'अशोक के फूल' केवल एक फूल की कहानी नहीं, भारतीय संस्कृति का एक अध्याय है; और इस अध्याय का अनंगलेख पढ़ने वाले हिंदी में पहले व्यक्ति हैं हजारीप्रसाद द्विवेदी। पहली बार उन्हें ही यह अनुभव हुआ कि 'एक-एक फूल, एक-एक पशु, एक-एक पक्षी न जाने कितनी स्मृतियों का भार लेकर हमारे सामने उपस्थित है। अशोक की भी अपनी स्मृति-परंपरा है। आम की भी है, बकुल की भी है, चंपे की भी है। सब क्या हमें मालूम है? जितना मालूम है उसी का अर्थ क्या स्पष्ट हो सका है?' अब तो ख़ैर हिंदी में फूलों पर 'ललित' लेख लिखने वाले कई लेखक निकल आए हैं, लेकिन कहने की आवश्यकता नहीं कि 'अशोक के फूल' आज भी अपनी जगह है। कालिदास के प्रेमी पंडितों को पहली बार इस रहस्योद्घाटन से अवश्य ही धक्का लगा होगा कि जिस कवि को वे अब तक अपनी आर्य संस्कृति का महान गायक समझते आ रहे थे वह गंधर्व, यक्ष, किन्नर आदि आर्येतर जातियों के विश्वासों और सौंदर्य-कल्पनाओं का सबसे अधिक ऋणी है। वैसे तो भारत को 'महामानव सागर' कहने वाले रवींद्रनाथ ठाकुर एक अरसे से यह बतलाते आ रहे थे कि जिसे हम हिंदू रीति-नीति कहते हैं वह अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का मिश्रण है, किंतु यही संदेश 'अशोक के फूल' के माध्यम से आया तो उसकी चोट कुछ और ही थी। क्या इसलिए कि यह मनोजन्मा कंदर्प के धनुष से छूटा है? फूल की मार कितनी गहरी हो सकती है इसका एहसास कराने के लिए 'अशोक के फूल' के ये दो वाक्य क़ाफ़ी हैं: 'देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बात की बात है। सब कुछ में मिलावट है, सब कुछ अविशुद्ध है।' और सच कहा जाए तो आर्य संस्कृति की शुद्धता के अहंकार पर चोट करने के लिए ही 'अशोक के फूल' लिखा गया है, प्रकृति-वर्णन करने के लिए नहीं। यह निबंध द्विवेदीजी के शुद्ध पुष्प-प्रेम का प्रमाण नहीं, बल्कि संस्कृति-दृष्टि का अनूठा दस्तावेज है।
अब तो भारत की 'सामासिक संस्कृति' की दिन-रात माला जपने वाले बहुतेरे हो गए हैं। दिनकरजी ने तो 'संस्कृति के चार अध्याय' नाम से एक विशाल ग्रंथ ही लिख डाला; किंतु जैसा कि अज्ञेय ने लिखा है: 'काव्य की पड़ताल में तो दिनकर 'शुद्ध' काव्य की खोज में लगे थे, लेकिन संस्कृति की खोज में उनका आग्रह 'मिश्र संस्कृति' पर ही खोज में लगे थे, लेकिन संस्कृति की मिश्रता को ही उजागर करने का प्रयत्न है, उसकी संग्राहकता को नहीं। संस्कृति का चिंतन करने वाले किसी भी विद्वान के सामने यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि संस्कृतियाँ प्रभाव ग्रहण करती हैं, अपने अनुभव को समृद्धतर बनाती हैं, लेकिन यह प्रक्रिया मिश्रण की नहीं है। संस्कार नाम ही इस बात को स्पष्ट कर देता है। यह मानना कठिन है कि संस्कृति की यह परिभाषा दिनकर की जानी हुई नहीं थी; उनका जीवन भी कहीं उस मिश्रता को स्वीकार करता नहीं जान पड़ता था, जिसकी वकालत उन्होंने की। तब क्या यह संदेह संगत नहीं कि उनकी अवधारणा एक वकालत ही थी, दृष्टि का उन्मेष नहीं? और अगर वकालत ही थी तो उनका मुवक्किल क्या समकालीन राजनीति का एक पक्ष ही नहीं था, जिसके सांस्कृतिक कर्णधार स्वयं भी मिश्रता का सिद्धांत नहीं मानते थे, लेकिन अपनी स्थिति दृढ़तर बनाने के लिए उसे अपना रहे थे?' (स्मृतिलेखा, पृ.118)
इस 'मिश्र संस्कृति' की राजनीति से द्विवेदीजी कितने अलग थे, इसका प्रमाण यह है कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जब से राष्ट्रीय स्तर पर अनुमोदित और प्रोत्साहित नीति के रूप में 'सामासिक संस्कृति' का बोलबाला हुआ, द्विवेदीजी ने इस विषय पर लिखना लगभग बंद कर दिया। स्पष्ट है कि वे 'मिश्र संस्कृति' के वकील न थे और न एक वकील की तरह अपने पक्ष के लिए इतिहास से तथ्य बटोरने ही गए थे। उन्होंने तो उस अनुभूति को वाणी दी जो अपने अतीत के साहित्य को पढ़ते और कलाकृतियों को देखते समय अंतर्तम में उठी थी; और इस बात से तो संभवत: अज्ञेय भी इनकार न करेंगे कि द्विवेदीजी के लिए वह एक अमूर्त बौद्धिक 'अवधारणा' नहीं थी, बल्कि 'दृष्टि का उन्मेष' था। इसीलिए जब द्विवेदीजी कहते हैं कि 'सबकुछ अविशुद्ध है', तो तुरंत बाद यह भी जोड़ते हैं कि 'शुद्ध है केवल मनुष्य की जिजीविषा।' 'वह गंगा की अबाधित-अनाहत धारा के समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है!'
इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि अज्ञेय जहाँ संस्कृति की केवल 'संग्राहकता' की हिमायत करते हैं, वहाँ द्विवेदीजी 'त्याग' का ज़िक्र करना नहीं भूलते। 'अशोक के फूल' में ही, उसी अनुच्छेद के अंतर्गत एक द्रष्टा की तरह 'मानवजाति की दुर्दम-निर्मम धारा के हज़ारों वर्ष का रूप साफ़' देखते हुए वे कहते हैं: 'मनुष्य की जीवनी-शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती-बहाती यह जीवनधारा आगे बढ़ी है। संघर्षों से मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है।'
इसलिए द्विवेदीजी के सामने योजनाबद्ध रूप से एक 'मिश्र संस्कृति' तैयार करने की समस्या नहीं है, समस्या यह है कि 'आज हमारे भीतर जो मोह है, संस्कृति और कला के नाम पर जो आसक्ति है, धर्माचार और सत्यनिष्ठा के नाम पर जो जड़िमा है' उसे किस प्रकार ध्वस्त किया जाए?
इस दृष्टि से यदि दिनकर की 'मिश्र संस्कृति' की एक राजनीति है जो अज्ञेय की संस्कार-धर्मी संग्राहक संस्कृति भी किसी और राजनीति के अनुषंग से बच नहीं जाती। जब वे कहते हैं कि संस्कृतियाँ प्रभाव ग्रहण करती हैं, अपने अनुभव को समृद्धतर बनाती है तो उसमें एक 'मूल संस्कृति' का अस्तित्व पहले ही से स्वीकार कर लिया गया है जो किसी प्रभाव से पहले 'विशुद्ध' है। आकस्मिक नहीं है कि अज्ञेय द्वारा स्थापित वत्सल निधि की 'हीरानंद शास्त्री स्मारक व्याख्यानमाला' के प्रथम आयोजन में प्रकाशित 'भारतीय परंपरा के मूल स्वर' में डॉ. गोविंदचंद्र पांडे भी लगभग ऐसे ही शब्दों में 'सामासिक संस्कृति' का विरोध करते हैं। डॉ. पांडे यह स्वीकार करते हैं कि 'विज्ञान, प्रविधि और भौतिक उपादानों के स्तर पर नाना समाजों में आदान-प्रदान अनायास और चिरपरिचित है; [और] इन साधनों का उपयोग समाज को प्रभावित करता है।' किंतु इसके साथ ही वे यह भी मानते हैं कि 'अतर्क्य भावों, अनुभूतियों और आध्यात्मिक उपलब्धियों के स्तर पर संस्कृतियों का वास्तविक मिलन अत्यंत कठिन होता है।' (पृ.18-19) कुल मिलाकर 'इस विमर्श का निष्कर्ष यह है कि भारतीय संस्कृति की तथाकथित सामासिकता वास्तव में सभ्यता के क्षेत्र में ही लागू होती है और इस क्षेत्र में वह भारत की कोई विशेषता नहीं है।' (पृ.20)
सवाल यह है कि 'सभ्यता' और 'संस्कृति' की जिन दो यूरोपीय अवधारणाओं को डॉ. पांडे ने भारत की संस्कृति के विवेचन के लिए अपनाया है, उनका संबंध 'सभ्यता' से है या संस्कृति से? आदान--प्रदान यदि सभ्यता के ही क्षेत्र में सम्भव होता है तो फिर भारतीय चिन्तन में ये पाश्चात्य अवधारणाएँ कैसे शामिल हो गयीं ? वस्तुतः अवधारणा के रूप में 'संस्कृति' को स्वीकार करने के साथ ही डॉ. पांडे ने यह स्वीकार कर लिया कि संस्कृति के क्षेत्र में भी आदान-प्रदान होता है। फिर भी जिस तरह 'राष्ट्रीय स्तर पर अनुमोदित और प्रोत्साहित सामासिक संस्कृति' का विरोध डॉ. पांडे ने किया है उसे किसी अन्य पक्ष की राजनीति की वकालत न मानना अज्ञेय के लिए भी कठिन होगा। तर्क वही है जिसका इस्तेमाल उन्होंने दिनकर के संदर्भ में किया है। यदि दिनकर की 'सामाजिक संस्कृति' का संबंध राजनीति के एक पक्ष से है तो स्वयं अज्ञेय और गोविंदचंद्र पांडे की 'शुद्ध संस्कृति' का संबंध भी राजनीति के दूसरे पक्ष से जोड़ा जा सकता है। शुद्ध होने से ही वह राजनीति से मुक्त नहीं हो जाती।
द्विवेदीजी की दृष्टि में संस्कृति का यह आग्रह भी एक प्रकार का 'मोह' है जो बाधा उपस्थित करता है। संस्कृति में निहित जिस 'संस्कार' की ओर अज्ञेय ने संकेत किया है, उसकी अर्थवत्ता से द्विवेदीजी अपरिचित हैं, यह तो स्वयं अज्ञेय भी न स्वीकार करेंगे; फिर भी उन्हें यह देखकर आश्चर्य न होना चाहिए कि उन्होंने अक्सर इस 'संस्कार' को भी बाधा माना है। लखनऊ विश्वविद्यालय के 'साहित्य का मर्म' (1948) शीर्षक व्याख्यानों में उनका ज़ोर इसी बात पर है कि विवेक के परिष्करण के लिए किए गए संस्कार भी काल पाकर किसी नए सृजन के ग्रहण के लिए बाधा बन जाते हैं। कहते हैं: 'संस्कार' शब्द का प्रयोग करते समय मुझे थोड़ा संकोच ही हो रहा है। संस्कार शब्द अच्छे अर्थ में ही प्रयुक्त होता है, परंतु मनुष्य स्वभाव से ही प्राचीन के प्रति श्रद्धापरायण होता है और प्राचीनकाल से संबंद्ध होने के कारण कुछ ऐसी धारणाओं को श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगता है जो जब शुरू हुई होंगी तो निश्चय ही उपयोगी रही होगी परंतु बाद में उनकी उपयोगिता घिस गई और वे रुढ़ि मात्र रह गईं। ऐसे संस्कार सब समय वृहत्तर मानव पट भूमिका पर खरे नहीं उतरते।' इन कालगत संस्कारों की चर्चा करने के बाद वे उन देशगत और जातिगत संस्कारों की ओर भी संकेत करते हैं जो 'अन्य देश और अन्य जाति के विश्वासों पर आधारित साहित्य को समझने में बाधक होते हैं।' प्रसंग यद्यपि साहित्य का है फिर भी संस्कार की यह भूमिका संस्कृति के क्षेत्र में भी स्वीकार की जा सकती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि संस्कार के उल्लेख मात्र से संस्कृति के क्षेत्र में दृष्टिगत होने वाली संकीर्णता का परिहार नहीं हो जाता। 'संस्कार' की प्रक्रिया अंतत: संस्कृति के क्षेत्र में उस शुद्धीकरण की ओर ले जाती है जिसकी परिणति वर्जनशीलता में होती है—यह वही 'वर्जनशीलता' है जिस पर भारतीय संस्कृति के बहुत से हिमायतियों को अभिमान है। 'हमारे यहाँ' वाला ब्रम्हास्त्र इस वर्जनशील अहंकार की उपज है, जिसका मुक़ाबला द्विवेदीजी को अक्सर करना पड़ता था।
बहुत क्लेश होने पर ही 'हिंदी साहित्य की भूमिका' के उपसंहार में उन्होंने लिखा: 'आए दिन श्रद्धापरायण आलोचक यूरोपियन मतवादों को धकिया देने के लिए भारतीय आचार्य-विशेष का मत उद्धृत करते हैं और आत्मगौरव के उल्लास से घोषित कर देते हैं कि 'हमारे यहाँ' यह बात इस रूप में मानी या कही गई है। मानो भारतवर्ष का मत केवल वही एक आचार्य उपस्थापित कर सकता है, मानो भारतवर्ष के हज़ारों वर्ष के सुदीर्घ इतिहास में नाम लेने योग्य एक ही कोई आचार्य हुआ है, और दूसरे या तो हैं ही नहीं, या हैं भी तो एक ही बात मान बैठे हैं। यह रास्ता ग़लत है। किसी भी मत के विषय में भारतीय मनीषा ने गड्डलिका-प्रवाह की नीति का अनुसरण नहीं किया है। प्रत्येक बात में ऐसे बहुत से मत पाए जाते हैं जो परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध पड़ते हैं।' (पृ. 129)
पंडितों की समझ का यह इकहरापन द्विवेदीजी की दृष्टि में एक बड़ी बाधा है। इस संकीर्ण इकहरेपन के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए उन्होंने भारतीय संस्कृति की विविधता, जटिलता, परस्पर विरोधी जीवंतता और समृद्धि का पुन: सृजन किया। भारतीय संस्कृति के अंतर्गत आर्येतर जातियों के अवदान की उल्लसित चर्चा का कारण यही है। यदि इस प्रयास में कहीं आर्य-श्रेष्ठता के अहंकार को ठेस लगती है तो द्विवेदीजी इस बात से चिंतित नहीं दिखते। वस्तुत: यह दूसरी परंपरा की खोज का प्रयास है जिसका प्रयोजन मुख्यत: पंडितों की इकहरी परंपरा की संकीर्णता का निदर्शन है।
प्रसंगवश द्विवेदीजी के इस प्रयास की एक परंपरा हिंदी में पहले से दिखाई पड़ती है। एक दशक पहले जयशंकर प्रसाद को भी ऐसे ही भारत-व्याकुल लोगों से पाला पड़ा था, जिनके जवाब में कवि को 'काव्य और कला' तथा 'रहस्यवाद' आदि निबंध लिखने पड़े थे। नए काव्य-प्रयोगों की 'प्रतिक्रिया के रूप में' उन्हें भी 'भारतीयता की दुहाई' सुनाई पड़ी थी। 'काव्य और कला' निबंध का आरंभ ही इस प्रकार होता है कि 'भारतीय वाड़्मय की' 'सुरुचि-संबंधी विचित्रताओं को बिना देखे ही अत्यंत शीघ्रता में आजकल अमुक वस्तु अभारतीय है अथवा भारतीय संस्कृति की सुरुचि के विरुद्ध है, कह देने की परिपाटी चल पड़ी है।' प्रसाद ने भी यह लक्षित किया था कि 'ये सब भावनाएँ साधारणत: हमारे विचारों की संकीर्णता से और प्रधानत: अपनी स्वरूप-विस्मृति से उत्पन्न हैं।' यह संकीर्णता और स्वरूप-विस्मृति अपनी परंपरा के ऐतिहासिक और वैज्ञानिक विवेचन से ही दूर हो सकती है। किंतु प्रसाद ने अनुभव किया कि 'इसका ऐतिहासिक और वैज्ञानिक विवेचन होने की संभावना जैसी पाश्चात्य साहित्य में है, वैसी भारतीय साहित्य में नहीं। उनके पास अरस्तू से लेकर वर्तमान काल तक ही सौंदर्यानुभूति-सबंधिनी विचारधारा का क्रमविकास और प्रतीकों के साथ-साथ उनका इतिहास तो है ही, सबसे अच्छा साधन उनकी अविछिन्न सांस्कृतिक एकता भी है। हमारी भाषा के साहित्य में वैसा सामंजस्य नहीं है। बीच-बीच में इतने अभाव या अंधकार-काल हैं कि उनमें कितनी ही विरुद्ध संस्कृतियाँ भारतीय रंग स्थल पर अवतीर्ण और लोप होती दिखाई देती हैं; जिन्होंने हमारी सौंदर्यानुभूति के प्रतीकों को अनेक प्रकर से विकृत करने का ही उद्योग किया है।'
अपनी परंपरा में इस अभाव और अंधकार-काल के बावजूद प्रसाद ने 'रहस्यवाद' शीर्षक निबंध में सौंदर्यानुभूति की परंपरा को पुननिर्मित करने का प्रयास किया। इस परंपरा का आरंभ भी ऋग्वेद से ही होता है, किंतु यह आर्यजन की वह परंपरा है जिसके प्रतिनिधि इंद्र हैं और जिसमें 'काम' की पूर्ण स्वीकृति है। वह वरुण के अधिनायकत्व में विकसित होने वाली असुर परंपरा से सर्वथा भिन्न है जो विधि-विधान और विवेक को विशेष महत्त्व देती थी। प्रसाद ने इन दोनों परस्पर-विरोधी परंपराओं के विकास की मनोरंजक रूपरेखा प्रस्तुत की है और कहने की आवश्यकता नहीं कि उनकी दृष्टि में जीवन में 'काम' को पूर्णत: स्वीकार करके चलने वाली आनंदवादी परंपरा ही मुख्य है अथच काम्य भी।
किसी प्रकार की प्रतिक्रिया प्राप्त न होने के कारण यह कहना कठिन है कि द्विवेदीजी प्रसाद द्वारा निरूपित आनंदवादी परंपरा से किस हद तक परिचित थे, किंतु तत्त्वत: यह वही परंपरा है जिसका श्रेय वे गंधर्व, नाग, द्रविड़ आदि आर्येतर जातियों को देते हैं। 'विचार और वितर्क' (1945) में संकलित अपने एक आरंभिक निबंध 'हमारी संस्कृति और साहित्य का संबंध' में लिखा है कि 'सबसे अधिक आर्येतर-संश्रव साहित्य और ललित कलाओं के क्षेत्र में हुआ है। अजंता के चित्रित, साँची, भरहुत आदि में उत्कीर्ण चित्र और मूर्तियाँ आर्येतर सभ्यता की समृद्धि के परिचायक हैं। महाभारत और कालिदास के काव्यों की तुलना करने में जान पड़ेगा कि दोनों दो चीज़ें हैं। एक में तेज है, दृप्तता है और अभिव्यक्ति का वेग है, तो दूसरे में लालित्य है, माधुर्य है और व्यंजना की छटा है। महाभारत में आर्य उपादान अधिक है, कालिदास के काव्यों में आर्येतर। जिन लोगों ने भारतीय शिल्पशास्त्र का अनुशीलन किया है, वे जानते हैं कि भारतीय शिल्प में कितने आर्येतर उपादान हैं और काव्यों तथा नाटकों में उनका कैसा अद्भुत प्रभाव पड़ा है। पता चला है कि साँची, भरहुत आदि के चित्रकार यक्षों और नागों की पूजा करने वाली एक सौंदर्य-प्रिय जाति थी, जो संभवत: उत्तर भारत से लेकर असम तक फैली हुई थी। बहुत-सी ऐसी बातें कालिदास आदि कवियों ने इन सौंदर्य-प्रेमी जातियों से ग्रहण की, जिनका पता आर्यों को न था। कामदेव और अप्सराएँ उनकी देव-देवियाँ हैं, सुंदरियों के पदाघात से अशोक का पुष्पित होना उनके घर की चीज़ है, अलकापुरी उनका स्वर्ग है—इस प्रकार की अन्य अनेक बातें उनसे और उन्हीं की तरह अन्यान्य आर्येतर जातियों से महाकवि ने ली हैं।' इसी क्रम में आगे भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के बारे में भी, उसके आर्यों की विद्या न मानने वाले मत का ज़िक्र करते हुए कहते हैं: 'शुरू में एक कथा में बताया गया है कि ब्रम्हा ने नाट्यवेद नामक पाँचवे वेद की सृष्टि की थी। अगर आर्यों के वेदों से इसका कुछ भी संबंध होता तो पंडितों का अनुमान है, इस कथा की ज़रूरत न हुई होती। वास्तव में भारतीय नाटक पहले केवल अभिनय के रूप में ही दिखाए जाते थे। उनमें भाषा का प्रयोग करना आर्य संशोधन का परिवर्धन है।' (प्रथम संस्करण, पृ.186-87) आर्येतर अवदान की इस सूची में यदि 'भक्ती द्राविड़ ऊपजी' और आभीरों के आराध्यवदेव बालकृष्ण तथा देवी राधा को जोड़ लें तो हमारी परंपरा में सुंदर माना जाने वाला ऐसा कुछ भी नहीं बचता जो आर्येतर न हो! एक भक्तिकाव्य को छोड़कर प्रसाद और हजारीप्रसाद द्विवेदी में इस बात को लेकर कोई मतभेद नहीं है कि क्या-क्या सुंदर है? अंतर केवल यह है कि प्रसाद जिसे आर्यों के एक समुदाय की परंपरा कहते हैं, हजारीप्रसाद द्विवेदी उसे ही विभिन्न आर्येतर जातियों का अवदान मानते हैं। फिर भी एक बात में उभयत्र समानता है कि हमारी परंपरा में जो भी सुंदर है वह आर्य नाम से प्रचारित मिथक से भिन्न है। इस मिथकीय आर्य से इतनी चिढ़ इसलिए है कि इसके ध्वजाधारियों को 'सुंदर' से परहेज है। जैसा कि प्रसाद ने 'रहस्यवाद' शीर्षक निबंध में स्पष्ट लिखा है: 'आनंद पथ को उनके कल्पित भारतीयोचित विवेक में सम्मिलित कर लेने से आदर्शवाद का ढाँचा ढीला पड़ जाता है। इसलिए वे इस बात को स्वीकार करने में डरते हैं कि जीवन में यथार्थ वस्तु आनंद है, ज्ञान से व अज्ञान से मनुष्य उसी की खोज में लगा है। आदर्शवाद ने विवेक के नाम पर आनंद और उसके पथ के लिए जो जनरव फैलाया है, वही उसे अपनी वस्तु कहकर स्वीकार करने में बाधक है।' इसलिए नैतिकतावादियों को प्रत्युत्तर देने के लिए प्रसाद ने यदि 'सुंदर' की परंपरा को अपनी ही परंपरा के अंदर आर्येतर तत्त्वों के अभिन्न मिश्रण के रूप में विवेचित किया। एक की परंपरा और दूसरे की प्रति-परंपरा दो दिशाओं से चलकर एक ही बिंदु पर मिलती है—थोथे नैतिकतावाद के विरुद्ध 'सुंदर' की प्रतिष्ठा! 'सुंदर' को ही लेकर यह सारा विवाद इसलिए है कि जैसा कि प्रसाद ने कहा है: 'संस्कृति सौंदर्यबोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा है।'
यह आकस्मिक नहीं है कि भारतीय संस्कृति के नाम पर नैतिकता की ध्वजा फहरानेवाले प्रकृति के सौंदर्य को तो किसी प्रकार सह लेते हैं, पर नारी-सौंदर्य के सामने आँखे चुराने लगते हैं। उदाहरण के लिए शुक्लजी के लोकमंगल में प्रकृति के सौंदर्य के लिए तो पूरी जगह है, लेकिन छायावादियों की कौन कहे स्वयं विद्यापति और सूर जैसे भक्त कवियों का नारी-सौंदर्य भी ग्राह्य नहीं है। आनंद और माधुर्य को लोकमंगल की सिद्धावस्था का गौरवपूर्ण पद देकर उन्होंने साधनावस्था का मार्ग अपनी ओर से सर्वथा निष्कटंक कर लिया, क्योंकि साधना के मार्ग में माधुर्य से बाधा पहुँचने की आशंका है।
संभवत: ऐसे ही पूर्वग्रह का प्रत्याख्यान करने के लिए द्विवेदीजी ने अपनी साहित्य-साधना के आरंभिक सोपान पर ही 'हिंदी साहित्य की भूमिका' के साथ ही 'प्राचीन भारत का कला-विलास' (1940) नामक पुस्तक लिखी जो आगे चलकर परिवर्धित रूप में 'प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद' नाम से छपी। प्राचीन भारत में प्रचलित कलाओं के लगभग सौ संदर्भों का तथ्यात्मक विवरण उपस्थित करने से पहले 'कलात्मक विनोद' में द्विवेदीजी ने आरंभ में यह स्पष्ट कर देना आवश्यक समझा कि 'विलासिता और कलात्मक विलासिता एक ही वस्तु नहीं है। थोथी विलासिता में केवल भूख रहती है—नंगी बुभुक्षा पर कलात्मक विलासिता संयम चाहती है, शालीनता चाहती है, विवेक चाहती है। सो कलात्मक विलास किसी जाति के भाग्य में सदा-सर्वदा नहीं जुटता। उसके लिए ऐश्वर्य चाहिए, समृद्धि चाहिए, त्याग और भोग का सामर्थ्य चाहिए और सबसे बढ़कर ऐसा पौरुष चाहिए जो सौंदर्य और सुकुमारता की रक्षा कर सके। परंतु इनता ही क़ाफ़ी नहीं है। उस जाति में जीवन के प्रति ऐसी एक दृष्टि सुप्रतिष्ठित होनी चाहिए जिससे वह पशुसुलभ इंद्रिय-वृत्ति को और बाह्य पदार्थों को ही समस्त सुखों का कारण न समझने में प्रवीण हो चुकी हो, उस जाति की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परंपरा बड़ी और उदार होनी चाहिए और उसमें एक ऐसा कौलीन्य गर्व होना चाहिए जो आत्म-मर्यादा को समस्त दुनिया की सुख-सुविधाओं से श्रेष्ठ समझता हो, और जीवन के किसी भी क्षेत्र में असुंदर को बर्दाश्त न कर सकता हो। जो जाति सुंदर की रक्षा और सम्मान करता नहीं जानती वह विलासी भले ही हो ले, पर कलात्मक विलास उसके भाग्य में नहीं बदा होता।'
संक्षेप में यह उस सौंदर्यबोध की 'संस्कृति' है, जिसका अत्यंत संवेदनशील और सूक्ष्म विवरण 'कलात्मक विनोद' के बाद के पृष्ठों में मिलता है, या फिर 'बाणभट्ट की आत्मकथा', 'चारु चंद्रलेख', 'पुनर्नवा' और 'अनामदास का पोथा' जैसी सर्जनात्मक कृतियों के उन प्रसंगों में जहाँ नारी-सौंदर्य अपने पूरे वैभव के साथ प्रकट होता है तथा नृत्य-कला के प्रदर्शन के अवसर अक्सर उपस्थित होते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि द्विवेदीजी के इस सौंदर्यबोध में सर्वथा शास्त्रीय प्रत्यभिज्ञान ही नहीं, बल्कि उसमें एक सजग ऐंद्रिय संवेदन की प्रत्यग्रता भी है। रूप, शोभा, सुषमा, सौभाग्य, चारुता, लालित्य, लावण्य आदि का ऐसा सूक्ष्म परिज्ञान और संवेदन हिंदी में दुर्लभ ही है।
इस सौंदर्यबोध को सामंती संस्कृति का पर्याय समझ लिए जाने का भ्रम न हो इसलिए 'मेघदूत-एक पुरानी कहानी', (1957) से पूर्व मेघ के 'पुष्पलावी मुखानम्' वाले 26वें छंद पर द्विवेदीजी की व्याख्या का एक अंश प्रस्तुत है: 'जो संपत्ति परिश्रम से नहीं अर्जित की जाती, और जिसके संरक्षण के लिए मनुष्य का रक्त पसीने में नहीं बदलता, वह केवल कुत्सित रुचि को प्रश्रय देती है। सात्विक सौंदर्य वहाँ है, जहाँ चोटी का पसीना एड़ी तक आता है और नित्य समस्त विकारों को धोता रहता है। पसीना बड़ा पावक तत्व है मित्र, जहाँ इसकी धारा रुद्ध हो जाती है वहाँ कलुष और विकार जमकर खड़े हो जाते हैं। विदिशा के प्रच्छन्न विलासियों में यह पावनकारी तत्व नहीं है। उनके चेहरों पर सात्विक तेज और उल्लसित करने वाली दीप्ति नहीं रह गई है। इसलिए मैं सलाह देता हूँ कि विश्राम करके आगे बढ़ना; क्योंकि प्रात:काल निचली पहाड़ी के इर्दगिर्द तुमको मनुष्य की सात्विक शोभा दिखाई देगी। वहाँ सवेरे सूर्योदय के साथ ही साथ तुम श्रम-जल-स्नात नारियों की दिव्य शोभा देख सकोगे। नागरिक लोगों के आनंद और विलास के लिए कृषकों ने फूलों के अनेक बग़ीचे लगा रखे हैं। प्रात:काल कृषक-वधुएँ फूल चुनने के लिए इन पुष्पोद्यानों में आ जाती हैं, उस प्रदेश में इन्हें 'पुष्पलावी' कहते हैं। 'पुष्पलावी' अर्थात् फूल चुननेवाली। ये पुष्पलावियाँ घर का कामकाज समाप्त करके उद्यानों में आ जाती हैं और मध्याह्न तक फूल चुनती रहती हैं। सूर्य के ताप से इनका मुखमंडल ग्लान हो उठता है, गंडस्थल से पसीने की धारा बह चलती है और इस स्वेदधारा के निरंतर संस्पर्श से उनके कानों के आभरण रूप में विराजमान नीलकमल मलिन हो उठते हैं। दिन-भर की तपस्या के बाद वे इतना कमा लेती हैं कि किसी प्रकार उनकी जीवन-यात्रा चल सके। परंतु तुमको यहीं सात्विक सौंदर्य के दर्शन होंगे। उनके दीप्त मुखमंडल पर शालीनता का तेज देखोगे; उनकी भ्रू-भंग-विलास से अपरिचित आँखों में सच्ची लज्जा के भार का दर्शन कर पाओगे और उनके उत्फुल्ल अधरों पर स्थिर भाव से विराजमान पवित्र स्मित-रेखा को देखकर तुम समझ सकोगे कि 'शुचि-स्मिता' किसे कहते हैं। इस पवित्र सौंदर्य को देखकर तुम निचली पहाड़ी की उद्दाम और उन्मत्त विलास-लीला को भूल जाओगे। वहाँ तुम संचय का विकार देखोगे और यहाँ आत्मदान का सहज रूप।' (प्रथम संस्करण, पृ. 45-46)
पुष्पलावियों का यह श्रम-जल-स्नात सौंदर्य कालिदास का नहीं, द्विवेदीजी के 'कालिदास' का सौंदर्य है—क्लासिकी परंपरा से फूटती हुई आधुनिकता! संस्कृति को भी संस्कार देने वाली यह एक और परंपरा है जो अनजाने ही निराला की 'श्याम तन भर बँधा यौवन' वाली 'वह तोड़ती पत्थर' से जुड़ जाती है।
इसलिए जो लोग द्विवेदीजी के सौंदर्य-संस्कार को रवींद्रनाथ के शांतिनिकेतन की देन बतलाते हैं वे सिर्फ़ आधी बात कहते हैं। शांतिनिकेतन में चारों ओर संगीत और कला का जो वातावरण था उसने निश्चय ही द्विवेदीजी के सुप्त सौंदर्यबोध को जागृत किया था। स्वयं द्विवेदीजी ने भी शांतिनिकेतन के संस्मरणों में आश्रम के उस वातावरण की चर्चा की है जिसमें संगीत जीवन का अविच्छेद्य अंग बन गया था और छोटे-से-छोटे बच्चों में भी सौंदर्य-निर्माण की सहज प्रेरणा काम कर रही थी। फिर भी उनके अपने सौंदर्य प्रेम का एक बहुत बड़ा स्त्रोत अपना लोक-संस्कार था। यही वजह है कि जीवन के संदर्भ में जब भी सौंदर्य-सृष्टि की बात उठती थी तो वे उसे सामान्य जन-जीवन में उतारने की कल्पना करते थे। इस दृष्टि से 'विचार-प्रवाह' (1959) में संकलित 'जनता का अंत: स्पंदन' शीर्षक लेख विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
निबंध इस चिंता से आरंभ होता है: 'कुछ ऐसा प्रयत्न होना चाहिए कि इस वंचित जनता के भीतर रसग्राहिका संवेदना उत्पन्न हो, वे भी 'सुंदर' का सम्मान करना सीखें, 'सुंदर' ढंग से जीवन बिताना सीखें, 'सुंदर' को पहचानना सीखें।' एक सत्ख्यातिवादी की तरह द्विवेदीजी कहते हैं कि जनता के अंत:करण में अगर सौंदर्य के प्रति सम्मान का भाव नहीं है, तो जनता कभी भी सौंदर्य-प्रेमी नहीं बनाई जा सकती। किंतु उनका विश्वास है कि जनता के भीतर वह वस्तु स्तब्ध पड़ी हुई है। उपयुक्त उद्दीपक के अभाव में वह स्पंदित नहीं हो रही है। इस उद्दीपक वस्तु को समाज में प्रतिष्ठित करना वांछनीय है। जनता की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति से वे बेख़बर नहीं हैं। वे अनुभव करते हैं कि जिस जनता को पेट-भर अन्न नहीं मिलता, वह सौंदर्य का सम्मान नहीं कर सकती। नींव के बिना इमारत नहीं उठ सकती। 'भूखे भजन न होहिं गोपाला।' किंतु इसके साथ ही यह भी सच है कि 'जो जाति 'सुंदर' का सम्मान नहीं कर सकती वह यह भी नहीं जानती कि बड़े उद्देश्य के लिए प्राण देना क्या चीज़ है। वह छोटी-छोटी बातों के लिए झगड़ती है, मरती है और लुप्त हो जाती है।'
स्पष्टत: यह दृष्टि उस विचारधारा से नितांत भिन्न है जो जनता को तात्कालिक आर्थिक और राजनीतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संघर्ष में उतारने की विश्वासी है क्योंकि वहाँ यह समझ निहित है कि जनता के बोध का स्तर इतना ही नीचा है। जो जनता के 'अंत:स्पंदन' से अपरिचित हैं वे सारी शक्ति फौरी लड़ाइयों में ही क्षय करते हैं। कोई जाति क्रांति जैसे बड़े उद्देश्य के लिए जान की बाजी लगाती है तो इसलिए कि वह सिर्फ जीना नहीं चाहती, बल्कि 'सुंदर' ढंग से जीना चाहती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि आज के अनेक राजनीतिक संगठन और आंदोलन सिर्फ़ इसलिए असफल हो रहे हैं कि उनके सामने जीवन का यह बड़ा उद्देश्य नहीं है और वे 'सुंदर' को एक अतिरिक्त या फ़ालतू चीज़ समझते हैं।
द्विवेदीजी भी 'सौंदर्य' को 'अतिरिक्त' मानते हैं किंतु उनके 'अतिरिक्त' का अर्थ वह है जो आनंदवर्धनकृत 'लावण्य' की परिभाषा में है। वह किसी वस्तु के प्रसिद्ध अवयवों में से कोई भी नहीं है, उनसे अतिरिक्त है और फिर भी उन अवयवों को छोड़कर नहीं रह सकता। सो सौंदर्य रूप नहीं है, लेकिन रूप को छोड़कर रह भी नहीं सकता। इस शास्त्रीय परिभाषा से द्विवेदीजी जीवन के लिए जो निष्कर्ष निकालते हैं, वह द्रष्टव्य है। कहते हैं: 'जीवन को सुंदर ढंग से बिताने के लिए भी जीवन का एक रूप होना चाहिए। बहुत से लोग कुछ भी न करने को भलापन समझते हैं। यह ग़लत धारणा है। सुंदर जीवन क्रियाशील होता है; क्योंकि क्रियाशीलता ही जीवन का रूप है। क्रियाशीलता को छोड़कर जीवन का 'सौंदर्य' टिक नही सकता।' द्विवेदीजी के अनुसार इस भाव से चालित जन-समाज अंतत: 'राजनीतिक और आर्थिक शक्तियों पर कब्ज़ा करने के प्रयास' से कम पर संतुष्ट नहीं हो सकता क्योंकि 'समाज व्यवस्था को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना एकदम असंभव हो गया है।'
किंतु उन संकीर्णतावादी क्रांतिकारियों से द्विवेदीजी सहमत नहीं हैं जो मनुष्य के भविष्य को सुखी बनाने के नाम पर आज उसके सौंदर्य-प्रेम को किसी न किसी बहाने कुचल देना चाहते हैं। अंतिम दिनों में लिखित 'परंपरा और आधुनिकता' शीर्षक लेख में वे कहते हैं: “जो मनुष्य को उसकी सहज वासनाओं और अद्भुत कल्पनाओं के राज्य से वंचित करके भविष्य में उसे सुखी बनाने के सपने देखता है वह ठूँठ तर्कपरायण कठमुल्ला हो सकता है, आधुनिक बिल्कुल नहीं। वह मनुष्य को समूचे परिवेश से विच्छिन्न करके हाड़-मांस का यंत्र बनाना चाहता है। यह न तो संभव है, न वांछनीय।” (ग्रंथावली 9/363)
इसलिए द्विवेदीजी मनुष्य की 'समस्त रचयित्री आनंदिनी वृत्ति' का विकास आवश्यक समझते हैं, क्योंकि चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, धर्मविधान और साहित्य के माध्यम से उसी वृत्ति को अभिव्यक्ति मिलती है।
यह आकस्मिक नहीं है कि अंतिम दिनों में वे 'सौंदर्यशास्त्र' पर 'लालित्य-मीमांसा' नाम से एक पूरी पुस्तक लिख रहे थे। अपने प्रिय कवि कालिदास पर 'कालिदास की लालित्य-योजना' नामक पुस्तक पूरी करके वे स्वयं लालित्यशास्त्र पर ही व्यवस्थित और सांगोपांग विचार करना चाहते थे। उनके जीवन की सुदीर्घ सौंदर्य-चिंता और सौंदर्य-साधना की यह स्वाभाविक परिणति थी। दुर्भाग्य से उस पुस्तक के केवल पाँच ही निबंध पूरे हो पाए, पर उनसे भी उनकी व्यापक और मौलिक सौंदर्य-चिंता का कुछ आभास मिल ही जाता है। उन्हें इस तथ्य का एहसास है कि 'भारतवर्ष में इस प्रकार के किसी अलग शास्त्र की कल्पना नहीं की गई है; परंतु काव्य, शिल्प, चित्र, मूर्ति, संगीत, नाटक आदि की आलोचना के प्रसंग में और विविध आगमों में 'चरम सुंदर तत्त्व' की महिमा बताने के बहाने इसकी चर्चा अवश्य होती रही है।' इसलिए अपनी इस छिन्न किंतु समृद्ध परंपरा के आधार पर ही उन्होंने लालित्य-चिंतन के भवन-निर्माण का प्रयास किया है।
इस प्रयास का पहला सूत्र है कि वे सौंदर्य को सौंदर्य न कहकर 'लालित्य' कहना चाहते हैं, क्योंकि 'प्राकृतिक सौंदर्य से भिन्न किंतु उसके समानांतर चलने वाला मानवरचित सौंदर्य' (ग्रंथावली 7/34) उनकी दृष्टि में विशेष महत्त्वपूर्ण है। लालित्य वह इसलिए है कि मानव द्वारा लालित है। सौंदर्य की इस मानववादी धारणा का स्त्रोत द्विवेदीजी ने अपनी परंपरा से ही ढूँढ़ निकाला। वह स्त्रोत है भरतमुनि का नाट्शास्त्र। नाट्यशास्त्र में नाटक की उत्पत्ति की जो कथा दी गई है उसके अनुसार देवता नाटक न कर सके और नाटक कर सकने में मनुष्य को ही समर्थ समझा गया, क्योंकि उसमें देवताओं से एक विशिष्ट शक्ति है—अनुकरण की। यही नहीं, भरतमुनि ने अपने समय में प्रचलित रूपकों में से पूर्णांक सिर्फ़ नाटक और प्रकरण को ही माना जहाँ नायक मनुष्य होता है। नायक पर विचार करते हुए प्रसंगवश नाट्यशास्त्र के अनुसार मनुष्य ही धीरोदात्त हो सकते हैं, जबकि 'देवा धीरोद्धता एवं' क्योंकि देवों में फलागम के लिए उतावली होती है और धीरोदात्त की भाँति धीरभाव से प्रत्याशा में वे नहीं उलझते। इस प्रकार द्विवेदीजी 'कला-सृजन में मनुष्य की महिमा का सबल विवेक' भरतमुनि से प्राप्त करते हैं। सौंदर्य को मनुष्य-लालित मानने का दूसरा स्त्रोत है तांडव और लास्य का अंतर। पुराणगाथा के अनुसार शिव का तांडव रस-भाव-विवर्जित 'नृत्त' हैं जबकि पार्वती का लास्य रस-भाव-समन्वित नृत्य है। द्विवेदीजी इससे यह संकेत ग्रहण करते हैं कि 'तांडव जहाँ मानव पूर्व तत्त्वों का स्वत:स्फूर्त विकास है, वहाँ लास्य मानवीय प्रयासों का ललित रूप। (वही, 7/31) अंत में आगमों में वर्णित विश्वव्यापिनी सर्जनात्मक शक्ति 'ललिता' के प्रभामंडल से मंडित करते हुए वे मनुष्य-निर्मित सौंदर्य तत्त्व को 'लालित्य' की संज्ञा देते है। किंतु कुल मिलाकर समष्टिगत और व्यष्टिगत दोनों ही स्तरों पर द्विवेदीजी की सौंदर्य दृष्टि मूलत: मानव-केंद्रित ही है। इसका अर्थ सिर्फ़ यही नहीं है कि सौंदर्य का स्त्रष्टा मनुष्य है, बल्कि यह भी कि सौंदर्य की सृष्टि करने के कारण ही मनुष्य मनुष्य है।
द्विवेदीजी की लालित्य-मीमांसा का दूसरा सूत्र यह है कि यह 'बंधन के विरुद्ध विद्रोह' है और 'बंधनद्रोही व्याकुलता को रूप देने का प्रयास' है। (7/38) नृत्य के संदर्भ में इसी बात को 'जड़ के गुरुत्वाकर्षण पर चैतन्य की विजयेच्छा' कहा गया है। (7/28) आकस्मिक नहीं है कि द्विवेदीजी ने अपने सभी उपन्यासों में किसी-न-किसी बहाने नृत्य का आयोजन किया है। नृत्य भले ही बंधनों के विरुद्ध विद्रोह को व्यक्त करने वाली सबसे जीवंत कला हो, किंतु अन्य कलाएँ भी नृत्य के इस धर्म का अनुसरण करती हैं, यह भी द्विवेदीजी ने यथास्थान स्पष्ट कर दिया है। इस प्रकार द्विवेदीजी की दृष्टि में कला और सौंदर्य की सृष्टि विलास-मात्र नहीं बल्कि बंधनों के विरुद्ध विद्रोह है जो, शास्त्र समर्थित न होते हुए भी, उनकी क्रांतिकारी सौंदर्य-दृष्टि का परिचायक है।
द्विवेदीजी की लालित्य-मीमांसा का तीसरा सूत्र यह है कि सौंदर्य एक सर्जना है—मनुष्य की सिसृक्षा का परिणाम। उल्लेखनीय है कि 'लालित्य-मीमांसा' के प्राप्त अंशों में सबसे अधिक विचार सिसृक्षा पर ही है, जिसका स्पष्ट अर्थ है कि वे मनुष्य की सृजनशीलता पर सबसे अधिक बल देना चाहते थे। विवेचन की शब्दावली अवश्य पुरानी है और प्राय: शैव तथा शाक्त दर्शनों की इच्छा शक्ति और क्रियाशक्ति का सहारा लिया गया है, किंतु अंतत: इस आध्यात्मिक शब्दावली के बीच से मनुष्य की वह सर्जनात्मक शक्ति ही प्रकाशित होती है जो सौंदर्य, कला और संस्कृति के मूल में है। इसी सृजनशीलता के संदर्भ में उन्होंने उन 'रूढ़ियों' की भूमिका पर भी विचार किया है जो कलाकार के लिए सब समय बाधक ही नहीं होतीं, बल्कि कभी-कभी साधक या सहायक भी हो जाती है।
अंत में द्विवेदीजी एक ऐसे 'समग्र भाव' के रूप सौंदर्य की स्थापना करते हैं जो धर्माचरण, नैतिकता आदि (जीवन की) सभी प्रकार की अभिव्यक्तियों को छापकर, सबको अभिभूत करके, सबको अंतर्ग्रथित करके 'सामग्र्य भाव' का प्रकाश करता है। उन्हीं के शब्दों में: 'भाषा में, मिथक में, धर्म में, काव्य में, मूर्ति में, चित्र में बहुधा अभिव्यक्ति मानवीय इच्छाशक्ति का अनुपम विलास ही वह सौंदर्य है जिसकी मीमांसा का संकल्प लेकर हम चले हैं।' (7/34)
मीमांसा दुर्भाग्यवश अपूर्ण ही रह गई; पर संकल्प सार्थक है। 'जनता का अंत: स्पंदन' ही नहीं बल्कि अन्य रचनाओं के प्रकाश में 'लालित्य-मीमांसा' के सूत्रों को देखें तो संकेत स्पष्ट है: जीवन का समग्र विकास ही सौंदर्य है। यह सौंदर्य वस्तुत: एक सृजन व्यापार है। इस सृजन की क्षमता मनुष्य में अंतर्निहित है। वह इस सौंदर्य सृजन की क्षमता के कारण ही मनुष्य है। इस सृजन व्यापार का अर्थ है बंधनों से विद्रोह। इस प्रकार सौंदर्य विद्रोह है—मानव-मुक्ति का प्रयास है।
ashok ke phool keval ek phool ki kahani nahin, bharatiy sanskriti ka ek adhyay hai; aur is adhyay ka ananglekh paDhne vale hindi mein pahle ayakti hain hajariprsad dvivedi. pahli baar unhen hi ye anubhav hua ki ek ek phool, ek ek pashu, ek ek pakshi na jane kitni amritiyon ka bhaar lekar hamare samne upasthit hai. ashok ki bhi apni amriti parampara hai. aam ki bhi hai, bakul ki bhi hai, champe ki bhi hai. sab aya hamein malum hai? jitna malum hai usi ka arth aya apashta ho saka hai? ab to khair hindi mein phulon par lalit lekh likhne vale kai lekhak nikal aaye hain, lekin kahne ki avashyakta nahin ki ashok ke phool aaj bhi apni jagah hai. kalidas ke premi panDiton ko pahli baar is rahasyodghatan se avashya hi dhakka laga hoga ki jis kavi ko ve ab tak apni aarya sanskriti ka mahan gayak samajhte aa rahe the wo gandharv, yaksh, kinnar aadi aryetar jatiyon ke vishvason aur saundarya kalpanaon ka sabse adhik rini hai. vaise to bharat ko mahamanav sagar kahne vale ravindrnath thakur ek arse se ye batlate aa rahe the ki jise hum hindu riti niti kahte hain wo anek aarya aur aryetar upadanon ka mishran hai, kintu yahi sandesh ashok ke phool ke madhyam se aaya to uski chot kuch aur hi thi. aya isliye ki ye manojanma kandarp ke dhanush se chhuta hai? phool ki maar kitni gahri ho sakti hai iska ehsaas karane ke liye ashok ke phool ke ye do vakya qafi hainh desh aur jati ki vishuddh sanskriti keval baat ki baat hai. sab kuch mein milavat hai, sab kuch avishuddh hai. aur sach kaha jaye to aarya sanskriti ki shuddhata ke ahankar par chot karne ke liye hi ashok ke phool likha gaya hai, prkriti varnan karne ke liye nahin. ye nibandh dvivediji ke shuddh pushp prem ka prmaan nahin, balki sanskriti drishti ka anutha dastavej hai.
ab to bharat ki samajik sanskriti ki din raat mala japne vale bahutere ho ge hain. dinakarji ne to sanskriti ke chaar adhyay naam se ek vishal granth hi likh Dala; kintu jaisa ki agyey ne likha haih kavya ki paDtal mein to dinkar shuddh kavya ki khoj mein lage the, lekin sanskriti ki khoj mein unka agrah mishr sanskriti par hi khoj mein lage the, lekin sanskriti ki mishrata ko hi ujagar karne ka pryatna hai, uski sangrahakta ko nahin. sanskriti ka chintan karne vale kisi bhi vidvan ke samne ye baat apashta honi chahiye ki sanskritiyan prabhav grhan karti hain, apne anubhav ko samriddhtar banati hain, lekin ye prakriya mishran ki nahin hai. sanskar naam hi is baat ko apashta kar deta hai. ye manna kathin hai ki sanskriti ki ye paribhasha dinkar ki jani hui nahin thee; unka jivan bhi kahin us mishrata ko avikar karta nahin jaan paDta tha, jiski vakalat unhonne ki. tab aya ye sandeh sangat nahin ki unki avdharna ek vakalat hi thi, drishti ka unmesh nahin? aur agar vakalat hi thi to unka muvakkil aya samkalin rajaniti ka ek paksh hi nahin tha, jiske sanskritik karndhar avayan bhi mishrata ka siddhant nahin mante the, lekin apni sthiti driDhtar banane ke liye use apna rahe the? (amritilekha, pri. 118)
is mishr sanskriti ki rajaniti se dvivediji kitne alag the, iska prmaan ye hai ki avadhinta prapti ke baad jab se rashtriy atar par anumodit aur protsahit niti ke roop mein samajik sanskriti ka bolabala hua, dvivediji ne is vishay par likhna lagbhag band kar diya. apashta hai ki ve mishr sanskriti ke vakil na the aur na ek vakil ki tarah apne paksh ke liye itihas se tathya batorne hi ge the. unhonne to us anubhuti ko vani di jo apne atit ke sahitya ko paDhte aur kalakritiyon ko dekhte samay antartam mein uthi thee; aur is baat se to sambhavtah agyey bhi inkaar na karenge ki dvivediji ke liye wo ek amurt bauddhik avdharna nahin thi, balki drishti ka unmesh tha. isiliye jab dvivediji kahte hain ki sabkuchh avishuddh hai, to turant baad ye bhi joDte hain ki shuddh hai keval manushya ki jijivisha. wo ganga ki abadhit anahat dhara ke saman sab kuch ko hajam karne ke baad bhi pavitra hai!
is sandarbh mein ullekhaniy hai ki agyey jahan sanskriti ki keval sangrahakta ki himayat karte hain, vahan dvivediji ayag ka zikr karna nahin bhulte. ashok ke phool mein hi, usi anuchchhed ke antargat ek drashta ki tarah manavjati ki durdam nirmam dhara ke hazaron varsh ka roop saaf dekhte hue ve kahte hainh manushya ki jivani shakti baDi nirmam hai, wo sabhyata aur sanskriti ke vritha mohon ko raundti chali aa rahi hai. na jane kitne dharmacharon, vishvason, utsavon aur vrton ko dhoti bahati ye jivandhara aage baDhi hai. sangharshon se manushya ne nai shakti pai hai. hamare samne samaj ka aaj jo roop hai wo na jane kitne grhan aur ayag ka roop hai.
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is drishti se yadi dinkar ka mishr sanskriti ki ek rajaniti hai jo agyey ki sanskar dharmi sangrahak sanskriti bhi kisi aur rajaniti ke anushang se bach nahin jati. jab ve kahte hain ki sanskritiyan prabhav grhan karti hain, apne anubhav ko samriddhtar banati hai to usmen ek mool sanskriti ka astitva pahle hi se avikar kar liya gaya hai jo kisi prabhav se pahle vishuddh hai. akasmik nahin hai ki agyey dvara athapit vatsal nidhi ki hiranand shastri amarak ayakhyanmala ke pratham ayojan mein prakashit bharatiy parampara ke mool avar mein Dau. govindchandr panDe bhi lagbhag aise hi shabdon mein samasik sanskriti ka virodh karte hain. Dau. panDe ye avikar karte hain ki vigyan, pravidhi aur bhautik upadanon ke atar par nana samajon mein adan pradan anayas aur chiraprichit hai; [aur] in sadhnon ka upyog samaj ko prabhavit karta hai. kintu iske saath hi ve ye bhi mante hain ki atarkya bhavon, anubhutiyon aur adhyatmik uplabdhiyon ke atar par sanskritiyon ka vastavik milan atyant kathin hota hai. (pri. 18 19) kul milakar is vimarsh ka nishkarsh ye hai ki bharatiy sanskriti ki tathakathit samasikta vastav mein sabhyata ke kshetr mein hi lagu hoti hai aur is kshetr mein wo bharat ki koi visheshata nahin hai. (pri. 20)
saval ye hai ki sabhyata aur sanskriti ki jin do yuropiy avdharnaon ko Dau. panDe ne bharat ki sanskriti ke vivechan ke liye apnaya hai, unka sambandh sabhyata se hai ya sanskriti se? adan pradan yadi sabhyata ke hi kshetr mein bhi adan pradan hota hai. phir bhi jis tarah rashtriy atar par anumodit aur protsahit samasik sanskriti ka virodh Dau. panDe ne kiya hai use kisi anya paksh ki rajaniti ki vakalat na manna agyey ke liye bhi kathin hoga. tark vahi hai jiska istemal unhonne dinkar ke sandarbh mein kiya hai. yadi dinkar ki samajik sanskriti ka sambandh rajaniti ke ek paksh se hai to avayan agyey aur govindchandr panDe ki shuddh sanskriti ka sambandh bhi rajaniti ke dusre paksh se joDa ja sakta hai. shuddh hone se hi wo rajaniti se mukta nahin ho jati.
dvivediji ki drishti mein sanskriti ka ye agrah bhi ek prakar ka moh hai jo badha upasthit karta hai. sanskriti mein nihit jis sanskar ki or agyey ne sanket kiya hai, uski arthavatta se dvivediji aprichit hain, ye to avayan agyey bhi na avikar karenge; phir bhi unhen ye dekhkar ashcharya na hona chahiye ki unhonne aksar is sanskar ko bhi badha mana hai. lakhanuu vishvavidyalay ke sahitya ka marm (1948) shirshak ayakhyanon mein unka zor isi baat par hai ki vivek ke parishkaran ke liye kiye ge sanskar bhi kaal pakar kisi ne srijan ke grhan ke liye badha ban jate hain. kahte hainh sanskar shabda ka prayog karte samay mujhe thoDa sankoch hi ho raha hai. sanskar shabda achchhe arth mein hi pryukta hota hai, parantu manushya avabhav se hi prachin ke prati shraddhaprayan hota hai aur prachinkal se sambanddh hone ke karan kuch aisi dharnaon ko shraddha ki drishti se dekhne lagta hai jo jab shuru hui hongi to nishchay hi upyogi rahi hogi parantu baad mein unki upyogita ghis gai aur ve ruDhi maatr rah gain. aise sanskar sab samay vrihattar manav pat bhumika par khare nahin utarte. in kalgat sanskaron ki charcha karne ke baad ve un deshagat aur jatigat sanskaron ki or bhi sanket karte hain jo anya desh aur anya jati ke vishvason par adharit sahitya ko samajhne mein badhak hote hain. prsang yadyapi sahitya ka hai phir bhi sanskar ki ye bhumika sanskriti ke kshetr mein bhi avikar ki ja sakti hai. is prakar apashta hai ki sanskar ke ullekh maatr se sanskriti ke kshetr mein drishtigat hone vali sankirnta ka parihar nahin ho jata. sanskar ki prakriya anttah sanskriti ke kshetr mein us shuddhikran ki or le jati hai jiski parinati varjanshilta mein hoti hai—yah vahi varjanshilta hai jis par bharatiy sanskriti ke bahut se himayatiyon ko abhiman hai. hamare yahan vala bramhastra is varjanshil ahankar ki upaj hai, jiska muqabala dvivediji ko aksar karna paDta tha.
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panDiton ki samajh ka ye ikahrapan dvivediji ki drishti mein ek baDi badha hai. is sankirn ikahrepan ke khilaf sangharsh karte hue unhonne bharatiy sanskriti ki vividhta, jatilta, paraspar virodhi jivantta aur samriddhi ka punah srijan kiya. bharatiy sanskriti ke antargat aryetar jatiyon ke avdan ki ullasit charcha ka karan yahi hai. yadi is prayas mein kahin aarya shreshthata ke ahankar ko thes lagti hai to dvivediji is baat se chintit nahin dikhte. vastutah ye dusri parampara ki khoj ka prayas hai jiska prayojan mukhyatah panDiton ki ikahri parampara ki sankirnta ka nidarshan hai.
prsangvash dvivediji ke is prayas ki ek parampara hindi mein pahle se dikhai paDti hai. ek dashak pahle jayshankar parsad ko bhi aise hi bharat ayakul logon se pala paDa tha, jinke javab mein kavi ko kavya aur kala tatha rahasyavad aadi nibandh likhne paDe the. ne kavya pryogon ki pratikriya ke roop men unhen bhi bharatiyata ki duhai sunai paDi thi. kavya aur kala nibandh ka arambh hi is prakar hota hai ki bharatiy vaDmay ki suruchi sambandhi vichitrtaon ko bina dekhe hi atyant shighrata mein ajkal amuk vastu abharatiy hai athva bharatiy sanskriti ki suruchi ke viruddh hai, kah dene ki paripati chal paDi hai. parsad ne bhi ye lakshit kiya tha ki ye sab bhavnayen sadharantah hamare vicharon ki sankirnta se aur prdhantah apni avarup vismriti se utpanna hain. ye sankirnta aur avarup vismriti apni parampara ke aitihasik aur vaigyanik vivechan se hi door ho sakti hai. kintu parsad ne anubhav kiya ki iska aitihasik aur vaigyanik vivechan hone ki sambhavna jaisi pashchatya sahitya mein hai, vaisi bharatiy sahitya mein nahin. unke paas arastu se lekar vartaman kaal tak hi saundaryanubhuti sabandhini vicharadhara ka kramavikas aur prtikon ke saath saath unka itihas to hai hi, sabse achchha sadhan unki avichhinna sanskritik ekta bhi hai. hamari bhasha ke sahitya mein vaisa samanjasya nahin hai. beech beech mein itne abhav ya andhkar kaal hain ki unmen kitni hi viruddh sanskritiyan bharatiy rang athal par avtirn aur lop hoti dikhai deti hain; jinhonne hamari saundaryanubhuti ke prtikon ko anek prakar se vikrit karne ka hi udyog kiya hai.
apni parampara mein is abhav aur andhkar kaal ke bavjud parsad ne rahasyavad shirshak nibandh mein saundaryanubhuti ki parampara ko punnirmit karne ka prayas kiya. is parampara ka arambh bhi rigved se hi hota hai, kintu ye aryjan ki wo parampara hai jiske pratinidhi indr hain aur jismen kaam ki poorn avikriti hai. wo varun ke adhinaykatva mein viksit hone vali asur parampara se sarvatha bhinna hai jo vidhi vidhan aur vivek ko vishesh mahattv deti thi. parsad ne in donon paraspar virodhi parampraon ke vikas ki manoranjak ruparekha prastut ki hai aur kahne ki avashyakta nahin ki unki drishti mein jivan mein kaam ko purntah avikar karke chalne vali anandvadi parampara hi mukhya hai athach kamya bhi.
kisi prakar ki pratikriya prapta na hone ke karan ye kahna kathin hai ki dvivediji parsad dvara nirupit anandvadi parampara se kis had tak parichit the, kintu tattvtah ye vahi parampara hai jiska shrey ve gandharv, naag, drviD aadi aryetar jatiyon ko dete hain. vichar aur vitark (1945) mein sanklit apne ek arambhik nibandh hamari sanskriti aur sahitya ka sambandh mein likha hai ki sabse adhik aryetar sanshrav sahitya aur lalit kalaon ke kshetr mein hua hai. ajanta ke chitrit, sanchi, bharhut aadi mein utkirn chitr aur murtiyan aryetar sabhyata ki samriddhi ke parichayak hain. mahabharat aur kalidas ke kavyon ki tulna karne mein jaan paDega ki donon do chizen hain. ek mein tej hai, driptata hai aur abhivyakti ka veg hai, to dusre mein lalitya hai, madhurya hai aur ayanjna ki chhata hai. mahabharat mein aarya upadan adhik hai, kalidas ke kavyon mein aryetar. jin logon ne bharatiy shilpashastra ka anushilan kiya hai, ve jante hain ki bharatiy shilpa mein kitne aryetar upadan hain aur kavyon tatha natkon mein unka kaisa adbhut prabhav paDa hai. pata chala hai ki sanchi, bharhut aadi ke chitrkar yakshon aur nagon ki puja karne vali ek saundarya priy jati thi, jo sambhavtah uttar bharat se lekar asam tak phaili hui thi. bahut si aisi baten kalidas aadi kaviyon ne in saundarya premi jatiyon se grhan ki, jinka pata aryon ko na tha. kamdev aur apsarayen unki dev deviyan hain, sundariyon ke padaghat se ashok ka pushpit hona unke ghar ki cheez hai, alkapuri unka avarg hai—is prakar ki anya anek baten unse aur unhin ki tarah anyanya aryetar jatiyon se mahakavi ne li hain. isi kram mein aage bharatamuni ke natyshastra ke bare mein bhi, uske aryon ki vidya na manne vale mat ka zikr karte hue kahte hainh shuru mein ek katha mein bataya gaya hai ki bramha ne natyved namak panchave ved ki srishti ki thi. agar aryon ke vedon se iska kuch bhi sambandh hota to panDiton ka anuman hai, is katha ki zarurat na hui hoti. vastav mein bharatiy naatk pahle keval abhinay ke roop mein hi dikhaye jate the. unmen bhasha ka prayog karna aarya sanshodhan ka parivardhan hai. (pratham sanskaran, pri. 186 87) aryetar avdan ki is suchi mein yadi bhakti daraviD uupji aur abhiron ke aradhyavdev balkrishna tatha devi radha ko joD len to hamari parampara mein sundar mana jane vala aisa kuch bhi nahin bachta jo aryetar na ho! ek bhaktikavya ko chhoDkar parsad aur hajariprsad dvivedi mein is baat ko lekar koi matbhed nahin hai ki aya aya sundar hai? antar keval ye hai ki parsad jise aryon ke ek samuday ki parampara kahte hain, hajariprsad dvivedi use hi vibhinna aryetar jatiyon ka avdan mante hain. phir bhi ek baat mein ubhyatr samanata hai ki hamari parampara mein jo bhi sundar hai wo aarya naam se pracharit mithak se bhinna hai. is mithkiy aarya se itni chiDh isliye hai ki iske avajadhariyon ko sundar se parhej hai. jaisa ki parsad ne rahasyavad shirshak nibandh mein apashta likha haih anand path ko unke kalpit bhartiyochit vivek mein sammilit kar lene se adarshavad ka Dhancha Dhila paD jata hai. isliye ve is baat ko avikar karne mein Darte hain ki jivan mein yatharth vastu anand hai, gyaan se va agyan se manushya usi ki khoj mein laga hai. adarshavad ne vivek ke naam par anand aur uske path ke liye jo janrav phailaya hai, vahi use apni vastu kahkar avikar karne mein badhak hai. isliye naitiktavadiyon ko pratyuttar dene ke liye parsad ne yadi sundar ki parampara ko apni hi parampara ke andar aryetar tattvon ke abhinna mishran ke roop mein vivechit kiya. ek ki parampara aur dusre ki prati parampara do dishaon se chalkar ek hi bindu par milti hai—thothe naitiktavad ke viruddh sundar ki prtishtha! sundar ko hi lekar ye sara vivad isliye hai ki jaisa ki parsad ne kaha haih sanskriti saundarybodh ke viksit hone ki maulik cheshta hai.
ye akasmik nahin hai ki bharatiy sanskriti ke naam par naitikta ki avaja phahranevale prkriti ke saundarya ko to kisi prakar sah lete hain, par nari saundarya ke samne ankhe churane lagte hain. udahran ke liye shuklji ke lokmangal mein prkriti ke saundarya ke liye to puri jagah hai, lekin chhayavadiyon ki kaun kahe avayan vidyapati aur soor jaise bhakta kaviyon ka nari saundarya bhi grahya nahin hai. anand aur madhurya ko lokmangal ki siddhavastha ka gauravpurn pad dekar unhonne sadhnavastha ka maarg apni or se sarvatha nishkatank kar liya, ayonki sadhana ke maarg mein madhurya se badha pahunchne ki ashanka hai.
sambhavtah aise hi purvagrah ka pratyakhyan karne ke liye dvivediji ne apni sahitya sadhana ke arambhik sopan par hi hindi sahitya ki bhumika ke saath hi prachin bharat ka kala vilas (1940) namak pustak likhi jo aage chalkar parivardhit roop mein prachin bharat ke kalatmak vinod naam se chhapi. prachin bharat mein prachalit kalaon ke lagbhag sau sandarbhon ka tathyatmak vivran upasthit karne se pahle kalatmak vinod mein dvivediji ne arambh mein ye apashta kar dena avashyak samjha ki vilasita aur kalatmak vilasita ek hi vastu nahin hai. thothi vilasita mein keval bhookh rahti hai—nangi bubhuksha par kalatmak vilasitasanyam chahti hai, shalinata chahti hai, vivek chahti hai. so kalatmak vilas kisi jati ke bhagya mein sada sarvada nahin jutta. uske liye aishvarya chahiye, samriddhi chahiye, ayag aur bhog ka samarthya chahiye aur sabse baDhkar aisa paurush chahiye jo saundarya aur sukumarta ki raksha kar sake. parantu inta hi qafi nahin hai. us jati mein jivan ke prati aisi ek drishti supratishthit honi chahiye jisse wo pashusulabh indriy vritti ko aur bahya padarthon ko hi samasta sukhon ka karan na samajhne mein prveen ho chuki ho, us jati ki aitihasik aur sanskritik parampara baDi aur udaar honi chahiye aur usmen ek aisa kaulinya garv hona chahiye jo atma maryada ko samasta duniya ki sukh suvidhaon se shreshtha samajhta ho, aur jivan ke kisi bhi kshetr mein asundar ko bardashta na kar sakta ho. jo jati sundar ki raksha aur samman karta nahin janti wo vilasi bhale hi ho le, par kalatmak vilas uske bhagya mein nahin bada hota.
sankshep mein ye us saundarybodh ki sanskriti hai, jiska atyant sanvedanshil aur sukshmavivran kalatmak vinod ke baad ke prishthon mein milta hai, ya phir banbhatt ki atmaktha, charu chandrlekh, punarnava aur anamdas ka potha jaisi sarjnatmak kritiyon ke un prsangon mein jahan nari saundarya apne pure vaibhav ke saath prakat hota hai tatha nritya kala ke pradarshan ke avsar aksar upasthit hote hain. kahne ki avashyakta nahin ki dvivediji ke is saundarybodh mein sarvatha shastriy pratyabhigyan hi nahin, balki usmen ek sajag aindriy sanvedan ki pratyagrta bhi hai. roop, shobha, sushama, saubhagya, charuta, lalitya, lavanya aadi ka aisa sukshma parigyan aur sanvedan hindi mein durlabh hi hai.
is saundarybodh ko samanti sanskriti ka paryay samajh liye jane ka bhram na ho isliye meghdut ek purani kahani, (1957) se poorv megh ke pushpalavi mukhanam vale 26ven chhand par dvivediji ki ayakhya ka ek ansh prastut haih jo sampatti parishram se nahin arjit ki jati, aur jiske sanrakshan ke liye manushya ka rakta pasine mein nahin badalta, wo keval kutsit ruchi ko prashray deti hai. satvik saundarya vahan hai, jahan choti ka pasina eDi tak aata hai aur nitya samasta vikaron ko dhota rahta hai. pasina baDa pavak tatva hai mitr, jahan iski dhara ruddh ho jati hai vahan kalush aur vikar jamkar khaDe ho jate hain. vidisha ke prachchhanna vilasiyon mein ye pavankari tatva nahin hai. unke chehron par satvik tej aur ullasit karne vali dipti nahin rah gai hai. isliye main salah deta hoon ki vishram karke aage baDhna; ayonki pratahkal nichli pahaDi ke irdagird tumko manushya ki satvik shobha dikhai degi. vahan savere suryoday ke saath hi saath tum shram jal anat nariyon ki divya shobha dekh sakoge. nagarik logon ke anand aur vilas ke liye krishkon ne phulon ke anek baghiche laga rakhe hain. pratahkal krishak vadhuen phool chunne ke liye in pushpodyanon mein aa jati hain, us pardesh mein inhen pushpalavi kahte hain. pushpalavi arthat phool chunnevali. ye pushpalaviyan ghar ka kamakaj samapta karke udyanon mein aa jati hain aur madhyahn tak phool chunti rahti hain. surya ke taap se inka mukhmanDal alan ho uthta hai, ganDasthal se pasine ki dhara bah chalti hai aur is aveddhara ke nirantar sansparsh se unke kanon ke abhran roop mein virajman nilakmal malin ho uthte hain. din bhar ki tapasya ke baad ve itna kama leti hain ki kisi prakar unki jivan yatra chal sake. parantu tumko yahin satvik saundarya ke darshan honge. unke dipta mukhmanDal par shalinata ka tej dekhoge; unki bhru bhang vilas se aprichit ankhon mein sachchi lajja ke bhaar ka darshan kar paoge aur unke utphulla adhron par sthir bhaav se virajman pavitra smit rekha ko dekhkar tum samajh sakoge ki shuchi smita kise kahte hain. is pavitra saundarya ko dekhkar tum nichli pahaDi ki uddaam aur unmatt vilas lila ko bhool jaoge. vahan tum sanchay ka vikar dekhoge aur yahan atmadan ka sahj roop. (pratham sanskaran, pri. 45 46)
pushpalaviyon ka ye shram jal anat saundarya kalidas ka nahin, dvivediji ke kalidas ka saundarya hai—alasiki parampara se phutti hui adhunikta! sanskariti ko bhi sanskar dene vali ye ek aur parampara hai jo anjane hi nirala ki ayam tan bhar bandha yauvan vali wo toDti patthar se juD jati hai.
isliye jo log dvivediji ke saundarya sanskar ko ravindrnath ke shantiniketan ki den batlate hain ve sirf aadhi baat kahte hain. shantiniketan mein charon or sangit aur kala ka jo vatavran tha usne nishchay hi dvivediji ke supta saundarybodh ko jagrit kiya tha. avayan dvivediji ne bhi shantiniketan ke sansmarnon mein ashram ke us vatavran ki charcha ki hai jismen sangit jivan ka avichchhedya ang ban gaya tha aur chhote se chhote bachchon mein bhi saundarya nirman ki sahj prerna kaam kar rahi thi. phir bhi unke apne saundarya prem ka ek bahut baDa atrot apna lok sanskar tha. yahi vajah hai ki jivan ke sandarbh mein jab bhi saundarya srishti ki baat uthti thi to ve use samanya jan jivan mein utarne ki kalpana karte the. is drishti se vichar pravah (1959) mein sanklit janta ka antah apandan shirshak lekh vishesh roop se ullekhaniy hai.
nibandh is chinta se arambh hota haih kuch aisa pryatna hona chahiye ki is vanchit janta ke bhitar rasagrahika sanvedna utpanna ho, ve bhi sundar ka samman karna sikhen, sundar Dhang se jivan bitana sikhen, sundar ko pahchanna sikhen. ek satayativadi ki tarah dvivediji kahte hain ki janta ke antahakran mein agar saundarya ke prati samman ka bhaav nahin hai, to janta kabhi bhi saundarya premi nahin banai ja sakti. kintu unka vishvas hai ki janta ke bhitar wo vastu atabdha paDi hui hai. upyukta uddipak ke abhav mein wo apandit nahin ho rahi hai. is uddipak vastu ko samaj mein pratishthit karna vanchhniy hai. janta ki prathamik avashyaktaon ki purti se ve bekhbar nahin hain. ve anubhav karte hain ki jis janta ko pet bhar anna nahin milta, wo saundarya ka samman nahin kar sakti. neenv ke bina imarat nahin uth sakti. bhukhe bhajan na hohin gopala. kintu iske saath hi ye bhi sach hai ki jo jati sundar ka samman nahin kar sakti wo ye bhi nahin janti ki baDe uddeshya ke liye praan dena aya cheez hai. wo chhoti chhoti baton ke liye jhagaDti hai, marti hai aur lupta ho jati hai.
apashtatah ye drishti us vicharadhara se nitant bhinna hai jo janta ko tatkalik arthik aur rajnitik avashyaktaon ki purti ke liye sangharsh mein utarne ki vishvasi hai ayonki vahan ye samajh nihit hai ki janta ke bodh ka atar itna hi nicha hai. jo janta ke anthaspandan se aprichit hain ve sari shakti phauri laDaiyon mein hi kshay karte hain. koi jati kranti jaise baDe uddeshya ke liye jaan ki baji lagati hai to isliye ki wo sirph jina nahin chahti, balki sundar Dhang se jina chahti hai. kahne ki avashyakta nahin ki aaj ke anek rajnitik sangthan aur andolan sirf isliye asaphal ho rahe hain ki unke samne jivan ka ye baDa uddeshya nahin hai aur ve sundar ko ek atirikta ya faltu cheez samajhte hain.
dvivediji bhi saundarya ko atirikta mante hain kintu unke atirikta ka arth wo hai jo anandvardhankrit lavanya ki paribhasha mein hai. wo kisi vastu ke prasiddh avayvon mein se koi bhi nahin hai, unse atirikta hai aur phir bhi un avayvon ko chhoDkar nahin rah sakta. so saundarya roop nahin hai, lekin roop ko chhoDkar rah bhi nahin sakta. is shastriy paribhasha se dvivediji jivan ke liye jo nishkarsh nikalte hain, wo drashtavya hai. kahte hainh jivan ko sundar Dhang se bitane ke liye bhi jivan ka ek roop hona chahiye. bahut se log kuch bhi na karne ko bhalapan samajhte hain. ye ghalat dharna hai. sundar jivan kriyashil hota hai; ayonki kriyashilta hi jivan ka roop hai. kriyashilta ko chhoDkar jivan ka saundarya tik nahi sakta. dvivediji ke anusar is bhaav se chalit jan samaj anttah rajnitik aur arthik shaktiyon par kabza karne ke prayas se kam par santushta nahin ho sakta ayonki samaj ayavastha ko ayon ka ayon avikar kar lena ekdam asambhav ho gaya hai.
kintu un sankirntavadi krantikariyon se dvivediji sahmat nahin hain jo manushya ke bhavishya ko sukhi banane ke naam par aaj uske saundarya prem ko kisi na kisi bahane kuchal dena chahte hain. antim dinon mein likhit parampara aur adhunikta shirshak lekh mein ve kahte hainh “jo manushya ko uski sahj vasnaon aur adbhut kalpanaon ke rajya se vanchit karke bhavishya mein use sukhi banane ke sapne dekhta hai wo thoonth tarkaprayan kathmulla ho sakta hai, adhunik bilkul nahin. wo manushya ko samuche parivesh se vichchhinn karke haaD maans ka yantr banana chahta hai. ye na to sambhav hai, na vanchhniy. ” (granthavli 9/363)
isliye dvivediji manushya ki samasta rachyitri anandini vritti ka vikas avashyak samajhte hain, ayonki chitrakla, murtikla, vastukla, dharmavidhan aur sahitya ke madhyam se usi vritti ko abhivyakti milti hai.
ye akasmik nahin hai ki antim dinon mein ve saundaryshastra par lalitya mimansa naam se ek puri pustak likh rahe the. apne priy kavi kalidas par kalidas ki lalitya yojna namak pustak puri karke ve avayan lalityashastra par hi ayavasthit aur sangopang vichar karna chahte the. unke jivan ki sudirgh saundarya chinta aur saundarya sadhana ki ye avabhavik parinati thi. durbhagya se us pustak ke keval paanch hi nibandh pure ho pae, par unse bhi unki ayapak aur maulik saundarya chinta ka kuch abhas mil hi jata hai. unhen is tathya ka ehsaas hai ki bharatvarsh mein is prakar ke kisi alag shastra ki kalpana nahin ki gai hai; parantu kavya, shilpa, chitr, murti, sangit, naatk aadi ki alochana ke prsang mein aur vividh agmon mein charam sundar tattv ki mahima batane ke bahane iski charcha avashya hoti rahi hai. isliye apni is chhinna kintu samriddh parampara ke adhar par hi unhonne lalitya chintan ke bhavan nirman ka prayas kiya hai.
is prayas ka pahla sootr hai ki ve saundarya ko saundarya na kahkar lalitya kahna chahte hain, ayonki prakritik saundarya se bhinna kintu uske samanantar chalne vala manavarchit saundarya (granthavli 7/34) unki drishti mein vishesh mahattvpurn hai. lalitya wo isliye hai ki manav dvara lalit hai. saundarya ki is manavvadi dharna ka atrot dvivediji ne apni parampara se hi DhoonDh nikala. wo atrot hai bharatamuni ka natshastra. natyshastra mein naatk ki utpatti ki jo katha di gai hai uske anusar devta naatk na kar sake aur naatk kar sakne mein manushya ko hi samarth samjha gaya, ayonki usmen devtaon se ek vishishta shakti hai—anukran ki. yahi nahin, bharatamuni ne apne samay mein prachalit rupkon mein se purnank sirf naatk aur prakran ko hi mana jahan nayak manushya hota hai. nayak par vichar karte hue prsangvash natyshastra ke anusar manushya hi dhirodatt ho sakte hain, jabki deva dhiroddhta evan ayonki devon mein phalagam ke liye utavli hoti hai aur dhirodatt ki bhanti dhirbhav se pratyasha mein ve nahin ulajhte. is prakar dvivediji kala srijan mein manushya ki mahima ka sabal vivek bharatamuni se prapta karte hain. saundarya ko manushya lalit manne ka dusra atrot hai tanDav aur lasya ka antar. purangatha ke anusar shiv ka tanDav ras bhaav vivarjit nritt hain jabki parvati ka lasya ras bhaav samanvit nritya hai. dvivediji isse ye sanket grhan karte hain ki tanDav jahan manav poorv tattvon ka avathasphurt vikas hai, vahan lasya manaviy pryason ka lalit roop. (vahi, 7/31) ant mein agmon mein varnit vishvavyapini sarjnatmak shakti lalita ke prbhamanDal se manDit karte hue ve manushya nirmit saundarya tattv ko lalitya ki sangya dete hai. kintu kul milakar samashtigat aur ayashtigat donon hi ataron par dvivediji ki saundarya drishti multah manav kendrit hi hai. iska arth sirf yahi nahin hai ki saundarya ka atrashta manushya hai, balki ye bhi ki saundarya ki srishti karne ke karan hi manushya manushya hai.
dvivediji ki lalitya mimansa ka dusra sootr ye hai ki ye bandhan ke viruddh vidroh hai aur bandhnadrohi ayakulta ko roop dene ka prayas hai. (7/38) nritya ke sandarbh mein isi baat ko jaD ke gurutvakarshan par chaitanya ki vijyechchha kaha gaya hai. (7/28) akasmik nahin hai ki dvivediji ne apne sabhi upanyason mein kisi na kisi bahane nritya ka ayojan kiya hai. nritya bhale hi bandhnon ke viruddh vidroh ko ayakta karne vali sabse jivant kala ho, kintu anya kalayen bhi nritya ke is dharm ka anusran karti hain, ye bhi dvivediji ne yathasthan apashta kar diya hai. is prakar dvivediji ki drishti mein kala aur saundarya ne yathasthan apashta kar diya hai. is prakar dvivediji ki drishti mein kala aur saundarya ki srishti vilas maatr nahin balki bandhnon ke viruddh vidroh hai jo, shastra samarthit na hote hue bhi, unki krantikari saundarya drishti ka parichayak hai.
dvivediji ki lalitya mimansa ka tisra sootr ye hai ki saundarya ek sarjana hai—manushya ki sisriksha ka parinam. ullekhaniy hai ki lalitya mimansa ke prapta anshon mein sabse adhik vichar sisriksha par hi hai, jiska apashta arth hai ki ve manushya ki srijanshilata par sabse adhik bal dena chahte the. vivechan ki shabdavli avashya purani hai aur prayah shaiv tatha shakta darshnon ki ichchha shakti aur kriyashakti ka sahara liya gaya hai, kintu anttah is adhyatmik shabdavli ke beech se manushya ki wo sarjnatmak shakti hi prakashit hoti hai jo saundarya, kala aur sanskriti ke mool mein hai. isi srijanshilata ke sandarbh mein unhonne un ruDhiyon ki bhumika par bhi vichar kiya hai jo kalakar ke liye sab samay badhak hi nahin hotin, balki kabhi kabhi sadhak ya sahayak bhi ho jati hai.
ant mein dvivediji ek aise samagr bhaav ke roop saundarya ki athapna karte hain jo dharmachran, naitikta aadi (jivan kee) sabhi prakar kiabhivyaktiyon ko chhapkar, sabko abhibhut karke, sabko antargrthit karke samagr bhaav ka parkash karta hai. unhin ke shabdon menh bhasha mein, mithak mein, dharm mein, kavya mein, murti mein, chitr mein bahudha abhivyakti manaviy ichchhashakti ka anupam vilas hi wo saundarya hai jiski mimansa ka sankalpa lekar hum chale hain. (7/34)
mimansa durbhagyavash apurn hi rah gai; par sankalpa sarthak hai. janta ka antah apandan hi nahin balki anya rachnaon ke parkash mein lalitya mimansa ke sutron ko dekhen to sanket apashta haih jivan ka samagr vikas hi saundarya hai. ye saundarya vastutah ek srijan ayapar hai. is srijan ki kshamata manushya mein antarnihit hai. wo is saundarya srijan ki kshamata ke karan hi manushya hai. is srijan ayapar ka arth hai bandhnon se vidroh. is prakar saundarya vidroh hai—manav mukti ka prayas hai.
ashok ke phool keval ek phool ki kahani nahin, bharatiy sanskriti ka ek adhyay hai; aur is adhyay ka ananglekh paDhne vale hindi mein pahle ayakti hain hajariprsad dvivedi. pahli baar unhen hi ye anubhav hua ki ek ek phool, ek ek pashu, ek ek pakshi na jane kitni amritiyon ka bhaar lekar hamare samne upasthit hai. ashok ki bhi apni amriti parampara hai. aam ki bhi hai, bakul ki bhi hai, champe ki bhi hai. sab aya hamein malum hai? jitna malum hai usi ka arth aya apashta ho saka hai? ab to khair hindi mein phulon par lalit lekh likhne vale kai lekhak nikal aaye hain, lekin kahne ki avashyakta nahin ki ashok ke phool aaj bhi apni jagah hai. kalidas ke premi panDiton ko pahli baar is rahasyodghatan se avashya hi dhakka laga hoga ki jis kavi ko ve ab tak apni aarya sanskriti ka mahan gayak samajhte aa rahe the wo gandharv, yaksh, kinnar aadi aryetar jatiyon ke vishvason aur saundarya kalpanaon ka sabse adhik rini hai. vaise to bharat ko mahamanav sagar kahne vale ravindrnath thakur ek arse se ye batlate aa rahe the ki jise hum hindu riti niti kahte hain wo anek aarya aur aryetar upadanon ka mishran hai, kintu yahi sandesh ashok ke phool ke madhyam se aaya to uski chot kuch aur hi thi. aya isliye ki ye manojanma kandarp ke dhanush se chhuta hai? phool ki maar kitni gahri ho sakti hai iska ehsaas karane ke liye ashok ke phool ke ye do vakya qafi hainh desh aur jati ki vishuddh sanskriti keval baat ki baat hai. sab kuch mein milavat hai, sab kuch avishuddh hai. aur sach kaha jaye to aarya sanskriti ki shuddhata ke ahankar par chot karne ke liye hi ashok ke phool likha gaya hai, prkriti varnan karne ke liye nahin. ye nibandh dvivediji ke shuddh pushp prem ka prmaan nahin, balki sanskriti drishti ka anutha dastavej hai.
ab to bharat ki samajik sanskriti ki din raat mala japne vale bahutere ho ge hain. dinakarji ne to sanskriti ke chaar adhyay naam se ek vishal granth hi likh Dala; kintu jaisa ki agyey ne likha haih kavya ki paDtal mein to dinkar shuddh kavya ki khoj mein lage the, lekin sanskriti ki khoj mein unka agrah mishr sanskriti par hi khoj mein lage the, lekin sanskriti ki mishrata ko hi ujagar karne ka pryatna hai, uski sangrahakta ko nahin. sanskriti ka chintan karne vale kisi bhi vidvan ke samne ye baat apashta honi chahiye ki sanskritiyan prabhav grhan karti hain, apne anubhav ko samriddhtar banati hain, lekin ye prakriya mishran ki nahin hai. sanskar naam hi is baat ko apashta kar deta hai. ye manna kathin hai ki sanskriti ki ye paribhasha dinkar ki jani hui nahin thee; unka jivan bhi kahin us mishrata ko avikar karta nahin jaan paDta tha, jiski vakalat unhonne ki. tab aya ye sandeh sangat nahin ki unki avdharna ek vakalat hi thi, drishti ka unmesh nahin? aur agar vakalat hi thi to unka muvakkil aya samkalin rajaniti ka ek paksh hi nahin tha, jiske sanskritik karndhar avayan bhi mishrata ka siddhant nahin mante the, lekin apni sthiti driDhtar banane ke liye use apna rahe the? (amritilekha, pri. 118)
is mishr sanskriti ki rajaniti se dvivediji kitne alag the, iska prmaan ye hai ki avadhinta prapti ke baad jab se rashtriy atar par anumodit aur protsahit niti ke roop mein samajik sanskriti ka bolabala hua, dvivediji ne is vishay par likhna lagbhag band kar diya. apashta hai ki ve mishr sanskriti ke vakil na the aur na ek vakil ki tarah apne paksh ke liye itihas se tathya batorne hi ge the. unhonne to us anubhuti ko vani di jo apne atit ke sahitya ko paDhte aur kalakritiyon ko dekhte samay antartam mein uthi thee; aur is baat se to sambhavtah agyey bhi inkaar na karenge ki dvivediji ke liye wo ek amurt bauddhik avdharna nahin thi, balki drishti ka unmesh tha. isiliye jab dvivediji kahte hain ki sabkuchh avishuddh hai, to turant baad ye bhi joDte hain ki shuddh hai keval manushya ki jijivisha. wo ganga ki abadhit anahat dhara ke saman sab kuch ko hajam karne ke baad bhi pavitra hai!
is sandarbh mein ullekhaniy hai ki agyey jahan sanskriti ki keval sangrahakta ki himayat karte hain, vahan dvivediji ayag ka zikr karna nahin bhulte. ashok ke phool mein hi, usi anuchchhed ke antargat ek drashta ki tarah manavjati ki durdam nirmam dhara ke hazaron varsh ka roop saaf dekhte hue ve kahte hainh manushya ki jivani shakti baDi nirmam hai, wo sabhyata aur sanskriti ke vritha mohon ko raundti chali aa rahi hai. na jane kitne dharmacharon, vishvason, utsavon aur vrton ko dhoti bahati ye jivandhara aage baDhi hai. sangharshon se manushya ne nai shakti pai hai. hamare samne samaj ka aaj jo roop hai wo na jane kitne grhan aur ayag ka roop hai.
isliye dvivediji ke samne yojanabaddh roop se ek mishr sanskriti taiyar karne ki samasya nahin hai, samasya ye hai ki aaj hamare bhitar jo moh hai, sanskriti aur kala ke naam par jo asakti hai, dharmachar aur satyanishtha ke naam par jo jaDima hai use kis prakar avasta kiya jaye?
is drishti se yadi dinkar ka mishr sanskriti ki ek rajaniti hai jo agyey ki sanskar dharmi sangrahak sanskriti bhi kisi aur rajaniti ke anushang se bach nahin jati. jab ve kahte hain ki sanskritiyan prabhav grhan karti hain, apne anubhav ko samriddhtar banati hai to usmen ek mool sanskriti ka astitva pahle hi se avikar kar liya gaya hai jo kisi prabhav se pahle vishuddh hai. akasmik nahin hai ki agyey dvara athapit vatsal nidhi ki hiranand shastri amarak ayakhyanmala ke pratham ayojan mein prakashit bharatiy parampara ke mool avar mein Dau. govindchandr panDe bhi lagbhag aise hi shabdon mein samasik sanskriti ka virodh karte hain. Dau. panDe ye avikar karte hain ki vigyan, pravidhi aur bhautik upadanon ke atar par nana samajon mein adan pradan anayas aur chiraprichit hai; [aur] in sadhnon ka upyog samaj ko prabhavit karta hai. kintu iske saath hi ve ye bhi mante hain ki atarkya bhavon, anubhutiyon aur adhyatmik uplabdhiyon ke atar par sanskritiyon ka vastavik milan atyant kathin hota hai. (pri. 18 19) kul milakar is vimarsh ka nishkarsh ye hai ki bharatiy sanskriti ki tathakathit samasikta vastav mein sabhyata ke kshetr mein hi lagu hoti hai aur is kshetr mein wo bharat ki koi visheshata nahin hai. (pri. 20)
saval ye hai ki sabhyata aur sanskriti ki jin do yuropiy avdharnaon ko Dau. panDe ne bharat ki sanskriti ke vivechan ke liye apnaya hai, unka sambandh sabhyata se hai ya sanskriti se? adan pradan yadi sabhyata ke hi kshetr mein bhi adan pradan hota hai. phir bhi jis tarah rashtriy atar par anumodit aur protsahit samasik sanskriti ka virodh Dau. panDe ne kiya hai use kisi anya paksh ki rajaniti ki vakalat na manna agyey ke liye bhi kathin hoga. tark vahi hai jiska istemal unhonne dinkar ke sandarbh mein kiya hai. yadi dinkar ki samajik sanskriti ka sambandh rajaniti ke ek paksh se hai to avayan agyey aur govindchandr panDe ki shuddh sanskriti ka sambandh bhi rajaniti ke dusre paksh se joDa ja sakta hai. shuddh hone se hi wo rajaniti se mukta nahin ho jati.
dvivediji ki drishti mein sanskriti ka ye agrah bhi ek prakar ka moh hai jo badha upasthit karta hai. sanskriti mein nihit jis sanskar ki or agyey ne sanket kiya hai, uski arthavatta se dvivediji aprichit hain, ye to avayan agyey bhi na avikar karenge; phir bhi unhen ye dekhkar ashcharya na hona chahiye ki unhonne aksar is sanskar ko bhi badha mana hai. lakhanuu vishvavidyalay ke sahitya ka marm (1948) shirshak ayakhyanon mein unka zor isi baat par hai ki vivek ke parishkaran ke liye kiye ge sanskar bhi kaal pakar kisi ne srijan ke grhan ke liye badha ban jate hain. kahte hainh sanskar shabda ka prayog karte samay mujhe thoDa sankoch hi ho raha hai. sanskar shabda achchhe arth mein hi pryukta hota hai, parantu manushya avabhav se hi prachin ke prati shraddhaprayan hota hai aur prachinkal se sambanddh hone ke karan kuch aisi dharnaon ko shraddha ki drishti se dekhne lagta hai jo jab shuru hui hongi to nishchay hi upyogi rahi hogi parantu baad mein unki upyogita ghis gai aur ve ruDhi maatr rah gain. aise sanskar sab samay vrihattar manav pat bhumika par khare nahin utarte. in kalgat sanskaron ki charcha karne ke baad ve un deshagat aur jatigat sanskaron ki or bhi sanket karte hain jo anya desh aur anya jati ke vishvason par adharit sahitya ko samajhne mein badhak hote hain. prsang yadyapi sahitya ka hai phir bhi sanskar ki ye bhumika sanskriti ke kshetr mein bhi avikar ki ja sakti hai. is prakar apashta hai ki sanskar ke ullekh maatr se sanskriti ke kshetr mein drishtigat hone vali sankirnta ka parihar nahin ho jata. sanskar ki prakriya anttah sanskriti ke kshetr mein us shuddhikran ki or le jati hai jiski parinati varjanshilta mein hoti hai—yah vahi varjanshilta hai jis par bharatiy sanskriti ke bahut se himayatiyon ko abhiman hai. hamare yahan vala bramhastra is varjanshil ahankar ki upaj hai, jiska muqabala dvivediji ko aksar karna paDta tha.
bahut alesh hone par hi hindi sahitya ki bhumika ke upsanhar mein unhonne likhah aye din shraddhaprayan alochak yuropiyan matvadon ko dhakiya dene ke liye bharatiy acharya vishesh ka mat uddhrit karte hain aur atmagaurav ke ullaas se ghoshit kar dete hain ki hamare yahan ye baat is roop mein mani ya kahi gai hai. mano bharatvarsh ka mat keval vahi ek acharya upasthapit kar sakta hai, mano bharatvarsh ke hazaron varsh ke sudirgh itihas mein naam lene yogya ek hi koi acharya hua hai, aur dusre ya to hain hi nahin, ya hain bhi to ek hi baat maan baithe hain. ye rasta ghalat hai. kisi bhi mat ke vishay mein bharatiy manisha ne gaDDalika pravah ki niti ka anusran nahin kiya hai. pratyek baat mein aise bahut se mat pae jate hain jo paraspar ek dusre ke viruddh paDte hain. (pri. 129)
panDiton ki samajh ka ye ikahrapan dvivediji ki drishti mein ek baDi badha hai. is sankirn ikahrepan ke khilaf sangharsh karte hue unhonne bharatiy sanskriti ki vividhta, jatilta, paraspar virodhi jivantta aur samriddhi ka punah srijan kiya. bharatiy sanskriti ke antargat aryetar jatiyon ke avdan ki ullasit charcha ka karan yahi hai. yadi is prayas mein kahin aarya shreshthata ke ahankar ko thes lagti hai to dvivediji is baat se chintit nahin dikhte. vastutah ye dusri parampara ki khoj ka prayas hai jiska prayojan mukhyatah panDiton ki ikahri parampara ki sankirnta ka nidarshan hai.
prsangvash dvivediji ke is prayas ki ek parampara hindi mein pahle se dikhai paDti hai. ek dashak pahle jayshankar parsad ko bhi aise hi bharat ayakul logon se pala paDa tha, jinke javab mein kavi ko kavya aur kala tatha rahasyavad aadi nibandh likhne paDe the. ne kavya pryogon ki pratikriya ke roop men unhen bhi bharatiyata ki duhai sunai paDi thi. kavya aur kala nibandh ka arambh hi is prakar hota hai ki bharatiy vaDmay ki suruchi sambandhi vichitrtaon ko bina dekhe hi atyant shighrata mein ajkal amuk vastu abharatiy hai athva bharatiy sanskriti ki suruchi ke viruddh hai, kah dene ki paripati chal paDi hai. parsad ne bhi ye lakshit kiya tha ki ye sab bhavnayen sadharantah hamare vicharon ki sankirnta se aur prdhantah apni avarup vismriti se utpanna hain. ye sankirnta aur avarup vismriti apni parampara ke aitihasik aur vaigyanik vivechan se hi door ho sakti hai. kintu parsad ne anubhav kiya ki iska aitihasik aur vaigyanik vivechan hone ki sambhavna jaisi pashchatya sahitya mein hai, vaisi bharatiy sahitya mein nahin. unke paas arastu se lekar vartaman kaal tak hi saundaryanubhuti sabandhini vicharadhara ka kramavikas aur prtikon ke saath saath unka itihas to hai hi, sabse achchha sadhan unki avichhinna sanskritik ekta bhi hai. hamari bhasha ke sahitya mein vaisa samanjasya nahin hai. beech beech mein itne abhav ya andhkar kaal hain ki unmen kitni hi viruddh sanskritiyan bharatiy rang athal par avtirn aur lop hoti dikhai deti hain; jinhonne hamari saundaryanubhuti ke prtikon ko anek prakar se vikrit karne ka hi udyog kiya hai.
apni parampara mein is abhav aur andhkar kaal ke bavjud parsad ne rahasyavad shirshak nibandh mein saundaryanubhuti ki parampara ko punnirmit karne ka prayas kiya. is parampara ka arambh bhi rigved se hi hota hai, kintu ye aryjan ki wo parampara hai jiske pratinidhi indr hain aur jismen kaam ki poorn avikriti hai. wo varun ke adhinaykatva mein viksit hone vali asur parampara se sarvatha bhinna hai jo vidhi vidhan aur vivek ko vishesh mahattv deti thi. parsad ne in donon paraspar virodhi parampraon ke vikas ki manoranjak ruparekha prastut ki hai aur kahne ki avashyakta nahin ki unki drishti mein jivan mein kaam ko purntah avikar karke chalne vali anandvadi parampara hi mukhya hai athach kamya bhi.
kisi prakar ki pratikriya prapta na hone ke karan ye kahna kathin hai ki dvivediji parsad dvara nirupit anandvadi parampara se kis had tak parichit the, kintu tattvtah ye vahi parampara hai jiska shrey ve gandharv, naag, drviD aadi aryetar jatiyon ko dete hain. vichar aur vitark (1945) mein sanklit apne ek arambhik nibandh hamari sanskriti aur sahitya ka sambandh mein likha hai ki sabse adhik aryetar sanshrav sahitya aur lalit kalaon ke kshetr mein hua hai. ajanta ke chitrit, sanchi, bharhut aadi mein utkirn chitr aur murtiyan aryetar sabhyata ki samriddhi ke parichayak hain. mahabharat aur kalidas ke kavyon ki tulna karne mein jaan paDega ki donon do chizen hain. ek mein tej hai, driptata hai aur abhivyakti ka veg hai, to dusre mein lalitya hai, madhurya hai aur ayanjna ki chhata hai. mahabharat mein aarya upadan adhik hai, kalidas ke kavyon mein aryetar. jin logon ne bharatiy shilpashastra ka anushilan kiya hai, ve jante hain ki bharatiy shilpa mein kitne aryetar upadan hain aur kavyon tatha natkon mein unka kaisa adbhut prabhav paDa hai. pata chala hai ki sanchi, bharhut aadi ke chitrkar yakshon aur nagon ki puja karne vali ek saundarya priy jati thi, jo sambhavtah uttar bharat se lekar asam tak phaili hui thi. bahut si aisi baten kalidas aadi kaviyon ne in saundarya premi jatiyon se grhan ki, jinka pata aryon ko na tha. kamdev aur apsarayen unki dev deviyan hain, sundariyon ke padaghat se ashok ka pushpit hona unke ghar ki cheez hai, alkapuri unka avarg hai—is prakar ki anya anek baten unse aur unhin ki tarah anyanya aryetar jatiyon se mahakavi ne li hain. isi kram mein aage bharatamuni ke natyshastra ke bare mein bhi, uske aryon ki vidya na manne vale mat ka zikr karte hue kahte hainh shuru mein ek katha mein bataya gaya hai ki bramha ne natyved namak panchave ved ki srishti ki thi. agar aryon ke vedon se iska kuch bhi sambandh hota to panDiton ka anuman hai, is katha ki zarurat na hui hoti. vastav mein bharatiy naatk pahle keval abhinay ke roop mein hi dikhaye jate the. unmen bhasha ka prayog karna aarya sanshodhan ka parivardhan hai. (pratham sanskaran, pri. 186 87) aryetar avdan ki is suchi mein yadi bhakti daraviD uupji aur abhiron ke aradhyavdev balkrishna tatha devi radha ko joD len to hamari parampara mein sundar mana jane vala aisa kuch bhi nahin bachta jo aryetar na ho! ek bhaktikavya ko chhoDkar parsad aur hajariprsad dvivedi mein is baat ko lekar koi matbhed nahin hai ki aya aya sundar hai? antar keval ye hai ki parsad jise aryon ke ek samuday ki parampara kahte hain, hajariprsad dvivedi use hi vibhinna aryetar jatiyon ka avdan mante hain. phir bhi ek baat mein ubhyatr samanata hai ki hamari parampara mein jo bhi sundar hai wo aarya naam se pracharit mithak se bhinna hai. is mithkiy aarya se itni chiDh isliye hai ki iske avajadhariyon ko sundar se parhej hai. jaisa ki parsad ne rahasyavad shirshak nibandh mein apashta likha haih anand path ko unke kalpit bhartiyochit vivek mein sammilit kar lene se adarshavad ka Dhancha Dhila paD jata hai. isliye ve is baat ko avikar karne mein Darte hain ki jivan mein yatharth vastu anand hai, gyaan se va agyan se manushya usi ki khoj mein laga hai. adarshavad ne vivek ke naam par anand aur uske path ke liye jo janrav phailaya hai, vahi use apni vastu kahkar avikar karne mein badhak hai. isliye naitiktavadiyon ko pratyuttar dene ke liye parsad ne yadi sundar ki parampara ko apni hi parampara ke andar aryetar tattvon ke abhinna mishran ke roop mein vivechit kiya. ek ki parampara aur dusre ki prati parampara do dishaon se chalkar ek hi bindu par milti hai—thothe naitiktavad ke viruddh sundar ki prtishtha! sundar ko hi lekar ye sara vivad isliye hai ki jaisa ki parsad ne kaha haih sanskriti saundarybodh ke viksit hone ki maulik cheshta hai.
ye akasmik nahin hai ki bharatiy sanskriti ke naam par naitikta ki avaja phahranevale prkriti ke saundarya ko to kisi prakar sah lete hain, par nari saundarya ke samne ankhe churane lagte hain. udahran ke liye shuklji ke lokmangal mein prkriti ke saundarya ke liye to puri jagah hai, lekin chhayavadiyon ki kaun kahe avayan vidyapati aur soor jaise bhakta kaviyon ka nari saundarya bhi grahya nahin hai. anand aur madhurya ko lokmangal ki siddhavastha ka gauravpurn pad dekar unhonne sadhnavastha ka maarg apni or se sarvatha nishkatank kar liya, ayonki sadhana ke maarg mein madhurya se badha pahunchne ki ashanka hai.
sambhavtah aise hi purvagrah ka pratyakhyan karne ke liye dvivediji ne apni sahitya sadhana ke arambhik sopan par hi hindi sahitya ki bhumika ke saath hi prachin bharat ka kala vilas (1940) namak pustak likhi jo aage chalkar parivardhit roop mein prachin bharat ke kalatmak vinod naam se chhapi. prachin bharat mein prachalit kalaon ke lagbhag sau sandarbhon ka tathyatmak vivran upasthit karne se pahle kalatmak vinod mein dvivediji ne arambh mein ye apashta kar dena avashyak samjha ki vilasita aur kalatmak vilasita ek hi vastu nahin hai. thothi vilasita mein keval bhookh rahti hai—nangi bubhuksha par kalatmak vilasitasanyam chahti hai, shalinata chahti hai, vivek chahti hai. so kalatmak vilas kisi jati ke bhagya mein sada sarvada nahin jutta. uske liye aishvarya chahiye, samriddhi chahiye, ayag aur bhog ka samarthya chahiye aur sabse baDhkar aisa paurush chahiye jo saundarya aur sukumarta ki raksha kar sake. parantu inta hi qafi nahin hai. us jati mein jivan ke prati aisi ek drishti supratishthit honi chahiye jisse wo pashusulabh indriy vritti ko aur bahya padarthon ko hi samasta sukhon ka karan na samajhne mein prveen ho chuki ho, us jati ki aitihasik aur sanskritik parampara baDi aur udaar honi chahiye aur usmen ek aisa kaulinya garv hona chahiye jo atma maryada ko samasta duniya ki sukh suvidhaon se shreshtha samajhta ho, aur jivan ke kisi bhi kshetr mein asundar ko bardashta na kar sakta ho. jo jati sundar ki raksha aur samman karta nahin janti wo vilasi bhale hi ho le, par kalatmak vilas uske bhagya mein nahin bada hota.
sankshep mein ye us saundarybodh ki sanskriti hai, jiska atyant sanvedanshil aur sukshmavivran kalatmak vinod ke baad ke prishthon mein milta hai, ya phir banbhatt ki atmaktha, charu chandrlekh, punarnava aur anamdas ka potha jaisi sarjnatmak kritiyon ke un prsangon mein jahan nari saundarya apne pure vaibhav ke saath prakat hota hai tatha nritya kala ke pradarshan ke avsar aksar upasthit hote hain. kahne ki avashyakta nahin ki dvivediji ke is saundarybodh mein sarvatha shastriy pratyabhigyan hi nahin, balki usmen ek sajag aindriy sanvedan ki pratyagrta bhi hai. roop, shobha, sushama, saubhagya, charuta, lalitya, lavanya aadi ka aisa sukshma parigyan aur sanvedan hindi mein durlabh hi hai.
is saundarybodh ko samanti sanskriti ka paryay samajh liye jane ka bhram na ho isliye meghdut ek purani kahani, (1957) se poorv megh ke pushpalavi mukhanam vale 26ven chhand par dvivediji ki ayakhya ka ek ansh prastut haih jo sampatti parishram se nahin arjit ki jati, aur jiske sanrakshan ke liye manushya ka rakta pasine mein nahin badalta, wo keval kutsit ruchi ko prashray deti hai. satvik saundarya vahan hai, jahan choti ka pasina eDi tak aata hai aur nitya samasta vikaron ko dhota rahta hai. pasina baDa pavak tatva hai mitr, jahan iski dhara ruddh ho jati hai vahan kalush aur vikar jamkar khaDe ho jate hain. vidisha ke prachchhanna vilasiyon mein ye pavankari tatva nahin hai. unke chehron par satvik tej aur ullasit karne vali dipti nahin rah gai hai. isliye main salah deta hoon ki vishram karke aage baDhna; ayonki pratahkal nichli pahaDi ke irdagird tumko manushya ki satvik shobha dikhai degi. vahan savere suryoday ke saath hi saath tum shram jal anat nariyon ki divya shobha dekh sakoge. nagarik logon ke anand aur vilas ke liye krishkon ne phulon ke anek baghiche laga rakhe hain. pratahkal krishak vadhuen phool chunne ke liye in pushpodyanon mein aa jati hain, us pardesh mein inhen pushpalavi kahte hain. pushpalavi arthat phool chunnevali. ye pushpalaviyan ghar ka kamakaj samapta karke udyanon mein aa jati hain aur madhyahn tak phool chunti rahti hain. surya ke taap se inka mukhmanDal alan ho uthta hai, ganDasthal se pasine ki dhara bah chalti hai aur is aveddhara ke nirantar sansparsh se unke kanon ke abhran roop mein virajman nilakmal malin ho uthte hain. din bhar ki tapasya ke baad ve itna kama leti hain ki kisi prakar unki jivan yatra chal sake. parantu tumko yahin satvik saundarya ke darshan honge. unke dipta mukhmanDal par shalinata ka tej dekhoge; unki bhru bhang vilas se aprichit ankhon mein sachchi lajja ke bhaar ka darshan kar paoge aur unke utphulla adhron par sthir bhaav se virajman pavitra smit rekha ko dekhkar tum samajh sakoge ki shuchi smita kise kahte hain. is pavitra saundarya ko dekhkar tum nichli pahaDi ki uddaam aur unmatt vilas lila ko bhool jaoge. vahan tum sanchay ka vikar dekhoge aur yahan atmadan ka sahj roop. (pratham sanskaran, pri. 45 46)
pushpalaviyon ka ye shram jal anat saundarya kalidas ka nahin, dvivediji ke kalidas ka saundarya hai—alasiki parampara se phutti hui adhunikta! sanskariti ko bhi sanskar dene vali ye ek aur parampara hai jo anjane hi nirala ki ayam tan bhar bandha yauvan vali wo toDti patthar se juD jati hai.
isliye jo log dvivediji ke saundarya sanskar ko ravindrnath ke shantiniketan ki den batlate hain ve sirf aadhi baat kahte hain. shantiniketan mein charon or sangit aur kala ka jo vatavran tha usne nishchay hi dvivediji ke supta saundarybodh ko jagrit kiya tha. avayan dvivediji ne bhi shantiniketan ke sansmarnon mein ashram ke us vatavran ki charcha ki hai jismen sangit jivan ka avichchhedya ang ban gaya tha aur chhote se chhote bachchon mein bhi saundarya nirman ki sahj prerna kaam kar rahi thi. phir bhi unke apne saundarya prem ka ek bahut baDa atrot apna lok sanskar tha. yahi vajah hai ki jivan ke sandarbh mein jab bhi saundarya srishti ki baat uthti thi to ve use samanya jan jivan mein utarne ki kalpana karte the. is drishti se vichar pravah (1959) mein sanklit janta ka antah apandan shirshak lekh vishesh roop se ullekhaniy hai.
nibandh is chinta se arambh hota haih kuch aisa pryatna hona chahiye ki is vanchit janta ke bhitar rasagrahika sanvedna utpanna ho, ve bhi sundar ka samman karna sikhen, sundar Dhang se jivan bitana sikhen, sundar ko pahchanna sikhen. ek satayativadi ki tarah dvivediji kahte hain ki janta ke antahakran mein agar saundarya ke prati samman ka bhaav nahin hai, to janta kabhi bhi saundarya premi nahin banai ja sakti. kintu unka vishvas hai ki janta ke bhitar wo vastu atabdha paDi hui hai. upyukta uddipak ke abhav mein wo apandit nahin ho rahi hai. is uddipak vastu ko samaj mein pratishthit karna vanchhniy hai. janta ki prathamik avashyaktaon ki purti se ve bekhbar nahin hain. ve anubhav karte hain ki jis janta ko pet bhar anna nahin milta, wo saundarya ka samman nahin kar sakti. neenv ke bina imarat nahin uth sakti. bhukhe bhajan na hohin gopala. kintu iske saath hi ye bhi sach hai ki jo jati sundar ka samman nahin kar sakti wo ye bhi nahin janti ki baDe uddeshya ke liye praan dena aya cheez hai. wo chhoti chhoti baton ke liye jhagaDti hai, marti hai aur lupta ho jati hai.
apashtatah ye drishti us vicharadhara se nitant bhinna hai jo janta ko tatkalik arthik aur rajnitik avashyaktaon ki purti ke liye sangharsh mein utarne ki vishvasi hai ayonki vahan ye samajh nihit hai ki janta ke bodh ka atar itna hi nicha hai. jo janta ke anthaspandan se aprichit hain ve sari shakti phauri laDaiyon mein hi kshay karte hain. koi jati kranti jaise baDe uddeshya ke liye jaan ki baji lagati hai to isliye ki wo sirph jina nahin chahti, balki sundar Dhang se jina chahti hai. kahne ki avashyakta nahin ki aaj ke anek rajnitik sangthan aur andolan sirf isliye asaphal ho rahe hain ki unke samne jivan ka ye baDa uddeshya nahin hai aur ve sundar ko ek atirikta ya faltu cheez samajhte hain.
dvivediji bhi saundarya ko atirikta mante hain kintu unke atirikta ka arth wo hai jo anandvardhankrit lavanya ki paribhasha mein hai. wo kisi vastu ke prasiddh avayvon mein se koi bhi nahin hai, unse atirikta hai aur phir bhi un avayvon ko chhoDkar nahin rah sakta. so saundarya roop nahin hai, lekin roop ko chhoDkar rah bhi nahin sakta. is shastriy paribhasha se dvivediji jivan ke liye jo nishkarsh nikalte hain, wo drashtavya hai. kahte hainh jivan ko sundar Dhang se bitane ke liye bhi jivan ka ek roop hona chahiye. bahut se log kuch bhi na karne ko bhalapan samajhte hain. ye ghalat dharna hai. sundar jivan kriyashil hota hai; ayonki kriyashilta hi jivan ka roop hai. kriyashilta ko chhoDkar jivan ka saundarya tik nahi sakta. dvivediji ke anusar is bhaav se chalit jan samaj anttah rajnitik aur arthik shaktiyon par kabza karne ke prayas se kam par santushta nahin ho sakta ayonki samaj ayavastha ko ayon ka ayon avikar kar lena ekdam asambhav ho gaya hai.
kintu un sankirntavadi krantikariyon se dvivediji sahmat nahin hain jo manushya ke bhavishya ko sukhi banane ke naam par aaj uske saundarya prem ko kisi na kisi bahane kuchal dena chahte hain. antim dinon mein likhit parampara aur adhunikta shirshak lekh mein ve kahte hainh “jo manushya ko uski sahj vasnaon aur adbhut kalpanaon ke rajya se vanchit karke bhavishya mein use sukhi banane ke sapne dekhta hai wo thoonth tarkaprayan kathmulla ho sakta hai, adhunik bilkul nahin. wo manushya ko samuche parivesh se vichchhinn karke haaD maans ka yantr banana chahta hai. ye na to sambhav hai, na vanchhniy. ” (granthavli 9/363)
isliye dvivediji manushya ki samasta rachyitri anandini vritti ka vikas avashyak samajhte hain, ayonki chitrakla, murtikla, vastukla, dharmavidhan aur sahitya ke madhyam se usi vritti ko abhivyakti milti hai.
ye akasmik nahin hai ki antim dinon mein ve saundaryshastra par lalitya mimansa naam se ek puri pustak likh rahe the. apne priy kavi kalidas par kalidas ki lalitya yojna namak pustak puri karke ve avayan lalityashastra par hi ayavasthit aur sangopang vichar karna chahte the. unke jivan ki sudirgh saundarya chinta aur saundarya sadhana ki ye avabhavik parinati thi. durbhagya se us pustak ke keval paanch hi nibandh pure ho pae, par unse bhi unki ayapak aur maulik saundarya chinta ka kuch abhas mil hi jata hai. unhen is tathya ka ehsaas hai ki bharatvarsh mein is prakar ke kisi alag shastra ki kalpana nahin ki gai hai; parantu kavya, shilpa, chitr, murti, sangit, naatk aadi ki alochana ke prsang mein aur vividh agmon mein charam sundar tattv ki mahima batane ke bahane iski charcha avashya hoti rahi hai. isliye apni is chhinna kintu samriddh parampara ke adhar par hi unhonne lalitya chintan ke bhavan nirman ka prayas kiya hai.
is prayas ka pahla sootr hai ki ve saundarya ko saundarya na kahkar lalitya kahna chahte hain, ayonki prakritik saundarya se bhinna kintu uske samanantar chalne vala manavarchit saundarya (granthavli 7/34) unki drishti mein vishesh mahattvpurn hai. lalitya wo isliye hai ki manav dvara lalit hai. saundarya ki is manavvadi dharna ka atrot dvivediji ne apni parampara se hi DhoonDh nikala. wo atrot hai bharatamuni ka natshastra. natyshastra mein naatk ki utpatti ki jo katha di gai hai uske anusar devta naatk na kar sake aur naatk kar sakne mein manushya ko hi samarth samjha gaya, ayonki usmen devtaon se ek vishishta shakti hai—anukran ki. yahi nahin, bharatamuni ne apne samay mein prachalit rupkon mein se purnank sirf naatk aur prakran ko hi mana jahan nayak manushya hota hai. nayak par vichar karte hue prsangvash natyshastra ke anusar manushya hi dhirodatt ho sakte hain, jabki deva dhiroddhta evan ayonki devon mein phalagam ke liye utavli hoti hai aur dhirodatt ki bhanti dhirbhav se pratyasha mein ve nahin ulajhte. is prakar dvivediji kala srijan mein manushya ki mahima ka sabal vivek bharatamuni se prapta karte hain. saundarya ko manushya lalit manne ka dusra atrot hai tanDav aur lasya ka antar. purangatha ke anusar shiv ka tanDav ras bhaav vivarjit nritt hain jabki parvati ka lasya ras bhaav samanvit nritya hai. dvivediji isse ye sanket grhan karte hain ki tanDav jahan manav poorv tattvon ka avathasphurt vikas hai, vahan lasya manaviy pryason ka lalit roop. (vahi, 7/31) ant mein agmon mein varnit vishvavyapini sarjnatmak shakti lalita ke prbhamanDal se manDit karte hue ve manushya nirmit saundarya tattv ko lalitya ki sangya dete hai. kintu kul milakar samashtigat aur ayashtigat donon hi ataron par dvivediji ki saundarya drishti multah manav kendrit hi hai. iska arth sirf yahi nahin hai ki saundarya ka atrashta manushya hai, balki ye bhi ki saundarya ki srishti karne ke karan hi manushya manushya hai.
dvivediji ki lalitya mimansa ka dusra sootr ye hai ki ye bandhan ke viruddh vidroh hai aur bandhnadrohi ayakulta ko roop dene ka prayas hai. (7/38) nritya ke sandarbh mein isi baat ko jaD ke gurutvakarshan par chaitanya ki vijyechchha kaha gaya hai. (7/28) akasmik nahin hai ki dvivediji ne apne sabhi upanyason mein kisi na kisi bahane nritya ka ayojan kiya hai. nritya bhale hi bandhnon ke viruddh vidroh ko ayakta karne vali sabse jivant kala ho, kintu anya kalayen bhi nritya ke is dharm ka anusran karti hain, ye bhi dvivediji ne yathasthan apashta kar diya hai. is prakar dvivediji ki drishti mein kala aur saundarya ne yathasthan apashta kar diya hai. is prakar dvivediji ki drishti mein kala aur saundarya ki srishti vilas maatr nahin balki bandhnon ke viruddh vidroh hai jo, shastra samarthit na hote hue bhi, unki krantikari saundarya drishti ka parichayak hai.
dvivediji ki lalitya mimansa ka tisra sootr ye hai ki saundarya ek sarjana hai—manushya ki sisriksha ka parinam. ullekhaniy hai ki lalitya mimansa ke prapta anshon mein sabse adhik vichar sisriksha par hi hai, jiska apashta arth hai ki ve manushya ki srijanshilata par sabse adhik bal dena chahte the. vivechan ki shabdavli avashya purani hai aur prayah shaiv tatha shakta darshnon ki ichchha shakti aur kriyashakti ka sahara liya gaya hai, kintu anttah is adhyatmik shabdavli ke beech se manushya ki wo sarjnatmak shakti hi prakashit hoti hai jo saundarya, kala aur sanskriti ke mool mein hai. isi srijanshilata ke sandarbh mein unhonne un ruDhiyon ki bhumika par bhi vichar kiya hai jo kalakar ke liye sab samay badhak hi nahin hotin, balki kabhi kabhi sadhak ya sahayak bhi ho jati hai.
ant mein dvivediji ek aise samagr bhaav ke roop saundarya ki athapna karte hain jo dharmachran, naitikta aadi (jivan kee) sabhi prakar kiabhivyaktiyon ko chhapkar, sabko abhibhut karke, sabko antargrthit karke samagr bhaav ka parkash karta hai. unhin ke shabdon menh bhasha mein, mithak mein, dharm mein, kavya mein, murti mein, chitr mein bahudha abhivyakti manaviy ichchhashakti ka anupam vilas hi wo saundarya hai jiski mimansa ka sankalpa lekar hum chale hain. (7/34)
mimansa durbhagyavash apurn hi rah gai; par sankalpa sarthak hai. janta ka antah apandan hi nahin balki anya rachnaon ke parkash mein lalitya mimansa ke sutron ko dekhen to sanket apashta haih jivan ka samagr vikas hi saundarya hai. ye saundarya vastutah ek srijan ayapar hai. is srijan ki kshamata manushya mein antarnihit hai. wo is saundarya srijan ki kshamata ke karan hi manushya hai. is srijan ayapar ka arth hai bandhnon se vidroh. is prakar saundarya vidroh hai—manav mukti ka prayas hai.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।