प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा आठवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
मेरा मन कभी-कभी बैठ जाता है। समाचार पत्रों में ठगी, डकैती, चोरी, तस्करी और भ्रष्टाचार के समाचार भरे रहते हैं। आरोप-प्रत्यारोप का कुछ ऐसा वातावरण बन गया है कि लगता है, देश में कोई ईमानदार आदमी ही नहीं रह गया है। हर व्यक्ति संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। जो जितने ही ऊँचे पद पर हैं उनमें उतने ही अधिक दोष दिखाए जाते हैं।
एक बहुत बड़े आदमी ने मुझसे एक बार कहा था कि इस समय सुखी वही है जो कुछ नहीं करता। जो कुछ भी करेगा उसमें लोग दोष खोजने लगेंगे। उसके सारे गुण भुला दिए जाएँगे और दोषों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाने लगेगा। दोष किसमें नहीं होते? यही कारण है कि हर आदमी दोषी अधिक दिख रहा है, गुणी कम या बिलकुल ही नहीं। स्थिति अगर ऐसी है तो निश्चय ही चिंता का विषय है।
क्या यही भारतवर्ष है जिसका सपना तिलक और गाँधी ने देखा था? रवींद्रनाथ ठाकुर और मदनमोहन मालवीय का महान संस्कृति-सभ्य भारतवर्ष किस अतीत के गह्वर में डूब गया? आर्य और द्रविड़, हिंदू और मुसलमान, यूरोपीय और भारतीय आदर्शों की मिलन-भूमि 'मानव महा-समुद्र' क्या सूख ही गया? मेरा मन कहता है ऐसा हो नहीं सकता। हमारे महान मनीषियों के सपनों का भारत है और रहेगा।
यह सही है कि इन दिनों कुछ ऐसा माहौल बना है कि ईमानदारी से मेहनत करके जीविका चलाने वाले निरीह और भोले-भाले श्रमजीवी पिस रहे हैं और झूठ तथा फ़रेब का रोज़गार करने वाले फल-फूल रहे हैं। ईमानदारी को मूर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है, सचाई केवल भीरु और बेबस लोगों के हिस्से पड़ी है। ऐसी स्थिति में जीवन के महान मूल्यों के बारे में लोगों की आस्था ही हिलने लगी है।
भारतवर्ष ने कभी भी भौतिक वस्तुओं के संग्रह को बहुत अधिक महत्त्व नही दिया है, उसकी दृष्टि से मनुष्य के भीतर जो महान आंतरिक गुण स्थिर भाव से बैठा हुआ है, वही चरम और परम है। लोभ-मोह, काम-क्रोध आदि विचार मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं, पर उन्हें प्रधान शक्ति मान लेना और अपने मन तथा बुद्धि को उन्हीं के इशारे पर छोड़ देना बहुत बुरा आचरण है। भारतवर्ष ने कभी भी उन्हें उचित नहीं माना, उन्हें सदा संयम के बंधन से बाँधकर रखने का प्रयत्न किया है। परंतु भूख की उपेक्षा नहीं की जा सकती, बीमार के लिए दवा की उपेक्षा नहीं की जा सकती, गुमराह को ठीक रास्ते पर ले जाने के उपायों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
हुआ यह है कि इस देश के कोटि-कोटि दरिद्रजनों की हीन अवस्था को दूर करने के लिए ऐसे अनेक क़ायदे-क़ानून बनाए गए हैं जो कृषि, उद्योग, वाणिज्य, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति को अधिक उन्नत और सुचारु बनाने के लक्ष्य से प्रेरित हैं, परंतु जिन लोगों को इन कार्यों में लगना है, उनका मन सब समय पवित्र नहीं होता। प्रायः वे ही लक्ष्य को भूल जाते हैं और अपनी ही सुख-सुविधा की ओर ज़्यादा ध्यान देने लगते हैं।
भारतवर्ष सदा क़ानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक क़ानून और धर्म में अंतर कर दिया गया है। धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, क़ानून को दिया जा सकता है। यही कारण है कि जो लोग धर्मभीरु हैं, वे क़ानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते।
इस बात के पर्याप्त प्रमाण खोजे जा सकते हैं कि समाज के ऊपरी वर्ग में चाहे जो भी होता रहा हो, भीतर-भीतर भारतवर्ष अब भी यह अनुभव कर रहा है कि धर्म क़ानून से बड़ी चीज़ है। अब भी सेवा, ईमानदारी, सचाई और आध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए है। वे दब अवश्य गए हैं लेकिन नष्ट नहीं हुए हैं। आज भी वह मनुष्य से प्रेम करता है, महिलाओं का सम्मान करता है, झूठ और चोरी को ग़लत समझता है, दूसरे को पीड़ा पहुँचाने को पाप समझता है। हर आदमी अपने व्यक्तिगत जीवन में इस बात का अनुभव करता है। समाचार पत्रों में जो भ्रष्टाचार के प्रति इतना आक्रोश है, वह यही साबित करता है कि हम ऐसी चीज़ों को ग़लत समझते हैं, और समाज में उन तत्वों की प्रतिष्ठा कम करना चाहते हैं जो ग़लत तरीक़े से धन या मान संग्रह करते हैं।
दोषों का पर्दाफ़ाश करना बुरी बात नहीं है। बुराई यह मालूम होती है कि किसी के आचरण के ग़लत पक्ष को उद्घाटित करके उसमें रस लिया जाता है और दोषोद्घाटन को एकमात्र कर्तव्य मान लिया जाता है। बुराई में रस लेना बुरी बात है, अच्छाई में उतना ही रस लेकर उजागर न करना और भी बुरी बात है। सैकड़ों घटनाएँ ऐसी घटती हैं जिन्हें उजागर करने से लोक-चित्त में अच्छाई के प्रति अच्छी भावना जगती है।
एक बार रेलवे स्टेशन पर टिकट लेते हुए ग़लती से मैंने दस के बजाए सौ रुपए का नोट दिया और मैं जल्दी-जल्दी गाड़ी में आकर बैठ गया। थोड़ी देर में टिकट बाबू उन दिनों के सेकंड क्लास के डिब्बे में हर आदमी का चेहरा पहचानता हुआ उपस्थित हुआ। उसने मुझे पहचान लिया और बड़ी विनम्रता के साथ मेरे हाथ में नब्बे रुपए रख दिए और बोला, यह बहुत ग़लती हो गई थी। आपने भी नहीं देखा, मैंने भी नहीं देखा। उसके चेहरे पर विचित्र संतोष की गरिमा थी। मैं चकित रह गया।
कैसे कहूँ कि दुनिया से सचाई और ईमानदारी लुप्त हो गई है, वैसी अनेक अवांछित घटनाएँ भी हुई हैं, परंतु यह एक घटना ठगी और वंचना की अनेक घटनाओं से अधिक शक्तिशाली है।
एक बार मैं बस में यात्रा कर रहा था। मेरे साथ मेरी पत्नी और तीन बच्चे भी थे। बस में कुछ ख़राबी थी, रुक-रुककर चलती थी। गंतव्य से कोई आठ किलोमीटर पहले ही एक निर्जन सुनसान स्थान में बस ने जवाब दे दिया। रात के कोई दस बजे होंगे। बस में यात्री घबरा गए। कंडक्टर उतर गया और एक साइकिल लेकर चलता बना। लोगों को संदेह हो गया कि हमें धोखा दिया जा रहा है।
बस में बैठे लोगों ने तरह-तरह की बातें शुरू कर दीं। किसी ने कहा, यहाँ डकैती होती है, दो दिन पहले इसी तरह एक बस को लूटा गया था। परिवार सहित अकेला मैं ही था। बच्चे पानी-पानी चिल्ला रहे थे। पानी का कहीं ठिकाना न था। ऊपर से आदमियों का डर समा गया था।
कुछ नौजवानों ने ड्राइवर को पकड़कर मारने-पीटने का हिसाब बनाया। ड्राइवर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। लोगों ने उसे पकड़ लिया। वह बड़े कातर ढंग से मेरी ओर देखने लगा और बोला, हम लोग बस का कोई उपाय कर रहे हैं, बचाइए, ये लोग मारेंगे। डर तो मेरे मन में था पर उसकी कातर मुद्रा देखकर मैंने यात्रियों को समझाया कि मारना ठीक नहीं है। परंतु यात्री इतने घबरा गए कि मेरी बात सुनने को तैयार नहीं हुए। कहने लगे, इसकी बातों में मत आइए, धोखा दे रहा है। कंडक्टर को पहले ही डाकुओं के यहाँ भेज दिया है।
मैं भी बहुत भयभीत था पर ड्राइवर को किसी तरह मार-पीट से बचाया। डेढ़-दो घंटे बीत गए। मेरे बच्चे भोजन और पानी के लिए व्याकुल थे। मेरी और पत्नी की हालत बुरी थी। लोगों ने ड्राइवर को मारा तो नहीं पर उसे बस से उतारकर एक जगह घेरकर रखा। कोई भी दुर्घटना होती है तो पहले ड्रावइर को समाप्त कर देना उन्हें उचित जान पड़ा। मेरे गिड़गिड़ाने का कोई विशेष असर नहीं पड़ा। इसी समय क्या देखता हूँ कि एक ख़ाली बस चली आ रही है और उस पर हमारा बस कंडक्टर भी बैठा हुआ है। उसने आते ही कहा, अड्डे से नई बस लाया हूँ, इस बस पर बैठिए। वह बस चलाने लायक़ नहीं है। फिर मेरे पास एक लोटा में पानी और थोड़ा दूध लेकर आया और बोला, पंडित जी! बच्चों का रोना मुझसे देखा नहीं गया। वहीं दूध मिल गया, थोड़ा लेता आया। यात्रियों में फिर जान आई। सबने उसे धन्यवाद दिया। ड्राइवर से माफ़ी माँगी और बारह बजे से पहले ही सब लोग बस अड्डे पहुँच गए।
कैसे कहूँ कि मनुष्यता एकदम समाप्त हो गई! कैसे कहूँ कि लोगों में दया-माया रह ही नहीं गई! जीवन में जाने कितनी ऐसी घटनाएँ हुई हैं जिन्हें मै भूल नहीं सकता।
ठगा भी गया हूँ, धोखा भी खाया है, परंतु बहुत कम स्थलों पर विश्वासघात नाम की चीज़ मिलती है। केवल उन्हीं बातों का हिसाब रखो, जिनमें धोखा खाया है तो जीवन कष्टकर हो जाएगा, परंतु ऐसी घटनाएँ भी बहुत कम नहीं हैं जब लोगों ने अकारण सहायता की है, निराश मन को ढाढ़स दिया है और हिम्मत बँधाई है। कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने प्रार्थना गीत में भगवान से प्रार्थना की थी कि संसार में केवल नुक़सान ही उठाना पड़े, धोखा ही खाना पड़े तो ऐसे अवसरों पर भी हे प्रभो! मुझे ऐसी शक्ति दो कि मैं तुम्हारे ऊपर संदेह न करूँ।
मनुष्य की बनाई विधियाँ ग़लत नतीज़े तक पहुँच रही हैं तो इन्हें बदलना होगा। वस्तुतः आए दिन इन्हें बदला ही जा रहा है, लेकिन अब भी आशा की ज्योति बुझी नहीं है। महान भारतवर्ष को पाने की संभावना बनी हुई है, बनी रहगी।
मेरे मन! निराश होने की ज़रूरत नहीं है।
mera man kabhi kabhi baith jata hai. samachar patron mein thagi, Dakaiti, chori, taskari aur bhrashtachar ke samachar bhare rahte hain. aarop pratyarop ka kuch aisa vatavran ban gaya hai ki lagta hai, desh mein koi iimandar adami hi nahin rah gaya hai. har vyakti sandeh ki drishti se dekha ja raha hai. jo jitne hi uunche pad par hain unmen utne hi adhik dosh dikhaye jate hain.
ek bahut baDe adami ne mujhse ek baar kaha tha ki is samay sukhi vahi hai jo kuch nahin karta. jo kuch bhi karega usmen log dosh khojne lagenge. uske sare gun bhula diye jayenge aur doshon ko baDha chaDhakar dikhaya jane lagega. dosh kismen nahin hote? yahi karan hai ki har adami doshi adhik dikh raha hai, guni kam ya bilkul hi nahin. sthiti agar aisi hai to nishchay hi chinta ka vishay hai.
kya yahi bharatvarsh hai jiska sapna tilak aur gandhi ne dekha tha? ravindrnath thakur aur madanmohan malaviy ka mahan sanskriti sabhya bharatvarsh kis atit ke gahvar mein Doob gaya? aarya aur drviD, hindu aur musalman, yuropiy aur bharatiy adarshon ki milan bhumi manav maha samudr kya sookh hi gaya? mera man kahta hai aisa ho nahin sakta. hamare mahan manishiyon ke sapnon ka bharat hai aur rahega.
ye sahi hai ki in dinon kuch aisa mahaul bana hai ki iimandari se mehnat karke jivika chalane vale nirih aur bhole bhale shramjivi pis rahe hain aur jhooth tatha fareb ka rozgar karne vale phal phool rahe hain. iimandari ko murkhata ka paryay samjha jane laga hai, sachai keval bhiru aur bebas logon ke hisse paDi hai. aisi sthiti mein jivan ke mahan mulyon ke bare mein logon ki astha hi hilne lagi hai.
bharatvarsh ne kabhi bhi bhautik vastuon ke sangrah ko bahut adhik mahattv nahi diya hai, uski drishti se manushya ke bhitar jo mahan antrik gun sthir bhaav se baitha hua hai, vahi charam aur param hai. lobh moh, kaam krodh aadi vichar manushya mein svabhavik roop se vidyaman rahte hain, par unhen pardhan shakti maan lena aur apne man tatha buddhi ko unhin ke ishare par chhoD dena bahut bura achran hai. bharatvarsh ne kabhi bhi unhen uchit nahin mana, unhen sada sanyam ke bandhan se bandhakar rakhne ka prayatn kiya hai. parantu bhookh ki upeksha nahin ki ja sakti, bimar ke liye dava ki upeksha nahin ki ja sakti, gumrah ko theek raste par le jane ke upayon ki upeksha nahin ki ja sakti.
hua ye hai ki is desh ke koti koti daridrajnon ki heen avastha ko door karne ke liye aise anek qayde qanun banaye ge hain jo krishi, udyog, vanijya, shiksha aur svasthya ki sthiti ko adhik unnat aur sucharu banane ke lakshya se prerit hain, parantu jin logon ko in karyon mein lagna hai, unka man sab samay pavitra nahin hota. praayः ve hi lakshya ko bhool jate hain aur apni hi sukh suvidha ki or zyada dhyaan dene lagte hain.
bharatvarsh sada qanun ko dharm ke roop mein dekhta aa raha hai. aaj ekayek qanun aur dharm mein antar kar diya gaya hai. dharm ko dhokha nahin diya ja sakta, qanun ko diya ja sakta hai. yahi karan hai ki jo log dharmabhiru hain, ve qanun ki trutiyon se laabh uthane mein sankoch nahin karte.
is baat ke paryapt prmaan khoje ja sakte hain ki samaj ke uupri varg mein chahe jo bhi hota raha ho, bhitar bhitar bharatvarsh ab bhi ye anubhav kar raha hai ki dharm qanun se baDi cheez hai. ab bhi seva, iimandari, sachai aur adhyatmikta ke mulya bane hue hai. ve dab avashya ge hain lekin nasht nahin hue hain. aaj bhi wo manushya se prem karta hai, mahilaon ka samman karta hai, jhooth aur chori ko ghalat samajhta hai, dusre ko piDa pahunchane ko paap samajhta hai. har adami apne vyaktigat jivan mein is baat ka anubhav karta hai. samachar patron mein jo bhrashtachar ke prati itna akrosh hai, wo yahi sabit karta hai ki hum aisi chizon ko ghalat samajhte hain, aur samaj mein un tatvon ki pratishtha kam karna chahte hain jo ghalat tariqe se dhan ya maan sangrah karte hain.
doshon ka pardafash karna buri baat nahin hai. burai ye malum hoti hai ki kisi ke achran ke ghalat paksh ko udghatit karke usmen ras liya jata hai aur doshodghatan ko ekmaatr kartavya maan liya jata hai. burai mein ras lena buri baat hai, achchhai mein utna hi ras lekar ujagar na karna aur bhi buri baat hai. saikDon ghatnayen aisi ghatti hain jinhen ujagar karne se lok chitt mein achchhai ke prati achchhi bhavna jagti hai.
ek baar relve steshan par tikat lete hue ghalati se mainne das ke bajaye sau rupe ka not diya aur main jaldi jaldi gaDi mein aakar baith gaya. thoDi der mein tikat babu un dinon ke sekanD klaas ke Dibbe mein har adami ka chehra pahchanta hua upasthit hua. usne mujhe pahchan liya aur baDi vinamrata ke saath mere haath mein nabbe rupe rakh diye aur bola, yah bahut ghalati ho gai thi. aapne bhi nahin dekha, mainne bhi nahin dekha. uske chehre par vichitr santosh ki garima thi. main chakit rah gaya.
kaise kahun ki duniya se sachai aur iimandari lupt ho gai hai, vaisi anek avanchhit ghatnayen bhi hui hain, parantu ye ek ghatna thagi aur vanchna ki anek ghatnaon se adhik shaktishali hai.
ek baar main bas mein yatra kar raha tha. mere saath meri patni aur teen bachche bhi the. bas mein kuch kharabi thi, ruk rukkar chalti thi. gantavya se koi aath kilomitar pahle hi ek nirjan sunsan sthaan mein bas ne javab de diya. raat ke koi das baje honge. bas mein yatri ghabra ge. kanDaktar utar gaya aur ek saikil lekar chalta bana. logon ko sandeh ho gaya ki hamein dhokha diya ja raha hai.
bas mein baithe logon ne tarah tarah ki baten shuru kar deen. kisi ne kaha, yahan Dakaiti hoti hai, do din pahle isi tarah ek bas ko luta gaya tha. parivar sahit akela main hi tha. bachche pani pani chilla rahe the. pani ka kahin thikana na tha. uupar se adamiyon ka Dar sama gaya tha.
kuch naujvanon ne Draivar ko pakaDkar marne pitne ka hisab banaya. Draivar ke chehre par havaiyan uDne lagin. logon ne use pakaD liya. wo baDe katar Dhang se meri or dekhne laga aur bola, ham log bas ka koi upaay kar rahe hain, bachaiye, ye log marenge. Dar to mere man mein tha par uski katar mudra dekhkar mainne yatriyon ko samjhaya ki marana theek nahin hai. parantu yatri itne ghabra ge ki meri baat sunne ko taiyar nahin hue. kahne lage, iski baton mein mat aaie, dhokha de raha hai. kanDaktar ko pahle hi Dakuon ke yahan bhej diya hai.
main bhi bahut bhaybhit tha par Draivar ko kisi tarah maar peet se bachaya. DeDh do ghante beet ge. mere bachche bhojan aur pani ke liye vyakul the. meri aur patni ki haalat buri thi. logon ne Draivar ko mara to nahin par use bas se utarkar ek jagah gherkar rakha. koi bhi durghatna hoti hai to pahle Dravir ko samapt kar dena unhen uchit jaan paDa. mere giDgiDane ka koi vishesh asar nahin paDa. isi samay kya dekhta hoon ki ek khali bas chali aa rahi hai aur us par hamara bas kanDaktar bhi baitha hua hai. usne aate hi kaha, aDDe se nai bas laya hoon, is bas par baithiye. wo bas chalane layaq nahin hai. phir mere paas ek lota mein pani aur thoDa doodh lekar aaya aur bola, panDit jee! bachchon ka rona mujhse dekha nahin gaya. vahin doodh mil gaya, thoDa leta aaya. yatriyon mein phir jaan aai. sabne use dhanyavad diya. Draivar se mafi mangi aur barah baje se pahle hi sab log bas aDDe pahunch ge.
kaise kahun ki manushyata ekdam samapt ho gai! kaise kahun ki logon mein daya maya rah hi nahin gai! jivan mein jane kitni aisi ghatnayen hui hain jinhen mai bhool nahin sakta.
thaga bhi gaya hoon, dhokha bhi khaya hai, parantu bahut kam sthlon par vishvasghat naam ki cheez milti hai. keval unhin baton ka hisab rakho, jinmen dhokha khaya hai to jivan kashtakar ho jayega, parantu aisi ghatnayen bhi bahut kam nahin hain jab logon ne akaran sahayata ki hai, nirash man ko DhaDhas diya hai aur himmat bandhai hai. kavivar ravindrnath thakur ne apne pararthna geet mein bhagvan se pararthna ki thi ki sansar mein keval nuqsan hi uthana paDe, dhokha hi khana paDe to aise avasron par bhi he prbho! mujhe aisi shakti do ki main tumhare uupar sandeh na karun.
manushya ki banai vidhiyan ghalat natize tak pahunch rahi hain to inhen badalna hoga. vastutः aaye din inhen badla hi ja raha hai, lekin ab bhi aasha ki jyoti bujhi nahin hai. mahan bharatvarsh ko pane ki sambhavna bani hui hai, bani rahgi.
mere man! nirash hone ki zarurat nahin hai.
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main bhi bahut bhaybhit tha par Draivar ko kisi tarah maar peet se bachaya. DeDh do ghante beet ge. mere bachche bhojan aur pani ke liye vyakul the. meri aur patni ki haalat buri thi. logon ne Draivar ko mara to nahin par use bas se utarkar ek jagah gherkar rakha. koi bhi durghatna hoti hai to pahle Dravir ko samapt kar dena unhen uchit jaan paDa. mere giDgiDane ka koi vishesh asar nahin paDa. isi samay kya dekhta hoon ki ek khali bas chali aa rahi hai aur us par hamara bas kanDaktar bhi baitha hua hai. usne aate hi kaha, aDDe se nai bas laya hoon, is bas par baithiye. wo bas chalane layaq nahin hai. phir mere paas ek lota mein pani aur thoDa doodh lekar aaya aur bola, panDit jee! bachchon ka rona mujhse dekha nahin gaya. vahin doodh mil gaya, thoDa leta aaya. yatriyon mein phir jaan aai. sabne use dhanyavad diya. Draivar se mafi mangi aur barah baje se pahle hi sab log bas aDDe pahunch ge.
kaise kahun ki manushyata ekdam samapt ho gai! kaise kahun ki logon mein daya maya rah hi nahin gai! jivan mein jane kitni aisi ghatnayen hui hain jinhen mai bhool nahin sakta.
thaga bhi gaya hoon, dhokha bhi khaya hai, parantu bahut kam sthlon par vishvasghat naam ki cheez milti hai. keval unhin baton ka hisab rakho, jinmen dhokha khaya hai to jivan kashtakar ho jayega, parantu aisi ghatnayen bhi bahut kam nahin hain jab logon ne akaran sahayata ki hai, nirash man ko DhaDhas diya hai aur himmat bandhai hai. kavivar ravindrnath thakur ne apne pararthna geet mein bhagvan se pararthna ki thi ki sansar mein keval nuqsan hi uthana paDe, dhokha hi khana paDe to aise avasron par bhi he prbho! mujhe aisi shakti do ki main tumhare uupar sandeh na karun.
manushya ki banai vidhiyan ghalat natize tak pahunch rahi hain to inhen badalna hoga. vastutः aaye din inhen badla hi ja raha hai, lekin ab bhi aasha ki jyoti bujhi nahin hai. mahan bharatvarsh ko pane ki sambhavna bani hui hai, bani rahgi.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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