तुमही से नजरा लागि बनवारी।।टेक।।
माटी कहै मैं सबसे बढ़िकै, एक लोनिया से हारी।
खोदि-खादि कै सड़क बनावै, ओहिपै चलै रेलगाड़ी।।1।।
लकड़ी कहै मैं सबसे बढ़िकै, एक बढ़ई से हारी।
काटि-कूट कै बोंगा बनावै, ओहि पै चलावै आरी।।2।।
कपड़ा कहै मैं सबसे बढ़िकै, एक दरजी से हारी।
काटि-कूट कै चोलिया बनावै, जोबना करै मजेदारी।।3।।
एक भक्त कहता है कि मेरा ध्यान तो एकमात्र कृष्ण पर है।।टेक।।
मिट्टी कहती है कि मैं सबसे बढ़कर हूँ, किंतु एक मात्र लोनिया से हार
मानती हूँ। वह मुझे खोद-खादकर सड़क तैयार करता है, जिस पर रेलगाड़ी चलती है।।1।।
लकड़ी कहती है कि मैं सबसे बढ़कर हूँ, किंतु एक बढ़ई से हारी हूँ, क्योंकि वह मुझे काट-कूट कर बोंगा बनाता है और उस पर आरी चलाता है।।2।।
वस्त्र कहता है कि मैं सबसे बड़ा हूँ, किंतु एकमात्र दरजी से हारा हुआ हूँ, क्योंकि वह मुझे काट-कूटकर चोली बनाता है और यौवन उल्लसित होता है।।3।।
- पुस्तक : हिंदी के लोकगीत (पृष्ठ 191)
- संपादक : महेशप्रताप नारायण अवस्थी
- प्रकाशन : सत्यवती प्रज्ञालोक
- संस्करण : 2002
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