निज अलकों के अंधकार में
nij alkon ke andhkar mein
निज अलकों के अंधकार में तुम कैसे छिप आओगे?
इतना सजग कुतूहल! ठहरो, यह न कभी बन पाओगे!
आह, चूम लूँ जिन चरणों को चाँप-चाँप कर उन्हें नहीं—
दुख दो इतना, अरे अरुणिमा ऊषा-सी वह उधर बही।
वसुधा चरण-चिह्न-सी बन कर यहीं पड़ी रह जावेगी।
प्राची रज कुंकुम ले चाहे अपना भाल सजावेगी।
देख न लूँ, इतनी ही तो है इच्छा? लो सिर झुका हुआ।
कोमल किरन-उँगलियों से ढँक दोगे यह दृग खुला हुआ।
फिर कह दोगे; पहचानो तो मैं हूँ कौन बताओ तो।
किंतु उन्हीं अधरों से, पहले उसकी हँसी दबाओ तो।
सिहर भरे निज शिथिल मृदुल अंचल को अधरों से पकड़ो।
बेली बीत चली हैं चंचल बाहु-लता से आ जकड़ो।
तुम हो कौन और मैं क्या हूँ?
इसमें क्या है धरा, सुनो—
मानस जलधि रहे चिर चुंबित—
मेरे क्षितिज! उदार बनो।
- पुस्तक : संपूर्ण काव्य (पृष्ठ 121)
- रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
- प्रकाशन : चिंतन प्रकाशन
- संस्करण : 2003
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