भाग्य की काली लकीरें,

    धर्म मेरा है वही जो आदमी को,

    आदमी के वास्ते, जीना सिखा दे

    और पंडित, पादरी औ’ मौलवी को,

    एक ही घट में अमृत पीना सिखा दे

    मैं मंदिर और मस्जिद में,

    गया माथा पटकने—

    क्योंकि मैंने पा लिया है देव-दानव

    आदमी की बोलती तस्वीर में

    स्रोत :
    • पुस्तक : आख़िर यह मौसम भी आया (पृष्ठ 70)
    • रचनाकार : रमानाथ अवस्थी
    • प्रकाशन : राजपाल
    • संस्करण : 1998

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