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अनंत यौवन

anant yauwan

गोपालशरण सिंह

गोपालशरण सिंह

अनंत यौवन

गोपालशरण सिंह

और अधिकगोपालशरण सिंह

    शाश्वत है जीवन,

    है अनंत यौवन।

    रंजित हो अनुराग-राग से

    कर मृदु आलिंगन;

    सुबह-शाम मिलते हैं प्रतिदिन

    वसुधा और गगन।

    यह है प्रेम-मिलन,

    है अनंत यौवन।

    खिलते ही रहते हैं वन में

    सुरभित सरस सुमन;

    मधु-वर्षा करती है कोयल

    कर गुंजित कानन।

    जीवन है मधुवन,

    है अनंत यौवन।

    प्रेम-गगन-गंगा में बहते

    अमरों के गायन;

    लाता रहता है वन वाहन

    सतत गंध-वाहन।

    खिल जाता है मन,

    है अनंत यौवन।

    मुसकाते रहते हैं मन में

    नभ के तारगण;

    तारापति के साथ देखकर

    लहरों का नर्त्तन।

    जन-मन-अनुरंजन,

    है अनंत यौवन।

    करता है प्रतिदिन प्रभात में

    जग-दृग-उन्मीलन;

    मुग्धा-सी लज्जित ऊषा का

    सरस प्रथम दर्शन।

    संतत सौख्य-सदन,

    है अनंत यौवन।

    कलियों के अधखुले दृगों में

    भर-भर कर चुंबन;

    करते रहते हैं मदमाते

    मधुप मधुर गुंजन।

    अद्भुत पागलपन,

    है अनंत यौवन।

    भीनी-भीनी शीत-रशिम की

    कोमल कांत किरण;

    कर जाती है नित्य निशा में

    प्रेम-सुधा-सिंचन।

    मुदमय मनभावन,

    है अनंत यौवन।

    अस्ताचल रवि करता है

    संध्या-व्यथा से हो जाती है

    वसुधा सजल-नयन।

    जग का जीवन-धन,

    है अनंत यौवन।

    खोल-खोलकर ललित लता कै

    किसलय-अवगुण्ठन;

    बार-बार चूमा करता है

    सुंदर वदन पवन।

    उर अंबर-सुख-घन,

    है अनंत यौवन।

    रह जाता है कभी अपना

    अपना प्रेमी मन;

    हृदय हृदय का ही बनता है

    प्रणय-सूम-बंधन।

    संतत प्रिय-चिंतन,

    है अनंत यौवन।

    विधि करता रहता है हरदम

    अनुपम रूप-सृजन;

    प्रेमी चकित किया करता है

    छवि का अभिनदंन।

    सरल सरस पावन,

    है अनंत यौवन।

    चंचल वीचि-भृकुटि से कर-कर

    शत-शत धनु-खंडन;

    खोती है सागर से मिलकर

    सरिता अपनापन।

    भव्य-भाव-भाजन,

    है अनंत यौवन।

    दो हृदयों में एक भावना

    एक भाव-व्यंजन;

    एक कल्पना एक कामना

    एक राग-रंजन।

    एक प्रेम-बंधन,

    है अनंत यौवन।

    मृदु किसलय कुसुमों से विरचित

    मंजुल बालापन;

    पल्लव अधर, कुंद दशनावलि

    सरसिज दृग-आनन।

    भव-भव्यता-भवन,

    है अनंत यौवन।

    देखी और अदेखी छवि का

    सुखद स्वप्न-दर्शन;

    निर्निमेष लोचन अवलोकन

    पुलकित उर-स्पंदन।

    मृदु मानसिक मिलन,

    है अनंत यौवन।

    गिरि कानन में कहाँ जाएँ

    है कहीं मृनापन;

    लिए पुष्प-धंवा रहता है

    सदा समीप मदन

    सुख-समूह-साधन,

    है अनंत यौवन।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कादम्बिनी (पृष्ठ 23)
    • रचनाकार : गोपालशरण सिंह
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
    • संस्करण : 1937

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