मैथिली लोकगीत : कोना हम रइनि आँवाऊ हे ऊधो
maithili lokgit ha kona hum raini anwau he udho
रोचक तथ्य
संदर्भ—चौमासा। गोपी कथन उद्धव से।
कोना हम रइनि आँवाऊ हे ऊधो,
नहिं आयल घनश्याम हरी।
आय असाढ़ उमड़ि गेल बदरा,
बरिसत बूंद सघन घहरी।।1।।
साओन सखि सब डारे हिंडोरा,
हमरो बिरह तन दय कुबरी।
दादुर मोर मदन सर जोरे,
उठत बिरह तन गात जरी।।2।।
भादव ताल तरंग उमड़ि गेल,
देखि देखि सखि सब सोच भरी।
आजु सेआम सलोने न अयताह,
खइबों जहर बिष घोर मरी।।3।।
आसिन आस रहे भरि पूरन,
मोतिया मँगाय गुँथब कबरी।
गिरिजा के स्वामीआयल मनमोहन,
सखिया सहित मन मोद भरी।।4।।
एक गोपी उद्धव से कहती है—हे उद्धव! मैं रैन कैसे बिताऊँ, मेरे घनश्याम नहीं आए। आषाढ़ का महीना आ गया, बादल उमड़ पड़े। बूँदें रिमझिम पड़ रही हैं।।1।।
सावन में सब सखियाँ हिंडोले डाले हुए हैं, लेकिन कुब्जा ने हमें तो विरह ही दे रखा है। मेंढक और मोर कामदेव के बाण ताने हुए हैं, विरह-ज्वाला उठने से शरीर जल रहा है।।2।।
भादौं में ताल तरंगित हो उठे, जिसे देख-देखकर सब सखियाँ सोच में पड़ गई हैं। यदि ऐसे में भी श्याम सलोने नहीं आए तो मैं ज़हर खाकर मर जाऊँगी।।3।।
कुवार का महीना आ गया। मेरी आशा पूर्ण हो गई। मैं मोती मँगाकर अपनी चोटी गूँथूँगी। मेरी सहेली गिरिजा के स्वामी मनमोहन जी आए हैं। वह अपनी सखियों के साथ मन में बहुत प्रसन्न है।।4।।
- पुस्तक : हिंदी के लोकगीत (पृष्ठ 45)
- संपादक : महेशप्रताप नारायण अवस्थी
- प्रकाशन : सत्यवती प्रज्ञालोक
- संस्करण : 2002
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.