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साहित्य में वैयक्तिक कुंठा

sahitya mein vaiyaktik kuntha

इलाचंद्र जोशी

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इलाचंद्र जोशी

साहित्य में वैयक्तिक कुंठा

इलाचंद्र जोशी

और अधिकइलाचंद्र जोशी

    व्यक्तिगत कुंठा मनुष्य की आधुनिक सभ्यता की देन है। आज के सभ्य जीवन में जो ऊपरी दिखावा, जो बनावटीपन गया है, उसने जीवन के सहज, सरल और स्वस्थ प्रवाह को चारों ओर से रूँध दिया है। इस अवरोध का फल यह देखने में आता है कि मनुष्य को पग-पग पर अपने भीतर के वास्तविक रूप को छिपाना पड़ता है और समाज के बाहरी रूप के साथ अपना सामंजस्य स्थापित करने के लिए नए-नए मुखड़े पहनने पड़ते हैं, जिनमें से एक भी उसका अपना नहीं होता। अपने को सामाजिक दबाव के कारण इस प्रकार निरंतर छिपाते रहने, अपने भीतर की वास्तविक प्रवृत्तियों को बराबर दबाते रहने का फल यह होता है कि व्यक्ति के भीतर के द्वंद्व बढ़ते चले जाते हैं।

    इस प्रकार का कुंठित व्यक्ति बाहरी परिस्थितियों की विषमता से लड़कर, उन पर विजय प्राप्त करके, व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन की गति को आगे बढ़ाते चले जाने में सहायक होने के बजाए अपनी ही दमित प्रवृत्तियों से लड़ने में अपनी सारी शक्तियों को समाप्त कर देता है, और संघर्ष में उलझ कर स्वयं ही क्षत-विक्षत होता चला जाता है। यह एक ऐसा विकट अभिशाप है आज के युग का, जिसका बहुत बड़ा हाथ सामूहिक प्रगति को रोकने में है।

    यही कारण है कि साहित्यकार व्यक्तिगत कुंठा के प्रश्न की अवज्ञा कर ही नहीं पाता। जो साहित्यकार जितना ही महान और अनुभूतिशील होगा, सामूहिक प्रगति की आकांक्षा जिसके मन में जितनी ही गहरी और प्रबल होगी, वैयक्तिक कुंठा का प्रश्न उसके आगे उतने ही अधिक परिस्फुट रूप में उभरकर आएगा, क्योंकि गहरी अंतर्दृष्टि रखने वाले साहित्यकार से यह बात छिपी नहीं रह सकती कि व्यक्ति के भीतर चलते रहने वाले द्वंद्व सहज सामाजिक प्रगति में किस हद तक बाधक सिद्ध होते हैं।

    इसलिए वह उन भीतरी द्वंद्वों का विश्लेषण करता है, उनके मूल कारणों को खोज निकालने का प्रयत्न करता है और उन इंद्रों के निराकण के लिए उपयुक्त उपाय सुझाता हुआ सामूहिक सामाजिक प्रगति के लिए रास्ता साफ़ करता है। कालिदास के दुष्यंत के ज़माने से लेकर शेक्सपियर के हैमलेट के युग तक और हैमलेट के युग से लेकर आज तक प्राय: सभी श्रेष्ठ साहित्यकार इसी वैयक्तिक कुंठा के गंभीर और सभ्य जीवन के मूल में पैठे हुए प्रश्नों पर प्रकाश डालते चले आए हैं।

    यह ठीक है कि सभी युगों के कलाकार देश, काल, परिस्थिति और पात्रों के अनुसार अपनी शैली को बदलते चले गए हैं, पर उद्देश्य सबका—जाने या अनजाने—एक ही रहा है। कालिदास का दुष्यंत तपोवन में जब शकुंतला को देखता है, तब अपनी सहज प्रवृत्ति के अनुसार उसके प्रति आकर्षित होते हुए वह यह महसूस करता है कि शकुंतला के साथ उसका आत्मिक तथा सामाजिक संयोजन दोनों के जीवन की सहज प्रगति के लिए अत्यंत आवश्यक है। राजप्रासाद और तपोवन, वैभव और त्याग का वह मिलन प्रत्येक दृष्टि—से वैयक्तिक और सामाजिक दोनों रूपों से कल्याणकारी है। अपनी इस अंत:प्रज्ञा से प्रेरित होकर वह उसके साथ गुप्त अर्थात् गंधर्व विवाह का संबंध स्थापित कर लेता है पर सामाजिक अनुशासन के भय से वह उस संबंध को स्थायित्व प्रदान करने से हिचकता है।

    फलस्वरूप शकुंतला अपमानित होकर उससे अलग हो जाती है। इस प्रकार व्यक्तिगत प्रवृत्ति और सामाजिक अनुशासन के बीच संघर्ष होने से दुष्यंत कुंठा का शिकार बन जाता है। उसकी इस कुंठा का सुंदर और सफल चित्रण कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुंतल’ में किया है। पर केवल उस कुंठा का नाटकीय चित्रण ही कालिदास का उद्देश्य नहीं रहा है। उसे संकीर्ण वैयक्तिक घेरे से ऊपर उठाकर कालिदास ने अपनी आश्चर्यमयी कला द्वारा उसे सामाजिक स्तर पर लाकर खड़ा किया है और यह दिखाया है कि किस प्रकार व्यक्तिगत प्रवृत्तियों के सहज विकास को सामूहिक सामाजिक प्रगति के साथ एक रूप में नियोजित किया जा सकता है। हैमलेट में हम यह अंतर पाते हैं कि उसमें शेक्सपीयर ने नायक की व्यक्तिगत कुंठा का सूक्ष्म-से-सूक्ष्म विश्लेषण करने में अपनी कलात्मक शक्ति का व्यय अधिक किया है और सामाजिक विकास के साथ उसका सामंजस्य स्थापित करने की ओर कम ध्यान दिया है।

    आधुनिक साहित्य में हम इस दृष्टि से कालिदासीय कला की अपेक्षा शेक्सिपीरियन कला का अधिक प्रभाव पाते हैं। ठीक है कि सभ्यता-जनित विकृतियों के उत्तरोत्तर विकास के साथ-साथ व्यक्तिगत कुंठा भी उसी अनुपात में अधिकाधिक जटिल रूप धारण करती चली आई है। इसलिए उस जटिलता को सुलझाने में ही आधुनिक नाटककारों और उपन्यासकारों की सारी शक्ति ख़र्च हो जाती है। फल यह देखने में आता है कि कुंठा का विश्लेषण और चित्रण साधन रहकर साध्य बन जाता है और व्यापक सामाजिक समस्याएँ हल नहीं हो पातीं। पर यह कहना ग़लत होगा कि शेक्सपियर के बाद परवर्ती युगों में सभी श्रेष्ठ कवियों, नाटककारों या उपन्यासकारों पर केवल उसी का प्रभाव पड़ा। इसमें संदेह नहीं कि वैयक्तिक कुंठा के प्रश्न की अवज्ञा कोई कर पाया, पर सभी ने यह नहीं माना कि इस प्रकार की कुंठित मनोवृत्ति का सफल चित्रण ही महान् कला का चरम निदर्शन है। उदाहरण के लिए हम गेटे के ‘फ़ाउस्ट’ को ले सकते हैं। नायक की वैयक्तिक कुंठा के विश्लेषण से इस काव्यात्मक नाटक का प्रारंभ होता है।

    चूँकि फ़ाउस्ट को बौद्धिक और दार्शनिक प्रतिभा अत्यंत विकसित और बहुमुखी है, इसलिए अपनी कुंठा की अनुभूति भी उसमें बहुत ही तीखी और प्रबल है। पर वह उस कुंठा से पराजित और उसमें ग़र्क़ होकर निश्चेष्ट नहीं हो जाता। वह अपनी भीतरी प्रवृत्तियों और बाहरी परिस्थितियों से निरंतर जूझता रहता है और इस प्रकार समुचित वैयक्तिक विकास का सामूहिक सामाजिक प्रगति के साथ संतुलित संयोजन कर सकने में सफल सिद्ध होता है। ‘फ़ाउस्ट’ के प्रथम भाग में गेटे ने नायक की व्यक्तिगत कुंठा का वैश्लेषिक चित्रण बड़ी ही बारीकी से किया है और दूसरे भाग में उस कुंठा को परिणति जीवन के प्रति एक उदार और व्यापक सामाजिक दृष्टिकोण में दिखाई है।

    पर गेटे का यह आदर्शात्मक दृष्टिकोण उन्नीसवीं शती के यूरोपियन कलाकारों—विशेषकर उपन्यासकारों—के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सका। फ़्रांसीसी राज्यक्रांति की मूल उद्देश्यगत असफलता के कारण फ़्रांस के सामाजिक जीवन में एक विचित्र विशृंखल के फलस्वरूप सामूहिक भ्रष्टाचार फैल गया था। इस भ्रष्टाचार के युग में केवल वे ही लोग आगे बढ़ सकते थे जो नैतिक पतन के गढ़े में गले-गले तक डूब चुके हों। जिन लोगों के भीतर नैतिक भावना कुछ भी अवशिष्ट थी, वे अपने ही भीतर सिमट कर कुंठित मनोवृत्ति के शिकार बन गए थे। फल यह देखने में आया कि व्यक्तिगत कुंठा का निदर्शन और विश्लेषण उस युग के साहित्य का फ़ैशन बन गया। ‘व्यक्ति की कुंठा का विश्लेषण केवल विश्लेषण के लिए’—यह जैसे उस युग के साहित्यकारों का नारा बन गया।

    रूसी उपन्यासकारों ने भी अपने उपन्यासों और कहानियों में व्यक्ति की कुंठा को अपने विश्लेषण का विषय बनाया। पर केवल तुर्गनेव को छोड़कर शेष सभी ने वैयक्तिक कुंठा को आदर्शात्मक सामाजिक प्रेरणा की ओर विकसित होने का अवसर दिया। इस संबंध में उन्होंने गेटे का अनुसरण किया, जबकि तुर्गनेव ने हेमलेट को अपना आदर्श माना।

    बीसवीं शती में भौतिक वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक क्षेत्रों में अधिकाधिक विकृति आती चली गई। फल यह हुआा कि व्यक्ति के भीतर और बाहर, आदर्श और यथार्थ के बीच द्वंद्व और संघर्ष की तीव्रता बढ़ गई। सारा साहित्य व्यक्ति की कुंठित मनोवृत्ति की गाँठें खोलने और सुलझाने के प्रयत्न में समाप्त हो गया। ऐसी परिस्थिति में फ़्रॉयड का आविर्भाव हुआा। उसने साहित्य कलाकारों को विश्लेषण के लिए एक नया अस्त्र प्रदान कर दिया। फ़्रायडियन विश्लेषण द्वारा जब फ़्रॉयड के समकालीन लेखकगण व्यक्ति की मनोभावनाओं की चीरफाड़ करने लगे, तब उस विश्लेषण का कोई अंत ही उन्हें नहीं मिला, क्योंकि बीसवीं शती के व्यक्ति की कुंठा के मूल में कई कारण उन्हें निहित दिखाई दिए। वैयक्तिक, सामाजिक, राजनीतिक, आाथिक और सांस्कृतिक—सभी क्षेत्रों की विकृतियों का सम्मिलित प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर बुरी तरह पड़ रहा था।

    पर केवल विश्लेषण उन जटिल जीवन-ग्रंथियों को सुलझा सकने में समर्थ नहीं था। उन्हें किन्हीं नई और स्वस्थ दिशाओं की ओर मोड़ने और उन्नयन करने के लिए एक बहुत बड़े आदर्शात्मक लक्ष्य की आवश्यकता थी जिसका उन लेखकों में निपट अभाव पाया गया जो फ़्रॉयड द्वारा प्रभावित थे। उन्होंने व्यक्ति की कुंठा के सामाजिक कारणों की छानबीन कर केवल मनोवैज्ञानिक कारणों की ही खोज आरंभ कर दी और ‘विश्लेषण केवल विश्लेषण के लिए’ के सिद्धांत को चरम सीमा तक पहुँचा दिया।

    फ़्रॉयड के बाद आया सार्त्र। उसने व्यक्ति की कुंठा को समाज का कोढ़ मानकर उसे जीवन का एक स्वाभाविक तत्त्व माना। व्यक्ति की स्वतंत्र सत्ता संबंधी सिद्धांत को विकृति की पराकाष्ठा तक ले जाकर उसने यह प्रतिपादन किया कि कुंठा का तत्व जीवन के मूल में निहित है। किन्हीं बाहरी कारणों से उसकी उत्पत्ति नहीं होती—न सभ्यताजनित विकृति ही उसका कारण है, सामाजिक विषमता और पारिवारिक अव्यवस्था।

    कहना होगा कि सात्रे का यह अद्भुत दृष्टिकोण किसी भी समझदार और जीवन की गहराई में प्रविष्ट कलाकार को मान्य नहीं हो सकता। व्यक्ति के जीवन में हम कुंठा का जो रूप पाते हैं, वह जीवन के भीतर से सहज रूप में विकसित कोई तत्व नहीं है बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारणों से उत्पन्न परिस्थितियों द्वारा ऊपर से थोपी गई चीज़ है। यह ठीक है कि कुंठा की भावना व्यक्ति की मानसिकता में बड़ी खलबली मचा देती है और जीवन के संबंध में उसके परिप्रेक्षण को ही विकृत बना देती है। पर यह होने पर भी उसके मूल कारणों की खोज के लिए केवल व्यक्ति के मन के भीतर पैठने से ही काम चलेगा, बाहर की परिस्थितियों की भी छानबीन उसके लिए करनी पड़ेगी।

    इसमें संदेह नहीं कि पिछले कुछ युगों से बाहरी परिस्थितियों का दबाव सामूहिक तथा वैयक्तिक मानव-मन पर इस हद तक पड़ा है कि कुंठा की भावना ने एक प्रकार से वंशानुक्रमिक रूप धारण कर लिया है। पर वह वंशानुक्रमिता भी किन्हीं भीतरी कारणों से विकसित नहीं है, बल्कि बाहरी परिस्थितियों के उत्तरोत्तर विकृतीकरण की सामूहिक क्रिया का ही परिणाम है।

    इस तथ्य की सचाई के महत्व को समझकर आज भी कुछ अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पाश्चात्य कलाकार अपने नाटकों, उपन्यासों और कविताओं में वैयक्तिक कुंठा को व्यक्ति के जीवन की एक मूलगत और महत्वपूर्ण प्रवृत्ति मानकर उसी दृष्टि से उसका चित्रण या विश्लेषण करते हुए पाए जाते हैं। बाहरी परिस्थितियों से वे उसका कोई भी संबंध नहीं मानना चाहते। यह ग़लत दृष्टिकोण पिछले कुछ युगों से विश्व-साहित्य को बुरी तरह आक्रांत किए हुए है, जिसका प्रभाव स्वभावत: आज के भारतीय साहित्य पर अत्यंत विकृत और घातक रूप में पड़ता हुआ दिखाई देता है।

    पिछले युगों के भारतीय साहित्य में चाहे और जो त्रुटियाँ रही हों, पर व्यक्तिगत कुंठा को वह महत्त्व कभी नहीं दिया गया, जैसा आज दिया जा रहा है। मेरा आशय यह नहीं है कि वैयक्तिक कुंठा की उन्होंने उपेक्षा की। उसे उन्होंने साहित्य में अवश्य स्थान दिया। कालिदास से लेकर रवींद्रनाथ तक ने उसे अपनी रचनाओं में चित्रित और विश्लेषित किया। पर ठीक परिप्रेक्षण में रखकर ही उन्होंने ऐसा किया। उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि वह मानवीय जीवन और विशेषकर मानवीय मन के विकास की सहज क्रिया या प्रतिक्रिया है। उन्होंने निश्चित रूप से यह निर्देशित किया कि समाज की बाहरी परिस्थितियाँ ही व्यक्ति की कुंठा को जन्म देती और उसका विकास या ह्रास करती है और उन्हें व्यापक सामाजिक पृष्ठभूमि में रखने से ही उसका निराकरण या उन्नयन हो सकता है।

    आधुनिक युग में शरतचंद्र ने अपनी रचनाओं में व्यक्ति के कुंठित जीवन पर काफ़ी प्रकाश डाला है। पर उसे उन्होंने कभी इस हद तक तरजीह नहीं दी कि उसे मूल जीवन से ही संश्लिष्ट मान लेते। बाहरी परिस्थितियों का कितना बड़ा हाथ व्यक्ति के जीवन के भीतरी निर्माण में रहता है इस तथ्य पर वे बराबर ज़ोर देते रहे और कुंठा से मुक्ति पाने के लिए भीतरी परिप्रेक्षण बदलने के साथ ही बाहरी परिस्थितियों को बदलने की आवश्यकता भी बताते रहे। हमारे यहाँ प्रेमचंद जी ने भी इस दृष्टिकोण को काफ़ी हद तक अपनाया, यद्यपि दोनों की शैली, रूप-विधान श्रौर भावनात्मक प्रवृत्तियों में बड़ा अंतर है।

    पर रवींद्रनाथ और शरतचंद्र के बाद के बंगला साहित्य में हम कुछ दूसरी ही प्रवृत्ति पाते हैं। उसमें व्यक्ति की कुंठा ही प्रमुख प्रतिपाद्य विषय बन गई है और उस कुंठा को नियंत्रण में ला सकने वाली शक्तियों को गौण महत्व भी नहीं दिया जाता है। नए बंगला उपन्यासों और कहानियों को पढ़ने से लगता है जैसे व्यक्ति की कुंठा ही सब कुछ है, उसी का चित्रण साहित्य का मूल उद्देश्य है, मानव-जीवन का प्रधान तत्व जैसे वही है और उसके परे कुछ नहीं है। हिंदी के नए साहित्य में भी हम इसी प्रवृत्ति की प्रधानता मानते हैं। यह ठीक है कि आज के बाह्य जीवन में विषमता, असंतुलन और असामंजस्य इस हद तक बढ़ गया है कि अंतर्जीवन का अवसाद भी उसी अनुपात में बढ़ता हुआ विकट से विकटतर रूप धारण करता चला जा रहा है। पर साहित्य-सर्जक भी यदि बाह्य जीवन की उन विकृतियों और अंतर्जीवन की तद्जनित प्रतिक्रियायों को ही प्रधानता देने लगे, और कायरता-वश उन्हीं को जीवन का वास्तविक रूप मान बैठे, तो उससे बड़ी शोचनीय स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती। नवीनतम हिंदी साहित्य में भी कुछ इसी से मिलते-जुलते लक्षण दिखाई देते हैं।

    वैयक्तिक कुंठा की प्रतिक्रिया मोटे तौर पर दो रूपों में होती है। एक तो यह कि कुंठित व्यक्ति जीवन से हारकर भीतर के और बाहर के संघर्ष से कतराकर इस हद तक जड़ बन जाए कि उस स्थिति से उबरने की कोई प्रवृत्ति ही उसमें शेष रहे। दूसरा यह कि कुंठित भावनाएँ विद्रोह का रूप धारण कर लें। यह विद्रोह भी दो रूपों में अपने को व्यक्त कर सकता है—एक तो भीतर की और बाहर की परिस्थितियों के प्रति सचेष्ट विद्रोह और कुंठित मन:स्थिति से उबरने और ऊपर उठने का सक्रिय प्रयत्न; दूसरा आत्म-विद्रोह जो विद्रोह का विकृततम रूप है। कहना होगा कि इनमें जड़ता अथवा पलायन वाली प्रतिक्रिया निकृष्ट है। आत्म-विद्रोह का क्रम इसके बाद आता है। सक्रिय और सचेष्ट विद्रोह वाली प्रतिक्रिया ही इन तीनों में स्वस्थ, स्वाभाविक और सर्वोत्तम है। यही विद्रोह जीवन को गति देता है, जड़ से जड़ परिस्थितियों में विस्फोट पैदा करता है और विकृतियों को धोकर जीवन मे निरंतर परिष्कार लाता रहता है।

    नए साहित्य में—चाहे वह अँग्रेज़ी का हो, चाहे बंगला का, चाहे हिंदी का—हमें आत्म-विद्रोह के लक्षण अधिक सुस्पष्ट दिखाई देते हैं। आत्म-विद्रोह अशक्तता, खीझ और हताश मनःस्थिति की उपज है जो अपने चारों ओर के वातावरण को अपने भीतर के तेजाबी विष से जलाने और गलाने, स्वस्थ प्रवृत्तियों को कुचलने और विकृत प्रतिहिंसात्मक प्रवृत्तियों का नंगा खेल खुल-खेलने में ही जीवन की सार्थकता मानता है।

    व्यक्ति की कुंठा अपने आप में उत्तनी ख़तरनाक नहीं जितनी उस की यह आत्मघाती प्रतिक्रिया; कुंठा को यदि ठीक से समझा और परखा जाए तो उसे जीवन के स्वस्थ विकास के लिए एक उपयोगी अस्त्र के रूप में काम में लाया जा सकता है। संसार के सभी महान् और स्वस्थ साहित्यकारों ने सभी युगों में उसे इसी कल्याणकारी अस्त्र के रूप में अपनाया है। नए युग के नए लेखकों के लिए यह बहुत आवश्यक है कि वे इस तथ्य पर एकांत, ध्यानपूर्वक, गंभीरता से विचार करें।

    स्रोत :
    • पुस्तक : देखा-परखा (पृष्ठ 58)
    • रचनाकार : इलाचंद्र जोशी
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संज
    • संस्करण : 1957

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