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कला में एशिया की वैचारिक एकरूपता

kala mein asia ki waicharik ekrupata

जगदीश गुप्त

जगदीश गुप्त

कला में एशिया की वैचारिक एकरूपता

जगदीश गुप्त

और अधिकजगदीश गुप्त

    भावनापरक एवं संकल्पात्मक होने के कारण कला मानव की सांस्कृतिक चेतना को, धर्म और दर्शन की अपेक्षा अधिक समग्रता के साथ व्यक्त करती है। यही कारण है कि एशिया की आंतरिक एकता का जितना प्रत्यक्ष प्रमाण कला में उपलब्ध होता है उतना किसी अन्य साधन से नहीं। यह अवश्य है कि आंतरिक एकता को ही कला अभिव्यक्त नहीं करती वरन वह उसमें गंभीरतर आत्मिक एकता को भी व्यक्त करती है।

    एशिया की कला को 'प्राच्य कला' की संज्ञा दी जाती है और उसकी विशेषताओं को लक्षित करने के लिए कला के मर्मज्ञ प्रायः उसकी तुलना पाश्चात्य कला में किया करते है। प्रारंभ में यह तुलना विदेशियों द्वारा जापान, चीन, भारत, परशिया आदि एशिया के प्रमुख देशों की कलाकृतियों को 'अद्भुत' समझते हुए की गई और उसमें यूरोपीय कला को एशिया की कला से श्रेष्ठतर सिद्ध करने का भाव भी निहित था। परंतु उत्तरोत्तर उनका दृष्टिकोण एशिया की श्रेष्ठतम कलाकृतियों के व्यापक संपर्क में आने पर, अधिक संतुलित एवं यथार्थोन्मुख होता गया और उन्होंने अनुभव किया कि प्राच्य कला अधिक सूक्ष्म, सशक्त और गंभीर सैद्धान्तिक स्तर पर प्रतिष्ठित है। उसमें बाह्य रूप की अपेक्षा आंतरिक रूप की संगति पर विशेष बल दिया जाता है। मानव व्यक्तित्व के आध्यात्मिक पक्ष पर एशियाई धर्म और दर्शन ने आस्था और चिंतन के धरातल पर जो संस्कार उत्पन्न किये उनका समष्टिगत प्रभाव कला पर पड़ा और इसीलिए भौतिक दृष्टि से अनुप्रेरित पाश्चात्य कला से उसका प्रकृतिगत भेद दिखाई देता है। एशिया और यूरोप की आधुनिक कला में यह भेद उतना परिलक्षित नहीं होता जितना कि प्राचीन कला में, क्योंकि वर्तमान युग देश-देश के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान जितना सुगम हो गया है उतना विगत युग में कभी था ही नहीं। पूर्व और पश्चिम के विभेद का अतिक्रमण करके कला के क्षेत्र में भी विश्वजनीन एकता और अखंडता का अनुभव किया जाने लगा है। फलतः एशिया के प्रत्येक जागरूक देश के कलाकार नवीन और प्राचीन के बीच संघर्ष की विभिन्न स्थितियों को पार करते हुए संतुलन की नयी स्थिति तक पहुँचने में व्यस्त हैं। प्राचीन और प्राचीन से भी अधिक मध्यकालीन कला में भारत, चीन, जापान, इण्डोचीन, इण्डोनेशिया, मलाया, जावा, आदि के बीच जो एकता के दृढ़ सूत्र मिलते हैं वे आश्चर्यजनक हैं। भारत की स्थिति इसमें विशेष महत्व रखती है क्योंकि वह उस बौद्ध धर्म का उद्गम-स्थान है जिसने एक समय एशिया के देशों को चतुर्दिक प्रभावित किया तथा कला को आस्था का समान आधार अर्पित किया। भारत का महत्व इसलिए भी विशेष है कि यह यूरोप के समीपवर्ती पूर्वी-देशों तथा सुदूर-पूर्व के देशों के बीच एक भौगोलिक शृंखला स्थापित करके एशिया की संस्कृति को अखंडता प्रदान करता है। बौद्ध धर्म की तरह बौद्ध कला भी एशियाई देशों में अपनी अमिट छाप छोड़ गई है जो आज भी अपनी सूक्ष्मता, भावमयता और प्रौढ़ता के कारण प्रेरक प्रतीत होती है।

    स्तूपों, बिहारों, चैत्यों और आरामों को सौंदर्यमयी उत्कृष्ट कलाकृतियों से अलंकृत करने की भावना बौद्ध कला में इतनी गंभीर रही है कि बौद्ध-धर्म की विरक्ति-मूलक साधना भी उसे कुठित नहीं कर सकी। हुआ यह कि धार्मिक संस्कारों के प्रभाव से कला स्वयं साधना को कोटि में पहुँच गई और उसमें पवित्रता को आध्यात्मिक भावना व्याप्त हो गई। यदि ऐसा हुआ होता तो शताब्दियों में विनिर्मित होने वाले अजन्ता के भित्तिचित्रों की सृष्टि संभव होती। भित्तिचित्रों की जिस शैली और परंपरा का परिचय, बौद्ध जातकों पर आधारित अजन्ता के चित्रों से मिलता है, वह सीलोन, परशिया, मध्य एशिया, तिब्बत, चीन और जापान तक परिव्याप्त थी, यह पुरातत्व के द्वारा प्रमाणित हो चुका है। अजन्ता, बाघ और कन्हेरी की गुफाओं की तरह अफगानिस्तान, चीनी तुर्किस्तान, और चीन में भी अनेक गुफाओं की खोज हुई है जिनमें मूर्तिकला, वास्तुकला तथा चित्रकला की त्रिवेणी स्पष्ट भारतीय प्रभाव के साथ उपलब्ध होती है। अजन्ता के साथ वामियान, किजिल और तुग हवाग आदि के नाम भित्तिचित्रों की परंपरा में परिचित व्यक्ति को स्वयं ही स्मरण हो आते हैं। चित्रों की तरह स्तूपों के निर्माण की परंपरा भी वृहत्तर भारत तथा एशिया के अन्य निकटवर्ती देशों तक व्याप्त मिलती है। यह अवश्य है कि साँची, भरहुत, और सारनाथ की स्तूप-कल्पना रूपकार की दृष्टि में नेपाल, तिब्बत, मोलोन, वर्मा और जावा में परिवर्तित होती गयी। छात्रों की संख्या बढ़ गयी, अर्ध गोलाकार स्तूप उन्नत और प्रासादाकार हो गया। वोरोवुदुर का स्तूप तो इतना भिन्न हो गया कि यह प्रमाणित करता ही काठन हो जाता है कि मूलतः स्तूप की कल्पना एक स्रोत में संबंध है। पैगोडा की रूप-कल्पना भारतीय बौद्ध-मंदिर की कल्पना से पृथक प्रतीत होती है पर कला-विशेषज्ञों के अनुसार वह मूलत असंबंद्ध नहीं है। मूर्तिकला में बुद्ध की महाकाय प्रतिमाओं का निर्माण भी एशिया के समस्त प्रमुख बौद्ध देशों में हुआ जो उपास्य के महत्व एवं गौरव की प्रतिष्ठा की एक जैसी भावना का द्योतक है। बुद्ध-मूर्ति की आदि कल्पना भारत-वर्ष में हुई और उसमें जिस आध्यात्मिक शांति की अभिव्यक्ति विभिन्न मुद्राओं में, भारतीय कलाकारों ने की वह सभी बौद्ध देशों में अनुकरणीय एवं आदर्श मानी गई। वस्त्र-विन्यास और मुखाकृति तथा अन्य अवयवों का संगठन अवश्य कभी ग्रीक, कभी मनगोल और कभी अन्यान्य प्रभावों से परिवर्तित होता रहा। बुद्ध-मूर्ति की कल्पना की आंतरिक समानता एशिया की कला की अंतवर्तिनी एकता का ज्वलन्त और अकाट्य प्रमाण है। भारतवर्ष में हिन्दू कला और बौद्ध कला स्वभावतः भिन्न नहीं हैं। वृहत्तर भारत में भी उनको अभिन्नता विनष्ट नहीं हुई, यह भी तथ्य कलागत एकता के विचार को परिपुष्ट करता है। किसी अन्य देश की कला का आदर्श देश-विशेष के कलाकारों द्वारा तब तक आत्मसात और मूर्त नहीं किया जा सकता जब तक दोनों में अन्य प्रकार की एकता हो। ऐसी एकता वैचारिक और मानसिक ही हो सकती है। एक विद्वान का तो यहाँ तक कहना है कि जावा, सुमात्रा, कम्बोडिया,, स्याम तथा बर्मा की कला भारतीय कला के, इतिहास-ग्रंथ के खोये हुए पृष्ठों-जैसी है यह बात भारत को गौरवान्वित करने की दृष्टि से ही नहीं कही गयी है, इसमें वस्तुगत यथार्थ भी हैं जो सूक्ष्म विचारक हैं वे, इस प्रश्न के मूल में भी बैठने का प्रयत्न करने करते हैं कि यदि वैचारिक और मानसिक एकता को स्वीकार किया जाय तो क्यों संपूर्ण एशिया में बौद्ध धर्म व्याप्त हो गया और इतने समय तक उसके आध्यामिक संस्कार जीवित रहे? इसका उत्तर एशिया की कला देती है जो इन स्तरों से गहरे उतर कर आत्मिक एकता के स्तर तक जाती है जैसा आरंभ में निर्देश किया जा चुका है।

    भारतीय चित्रकला और चीनी चित्रकला के सिद्धांतों की तुलना करने पर पारस्परिक एकता का एक और प्रमाण उपलब्ध होता है। दोनों देशों के शिल्पाचार्यों ने षडंगों की कल्पना की है और उसे शास्त्रीय-विधान के रूप में प्रतिष्ठित किया है। रूप-विन्यास के साथ-साथ संयोजक और वर्ण-विन्यास के प्रति दोनों में समान सजगता लक्षित होती है। चीनी चित्रकार अपने तूलिका-कौशल के द्वारा जीवन को उसकी अखंड गतिशीलता में सूक्ष्म आत्मिक सामंजस्य स्थापित करते हुए एक भावमयी सौंदर्य चेतना के साथ चित्रित करता है जबकि भारतीय चित्रकार जीवन की स्वाभाविक भाव-मुद्राओं को ग्रहण करते हुए भी पौराणिक संदर्भ को कठिनाई ये छोड़ पाता है। चीनी चित्रकार की तरह सर्वथा मुक्त होकर तल्लीनता के साथ वह प्रकृति का आलेखन नहीं करता। सिद्धांततः वह भी समस्त दृश्य-जगत में एक ही आध्यात्मिक सत्ता को परिव्याप्त मानता है। परंतु प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ का समान मनोयोग से निरीक्षण करके उसके रूप को चीनी चित्रकार की भाँति वह अंकित नहीं करता। वह केवल वस्तु के स्वभाव को ग्रहण करके शेष को अपनी कल्पना से भर देने की छूट लेता है और भावनाओं को प्रायः लीला भाव के रूप में ग्रहण करता है। उसका यह लीला भाव गज, सिंह और मकर आदि की आकृतियों को चित्रित करके भी सौम्य ही बना रहता है। भावना को उदात्त की ओर अनुप्रेरित करना उसकी एक मुख्य विशेषता है। चीनी चित्रकार जिस परिपक्व भाव से व्याल (ड्रेगन) को चित्रित करता है वह एशिया के किसी देश की कला में उपलब्ध नहीं होता। भारतीय मकर-चित्रण उसकी छाया मात्र है। ईरानी-फ़ारसी पद्धति का शार्दूल-चित्रण भी उतना शक्तिपूर्ण नहीं लगता। पाश्चात्य कला-पारखियों की दृष्टि से एशियाई कला की जो विशेषता सबसे महत्वपूर्ण है वह यह कि इसमें प्रकृति का यथातथ्यांकन नहीं होता जैसा आधुनिक कला के प्रेरक सेजांस पूर्व रूबेल, रेम्ब्रां, कानन्स्टेबल, टर्न आदि करते रहे। प्रभाववादी फ्रेंच कलाकारों में भी प्रकृति को तद्वत् अंकित करने का ही आग्रह प्रधान था. परंतु चीनी और जापानी चित्रकारों ने जिस मूल-चारुत्व और आंतरिक सूक्ष्म अनुभूति की संगति के साथ प्रकृति को चित्रित किया है वह यूरोप के किसी देश की कला में अप्राप्य है। विदेशी दृष्टि इससे आश्चर्यचकित होती है क्योंकि परशिया से लेकर जापान तक सारे एशियाई देशों के प्रकृति-चित्रण में छाया और परिप्रेक्षण (पर्सपेक्टिव) का अभाव है, क्यों जल में प्रतिबिंब तक प्रदर्शित नहीं किया जाता! एशियाई कला के प्रतीकात्मक और स्वभाव-प्रधान चित्रण का रहस्य वह कठिनाई से ग्रहण कर पाता है। इसी प्रकार सारी एशियाई कला उसे किसी-न-किसी रूप में अलंकृति-प्रधान दिखाई देती है। वास्तव में अलंकरण उस लयात्मकता को व्यक्त करता है जो एशिया की कला की एक प्रमुख विशेषता है। समस्त एशियाई देशों का चित्रांकन 'रेखा' को रूप का अनिवार्य वाहक मान कर चलता है। भारतीय शास्त्रकारों ने रेखांकन को कलाकार की कुशलता का श्रेष्ठतम प्रतिमान माना है। 'रेखा शंसन्त्याचार्याः' किसी काल में यूरोपीय कला में रेखा को इतनी महत्ता प्राप्त नहीं हुई। वर्ण-विन्यास और चित्र में रिक्त स्थान की व्यवस्था का भी एशिया के कलाकार में अपना पृथक बोध रहा है।

    फ़ारस और ईरान प्रारंभ में आर्य जाति के संस्कारो से युक्त थे जो प्रतिमापूजक नहीं थे। बाद में सेमेटिक जातियों के संस्कार उनमें आये जो 'बुतशिकनी' को पवित्र धार्मिक कर्तव्य मानते थे। परिणाम यह हुआ कि वहाँ मानव आकृतियों के चित्रण के स्थान पर अलंकरण और ज्यामितिक रूप रचना का, कला में महत्व बढ़ता गया। सेमेटिक सरकार भारत में भी आये परंतु यहाँ की बुतपरस्ती 'बुतशिकनी' के द्वारा पराजित नहीं हुई वरन उससे फ़ारसी कला को नई दिशा प्रदान की। फ़ारसी कला में व्यक्तिचित्र का प्रायः प्रभाव है पर भारत में मुगल शैली की एक प्रधान विशेषता ही व्यक्ति-चित्रण है। शिल्प-कौशल का विश्वविख्यात सीमाचिह्न ताजमहल ईरानी और भारतीय वास्तुकला का अद्वितीय सम्मिश्रण है। राजपूत और मुगल कला शैलियों की अलंकृत सुक्ष्म रूप-रचना की समानता इस बात की द्योतक है कि अंततः सेमेटिक संस्कार भी एशिया की कलागत एकता को विच्छिन्न नहीं कर सके।

    स्रोत :
    • पुस्तक : निबंध गरिमा (नवल किशोर एम ए) (पृष्ठ 61)
    • संपादक : नवल किशोर (एम ए)
    • रचनाकार : जगदीश गुप्त
    • प्रकाशन : जयपुर पब्लिशिंग हाउस

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