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मारूँ नीचे का बंडा

marun niche ka banDa

इंद्रावती नदी के किनारे एक गाँव था जहाँ एक पिता-पुत्र रहते थे। पिता लोगों के बाल काटकर आजीविका चलाता। धीरे-धीरे पिता अधेड़ हो चला। उसे लगा कि अब उसके पुत्र को बाल काटने का काम सीख लेना चाहिए। उसने अपने पुत्र से यह बात कही। किंतु पुत्र का मन किसी काम में लगता ही नहीं था। फिर भी अपने पिता का मन रखने के लिए उसने पिता की बात मान ली। एक ग्राहक बाल कटवाने आया तो पिता ने अपने पुत्र को समझा-बुझाकर बाल काटने का आदेश दिया। पुत्र ने ऐसा उस्तरा चलाया कि उस ग्राहक की गर्दन कटते-कटते बची। वह बेचारा अपने प्राण बचाकर भागा। पिता को यह देखकर बहुत निराशा हुई।

‘मुझे तुमसे यह आशा नहीं थी। यदि तुमने मेरी बात ध्यान से सुनी होती और मेरे काम को ध्यान से देखा होता तो तुमसे भी यह काम बनने लगता।’ पिता ने दुखी होते हुए कहा।

‘यह पहली बार था इसलिए गड़बड़ी हो गई लेकिन अब मैं सही काम करूँगा।’ पुत्र ने अपने पिता को आश्वस्त किया।

‘क्या ख़ाक सही काम करोगे? उस ग्राहक ने अब तक सब को तुम्हारी अयोग्यता के बारे में बता दिया होगा और अब तुमसे बाल कटवाने कोई नहीं आएगा।’ पिता ने झल्लाकर कहा।

‘तो फिर ऐसा करते हैं कि हम किसी दूसरे गाँव चलते हैं। वहाँ मुझे कई ग्राहक मिल जाएँगे।’ पुत्र ने कहा।

‘अब तो यही करना पड़ेगा।’ पिता ने कहा।

पिता-पुत्र ने रास्ते में खाने के लिए दाल के बड़े बनाए और रख लिए। इसके बाद दोनों दूसरे गाँव जाने के लिए घर से निकल पड़े। रास्ते में दंडकारण्य का घना जंगल पड़ा। उन दिनों दंडकारण्य में शेरों की भरमार थी। पिता को जंगल में चलते हुए भय लगने लगा किंतु अपने पुत्र की अयोग्यता से विवश होकर उसे चलना पड़ रहा था। रास्ते में उन्हें भूख लगी। पिता-पुत्र खाने बैठे। खाने की पोटली खोलकर देखी तो उसमें सात बड़े निकले। उन लोगों ने साढ़े तीन-साढ़े तीन बड़े आपस में बाँट लिए। पिता को बहुत भूख लगी थी। उसने शीघ्रता से अपने हिस्से के बड़े खा डाले। फिर भी उसकी भूख नहीं मिटी। उसने पुत्र से उसके हिस्से का आधा बड़ा माँगा।

‘ठीक है, आप ये मेरा आधा बड़ा ले लीजिए किंतु यह ध्यान रखिएगा कि यह आधा बड़ा आप पर उधार रहेगा और जब मैं माँगूँगा तो मुझे वापस देना होगा।’ पुत्र ने कहा।

‘ठीक है। अभी तो दे दे आधा बड़ा।’ पिता ने अधीरता से कहा। उसने सोचा कि दूसरे गाँव पहुँचने पर अपने पुत्र को आधा क्या दस बड़े खिला दूँगा।

पुत्र ने आधा बड़ा दे दिया। पिता-पुत्र बड़े खाने के बाद फिर चल पड़े।

चलते-चलते रात घिर आई। दोनों ने कहीं रुककर रात व्यतीत करने का निश्चय किया। उन्हें एक माँद दिखाई दी।

‘यहाँ रुकना ठीक नहीं है। यह तो शेर की माँद है।’ पिता ने घबरा कर कहा।

‘नहीं, हम यहीं, इसी माँद में रुकेंगे।’ पुत्र ने कहा।

‘नहीं बेटा, हठ नहीं कर!’ पिता ने कहा।

‘ऐसा है तो लाओ मेरा आधा बड़ा।’ पुत्र झट से बोला।

‘अब मैं यहाँ कहाँ से लाऊँ तेरा आधा बड़ा?’ पिता ने झुँझलाकर कहा।

‘तो फिर मेरी बात मान लो।’ पुत्र ने कहा।

पिता को विवश होकर पुत्र का कहा मानना पड़ा और वे दोनों शेर की माँद में घुस गए। माँद में घुस कर पुत्र ने माँद के दरवाज़े पर एक बड़ा-सा पत्थर रख दिया ताकि शेर माद के भीतर सके। थोड़ी देर बाद शेर पहुँचा। उसने अपनी माँद के दरवाज़े पर पत्थर रखा देखा तो उसे बहुत क्रोध आया।

‘मेरी माँद में कौन है? चुपचाप बाहर निकल वरना मैं भीतर आकर तुझे खा जाऊँगा।’ शेर दहाड़ा।

‘जो तुम सच्चे शेर हो तो अपनी माँद के भीतर आकर दिखाओ।’ पुत्र ने हँस कर शेर से कहा।

यह सुनकर शेर का क्रोध दुगुना हो गया। उसने पत्थर को हटाने का प्रयास किया किंतु वह उससे हिला भी नहीं। थककर वह वहीं बैठ गया। यह देखकर पिता चिंतित हो उठा। उसने पुत्र से कहा कि यदि यह शेर इसी तरह पहरा देता रहेगा तो हम यहाँ से निकलेंगे कैसे? इस पर पुत्र ने पिता को समझाया कि आप चिंता करें, मैं अभी इसे यहाँ से भगा दूँगा। पुत्र की बात सुनकर पिता चकित रह गया। उसने पूछा कि तुम इसे कैसे भगाओगे? तो पुत्र ने कहा कि बस, आप देखते जाइए।

‘ऐ डरपोक शेर! यह तो सिद्ध हो गया कि तुम सच्चे शेर नहीं हो क्योंकि तुम अपनी माँद के भीतर भी सके लेकिन इतने डरपोक होगे, यह तो मैंने सोचा भी नहीं था।’ पुत्र ने शेर को ताना मारते हुए कहा।

‘क्या मतलब है तुम्हारा?” शेर तिलमिलाकर दहाड़ा।

‘अरे, जब स्वयं भीतर नहीं पा रहे हो तो अपनी पूँछ ही माँद के भीतर डालकर देख लिया होता कि भीतर कौन है? लेकिन तुम्हारा इतना साहस कहाँ।’ पुत्र ने कहा।

शेर पुत्र की बात सुनकर खीझ उठा कि यह बात उसे क्यों नहीं सूझी। उसने माँद की ओर पीठ की और अपनी पूँछ माँद के भीतर डाल दी ताकि पूँछ से टटोल कर अनुमान लगा सके कि भीतर कौन है?

‘पिता जी, पकड़िए इस पूँछ को!’ पुत्र ने पिता से कहा।

‘क्या कह रहे हो? पागल हो गए हो क्या? मैं नहीं पकड़ूँगा शेर की पूँछ।’ पिता ने कहा।

‘या तो आप शेर की पूँछ पकड़िए या फिर मेरा आधा बड़ा दीजिए।’ पुत्र ने अपने पिता से कहा।

‘अब तेरा आधा बड़ा कहाँ से लाऊँ? चल पूँछ ही पकड़ता हूँ।’ पिता ने झक मारकर शेर की पूँछ पकड़ ली। पुत्र ने भी शेर की पूँछ को धर-दबोचा। पूँछ पकड़ाए जाने से शेर घबरा गया और पूँछ छुड़ाने के लिए पूँछ को अपनी ओर खीचने लगा। शेर जब पूँछ खींचता तो पुत्र तनिक ढील दे देता और फिर झटके से अपनी ओर खींच लेता। इस प्रकार खींचा-तानी में शेर की पूँछ उखड़ गई। शेर पूँछ छोड़कर जो भागा तो पीछे मुड़कर उसने अपनी माँद की ओर नहीं देखा। शेर के भागने के बाद पिता और पुत्र ने माँद के दरवाज़े से पत्थर सरकाया और बाहर निकल आए। तब तक सवेरा हो गया था। वे दोनों आगे चल पड़े।

इधर पूँछ उखड़ जाने के कारण बंडा हुआ शेर अपने अन्य शेर भाइयों के पास पहुँचा। उसने रो-रो कर अपना दुखड़ा सुनाया। बंडे शेर का दुखड़ा सुनकर सभी शेर एक साथ गर्जना कर उठे। उनकी गर्जना से पूरा जंगल थर्रा उठा। गर्जना सुनकर पिता पुत्र से कहा, ‘बेटा, तुमने शेर की पूँछ उखाड़कर ठीक नहीं किया। अब जंगल के सारे शेर मिलकर हमें मार डालेंगे।’

‘आप चिंता करें! बस, आप अपनी लाठी सँभालकर इस ऊँचे पेड़ पर चढ़ जाएँ क्योंकि अब शेर आने वाले होंगे।’ पुत्र ने कहा। पुत्र की बात सुनते ही पिता भयभीत होकर एक ऊँचे पेड़ के शिखर तक जा चढ़ा। उसने अपनी लाठी अपनी पीठ में बाँध ली थी। पिता के पीछे-पीछे उसका पुत्र भी पेड़ पर चढ़ने लगा। उसी समय जंगल के सारे शेर वहाँ गए। तब तक पुत्र भी ऊँचाई पर पहुँच गया था। शेर पेड़ के नीचे घेरा डालकर बैठ गए कि जब भी पिता-पुत्र नीचे उतरेंगे तो वे उन्हें मारकर खा जाएँगे। बंडा शेर भी उनके साथ था। वह बहुत भयभीत था।

कई घंटे व्यतीत हो गए। पिता-पुत्र पेड़ में लगे फल खाते हुए मज़े से बैठे रहे किंतु घेरा डालकर बैठे शेर भूख-प्यास से परेशान हो उठे। तब उनमें से एक शेर ने सलाह दी कि ‘क्यों हम एक के ऊपर एक खड़े हो जाएँ। इस प्रकार हम उन दोनों के पास तक पहुँच जाएँगे। सबसे ऊपर वाला शेर उन्हें पंजे मारकर नीचे गिरा देगा फिर हम उन्हें खा जाएँगे।’

अन्य शेरों को भी यह युक्ति पसंद आई। किंतु बंडा शेर इतना डरा हुआ था कि उसने कहा कि ‘मैं सबसे नीचे रहूँगा। जिसको चढ़ना हो वह मेरे ऊपर चढ़ जाए।’

इस प्रकार बंडा शेर सबसे नीचे खड़ा हो गया। उसके ऊपर दूसरा शेर, दूसरे के ऊपर तीसरा, तीसरे के ऊपर चौथा। इस प्रकार वे लोग पुत्र के पास तक पहुँच गए। जब पुत्र ने देखा कि अब अगला शेर ऊपर चढ़ते ही उसे मार गिराएगा तो उसने ज़ोर से चिल्लाकर अपने पिता से कहा, ‘बापू, देना तो अपना डंडा, मैं मारूँ नीचे का बंडा।’

जैसे ही बंडे शेर ने पुत्र की बात सुनी तो वह यह सोचकर घबरा गया कि अभी तो इन लोगों ने मेरी पूँछ ही उखाड़ी थी और अब प्राण भी ले लेंगे। यह सोचते ही वह घबराकर भाग खड़ा हुआ। उसके भागते ही उसके ऊपर खड़े हुए सारे शेर गदबदा कर नीचे गिरे। उन्होंने ने भी पुत्र की बात सुनी थी अत: उन्हें लगा कि पुत्र ने डंडा मारा है जिसके कारण वे गिर पड़े हैं। सारे के सारे शेर घबराकर भाग गए। शेरों के भागने के बाद पिता-पुत्र पेड़ से नीचे उतरे और आराम से अपने रास्ते चल पड़े।

दूसरे गाँव पहुँचकर पुत्र ने पिता से बाल काटने का हुनर सीखा और पिता ने पुत्र को ढेर सारे बड़े खिलाए। इसके बाद पिता-पुत्र आराम से जीवन व्यतीत करने लगे।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 183)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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