शाश्वत है जीवन,
है अनंत यौवन।
रंजित हो अनुराग-राग से
कर मृदु आलिंगन;
सुबह-शाम मिलते हैं प्रतिदिन
वसुधा और गगन।
यह है प्रेम-मिलन,
है अनंत यौवन।
खिलते ही रहते हैं वन में
सुरभित सरस सुमन;
मधु-वर्षा करती है कोयल
कर गुंजित कानन।
जीवन है मधुवन,
है अनंत यौवन।
प्रेम-गगन-गंगा में बहते
अमरों के गायन;
लाता रहता है वन वाहन
सतत गंध-वाहन।
खिल जाता है मन,
है अनंत यौवन।
मुसकाते रहते हैं मन में
नभ के तारगण;
तारापति के साथ देखकर
लहरों का नर्त्तन।
जन-मन-अनुरंजन,
है अनंत यौवन।
करता है प्रतिदिन प्रभात में
जग-दृग-उन्मीलन;
मुग्धा-सी लज्जित ऊषा का
सरस प्रथम दर्शन।
संतत सौख्य-सदन,
है अनंत यौवन।
कलियों के अधखुले दृगों में
भर-भर कर चुंबन;
करते रहते हैं मदमाते
मधुप मधुर गुंजन।
अद्भुत पागलपन,
है अनंत यौवन।
भीनी-भीनी शीत-रशिम की
कोमल कांत किरण;
कर जाती है नित्य निशा में
प्रेम-सुधा-सिंचन।
मुदमय मनभावन,
है अनंत यौवन।
अस्ताचल क रवि करता है
संध्या-व्यथा से हो जाती है
वसुधा सजल-नयन।
जग का जीवन-धन,
है अनंत यौवन।
खोल-खोलकर ललित लता कै
किसलय-अवगुण्ठन;
बार-बार चूमा करता है
सुंदर वदन पवन।
उर अंबर-सुख-घन,
है अनंत यौवन।
रह जाता है कभी न अपना
अपना प्रेमी मन;
हृदय हृदय का ही बनता है
प्रणय-सूम-बंधन।
संतत प्रिय-चिंतन,
है अनंत यौवन।
विधि करता रहता है हरदम
अनुपम रूप-सृजन;
प्रेमी चकित किया करता है
छवि का अभिनदंन।
सरल सरस पावन,
है अनंत यौवन।
चंचल वीचि-भृकुटि से कर-कर
शत-शत धनु-खंडन;
खोती है सागर से मिलकर
सरिता अपनापन।
भव्य-भाव-भाजन,
है अनंत यौवन।
दो हृदयों में एक भावना
एक भाव-व्यंजन;
एक कल्पना एक कामना
एक राग-रंजन।
एक प्रेम-बंधन,
है अनंत यौवन।
मृदु किसलय कुसुमों से विरचित
मंजुल बालापन;
पल्लव अधर, कुंद दशनावलि
सरसिज दृग-आनन।
भव-भव्यता-भवन,
है अनंत यौवन।
देखी और अदेखी छवि का
सुखद स्वप्न-दर्शन;
निर्निमेष लोचन अवलोकन
पुलकित उर-स्पंदन।
मृदु मानसिक मिलन,
है अनंत यौवन।
गिरि कानन में कहाँ जाएँ
है कहीं न मृनापन;
लिए पुष्प-धंवा रहता है
सदा समीप मदन
सुख-समूह-साधन,
है अनंत यौवन।
- पुस्तक : कादम्बिनी (पृष्ठ 23)
- रचनाकार : गोपालशरण सिंह
- प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
- संस्करण : 1937
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