भारतीय संस्कृति पर कुछ कहने से पहले मैं यह निवेदन कर देना कर्त्तव्य समझता हूँ कि मैं संस्कृति को किसी देश-विशेष या जाति-विशेष की अपनी मौलिकता नहीं मानता। मेरे विचार से सारे संसार के मनुष्यों की एक ही सामान्य मानव-संस्कृति हो सकती है। यह दूसरी बात है कि वह व्यापक संस्कृति अब तक सारे संसार में अनुभूत और अंगीकृत नहीं हो सकी है। नाना ऐतिहासिक परंपराओं के भीतर से गुज़र कर और भौगोलिक परिस्थितियों में रहकर संसार के भिन्न-भिन्न समुदायों ने उस महान् मानवीय संस्कृति के भिन्न-भिन्न पहलुओं का साक्षात्कार किया है। नाना प्रकार की धार्मिक साधनाओं, कलात्मक प्रयत्नों और सेवा, भक्ति तथा योगमूलक अनुभूतियों के भीतर से मनुष्य उस महान् सत्य के व्यापक और परिपूर्ण रूप को क्रमशः प्राप्त करता जा रहा है जिसे हम 'संस्कृति' शब्द द्वारा व्यक्त करते हैं। यह संस्कृति शब्द बहुत अधिक प्रचलित है तथापि यह अस्पष्ट रूप में ही समझा जाता है। इसकी सर्वसम्मत कोई परिभाषा नहीं बन सकी है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि और संस्कारों के अनुसार इसका अर्थ समझ लेता है। फिर इसको एकदम अस्पष्ट भी नहीं कह सकते; क्योंकि प्रत्येक मनुष्य जानता है कि मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाएँ ही संस्कृति है। इसकी अस्पष्टता का कारण यही है कि अब भी मनुष्य इसके संपूर्ण और व्यापक रूप को देख नहीं सका है। संसार के सभी महान् तत्व इसी प्रकार मानव चित्त में अस्पष्ट रूप से आभासित होते हैं। उनका आभासित होना ही उनकी सत्ता का प्रमाण है। मनुष्य की श्रेष्ठतर मान्यताएँ केवल अनुभूत होकर ही अपनी महिमा सूचित करती हैं। उनको स्पष्ट और सुव्यवस्थित परिभाषा में बाँधना सब समय संभव नहीं होता। केवल नेति-नेति कह कर ही मनुष्य ने उस अनुभूति को प्रकाशित किया है। अपनी चरम सत्यानुभूति को प्रकट करते समय कबीरदास ने इसी प्रकार की विवशता का अनुभव करते हुए कहा था—‘ऐसा लो नहिं तैसा लो, मैं केहि विधि कहौं अनूठा लो!’ मनुष्य की सामान्य संस्कृति भी बहुत ऐसी ही अनूठी वस्तु है। मनुष्य ने उसे अभी तक संपूर्ण पाया नहीं है; पर उसे पाने के लिए व्यग्र भाव से उद्योग कर रहा है। यह मार-काट, नोंच-खसोट और झगड़ा-टंटा भी उसी प्रयत्न के अंग है। आपको यह बात कुछ विरोधाभास सी लगेगी, पर है सत्य। रास्ता खोजते समय भटक जाना, थक जाना या झुँझला पड़ना, इस बात के सबूत नहीं हैं कि रास्ता खोजने की इच्छा ही नहीं है। कविवर रविंद्रनाथ ने अपनी कविजनोचित भाषा में इस बात को इस प्रकार कहा है कि यह जो लुहार की दुकान की खटाखट और धूल-धकड़ है, इनसे घबराने की ज़रूरत नहीं है। यहाँ वीणा के तार तैयार हो रहे हैं। जब ये तार बन जाएँगे तो एक दिन इनके मधुर संगीत-ध्वनि से निश्चय ही मन और प्राण तृप्त हो जाएँगे। ये युद्ध-विग्रह, ये कूटनीतिक दाँव-पेंच, ये दमन और शोषण के साधन ये सब एक दिन समाप्त हो जाएँगे। मनुष्य दिन-दिन अपने महान् लक्ष्य के नज़दीक पहुँचता जाएगा। सामान्य मानव-संस्कृति ऐसा ही दुर्लभ लक्ष्य है। मेरा विश्वास है कि प्रत्येक देश और जाति ने अपनी ऐतिहासिक परंपराओं और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार उस महान् लक्ष्य के किसी-न-किसी पहलू का अवश्य साक्षात्कार किया है। ज्यों-ज्यों वैज्ञानिक साधनों के परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न देश और भिन्न-भिन्न जातियाँ एक दूसरे के नज़दीक आती जाएँगी; त्यों-त्यों इन अंश सत्यों की सार्थकता प्रकट होती जाएगी और हम सामान्य व्यापक सत्य को पाते जाएँगे। आज की मारा-मारी इसमें थोड़ी रुकावट डाल सकती है; पर इस प्रयत्न को निःशेष भाव से समाप्त नहीं कर सकती। अपने इस विश्वास का कारण मैं आगे बताने का प्रयत्न करूँगा।
जो आदमी ऐसा विश्वास करता है, उससे संस्कृति के साथ ‘भारतीय’ विशेषण जोड़ने का अर्थ पूछना नितांत संगत है। क्या ‘भारतीय' से मतलब भारतवर्ष के समस्त अच्छे-बुरे प्रयत्न और संस्कार हैं? नहीं; समस्त भारतीय संस्कार अच्छे ही हैं या मनुष्य की सर्वोत्तम साधना की ओर अग्रसर करने वाले ही है, ऐसा मैं नहीं मानता। ऐस देखा गया है कि एक जाति ने जिस बात को अपना अत्यंत महत्त्वपूर्ण संस्कार माना है, वह दूसरी जाति की सर्वोत्तम साधना के साथ मेल नहीं खाता। ऐसा भी हो सकता है कि एक जाति के संस्कार दूसरे जाति के संस्कार के एकदम उलटे पड़ते हो। हो सकता है कि एक जाति मंदिरों और मूर्तियों के निर्माण में ही अपनी कृतार्थता मानती और यह भी हो सकता है कि दूसरी जाति उनको तोड़ डालने को है अपनी चरम सार्थकता मानती हो। ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। ऐसे स्थलों पर विचार करने की आवश्यकता होगी। सत्य परस्पर विरोध नहीं होता। प्रसिद्ध संत-रज्जबदास ने कहा था—
'सब साँच मिली सो साँच है ना मिले सो झूठ। संपूर्ण सत्य अविरोधी होता है। जहाँ भी अविरोधी दिखे, वहाँ सोचने की ज़रूरत होगी। हो सकता कि दो भिन्न-भिन्न जन-समुदाय मोहवश दो सत्य बातों को ही बड़ा सत्य मान बैठे हों। हो सकता है कि दोनों में से एक सही हो और दूसरा ग़लत। साथ ही यह भी हो सकता है कि दोनों सही रास्ते पर हों, पर उनके दृष्टिकोण ग़लत हो। यदि हमें अपनी ग़लती मालूम हो तो उसे निर्मम भाव से छोड़ देना होगा। महाभारत ने बहुत पहले घोषणा की थी कि जो धर्म दूसरे धर्म को बाधित करता है, वह धर्म नहीं है कुधर्म है। सच्चा धर्म अविरोधी होता है—
धर्मो यो बाधते धर्म न स धर्मः कुधर्म तत्।
अविरोधी तु यो धर्मः स धर्मो युतिसत्तम॥
मैं जब 'भारतीय' विशेषण जोड़कर संस्कृति शब्द का प्रयोग करता हूँ तो मैं भारतवर्ष द्वारा अधिगत और साक्षात्कृत अविरोधी धर्म की ही बात करता हूँ। अपनी विशेष भौगोलिक परिस्थिति में और विशेष ऐतिहासिक परंपरा के भीतर से मनुष्य के सर्वोत्तम को प्रकाशित करने के लिए इस देश के लोगों ने भी कुछ प्रयत्न किए हैं। जितने अंश में वह प्रयत्न संसार के अन्य मनुष्यों के प्रयत्न का अविरोधी है, उतने अंश में वह उनका पूरक भी है। भिन्न-भिन्न देशों और भिन्न-भिन्न जातियों के अनुभूत और साक्षात्कृत अन्य अविरोधी धर्मों की भाँति वह मनुष्य की जययात्रा में सहायक है। वह मनुष्य के सर्वोत्तम को जितने अंश में प्रकाशित और अग्रसर कर सका है उतने ही अंश में यह सार्थक और महान् है। वही भारतीय संस्कृति है। उसको प्रकट करना, उसकी व्याख्या करना या उसके प्रति जिज्ञासा-भाव उचित है। यह प्रयास अपनी बड़ाई का प्रमाण-पत्र संग्रह करने के लिए नहीं है, बल्कि मनुष्य की जययात्रा में सहायता पहुँचाने के उद्देश्य से प्ररोचित है। इसी महान् उद्देश्य के लिए उसका अध्ययन, मनन और प्रकाशन होना चाहिए।
मनुष्य की जययात्रा! क्या मनुष्य ने किसी अज्ञात शत्रु को परास्त करने के लिए अपना दुर्द्धर रथ जोता है? मनुष्य की जययात्रा! क्या जान-बूझकर लोकचित्त को व्यामोहित करने के लिए यह पहेली जैसा वाक्य बताया गया है? मनुष्य की जययात्रा का क्या अर्थ हो सकता है? परंतु मैं पाठकों को किसी प्रकार के शब्द-जाल में उलझाने का संकल्प लेकर नहीं आया हूँ। मुझे यह वाक्य सचमुच बड़ा बल देता है। न जाने किस अनादि-काल के एक अज्ञात मुहूर्त में यह पृथ्वी नामक ग्रहपिंड सूर्य-मंडल से टूटकर उसी के चारों ओर चक्कर काटने लगा था। मुझे उस समय का चित्र कल्पना के नेत्रों से देखने में बड़ा आनंद आता है। उस सद्यस्त्रुटित धरित्री-पिंड में ज्वलंत गैस भरे हुए थे। कोई नहीं जानता कि इन असंख्य अग्निगर्भ-कणों में से किसमें या किनमें जीवत्व का अंकुर वर्तमान था। शायद वह सर्वत्र परिव्याप्त था। इसके बाद लाखों वर्ष तक धरती ठंडी होती रही, लाखों वर्ष तक उस पर तरल-तप्त धातुओं को लहाछेह वर्षा होती रही, लाखों वर्ष तक उसके भीतर और बाहर प्रलयकांड मचा रहा, पृथ्वी अन्यान्य ग्रहों के साथ सूर्य के चारों ओर उसी प्रकार नाचती रही जिस प्रकार खिलाड़ी के इशारे पर सर्कस के घोड़े नाचते रहते हैं। जीवतत्त्व स्थिर अविक्षुब्ध भाव से उचित अवसर की प्रतीक्षा में बैठा रहा। अवसर आने पर उसने समस्त जड़शक्ति के विरुद्ध विद्रोह करके सिर उठाया—नगण्य तृणाँकुर के रूप में! तब से आज तक संपूर्ण जड़शक्ति अपने आकर्षण का समूचा वेग लगाकर भी उसे नीचे की ओर नहीं खींच सकी। सृष्टि के इतिहास में यह एकदम अघटित घटना थी। अब तक महाकर्ष (ग्रेविटेशन पावर) के विराट् वेग को रोकने में कोई समर्थ नहीं हो सका था। जीवतत्त्व प्रथम बार अपनी ऊर्ध्वगामिनी वृत्ति की अदना ताक़त के बल पर इस महाकर्ष को अस्वीकार कर सका। तब से यह निरंतर अग्रसर होता गया। मनुष्य उसी की अंतिम परिणति है। वह एक कोश से अनेक कोशों के जटिल संघटन में, कर्मेंद्रियों से ज्ञानेंद्रियों की ओर, ज्ञानेंद्रिय से मन और बुद्धि की तरफ़ संकुचित होता हुआ मानवात्मा के रूप में प्रकट हुआ। पंडितों ने देखा है कि मनुष्य तक आते-आते, प्रकृति ने अपने कारख़ाने में असंख्य प्रयोग किए हैं। पुराने जंतुओं की विशाल ठठरियाँ आज भी यत्र-तत्र भी मिल जाती है और उन असंख्य प्रयोगों की गवाही दे जाती हैं। प्रकृति अपने प्रयोगों में कृपण कभी भी नहीं रही है। उसने बर्बादी की कभी परवाह नहीं की। दस वृक्षों के लिए वह दस लाख बीज बनाने में कभी कोताही नहीं करती। यह सब क्या व्यर्थ की अंधता है, सुस्पष्ट योजना का अभाव है या हिसाब न जानने का दुष्परिणाम? कौन बताएगा कि किस महान् उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रकृति ने इतनी बर्बादी सही है? हम केवल यही जानते हैं कि जब जीवत्व समस्त विघ्न-बाधाओं को अतिक्रम करके मनुष्य-रूप में अभिव्यक्त हुए तब इतिहास ही बदल गया। जो कुछ जैसा होना है, वह होकर ही रहेगा—यही प्रकृति का अचल विधान है। कार्य-कारण बनता है और नए कार्य को जन्म देता है। कार्य-कारणों की इस नीरंध्र ठोस परंपरा में इच्छा का कोई स्थान नहीं था। जो जैसा होने को है, वह होकर ही रहेगा। इसी समय मनुष्य आया। उसने इस साधारण नियम को अस्वीकार किया। उसने अपनी इच्छा के लिए न जाने कहाँ से एक फाँक निकाला। जो जैसा है वैसा ही मान लेने की विवशता को उसने नहीं माना जैसा होना चाहिए, वही बड़ी बात है। इस जगह से सृष्टि का दूसरा अध्याय शुरू हुआ। एक बार कल्पना कीजिए तरल-तप्त धातुओं के प्रचंड समुद्र की, निरंतर झरने वाले अग्निगर्भ मेघों की, विपुल जड़ संघात की, और फिर कल्पना कीजिए क्षुद्रकाय मनुष्य की! विराट बह्मांड निकाय, कोटि-कोटि नक्षत्रों का अनमय आवर्तनृत्य, अनंत शून्य में निरंतर उदयमान और विनाशमान नीहारिका पुंज विस्मयकारी है; पर उनसे अधिक विस्मयकारी है मनुष्य, जो नगण्य स्थान-काल में रहकर इनकी नाप-जोख करने निकल पड़ा है! क्या मनुष्य इस सृष्टि की अंतिम परिणति है? क्या विधाता ने केशवदास के बीरबल की भाँति इस कृती जीव की रचना करके हाथ झाड़ लिया है—मैं करतार बली बलवीर दियो करतार दुहूँ कर तारी! कौन कह सकता है? परंतु यह क्या मनुष्य की अमोघ जययात्रा नहीं है? क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि समस्त ग़लतियों के बावजूद मनुष्य भी मनुष्यता की उचतर अभिव्यक्तियों को ओर ही बढ़ रहा है?
यह जो स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर होता है, जो कुछ जैसा होने वाला है, उसको वैसा ही न मानकर जैसा होना चाहिए, उसकी ओर जाने का प्रयत्न है, यही मनुष्य की मनुष्यता है। अनेक बातों में मनुष्य और पशु में कोई भेद नहीं है। मनुष्य पशु की अवस्था से ही अग्रसर होकर इस अवस्था में आया है। इसलिए स्थूल को छोड़कर रह नहीं सकता। यही कारण है कि मनुष्य को दो प्रकार के कर्तव्य निबाहने पड़ते हैं—एक स्थूल को क्षुधा निवृत करना और दूसरा सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तत्त्व की ओर बढ़ने वाली अपनी ऊर्ध्वगामिनी वृत्ति को संतुष्ट करना। आहार-निद्रा आदि के साधन भी मनुष्य को जुटाने पड़े हैं। यद्यपि मनुष्य-बुद्धि ने इनमें भी कमाल का उत्कर्ष दिखाया है, पर प्रयोजन प्रयोजन ही हैं। प्रयोजन के जो अतीत है, जहाँ मनुष्य की अनंदिनी वृति ही चरितार्थ होती है, वहाँ मनुष्य की ऊर्ध्वगामिनी वृत्ति को संतोष होता है। ज्यों-ज्यों मनुष्य संघबद्द होकर रहने का अभ्यस्त होता गया है त्यों-त्यों उसे सामाजिक संघटन के लिए नाना प्रकार के नियम-क़ानून बनाने पड़े। इस संघटन को दोषहीन और गतिशील बनाने के लिए उसने दंड-पुरस्कार की व्यवस्था भी की, इन बातों को एक शब्द में सभ्यता कहते हैं। आर्थिक व्यवस्था, राजनीतिक संघटन, नैतिक परंपरा और सौंदर्यबोध को तीव्रतर करने की योजना; ये सभ्यता के चार स्तंभ है। इन सबके सम्मिलित प्रभाव से संस्कृति बनती है। सभ्यता मनुष्य के बाह्य प्रयोजनों को सहजलभ्य करने का विधान है और संस्कृति प्रयोजनातीत अंतर आनंद की अभिव्यक्ति। परंतु शायद फिर मैं पहेलियों की बोली बोलने लगा हूँ। आप जानना चाहेंगे कि यह बाह्य प्रयोजन और अंतर अभिव्यक्ति क्या बला है? किसको तुम बाह्य कहते हो और किसको अंतर, तुम्हारे कथन में प्रमाण क्या है?
यह जो हमारे बाह्यकरण है—कर्मेंद्रिय और ज्ञानेंद्रिय है—ये हमारे अत्यंत स्थूल प्रयोजनों के निवर्तक हैं। मन इनसे सूक्ष्म है, बुद्धि और भी सूक्ष्म है। मन से हम हज़ार गज की लंबाई की भी एकाएक धारणा नहीं कर सकते; पर बुद्धि द्वारा, ज्योतिषी कोटि-कोटि प्रकाश वर्षों में फैले हुए ग्रह-नक्षत्रों की नाप-जोख किया करते हैं। परंतु बुद्धि भी बड़ी चीज़ नहीं है। बुद्धि से भी बढ़कर कोई वस्तु है। वही अंतरतम है। गीता में कहा है—
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु पराबुद्धेंयोर्बुद्धे पर तस्तु सः॥
जो वस्तु केवल इंद्रियों को संतुष्ट कर सके, वह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। जो वस्तु मन को संतुष्ट कर सके, अर्थात् हमारे भावावेगों को संतोष दे सके, वह पहली से सूक्ष्म होने पर भी बहुत बड़ी नहीं है। जो बात बुद्धि को संतोष दे सके, वह ज़रूर बड़ी है, पर वह भी बाह्य है। बुद्धि से भी परे कुछ है। वही वास्तव है, उसका संतोष ही काम्य है। परंतु वह क्या है? मैं भारतीय मनीषा के इस मंततव्य तक आपको ले आकर यह आशा नहीं कर रहा हूँ कि आप शास्त्र-वाक्य पर विश्वास कर लें। मैं इसके निकट आपको ले आकर छोड़ देता हूँ; क्योंकि मैं जानता हूँ कि यहाँ तक आकर आप इसकी गहराई में पैठने का प्रयत्न अवश्य करेंगे। जब तक इसकी गहराई में पैठने का प्रयत्न नहीं किया जाता तब तक मनुष्य के बड़े-बड़े प्रयत्नों का रहस्य समझ में नहीं नहीं आएगा।
तैत्तरीय उपनिषद् में भृगुवल्ली वरुण के पुत्र भृगु की मनोरंजक कथा दी हुई है। भृगु ने जाकर वरुण से कहा था कि हे भगवन्, मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूँ। पिता ने तप करने की आज्ञा दी। कठिन तपस्या के बाद पुत्र ने समझा—अन्न ही ब्रह्मा है। पिता ने फिर तप करने को कहा। इस बार पुत्र कुछ और गहराई में गया। उसने प्राण को ही ब्रह्मा समझा। पिता को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने पुत्र को पुनः तप करने के लिए उत्साहित किया। पुत्र ने फिर तप किया और समझा कि मन ही ब्रह्मा है! पिता फिर भी असंतुष्ट ही रहे। फिर तप करने के बाद पुत्र ने अनुभव किया—विज्ञान ही ब्रह्म है। पर पिता को अब भी संतोष नहीं हुआ। पुनर्वार कठिन तप के बाद पुत्र ने समझा—आनंद ही ब्रह्मा है। यही चरम सत्य था। इस प्रकार अन्न (भौतिक पदार्थ)—प्राण—मन—विज्ञान (बुद्धि)—आनंद (अध्यात्म तत्व)—ये ही ज्ञान के पाँच स्तर हैं। ये उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। इन्हीं पाँचों को आश्रय करके संसार के भिन्न-भिन्न दार्शनिक मत बने हैं। साधारणतः इनको आश्रय करके दो-दो प्रकार के मत बन जाते हैं। तर्काश्रित मत और विश्वास समर्थित मत। संदेह को उद्रिक्त करने वाला तर्काश्रित मत फ़िलासफ़ी का प्रतिपाद्य मत बन गया है और विश्वास को आश्रय करके श्रद्धा को उद्रिक्त करने वाला मत धर्म विज्ञान का। भारतवर्ष का इतिहास अन्य देशों से कुछ विचित्र रहा है। सभ्यता के उष:काल से लेकर आधुनिक काल के आरंभ तक हमारे इस देश में नाना मानव-समूहों की धारा बराबर इस देश में आती रही है। इसमें सभ्य, अर्धसभ्य और बर्बर सभी श्रेणी के मनुष्य रहे हैं। भारतीय मनीषी शुरू से ही मनुष्य के बहुविध विश्वासों और मतों को जानने का अवसर पा सके हैं। इसलिए यहाँ धर्म विज्ञान और तत्व जिज्ञासा कभी परस्पर विरोधी मत नहीं माने गए। भारतीय ऋषि ने दोनों का उचित सामंजस्य किया है। शायद इस विषय में भारतवर्ष सारे संसार को कुछ दे सकता है। भारतवर्ष के दार्शनिक साहित्य के आलोचकों को आश्चर्य हुआ है कि इस देश में उस चीज़ का कभी विकास ही नहीं हो पाया, जिसे फ़िलासफ़ी कहते हैं। भारतवर्ष के दर्शन धर्म पर आधारित बनाए गए हैं। 'दर्शन' शब्द का अर्थ ही देखना है। इसका अंतर्निहित अर्थ यह है कि 'दर्शन' कुछ सिद्ध महात्माओं के देखे हुए (साक्षात्कृत) सत्यों का प्रतिपादन करते हैं। जैसा कि हमने अभी लक्ष्य किया है, यह 'देखना’ तब वास्तविक होगा जब वह केवल इंद्रिय द्वारा, प्राण द्वारा, मन द्वारा यहाँ तक कि बुद्धि द्वारा भी दृष्ट स्थूल तथ्यों को पीछे छोड़कर उस वस्तु के द्वारा देखा गया हो जो आनंदस्वरूप है, जो सबके परे और सबसे सूक्ष्म है। यही स्वसंवेद्य ज्ञान है परंतु यह नहीं समझना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ भी अनुभव करता है, वह सत्य ही है। शरीर और मन की शुद्धि आवश्यक है। जब तक मनुष्य का बाहर और भीतर शुद्ध, निर्मल और पवित्र नहीं होते तब तक वह ग़लत वस्तु को सत्य समझ सकता है। चंचल मन से कोई मामूली समस्या भी ठीक-ठीक समाहित नहीं होती। यह जो बाह्य और अंतकरणों का शुद्धि है, यही भारतीय दर्शनों की विशेषता है। जैसे-तैसे रहकर, जैसा-तैसा सोचकर बड़े सत्य को अनुभव नहीं किया जा सकता। चंचल चित्त केवल विकृत चिंता में ही लगा रहता है। भारतीय मनीषियों ने इस चंचल चित्त को वश करने के उपाय बनाए हैं। इसी उपाय का नाम योग है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि यद्यपि मन बड़ा चंचल है और उसे वश में करना कठिन है तथापि अभ्यास और वैराग्य से उसे वश में किया जा सकता है। अभ्यास और वैराग्य के लिए भारतीय साहित्य में शताधिक ग्रंथ वर्तमान हैं। संभवतः सारे संसार के बुद्धिजीवी इस विषय में यहाँ से कुछ सीख सकते हैं। केवल बौद्धिक विश्लेषण द्वारा सत्य तक नहीं पहुँचा सकता। सर्वत्र अभ्यास और वैराग्य आवश्यक हैं।
हमने अभी जिन पाँच तत्वों को लक्ष्य किया, उनमें सबसे स्थूल है यह शरीर, फिर प्राण और फिर मन। शरीर का प्रतीक बिंदु है। भारतीय मनीषियों ने अनुभव किया है कि इनमें से किसी एक को संयत करने का अभ्यास किया जाए तो बाक़ी संयत हो जाते हैं। भारतवर्ष के नाना आध्यात्मिक पंथ इन तीनों को संयत करने के ऊपर ज़ोर देने के कारण अलग-अलग हो गए हैं। संयमन की विधि भी सर्वत्र एक नहीं है। नाना बौद्ध और शाक्त साधनाओं में बिंदु को वश में करने की विधियाँ बताई गई हैं, हठयोग प्राण को वश करने के पक्ष में है, राज-योग मन को वश करने की विधि बताता है। ये सब अभ्यास द्वारा सिद्ध होते हैं। ऊपर-ऊपर से देखने वाले आलोचक भारतीय साधन-मार्गों में इतना अधिक भेद देखते हैं कि उन्हें समझ में ही नहीं आता कि ये विभिन्न पंथ किस प्रकार अपने को एक ही मूल उद्गम से उद्भूत बताते हैं। गहराई में जाने वाले के लिए ये विरोध नगण्य हैं। नाना भाँति के अभ्यास के द्वारा साधक बिंदु, प्राण और मन को स्थिर करता है। तब जाकर अंत:करण निर्मल स्फटिक मणि के समान होता है परंतु ये भ्रांति का अवकाश रहता है। इसीलिए भारतीय मनीषियों ने केवल अभ्यास को ही एकमात्र साधन नहीं माना। अभ्यास के साथ वैराग्य होना चाहिए। राग-द्वेष-वश जो इंद्रियचांचल्य होता है, उसको रोकना, राग और विराग के विषयों को अलग-अलग समझ सकना, मन द्वारा विषयों की चिंता और अंत में मानसिक उत्सुकता को दबा देना—ये सब वैराग्य के भेद हैं; परंतु असली वैराग्य तब होता है जब अंतरात्मा समस्त इंद्रियार्थों से और मन-बुद्धि आदि सब तत्वों से अपने को पृथक् समझ लेता है। इस प्रकार अभ्यास और वैराग्य से चित्त स्थिर होता है और बुद्धि निर्मल होती है—केवल उसी समय परम सत्य का साक्षात्कार होता है।
मेरा अनुमान है कि विचार का यह प्रकृष्ट पंथ है; परंतु यह मेरा दावा नहीं है कि मैं इस बात को ठीक-ठीक समझ सकता हूँ। वस्तुतः यह साधना का विषय है; परंतु यह समझना कठिन नहीं है कि किसी बात को सचाई तक पहुँचाने के लिए एक प्रकार के बौद्धिक वैराग्य की आवश्यकता है। संसार की समस्त जटिल समस्याएँ नित्य-प्रति और भी जटिलतर इसलिए होती जाती है कि इन पर विचार करने वालों में मानसिक संयम और बौद्धिक वैराग्य का अभाव है। लोग अपने-अपने विशेष स्वार्थों और विचार-पद्धतियों के भीतर से दूसरों को देखने का प्रयास करते हैं और समस्याएँ और भी जटिलतर होती जाती है। बौद्धिक वैराग्य ही मनुष्य को सुंस्कृत बनाता है।
भारतवर्ष का साहित्य बड़ा विशाल और विपुल है। उसने ज्ञान और साधना के क्षेत्र में नाना भाव से विचार किया है। मैं सबकी चर्चा करने योग्य अधिकारी भी नहीं हूँ और यहाँ इतना समय भी नहीं है; परंतु इतना स्मरण कर लेना उचित है कि यह जो आध्यात्मिक परमसत्य की उपलब्धि है और जिसके लिए शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक संयम और वैराग्य की बात बताई गई है—सिर्फ़ यही एकमात्र काम्य नहीं बताया गया। यद्यपि यह परमोत्तम लक्ष्य है, पर इस लक्ष्य की पूर्ति के पहले प्रत्येक व्यक्ति को कुछ ऋण चुका लेने पड़ते हैं। बहुत थोड़े लोगों को इन ऋणों से छुटकारा दिया गया है। अधिकांश लोग इन ऋणों को चुकाए बिना किसी भी बड़ी साधना के अधिकारी नहीं हो सकते। भारतीय विश्वास के अनुसार मनुष्य तीन प्रकार के ऋणों को ले कर पैदा होता है ये तीन ऋण हैं—–देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण। पैदा होते ही मनुष्य अपने संपूर्ण शरीर और इंद्रियों को पा जाता है। ये इंद्रियाँ उसे न मिलतीं तो न तो वह संसार का कुछ आनंद ही उपभोग कर सकता, न कुछ नया दे ही सकता। निश्चय ही वह माता-पिता के निकट इसके लिए ऋणी है। परंतु वस्तुतः वह अनादिकालीन धारा का परिणाम पितृ-पितामहों ने उसे जो शरीर दिया है, उसका क्या कोई प्रतिदान दे सकता है? भारतीय मनीषी ने इसका एकमात्र उपाय यह बताया है कि मनुष्य इसे ऋण के रूप में स्वीकार कर ले और पितृ-पितामहों की इस धारा को आगे बढ़ा दे। धारा रुध न होने पावे। कौन जानता है, भविष्य में उसी धारा में कौन कृती बालक पैदा होकर संसार को नई रोशनी दे। इसीलिए शास्त्रकारों ने पितृऋण से मुक्ति पाने का उपाय संतान उत्पन्न करना और उन्हें शिक्षित बनाकर समाज के हाथों सौंप जाने को बताया है। फिर मनुष्य पैदा होते ही अनेक विद्वानों और विज्ञानियों की आविष्कृत ज्ञानराशि को सहज ही पा जाता है। हर व्यक्ति को नए सिरे से अगर अपना-अपना प्रयोग और आविष्कार चलाना पड़ता तो मनुष्य की यह दुनिया कैसी बन गई होती, यह केवल सोचने की ही बात है। सो मनुष्य इस प्रकार अतीत के ऋषियों का ऋण लिए हुए पैदा होता है। इसे चुकाने का उपाय ज्ञान की धारा को रक्षा और उसे अग्रसर कर देना है। विद्या पढ़ना और ज्ञानधारा को अग्रसर करना कोई कृतित्व नहीं है सिर्फ़ क़र्ज़ा चुकाने का कर्तव्यपालन-मात्र है। फिर अन्न को पैदा करने वाली पृथ्वी, जल बरसाने वाले मेघ, प्रकाश देने वाला सूर्य आदि प्राकृतिक शक्तियाँ—जिन्हें भारतीय मनीषी देवता कहता है—हमें अनायास मिल गई हैं।
भारतीय मनीषी ने इनके ऋण से मुक्ति पाने का उपाय बाँटकर भोग करना बताया है। जो तुम्हारे पास है, उसे सबको बाँटकर ग्रहण करो। सो ये तीन ऋण मनुष्य के ऊपर जन्म से ही लदे आते हैं। इन तीन ऋणों को चुकाए बिना मोक्ष पाने का प्रयत्न पाप है। भारतवर्ष में प्रत्येक व्यक्ति से यह कम से कम आशा की गई है कि वह समाज को स्वस्थ और शिक्षित संतान दे, प्राचीन ज्ञान-परंपरा की रक्षा करे और उसे आगे बढ़ाने का प्रयत्न करे और प्राकृतिक शक्तियों से प्राप्त संपद् को निजी समझकर दबा न रखे। ये ऋण हैं। मनुस्मृति के छठवें अध्याय में कहा गया है कि जो इनको चुकाए बिना ही मोक्ष की कामना करता है, वह अधःपतित होता है—
ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्।
अनपाकृत्य मोक्षन्तु सेवमानो व्रजत्यधः॥
जब तक ये ऋण चुका नहीं दिए जाते तब तक मनुष्य को बड़ी बात सोचने का अधिकार नहीं है।
भारतवर्ष ने एशिया और यूरोप के देशों को धर्म-साधना की उत्तम वस्तुएँ दान दी हैं। उसने अहिंसा और मैत्री का संदेश दिया है क्षुद्र दुनियावी स्वार्थों की उपेक्षा करके विशाल आध्यात्मिक अनुभूतियों का उपदेश दिया है और उनसे जिन बातों को ग्रहण किया है वे भी उसी प्रकार महान् और दीर्घस्थाई रही हैं। उच्चतर क्षेत्र के आदान-प्रदान के ठोस चिह्न अब भी इस भूमि के नीचे से निकलते हैं और विदेशों में मिल जाया करते हैं। हमारा धर्म-विज्ञान, हमारा मूर्ति और मंदिर-शिल्प, हमारा दर्शन-शास्त्र, हमारे काव्य और नाटक हमारी चिकित्सा और ज्योतिष संसार में गए हैं, सम्मानित और स्वीकृत हुए हैं और संसार की उच्च चिंताशील जातियों से थोड़ा-बहुत प्रभावित भी हुए हैं। मैं आज आपको उस दिव्य लोक की सैर नहीं करा सका जहाँ भारतीय आचार्य पर्वतों और रेगिस्तानों को लाँघ कर अहिंसा और मैत्री का संदेश देते हैं, जहाँ हमारे शिल्पी गांधार और यवन कलाकारों के साथ मिलकर पत्थर में जान डाल रहे हैं, जहाँ अरब और ईरान के मनीषियों के साथ मिलकर वे चिकित्सा और ज्योतिष का प्रचार कर रहे हैं, जहाँ मलय और यवद्वीप में वहाँ के निवासियों से मिलकर शिल्प और कला में नया प्राण संचार कर रहे हैं, मैं उस परम मोहक लोक में आपको न ले जाकर शास्त्रीय नीरस विचारों में उलझाए रहा; परंतु इसके लिए मुझे क्षमा माँगने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि मेरा विश्वास है कि भारतीय मनीषियों ने अपने देशवासियों में जीवन के आवश्यक कर्तव्यों, संयम और वैराग्य की महिमा और स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म की ओर झुकने का जो प्रेम पैदा किया उसका ही परिणाम है कि भारतवर्ष दीर्घकाल तक पशुसुलभ क्षुद्र स्वार्थों का ग़ुलाम नहीं बन सका। आज हम सांस्कृतिक दृष्टि से जो बहुत नीचे गिर गए हैं, उसका प्रधान कारण यही है कि हम इस महान् आदर्श को भूल गए हैं। मेरा विश्वास है कि इन आदर्शों को नई परिस्थितियों के अनुकूल बनाकर ग्रहण करने से हम तो ऊपर उठेंगे ही, सारे संसार को भी उसमें कुछ-न-कुछ ऐसा अवश्य मिलेगा, जिससे उसे वर्तमान प्रलयंकर अवस्था से उबरने का मौक़ा मिले।
भारतवर्षं ने सामान्य मानवीय संस्कृति को पूर्ण और व्यापक बनाने की जो महती साधना की है, उसके प्रत्येक पहलू का अध्ययन और प्रकाशन हमारा अत्यंत महत्वपूर्ण कर्तव्य होना चाहिए।
bharatiy sanskriti par kuch kahne se pahle main ye niwedan kar dena karttawya samajhta hoon ki main sanskriti ko kisi desh wishesh ya jati wishesh ki apni maulikta nahin manata mere wichar se sare sansar ke manushyon ki ek hi samany manaw sanskriti ho sakti hai ye dusri baat hai ki wo wyapak sanskriti ab tak sare sansar mein anubhut aur angikrit nahin ho saki hai nana aitihasik parampraon ke bhitar se guज़r kar aur bhaugolik paristhitiyon mein rahkar sansar ke bhinn bhinn samudayon ne us mahan manawiy sanskriti ke bhinn bhinn pahluon ka sakshatkar kiya hai nana prakar ki dharmik sadhnaon, kalatmak pryatnon aur sewa, bhakti tatha yogmulak anubhutiyon ke bhitar se manushya us mahan saty ke wyapak aur paripurn roop ko kramash prapt karta ja raha hai jise hum sanskriti shabd dwara wyakt karte hain ye sanskriti shabd bahut adhik prachalit hai tathapi ye aspasht roop mein hi samjha jata hai iski sarwasammat koi paribhasha nahin ban saki hai pratyek wekti apni ruchi aur sanskaron ke anusar iska arth samajh leta hai phir isko ekdam aspasht bhi nahin kah sakte; kyonki pratyek manushya janta hai ki manushya ki shreshth sadhnayen hi sanskriti hai iski aspashtta ka karan yahi hai ki ab bhi manushya iske sampurn aur wyapak roop ko dekh nahin saka hai sansar ke sabhi mahan tatw isi prakar manaw chitt mein aspasht roop se abhasit hote hain unka abhasit hona hi unki satta ka praman hai manushya ki shreshthatar manytayen kewal anubhut hokar hi apni mahima suchit karti hain unko aspasht aur suwyawasthit paribhasha mein bandhna sab samay sambhaw nahin hota kewal neti neti kah kar hi manushya ne us anubhuti ko prakashit kiya hai apni charam satyanubhuti ko prakat karte samay kabirdas ne isi prakar ki wiwashta ka anubhaw karte hue kaha tha—aisa lo nahin taisa lo, main kehi widhi kahaun anutha lo! manushya ki samany sanskriti bhi bahut aisi hi anuthi wastu hai manushya ne use abhi tak sampurn paya nahin hai; par use pane ke liye wyagr bhaw se udyog kar raha hai ye mar kat, nonch khasot aur jhagDa tanta bhi usi prayatn ke ang hai aapko ye baat kuch wirodhabhas si lagegi, par hai saty rasta khojte samay bhatak jana thak jana ya jhunjhla paDna, is baat ke sabut nahin hain ki rasta khojne ki ichha hi nahin hai kawiwar rawindrnath ne apni kawijnochit bhasha mein is baat ko is prakar kaha hai ki ye jo luhar ki dukan ki khatakhat aur dhool dhakaD hai, inse ghabrane ki zarurat nahin hai yahan wina ke tar taiyar ho rahe hain jab ye tar ban jayenge to ek din inke madhur sangit dhwani se nishchay hi man aur paran tript ho jayenge ye yudh wigrah, ye kutanitik danw pench, ye daman aur shoshan ke sadhan ye sab ek din samapt ho jayenge manushya din din apne mahan lakshya ke naज़dik pahunchta jayega samany manaw sanskriti aisa hi durlabh lakshya hai mera wishwas hai ki pratyek desh aur jati ne apni aitihasik parampraon aur bhaugojik paristhitiyon ke anusar us mahan lakshya ke kisi na kisi pahlu ka awashy sakshatkar kiya hai jyon jyon waij~nanik sadhnon ke parinamaswarup bhinn bhinn desh aur bhinn bhinn jatiyan ek dusre ke naज़dik aati jayengi tyon tyon in ansh satyon ki sarthakta prakat hoti jayegi aur hum samany wyapak saty ko pate jayenge aaj ki mara mari ismen thoDi rukawat Dal sakti hai; par is prayatn ko niashesh bhaw se samapt nahin kar sakti apne is wishwas ka karan main aage batane ka prayatn karunga
jo adami aisa wishwas karta hai, usme sanskriti ke sath ‘bharatiy’ wisheshan joDne ka arth puchhna nitant sangat hai kya ‘bharatiy se matlab bharatwarsh ke samast achchhe bure prayatn aur sanskar hai? nahin; samast bharatiy sanskar achchhe hi hain ya manushya ki sarwottam sadhana ki or agrasar karne wale hi hai, aisa main nahin manata ais dekha gaya hai ki ek jati ne jis baat ko apna atyant mahattwapurn sanskar mana hai, wo dusri jati ki sarwottam sadhana ke sath mel nahin khata aisa bhi ho sakta hai ki ek jati ke sanskar dusre jati ke sanskar ke ekdam ulte paDte ho ho sakta hai ki ek jati mandiron aur murtiyon ke nirman mein hi apni kritarthta manti aur ye bhi ho sakta hai ki dusri jati unko toD Dalne ko hai apni charam sarthakta manti ho ye donon paraspar wiruddh hain aise sthlon par wichar karne ki awashyakta hogi saty paraspar wirodh nahin hota prasiddh sant rajjawdas ne kaha tha—
satr sanch mil so sanch hai na mile so jhooth sampurn saty awirodhi hota hai jahan bhi shrawirodhi dikhe, wahan sochne ki zarurat hogi ho sakta ki do bhinn bhinn jan samuday mohawash do saty baton ko hi baDa saty man baithe hon ho sakta hai ki donon mein se ek sahi ho aur dusra ghalat sath hi ye bhi ho sakta hai ki donon sahi raste par hon, par unke drishtikon ghalat ho yadi hamein apni ghalati malum ho to use nirmam bhaw se chhoD dena hoga mahabharat ne bahut pahle ghoshana ki thi ki jo dharm dusre dharm ko badhit karta hai, wo dharm nahin hai kudharm hai sachcha dharm awirodhi hota hai—
dharmo yo badhte dharm na s dharmः kudharm tet
awirodhi t yo dharmः s dharmo yutisattam॥
main jab bharatiy wisheshan joDkar sanskriti shabd ka prayog karta hoon to main bharatwarsh dwara adhigat aur sakshatkrit awirodhi dharm ki hi baat karta hoon apni wishesh bhaugolik paristhiti mein aur wishesh aitihasik paranpra ke bhitar se manushya ke sarwottam ko prakashit karne ke liye is desh ke logon ne bhi kuch prayatn kiye hain jitne ansh mein wo prayatn sansar ke any manushyon ke prayatn ka awirodhi hai utne ansh mein wo unka purak bhi hai bhinn bhinn deshon aur bhinn bhinn jatiyon ke anubhut aur sakshatkrit any awirodho dharmon ki bhanti wo manushya ki jayyatra mein sahayak hai wo manushya ke sarwottam ko jitne ansh mein prakashit aur agrasar kar saka hai utne hi ansh mein ye sarthak aur mahan hai wahi bharatiy sanskriti hai usko prakat karna, usko wyakhya karna ya uske prati jigyasa bhaw uchit hai ye prayas apni baDai ka praman patr sangrah karne ke liye nahin hai, balki manushya ki jayyatra mein sahayata pahunchane ke uddeshy se prrochit hai isi mahan uddeshy ke liye uska adhyayan, manan aur prakashan hona chahiye
manushya ki jayyatra! kya manushya ne kisi agyat shatru ko parast karne ke liye apna durddhar rath jota hai? manushya ki jayyatra! kya jaan bujhkar lokchitt ko wyamohit karne ke liye ye pahli jaisa waky bataya gaya hai? manushya ki jayyatra ka kya arth ho sakta hai? parantu main pathkon ko kisi prakar ke shabd jal mein uljhane ka sankalp lekar nahin aaya hoon mujhe ye waky sachmuch baDa bal deta hai na jane kis anadi kal ke ek agyat muhurt mein ye prithwi namak grahpinD surya manDal se tutkar usi ke charon or chakkar katne laga tha mujhe us samay ka chitr kalpana ke netron se dekhne mein baDa anand aata hai us sadhastrutit dharitri pinD mein jwalant gas bhare hue the koi nahin janta ki in asankhy agnigarbh kanon mein se kismen ya kinmen jiwatw ka ankur wartaman tha shayad wo sarwatr pariwyapt tha iske baad lakhon warsh tak dharti thanDi hoti rahi, lakhon warsh tak us par taral tapt dhatuon ko lahachheh warsha hoti rahi, lakhon warsh tak uske bhitar aur bahar pralaykanD macha raha, prithwi anyany grhon ke sath surya ke charon or usi prakar nachti rahi jis prakar khilaDi ke ishare par circus ke ghoDe nachte rahte hain jiwtattw sthir awikshubdh bhaw se uchit awsar ki pratiksha mein baitha raha awsar aane par usne samast jaDakti ke wiruddh widroh karke sir uthaya—naganya trinankur ke roop mein! tab se aaj tak sampurn jaDshakti apne akarshan ka samucha weg lagakar bhi use niche ki or nahin kheench saki sirishti ke itihas mein ye ekdam aghtit ghatna thi ab tak mahakarsh (grewiteshan pawar) ke wirat weg ka rokne mein koi samarth nahin ho saka tha jiwtatw pratham bar apni urdhwgamini writti ki adna taqat ke bal par is mahakarsh ko aswikar kar saka tab se ye nirantar agrasar hota gaya manushya usi ka antim parinati hai wo ek kosh se anek koshon ke jatil sanghtan mein, karmendriyon se gyanendriyon ki or, j~nanendriy se man aur buddhi ki taraf sankuchit hota hua manwatma ke roop mein prakat hua panditon ne dekha hai ki manushya tak aate aate, prakrti ne apne karkhane mein asankhy prayog kiye hain purane jantuon ki wishal thathariyan aaj bhi yatra tatr bhi mil jati hai aur un asankhy pryogon ki gawahi de jati hain prakrti apne pryogon mein kripan kabhi bhi nahin rahi hai usne barbadi ki kabhi parwah nahin ki das wrikshon ke liye wo das lakh beej banane mein kabhi kotahi nahin karti ye sab kya byarth ki andhta hai, suspasht yojna ka abhaw hai ya hisab na janne ka dushparinam? kaun batayega ki kis mahan uddeshy ki prapti ke liye prakrti ne itni barbadi sahi hai? hum kewal yahi jante hain ki jab jiwatw samast wighn badhaon ko atikram karke manushya roop mein abhiwyakt hue tab itihas hi badal gaya jo kuch jaisa hona hai, wo hokar hi rahega—yahi prakrti ka achal widhan hai kary karan banta hai aur nae kary ko janm deta hai kary karnon ki is nirandhr thos paranpra mein ichha ka koi sthan nahin tha jo jaisa hone ko hai, wo hokar hi rahega isi samay manushya aaya usne is sadharan niyam ko aswikar kiya usne apni ichha ke liye na jane kahan se ek phank nikala jo jaisa hai waisa hi man lene ki wiwashta ko usne nahin mana jaisa hona chahiye, wahi baDi baat hai is jagah se sirishti ka dusra adhyay shuru hua ek bar kalpana kijiye taral tapt dhatuon ke prchanD samudr ki, nirantar jharne wale agnigarbh meghon ki, wipul jaड़ sanghat ki, aur phir kalpana kijiye kshudrkay manushya kee! wirat bahmanD nikay, koti koti nakshatron ka anmay awartnatya, anant shunya mein nirantar udayman aur winashman niharika punj wismaykari hai; par unse adhik wismaykari hai manushya, jo nagny sthan kal mein rahkar inki nap jokh karne nikal paDa hai! kya manushya is sirishti ki antim parinati hai? kya widhata ne keshawdas ke wirbal ki bhanti is kriti jeew ki rachna karke hath jhaD liya hai—main kartar bali balwir diyo kartar duhun kar tari! kaun kah sakta hai? parantu ye kya manushya ki amogh jayyatra nahin hai? kya ye is baat ka praman nahin hai ki samast ghalatiyon ke bawjud manushya bhi manushyata ki uchtar abhiwyaktiyon ko or hi baDh raha hain?
ye jo sthool se sookshm ki or agrasar hota hai, jo kuch jaisa hone wala hai, usko waisa hi na mankar jaisa hona chahiye, uski or jane ka prayatn hai, yahi manushya ki manushyata hai anek baton mein manushya aur pashu mein koi bhed nahin hai manushya pashu ki awastha se hi agrasar hokar is awastha mein aaya hai isliye sthool ko chhoDkar rah nahin sakta yahi karan hai ki manushya ko do prakar ke kartawya nibahane paDte hain ha ek sthool ko kshaudha niwrit karna aur dusra sookshm se sukshmtar tatw ki or baDhne wali apni urdhwgamini writti ko santusht karna ahar nidra aadi ke sadhan bhi manushya ko jutane paDe hain yadyapi manushya buddhi ne inmen bhi kamal ka utkarsh dikhaya hai, par prayojan prayojan hi hain prayojan ke jo atit hai, jahan manushya ki anandini writi hi charitarth hoti hai, wahan manushya ki urdhwgamini writti ko santosh hota hai jyon jyon manushya sanghbadd hokar rahne ka abhyast hota gaya hai tyon tyon use samajik sanghtan ke liye nana prakar ke niyam qanun banane paDe is sanghtan ko doshhin aur gatishil banane ke liye usne danD puraskar ki wyawastha bhi ki, in baton ko ek shabd mein sabhyata kahte hain arthik wyawastha, rajnitik sanghtan, naitik paranpra aur saundaryabodh ko tiwrtar karne ki yojna; ye sabhyata ke chaar stambh hai in sabke sammilit prabhaw se sanskriti banti hai sabhyata manushya ke bahy pryojnon ko sahajlabhya karne ka widhan hai aur sanskriti pryojnatit antar anand ki abhiwyakti parantu shayad phir main paheliyon ki boli bolne laga hoon aap janna chahenge ki ye bahy prayojan aur antar abhiwyakti kya bala hai? kisko tum bahy kahte ho aur kisko antar, tumhare kathan mein praman kya hai?
ye jo hamare bahyakran hai—karmendriye aur gyanendriye hai—ye hamare atyant sthool pryojnon ke niwartak hain man inse sookshm hai, buddhi aur bhi sookshm hai man se hum hazar gaj ki lanbai ki bhi ekayek dharana nahin kar sakte; par buddhi dwara, jyotishi koti koti parkash warshon mein phaile hue grah nakshatron ki nap jokh kiya karte hain parantu buddhi bhi baDi cheez nahin hai buddhi se bhi baDhkar koi wastu hai wahi antartam hai gita mein kaha hai—
indriyani paranyahurindriyebhyaः paran man
mansastu parabuddhen yorbuddhe par tastu sः॥
jo wastu kewal indriyon ko santusht kar sake, wo bahut mahatwapurn nahin hai jo wastu man ko santusht kar sake, arthat hamare bhawawegon ko santosh de sake, wo pahli se sookshm hone par bhi bahut baDi nahin hai jo baat buddhi ko santosh de sake, wo zarur baDi hai, par wo bhi bahy hai buddhi se bhi pare kuch hai wahi wastaw hai, uska santosh hi kaamy hai parantu wo kya hai? main bharatiy manisha ke is manttawya tak aapko le aakar ye aasha nahin kar raha hoon ki aap shastr waky par wishwas kar len main iske nikat aapko le aakar chhoD deta hoon; kyonki main janta hoon ki yahan tak aakar aap iski gahrai mein paithne ka prayatn awashy karenge jab tak iski gahrai mein paithne ka prayatn nahin kiya jata tab tak manushya ke baDe baDe pryatnon ka rahasy samajh mein nahin nahin ayega
taittriy upnishad mein bhriguwalli warun ke putr bhrigu ki manoranjak katha di hui hai bhrigu ne jakar warun se kaha tha ki he bhagwan, main brahm ko janna chahta hoon pita ne tap karne ki aagya di kathin tapasya ke baad putr ne samjha—ann hi brahma hai pita ne phir tap karne ko kaha is bar putr kuch aur gahrai mein gaya usne paran ko hi brahma samjha pita ko santosh nahin hua unhonne putr ko pun tap karne ke liye utsahit kiya putr ne phir tap kiya aur samjha ki man hi brahma hai! pita phir bhi asantusht hi rahe phir tap karne ke baad putr ne anubhaw kiya—wigyan hi brahm hai par pita ko ab bhi santosh nahin hua punarwar kathin tap ke baad putr ne samjha—anand hi brahma hai yahi charam saty tha is prakar ann (bhautik padarth)—paran—man—wigyan (buddhi)—anand(adhyatm tatw)—ye hi gyan ke panch star hain ye uttarottar sookshm hain inhin panchon ko ashray karke sansar ke bhinn bhinn darshanik mat bane hain sadharanata inko ashray karke do do prakar ke mat ban jate hain tarkashrit mat aur wishwas samarthit mat sandeh ko udrikt karne wala tarkashrit mat philosophy ka pratipady mat ban gaya hai aur wishwas ko ashray karke shardha ko udrikt karne wala mat dharm wigyan ka bharatwarsh ka itihas any deshon se kuch wichitr raha hai sabhyata ke ushahkal se lekar adhunik kal ke arambh tak hamare is desh mein nana manaw samuhon ki dhara barabar is desh mein aati rahi hai ismen sabhy, ardhsabhya aur barbar sabhi shrenai ke manushya rahe hain bharatiy manisho shuru se hi manushya ke bahuwidh wishwason aur maton ko janne ka awsar pa sake hain isliye yahan dharm wigyan aur tatw jij~nasa kabhi paraspar wirodhi mat nahin mane gaye bharatiy rishi ne donon ka uchit samanjasy kiya hai shayad is wishay mein bharatwarsh sare sansar ko kuch de sakta hai bharatwarsh ke darshanik sahity ke alochkon ko ashchary hua hai ki is desh mein us cheez ka kabhi wikas hi nahin ho paya, jise philosophy kahte hain bharatwarsh ke darshan dharm par adharit banaye gaye hain darshan shabd ka arth hi dekhana hai iska antarnihit arth ye hai ki darshan kuch siddh mahatmaon ke dekhe hue (sakshatkrit) satyon ka pratipadan karte hain jaisa ki hamne abhi lakshya kiya hai, ye dekhana’ tab wastawik hoga jab wo kewal indriy dwara, paran dwara, man dwara yahan tak ki buddhi dwara bhi drisht sthool tathyon ko pichhe chhoDkar us wastu ke dwara dekha gaya ho jo anandaswrup hai, jo sabke pare aur sabse sookshm hai yahi swsanwedya gyan hai parantu ye nahin samajhna chahiye ki pratyek wekti jo kuch bhi anubhaw karta hai, wo saty hi hai sharir aur man ki shuddhi awashyak hai jab tak manushya ka bahar aur bhitar shuddh, nirmal aur pawitra nahin hote tab tak wo ghalat wastu ko saty samajh sakta hai chanchal man se koi mamuli samasya bhi theek theek samahit nahin hoti ye jo bahy aur antakarnon ka shuddhi hai, yahi bharatiy darshnon ki wisheshata hai jaise taise rahkar, jaisa taisa sochkar baDe saty ko anubhaw nahin kiya ja sakta chanchal chitt kewal wikrt chinta mein hi laga rahta hai bharatiy manishiyon ne is chanchal chitt ko wash karne ke upay banaye hain isi upay ka nam yog hai bhagwan shrikrishn ne gita mein kaha hai ki yadyapi man baDa chanchal hai aur use wash mein karna kathin hai tathapi abhyas aur wairagy se use wash mein kiya ja sakta hai abhyas aur wairagy ke liye bharatiy sahity mein shatadhik granth wartaman hain sambhwat sare sansar ke buddhijiwi is wishay mein yahan se kuch seekh sakte hain kewal bauddhik wishleshan dwara saty tak nahin pahunja sakta sarwatr abhyas aur wairagy awashyak hain
hamne abhi jin panch tatwon ko lakshya kiya, unmen sabse sthool hai ye sharir, phir paran aur phir man sharir ka pratik bindu hai bharatiy manishiyon ne anubhaw kiya hai ki inmen se kisi ek ko sanyat karne ka abhyas kiya jaye to baqi sanyat ho jate hain bharatwarsh ke nana adhyatmik panth in tinon ko sanyat karne ke upar zor dene ke karan alag alag ho gaye hain sanyman ki widhi bhi sarwatr ek nahin hai nana bauddh aur shakt sadhnaon mein bindu ko wash mein karne ki widhiyan batai gai hain, hathyog paran ko wash karne ke paksh mein hai, raj yog man ko wash karne ki widhi batata hai ye sab abhyas dwara siddh hote hain upar upar se dekhne wale alochak bharatiy sadhan margon mein itna adhik bhed dekhte hain ki unhen samajh mein hi nahin aata ki ye wibhinn panth kis prakar apne ko ek hi mool udgam se udbhut batate hain gahrai mein jane wale ke liye ye wirodh nagny hain nana bhanti ke abhyas ke dwara sadhak bindu, paran aur man ko sthir karta hai tab jakar antahakran nirmal sphatik manai ke saman hota hai parantu ye bhranti ka awkash rahta hai isiliye bharatiy manishiyon ne kewal abhyas ko hi ekmatr sadhan nahin mana abhyas ke sath wairagy hona chahiye rag dwesh wash jo indriychanchalya hota hai, usko rokna, rag aur wirag ke wishyon ko alag alag samajh sakna, man dwara wishyon ki chinta aur ant mein manasik utsukta ko daba dena—ye sab wairagy ke bhed hain; parantu asli wairagy tab hota hai jab antratma samast indriyarthon se aur man buddhi aadi sab tatwon se apne ko prithak samajh leta hai is prakar abhyas aur wairagy se chitt sthir hota hai aur buddhi nirmal hoti hai—
kewal usi samay param saty ka sakshatkar hota hai
mera anuman hai ki wichar ka ye prakrsht panth hai; parantu ye mera dawa nahin hai ki main is baat ko theek theek samajh sakta hoon wastut ye sadhana ka wishay hai; parantu ye samajhna kathin nahin hai ki kisi baat ko sachai tak pahunchane ke liye ek prakar ke bauddhik wairagy ki awashyakta hai sansar ki samast jatil samasyayen nity prati aur bhi jatiltar isliye hoti jati hai ki in par wichar karne walon mein manasik sanyam aur bauddhik wairagy ka abhaw hai log apne apne wishesh swarthon aur wichar paddhatiyon ke bhitar se dusron ko dekhne ka prayas karte hain aur samasyayen aur bhi jatiltar hoti jati hai bauddhik wairagy hi manushya ko sunskrit banata hai
bharatwarsh ka sahity baDa wishal aur wipul hai usne gyan aur sadhana ke kshaetr mein nana bhaw se wichar kiya hai main sabki charcha karne yogya adhikari bhi nahin hoon aur yahan itna samay bhi nahin hai; parantu itna smarn kar lena uchit hai ki ye jo adhyatmik paramsatya ki uplabdhi hai aur jiske liye sharirik, manasik aur bauddhik sanyam aur wairagy ki baat batai gai hai—sirf yahi ekmatr kaamy nahin bataya gaya yadyapi ye parmottam lakshya hai, par is lakshya ki purti ke pahle pratyek wekti ko kuch rn chuka lene paDte hain bahut thoDe logon ko in rinon se chhutkara diya gaya hai adhikansh log in rinon ko chukaye bina kisi bhi baDi sadhana ke adhikari nahin ho sakte bharatiy wishwas ke anusar manushya teen prakar ke rinon ko le kar paida hota hai ye teen rn hain—–dewrin, rshairn aur pitrrn paida hote hi manushya apne sampurn sharir aur indriyon ko pa jata hai ye indriyan use na miltin to na to wo sansar ka kuch anand hi upbhog kar sakta, na kuch naya de hi sakta nishchay hi wo mata pita ke nikat iske liye rnai hai parantu wastut wo anadikalin dhara ka parinam pitr pitamhon ne use jo sharir diya hai, uska kya koi pratidan de sakta hai? bharatiy manishai ne iska ekmatr upay ye bataya hai ki manushya ise rn ke roop mein swikar kar le aur pitr pitamhon ki is dhara ko aage baDha de dhara rudh na hone pawe kaun janta hai, bhawishya mein usi dhara mein kaun kriti balak paida hokar sansar ko nai roshni de isiliye shastrkaron ne pitrrn se mukti pane ka upay santan utpann karna aur unhen shikshait banakar samaj ke hathon saunp jane ko bataya hai phir manushya paida hote hi anek widwanon aur wigyaniyon ki awishkrit j~nanarashi ko sahj hi pa jata hai har wekti ko nae sire se agar apna apna prayog aur awishkar chalana paDta to manushya ki ye duniya kaisi ban gai hoti, ye kewal sochne ki hi baat hai so manushya is prakar atit ke rishiyon ka rn liye hue paida hota hai ise chukane ka upay gyan ki dhara ko rakhsha aur use agrasar kar dena hai widdya paDhna aur gyandhara ko agrasar karna koi krititw nahin hai sirf qarza chukane ka kartawyapalan matr hai phir ann ko paida karne wali prithwi, jal barsane wale megh, parkash dene wala surya aadi prakritik shaktiyan—jinhen bharatiy manishai dewta kahta hai—hamen anayas mil gai hain
bharatiy manishai ne inke rn se mukti pane ka upay bantakar bhog karna bataya hai jo tumhare pas hai, use sabko bantakar grahn karo so ye teen rn manushya ke upar janm se hi lade aate hain in teen rinon ko chukaye bina moksh pane ka prayatn pap hai bharatwarsh mein pratyek wekti se ye kam se kam aasha ki gai hai ki wo samaj ko swasth aur shikshait santan de, prachin gyan parampara ki rakhsha kare aur use aage baDhane ka prayatn kare aur prakritik shaktiyon se prapt sanpad ko niji samajhkar daba na rakhe ye rn hain manusmriti ke chhathwen adhyay mein kaha gaya hai ki jo inko chukaye bina hi moksh ki kamna karta hai, wo adhःpatit hota hai—
rinani trinypakritya mano mokshe niweshyet
anpakritya mokshantu sewmano wrjatyadhः॥
jab tak ye rn chuka nahin diye jate tab tak manushya ko baDi baat sochne ka adhikar nahin hai
bharatwarsh ne asia aur europe ke deshon ko dharm sadhana ki uttam wastuen dan di hain usne ahinsa aur maitri ka sandesh diya hai kshaudr duniyawi swarthon ki upeksha karke wishal adhyatmik anubhutiyon ka updesh diya hai aur unse jin baton ko grahn kiya hai we bhi usi prakar mahan aur dirghasthai rahi hain uchtar kshaetr ke adan pradan ke thos chihn ab bhi is bhumi ke niche se nikalte hain aur wideshon mein mil jaya karte hain hamara dharm wigyan, hamara murti aur mandirar shilp, hamara darshan shastr, hamare kawy aur natk hamari chikitsa aur jyotish sansar mein gaye hain, sammanit aur swikrit hue hain aur sansar ki uchch chintashil jatiyon se thoDa bahut prabhawit bhi hue hain main aaj aapko us diwy lok ki sair nahin kara saka jahan bharatiy acharya parwton aur registanon ko langh kar ahinsa aur maitri ka sandesh dete hain, jahan hamare shilpi gandhar aur yawan kalakaron ke sath milkar patthar mein jaan Dal rahe hain, jahan arab aur iran ke manishiyon ke sath milkar we chikitsa aur jyotish ka parchar kar rahe hain, jahan malay aur yawadwip mein wahan ke niwasiyon se milkar shilp aur kala mein naya paran sanchar kar rahe hain, main us param mohak lok mein aapko na le jakar shastriy niras wicharon mein uljhaye raha; parantu iske liye mujhe kshama mangne ki zarurat nahin hai, kyonki mera wishwas hai ki bharatiy manishiyon ne apne deshwasiy mein jiwan ke awashyak kartawyon, sanyam aur wairagy ki mahima aur sthool ki apeksha sookshm ki or jhukne ka jo prem paida kiya uska hi parinam hai ki bharatwarsh deergh kal tak pashusulabh kshaudr swarthon ka ghulam nahin ban saka aaj hum sanskritik drishti se jo bahut niche gir gaye hain uska pardhan karan yahi hai ki hum is mahan adarsh ko bhool gaye hain mera wishwas hai ki in adarshon ko nai paristhitiyon ke anukul banakar grahn karne se hum to upar uthenge hi, sare sansar ko bhi usmen kuch na kuch aisa awashy milega, jisse use wartaman pralyankar awastha se ubarne ka mauqa mile
bharatawarshan ne samany manawiy sanskriti ko poorn aur wyapak banane ki jo mahati sadhana ki hai, uske pratyek pahlu ka adhyayan aur prakashan hamara atyant mahatwapurn kartawya hona chahiye
bharatiy sanskriti par kuch kahne se pahle main ye niwedan kar dena karttawya samajhta hoon ki main sanskriti ko kisi desh wishesh ya jati wishesh ki apni maulikta nahin manata mere wichar se sare sansar ke manushyon ki ek hi samany manaw sanskriti ho sakti hai ye dusri baat hai ki wo wyapak sanskriti ab tak sare sansar mein anubhut aur angikrit nahin ho saki hai nana aitihasik parampraon ke bhitar se guज़r kar aur bhaugolik paristhitiyon mein rahkar sansar ke bhinn bhinn samudayon ne us mahan manawiy sanskriti ke bhinn bhinn pahluon ka sakshatkar kiya hai nana prakar ki dharmik sadhnaon, kalatmak pryatnon aur sewa, bhakti tatha yogmulak anubhutiyon ke bhitar se manushya us mahan saty ke wyapak aur paripurn roop ko kramash prapt karta ja raha hai jise hum sanskriti shabd dwara wyakt karte hain ye sanskriti shabd bahut adhik prachalit hai tathapi ye aspasht roop mein hi samjha jata hai iski sarwasammat koi paribhasha nahin ban saki hai pratyek wekti apni ruchi aur sanskaron ke anusar iska arth samajh leta hai phir isko ekdam aspasht bhi nahin kah sakte; kyonki pratyek manushya janta hai ki manushya ki shreshth sadhnayen hi sanskriti hai iski aspashtta ka karan yahi hai ki ab bhi manushya iske sampurn aur wyapak roop ko dekh nahin saka hai sansar ke sabhi mahan tatw isi prakar manaw chitt mein aspasht roop se abhasit hote hain unka abhasit hona hi unki satta ka praman hai manushya ki shreshthatar manytayen kewal anubhut hokar hi apni mahima suchit karti hain unko aspasht aur suwyawasthit paribhasha mein bandhna sab samay sambhaw nahin hota kewal neti neti kah kar hi manushya ne us anubhuti ko prakashit kiya hai apni charam satyanubhuti ko prakat karte samay kabirdas ne isi prakar ki wiwashta ka anubhaw karte hue kaha tha—aisa lo nahin taisa lo, main kehi widhi kahaun anutha lo! manushya ki samany sanskriti bhi bahut aisi hi anuthi wastu hai manushya ne use abhi tak sampurn paya nahin hai; par use pane ke liye wyagr bhaw se udyog kar raha hai ye mar kat, nonch khasot aur jhagDa tanta bhi usi prayatn ke ang hai aapko ye baat kuch wirodhabhas si lagegi, par hai saty rasta khojte samay bhatak jana thak jana ya jhunjhla paDna, is baat ke sabut nahin hain ki rasta khojne ki ichha hi nahin hai kawiwar rawindrnath ne apni kawijnochit bhasha mein is baat ko is prakar kaha hai ki ye jo luhar ki dukan ki khatakhat aur dhool dhakaD hai, inse ghabrane ki zarurat nahin hai yahan wina ke tar taiyar ho rahe hain jab ye tar ban jayenge to ek din inke madhur sangit dhwani se nishchay hi man aur paran tript ho jayenge ye yudh wigrah, ye kutanitik danw pench, ye daman aur shoshan ke sadhan ye sab ek din samapt ho jayenge manushya din din apne mahan lakshya ke naज़dik pahunchta jayega samany manaw sanskriti aisa hi durlabh lakshya hai mera wishwas hai ki pratyek desh aur jati ne apni aitihasik parampraon aur bhaugojik paristhitiyon ke anusar us mahan lakshya ke kisi na kisi pahlu ka awashy sakshatkar kiya hai jyon jyon waij~nanik sadhnon ke parinamaswarup bhinn bhinn desh aur bhinn bhinn jatiyan ek dusre ke naज़dik aati jayengi tyon tyon in ansh satyon ki sarthakta prakat hoti jayegi aur hum samany wyapak saty ko pate jayenge aaj ki mara mari ismen thoDi rukawat Dal sakti hai; par is prayatn ko niashesh bhaw se samapt nahin kar sakti apne is wishwas ka karan main aage batane ka prayatn karunga
jo adami aisa wishwas karta hai, usme sanskriti ke sath ‘bharatiy’ wisheshan joDne ka arth puchhna nitant sangat hai kya ‘bharatiy se matlab bharatwarsh ke samast achchhe bure prayatn aur sanskar hai? nahin; samast bharatiy sanskar achchhe hi hain ya manushya ki sarwottam sadhana ki or agrasar karne wale hi hai, aisa main nahin manata ais dekha gaya hai ki ek jati ne jis baat ko apna atyant mahattwapurn sanskar mana hai, wo dusri jati ki sarwottam sadhana ke sath mel nahin khata aisa bhi ho sakta hai ki ek jati ke sanskar dusre jati ke sanskar ke ekdam ulte paDte ho ho sakta hai ki ek jati mandiron aur murtiyon ke nirman mein hi apni kritarthta manti aur ye bhi ho sakta hai ki dusri jati unko toD Dalne ko hai apni charam sarthakta manti ho ye donon paraspar wiruddh hain aise sthlon par wichar karne ki awashyakta hogi saty paraspar wirodh nahin hota prasiddh sant rajjawdas ne kaha tha—
satr sanch mil so sanch hai na mile so jhooth sampurn saty awirodhi hota hai jahan bhi shrawirodhi dikhe, wahan sochne ki zarurat hogi ho sakta ki do bhinn bhinn jan samuday mohawash do saty baton ko hi baDa saty man baithe hon ho sakta hai ki donon mein se ek sahi ho aur dusra ghalat sath hi ye bhi ho sakta hai ki donon sahi raste par hon, par unke drishtikon ghalat ho yadi hamein apni ghalati malum ho to use nirmam bhaw se chhoD dena hoga mahabharat ne bahut pahle ghoshana ki thi ki jo dharm dusre dharm ko badhit karta hai, wo dharm nahin hai kudharm hai sachcha dharm awirodhi hota hai—
dharmo yo badhte dharm na s dharmः kudharm tet
awirodhi t yo dharmः s dharmo yutisattam॥
main jab bharatiy wisheshan joDkar sanskriti shabd ka prayog karta hoon to main bharatwarsh dwara adhigat aur sakshatkrit awirodhi dharm ki hi baat karta hoon apni wishesh bhaugolik paristhiti mein aur wishesh aitihasik paranpra ke bhitar se manushya ke sarwottam ko prakashit karne ke liye is desh ke logon ne bhi kuch prayatn kiye hain jitne ansh mein wo prayatn sansar ke any manushyon ke prayatn ka awirodhi hai utne ansh mein wo unka purak bhi hai bhinn bhinn deshon aur bhinn bhinn jatiyon ke anubhut aur sakshatkrit any awirodho dharmon ki bhanti wo manushya ki jayyatra mein sahayak hai wo manushya ke sarwottam ko jitne ansh mein prakashit aur agrasar kar saka hai utne hi ansh mein ye sarthak aur mahan hai wahi bharatiy sanskriti hai usko prakat karna, usko wyakhya karna ya uske prati jigyasa bhaw uchit hai ye prayas apni baDai ka praman patr sangrah karne ke liye nahin hai, balki manushya ki jayyatra mein sahayata pahunchane ke uddeshy se prrochit hai isi mahan uddeshy ke liye uska adhyayan, manan aur prakashan hona chahiye
manushya ki jayyatra! kya manushya ne kisi agyat shatru ko parast karne ke liye apna durddhar rath jota hai? manushya ki jayyatra! kya jaan bujhkar lokchitt ko wyamohit karne ke liye ye pahli jaisa waky bataya gaya hai? manushya ki jayyatra ka kya arth ho sakta hai? parantu main pathkon ko kisi prakar ke shabd jal mein uljhane ka sankalp lekar nahin aaya hoon mujhe ye waky sachmuch baDa bal deta hai na jane kis anadi kal ke ek agyat muhurt mein ye prithwi namak grahpinD surya manDal se tutkar usi ke charon or chakkar katne laga tha mujhe us samay ka chitr kalpana ke netron se dekhne mein baDa anand aata hai us sadhastrutit dharitri pinD mein jwalant gas bhare hue the koi nahin janta ki in asankhy agnigarbh kanon mein se kismen ya kinmen jiwatw ka ankur wartaman tha shayad wo sarwatr pariwyapt tha iske baad lakhon warsh tak dharti thanDi hoti rahi, lakhon warsh tak us par taral tapt dhatuon ko lahachheh warsha hoti rahi, lakhon warsh tak uske bhitar aur bahar pralaykanD macha raha, prithwi anyany grhon ke sath surya ke charon or usi prakar nachti rahi jis prakar khilaDi ke ishare par circus ke ghoDe nachte rahte hain jiwtattw sthir awikshubdh bhaw se uchit awsar ki pratiksha mein baitha raha awsar aane par usne samast jaDakti ke wiruddh widroh karke sir uthaya—naganya trinankur ke roop mein! tab se aaj tak sampurn jaDshakti apne akarshan ka samucha weg lagakar bhi use niche ki or nahin kheench saki sirishti ke itihas mein ye ekdam aghtit ghatna thi ab tak mahakarsh (grewiteshan pawar) ke wirat weg ka rokne mein koi samarth nahin ho saka tha jiwtatw pratham bar apni urdhwgamini writti ki adna taqat ke bal par is mahakarsh ko aswikar kar saka tab se ye nirantar agrasar hota gaya manushya usi ka antim parinati hai wo ek kosh se anek koshon ke jatil sanghtan mein, karmendriyon se gyanendriyon ki or, j~nanendriy se man aur buddhi ki taraf sankuchit hota hua manwatma ke roop mein prakat hua panditon ne dekha hai ki manushya tak aate aate, prakrti ne apne karkhane mein asankhy prayog kiye hain purane jantuon ki wishal thathariyan aaj bhi yatra tatr bhi mil jati hai aur un asankhy pryogon ki gawahi de jati hain prakrti apne pryogon mein kripan kabhi bhi nahin rahi hai usne barbadi ki kabhi parwah nahin ki das wrikshon ke liye wo das lakh beej banane mein kabhi kotahi nahin karti ye sab kya byarth ki andhta hai, suspasht yojna ka abhaw hai ya hisab na janne ka dushparinam? kaun batayega ki kis mahan uddeshy ki prapti ke liye prakrti ne itni barbadi sahi hai? hum kewal yahi jante hain ki jab jiwatw samast wighn badhaon ko atikram karke manushya roop mein abhiwyakt hue tab itihas hi badal gaya jo kuch jaisa hona hai, wo hokar hi rahega—yahi prakrti ka achal widhan hai kary karan banta hai aur nae kary ko janm deta hai kary karnon ki is nirandhr thos paranpra mein ichha ka koi sthan nahin tha jo jaisa hone ko hai, wo hokar hi rahega isi samay manushya aaya usne is sadharan niyam ko aswikar kiya usne apni ichha ke liye na jane kahan se ek phank nikala jo jaisa hai waisa hi man lene ki wiwashta ko usne nahin mana jaisa hona chahiye, wahi baDi baat hai is jagah se sirishti ka dusra adhyay shuru hua ek bar kalpana kijiye taral tapt dhatuon ke prchanD samudr ki, nirantar jharne wale agnigarbh meghon ki, wipul jaड़ sanghat ki, aur phir kalpana kijiye kshudrkay manushya kee! wirat bahmanD nikay, koti koti nakshatron ka anmay awartnatya, anant shunya mein nirantar udayman aur winashman niharika punj wismaykari hai; par unse adhik wismaykari hai manushya, jo nagny sthan kal mein rahkar inki nap jokh karne nikal paDa hai! kya manushya is sirishti ki antim parinati hai? kya widhata ne keshawdas ke wirbal ki bhanti is kriti jeew ki rachna karke hath jhaD liya hai—main kartar bali balwir diyo kartar duhun kar tari! kaun kah sakta hai? parantu ye kya manushya ki amogh jayyatra nahin hai? kya ye is baat ka praman nahin hai ki samast ghalatiyon ke bawjud manushya bhi manushyata ki uchtar abhiwyaktiyon ko or hi baDh raha hain?
ye jo sthool se sookshm ki or agrasar hota hai, jo kuch jaisa hone wala hai, usko waisa hi na mankar jaisa hona chahiye, uski or jane ka prayatn hai, yahi manushya ki manushyata hai anek baton mein manushya aur pashu mein koi bhed nahin hai manushya pashu ki awastha se hi agrasar hokar is awastha mein aaya hai isliye sthool ko chhoDkar rah nahin sakta yahi karan hai ki manushya ko do prakar ke kartawya nibahane paDte hain ha ek sthool ko kshaudha niwrit karna aur dusra sookshm se sukshmtar tatw ki or baDhne wali apni urdhwgamini writti ko santusht karna ahar nidra aadi ke sadhan bhi manushya ko jutane paDe hain yadyapi manushya buddhi ne inmen bhi kamal ka utkarsh dikhaya hai, par prayojan prayojan hi hain prayojan ke jo atit hai, jahan manushya ki anandini writi hi charitarth hoti hai, wahan manushya ki urdhwgamini writti ko santosh hota hai jyon jyon manushya sanghbadd hokar rahne ka abhyast hota gaya hai tyon tyon use samajik sanghtan ke liye nana prakar ke niyam qanun banane paDe is sanghtan ko doshhin aur gatishil banane ke liye usne danD puraskar ki wyawastha bhi ki, in baton ko ek shabd mein sabhyata kahte hain arthik wyawastha, rajnitik sanghtan, naitik paranpra aur saundaryabodh ko tiwrtar karne ki yojna; ye sabhyata ke chaar stambh hai in sabke sammilit prabhaw se sanskriti banti hai sabhyata manushya ke bahy pryojnon ko sahajlabhya karne ka widhan hai aur sanskriti pryojnatit antar anand ki abhiwyakti parantu shayad phir main paheliyon ki boli bolne laga hoon aap janna chahenge ki ye bahy prayojan aur antar abhiwyakti kya bala hai? kisko tum bahy kahte ho aur kisko antar, tumhare kathan mein praman kya hai?
ye jo hamare bahyakran hai—karmendriye aur gyanendriye hai—ye hamare atyant sthool pryojnon ke niwartak hain man inse sookshm hai, buddhi aur bhi sookshm hai man se hum hazar gaj ki lanbai ki bhi ekayek dharana nahin kar sakte; par buddhi dwara, jyotishi koti koti parkash warshon mein phaile hue grah nakshatron ki nap jokh kiya karte hain parantu buddhi bhi baDi cheez nahin hai buddhi se bhi baDhkar koi wastu hai wahi antartam hai gita mein kaha hai—
indriyani paranyahurindriyebhyaः paran man
mansastu parabuddhen yorbuddhe par tastu sः॥
jo wastu kewal indriyon ko santusht kar sake, wo bahut mahatwapurn nahin hai jo wastu man ko santusht kar sake, arthat hamare bhawawegon ko santosh de sake, wo pahli se sookshm hone par bhi bahut baDi nahin hai jo baat buddhi ko santosh de sake, wo zarur baDi hai, par wo bhi bahy hai buddhi se bhi pare kuch hai wahi wastaw hai, uska santosh hi kaamy hai parantu wo kya hai? main bharatiy manisha ke is manttawya tak aapko le aakar ye aasha nahin kar raha hoon ki aap shastr waky par wishwas kar len main iske nikat aapko le aakar chhoD deta hoon; kyonki main janta hoon ki yahan tak aakar aap iski gahrai mein paithne ka prayatn awashy karenge jab tak iski gahrai mein paithne ka prayatn nahin kiya jata tab tak manushya ke baDe baDe pryatnon ka rahasy samajh mein nahin nahin ayega
taittriy upnishad mein bhriguwalli warun ke putr bhrigu ki manoranjak katha di hui hai bhrigu ne jakar warun se kaha tha ki he bhagwan, main brahm ko janna chahta hoon pita ne tap karne ki aagya di kathin tapasya ke baad putr ne samjha—ann hi brahma hai pita ne phir tap karne ko kaha is bar putr kuch aur gahrai mein gaya usne paran ko hi brahma samjha pita ko santosh nahin hua unhonne putr ko pun tap karne ke liye utsahit kiya putr ne phir tap kiya aur samjha ki man hi brahma hai! pita phir bhi asantusht hi rahe phir tap karne ke baad putr ne anubhaw kiya—wigyan hi brahm hai par pita ko ab bhi santosh nahin hua punarwar kathin tap ke baad putr ne samjha—anand hi brahma hai yahi charam saty tha is prakar ann (bhautik padarth)—paran—man—wigyan (buddhi)—anand(adhyatm tatw)—ye hi gyan ke panch star hain ye uttarottar sookshm hain inhin panchon ko ashray karke sansar ke bhinn bhinn darshanik mat bane hain sadharanata inko ashray karke do do prakar ke mat ban jate hain tarkashrit mat aur wishwas samarthit mat sandeh ko udrikt karne wala tarkashrit mat philosophy ka pratipady mat ban gaya hai aur wishwas ko ashray karke shardha ko udrikt karne wala mat dharm wigyan ka bharatwarsh ka itihas any deshon se kuch wichitr raha hai sabhyata ke ushahkal se lekar adhunik kal ke arambh tak hamare is desh mein nana manaw samuhon ki dhara barabar is desh mein aati rahi hai ismen sabhy, ardhsabhya aur barbar sabhi shrenai ke manushya rahe hain bharatiy manisho shuru se hi manushya ke bahuwidh wishwason aur maton ko janne ka awsar pa sake hain isliye yahan dharm wigyan aur tatw jij~nasa kabhi paraspar wirodhi mat nahin mane gaye bharatiy rishi ne donon ka uchit samanjasy kiya hai shayad is wishay mein bharatwarsh sare sansar ko kuch de sakta hai bharatwarsh ke darshanik sahity ke alochkon ko ashchary hua hai ki is desh mein us cheez ka kabhi wikas hi nahin ho paya, jise philosophy kahte hain bharatwarsh ke darshan dharm par adharit banaye gaye hain darshan shabd ka arth hi dekhana hai iska antarnihit arth ye hai ki darshan kuch siddh mahatmaon ke dekhe hue (sakshatkrit) satyon ka pratipadan karte hain jaisa ki hamne abhi lakshya kiya hai, ye dekhana’ tab wastawik hoga jab wo kewal indriy dwara, paran dwara, man dwara yahan tak ki buddhi dwara bhi drisht sthool tathyon ko pichhe chhoDkar us wastu ke dwara dekha gaya ho jo anandaswrup hai, jo sabke pare aur sabse sookshm hai yahi swsanwedya gyan hai parantu ye nahin samajhna chahiye ki pratyek wekti jo kuch bhi anubhaw karta hai, wo saty hi hai sharir aur man ki shuddhi awashyak hai jab tak manushya ka bahar aur bhitar shuddh, nirmal aur pawitra nahin hote tab tak wo ghalat wastu ko saty samajh sakta hai chanchal man se koi mamuli samasya bhi theek theek samahit nahin hoti ye jo bahy aur antakarnon ka shuddhi hai, yahi bharatiy darshnon ki wisheshata hai jaise taise rahkar, jaisa taisa sochkar baDe saty ko anubhaw nahin kiya ja sakta chanchal chitt kewal wikrt chinta mein hi laga rahta hai bharatiy manishiyon ne is chanchal chitt ko wash karne ke upay banaye hain isi upay ka nam yog hai bhagwan shrikrishn ne gita mein kaha hai ki yadyapi man baDa chanchal hai aur use wash mein karna kathin hai tathapi abhyas aur wairagy se use wash mein kiya ja sakta hai abhyas aur wairagy ke liye bharatiy sahity mein shatadhik granth wartaman hain sambhwat sare sansar ke buddhijiwi is wishay mein yahan se kuch seekh sakte hain kewal bauddhik wishleshan dwara saty tak nahin pahunja sakta sarwatr abhyas aur wairagy awashyak hain
hamne abhi jin panch tatwon ko lakshya kiya, unmen sabse sthool hai ye sharir, phir paran aur phir man sharir ka pratik bindu hai bharatiy manishiyon ne anubhaw kiya hai ki inmen se kisi ek ko sanyat karne ka abhyas kiya jaye to baqi sanyat ho jate hain bharatwarsh ke nana adhyatmik panth in tinon ko sanyat karne ke upar zor dene ke karan alag alag ho gaye hain sanyman ki widhi bhi sarwatr ek nahin hai nana bauddh aur shakt sadhnaon mein bindu ko wash mein karne ki widhiyan batai gai hain, hathyog paran ko wash karne ke paksh mein hai, raj yog man ko wash karne ki widhi batata hai ye sab abhyas dwara siddh hote hain upar upar se dekhne wale alochak bharatiy sadhan margon mein itna adhik bhed dekhte hain ki unhen samajh mein hi nahin aata ki ye wibhinn panth kis prakar apne ko ek hi mool udgam se udbhut batate hain gahrai mein jane wale ke liye ye wirodh nagny hain nana bhanti ke abhyas ke dwara sadhak bindu, paran aur man ko sthir karta hai tab jakar antahakran nirmal sphatik manai ke saman hota hai parantu ye bhranti ka awkash rahta hai isiliye bharatiy manishiyon ne kewal abhyas ko hi ekmatr sadhan nahin mana abhyas ke sath wairagy hona chahiye rag dwesh wash jo indriychanchalya hota hai, usko rokna, rag aur wirag ke wishyon ko alag alag samajh sakna, man dwara wishyon ki chinta aur ant mein manasik utsukta ko daba dena—ye sab wairagy ke bhed hain; parantu asli wairagy tab hota hai jab antratma samast indriyarthon se aur man buddhi aadi sab tatwon se apne ko prithak samajh leta hai is prakar abhyas aur wairagy se chitt sthir hota hai aur buddhi nirmal hoti hai—
kewal usi samay param saty ka sakshatkar hota hai
mera anuman hai ki wichar ka ye prakrsht panth hai; parantu ye mera dawa nahin hai ki main is baat ko theek theek samajh sakta hoon wastut ye sadhana ka wishay hai; parantu ye samajhna kathin nahin hai ki kisi baat ko sachai tak pahunchane ke liye ek prakar ke bauddhik wairagy ki awashyakta hai sansar ki samast jatil samasyayen nity prati aur bhi jatiltar isliye hoti jati hai ki in par wichar karne walon mein manasik sanyam aur bauddhik wairagy ka abhaw hai log apne apne wishesh swarthon aur wichar paddhatiyon ke bhitar se dusron ko dekhne ka prayas karte hain aur samasyayen aur bhi jatiltar hoti jati hai bauddhik wairagy hi manushya ko sunskrit banata hai
bharatwarsh ka sahity baDa wishal aur wipul hai usne gyan aur sadhana ke kshaetr mein nana bhaw se wichar kiya hai main sabki charcha karne yogya adhikari bhi nahin hoon aur yahan itna samay bhi nahin hai; parantu itna smarn kar lena uchit hai ki ye jo adhyatmik paramsatya ki uplabdhi hai aur jiske liye sharirik, manasik aur bauddhik sanyam aur wairagy ki baat batai gai hai—sirf yahi ekmatr kaamy nahin bataya gaya yadyapi ye parmottam lakshya hai, par is lakshya ki purti ke pahle pratyek wekti ko kuch rn chuka lene paDte hain bahut thoDe logon ko in rinon se chhutkara diya gaya hai adhikansh log in rinon ko chukaye bina kisi bhi baDi sadhana ke adhikari nahin ho sakte bharatiy wishwas ke anusar manushya teen prakar ke rinon ko le kar paida hota hai ye teen rn hain—–dewrin, rshairn aur pitrrn paida hote hi manushya apne sampurn sharir aur indriyon ko pa jata hai ye indriyan use na miltin to na to wo sansar ka kuch anand hi upbhog kar sakta, na kuch naya de hi sakta nishchay hi wo mata pita ke nikat iske liye rnai hai parantu wastut wo anadikalin dhara ka parinam pitr pitamhon ne use jo sharir diya hai, uska kya koi pratidan de sakta hai? bharatiy manishai ne iska ekmatr upay ye bataya hai ki manushya ise rn ke roop mein swikar kar le aur pitr pitamhon ki is dhara ko aage baDha de dhara rudh na hone pawe kaun janta hai, bhawishya mein usi dhara mein kaun kriti balak paida hokar sansar ko nai roshni de isiliye shastrkaron ne pitrrn se mukti pane ka upay santan utpann karna aur unhen shikshait banakar samaj ke hathon saunp jane ko bataya hai phir manushya paida hote hi anek widwanon aur wigyaniyon ki awishkrit j~nanarashi ko sahj hi pa jata hai har wekti ko nae sire se agar apna apna prayog aur awishkar chalana paDta to manushya ki ye duniya kaisi ban gai hoti, ye kewal sochne ki hi baat hai so manushya is prakar atit ke rishiyon ka rn liye hue paida hota hai ise chukane ka upay gyan ki dhara ko rakhsha aur use agrasar kar dena hai widdya paDhna aur gyandhara ko agrasar karna koi krititw nahin hai sirf qarza chukane ka kartawyapalan matr hai phir ann ko paida karne wali prithwi, jal barsane wale megh, parkash dene wala surya aadi prakritik shaktiyan—jinhen bharatiy manishai dewta kahta hai—hamen anayas mil gai hain
bharatiy manishai ne inke rn se mukti pane ka upay bantakar bhog karna bataya hai jo tumhare pas hai, use sabko bantakar grahn karo so ye teen rn manushya ke upar janm se hi lade aate hain in teen rinon ko chukaye bina moksh pane ka prayatn pap hai bharatwarsh mein pratyek wekti se ye kam se kam aasha ki gai hai ki wo samaj ko swasth aur shikshait santan de, prachin gyan parampara ki rakhsha kare aur use aage baDhane ka prayatn kare aur prakritik shaktiyon se prapt sanpad ko niji samajhkar daba na rakhe ye rn hain manusmriti ke chhathwen adhyay mein kaha gaya hai ki jo inko chukaye bina hi moksh ki kamna karta hai, wo adhःpatit hota hai—
rinani trinypakritya mano mokshe niweshyet
anpakritya mokshantu sewmano wrjatyadhः॥
jab tak ye rn chuka nahin diye jate tab tak manushya ko baDi baat sochne ka adhikar nahin hai
bharatwarsh ne asia aur europe ke deshon ko dharm sadhana ki uttam wastuen dan di hain usne ahinsa aur maitri ka sandesh diya hai kshaudr duniyawi swarthon ki upeksha karke wishal adhyatmik anubhutiyon ka updesh diya hai aur unse jin baton ko grahn kiya hai we bhi usi prakar mahan aur dirghasthai rahi hain uchtar kshaetr ke adan pradan ke thos chihn ab bhi is bhumi ke niche se nikalte hain aur wideshon mein mil jaya karte hain hamara dharm wigyan, hamara murti aur mandirar shilp, hamara darshan shastr, hamare kawy aur natk hamari chikitsa aur jyotish sansar mein gaye hain, sammanit aur swikrit hue hain aur sansar ki uchch chintashil jatiyon se thoDa bahut prabhawit bhi hue hain main aaj aapko us diwy lok ki sair nahin kara saka jahan bharatiy acharya parwton aur registanon ko langh kar ahinsa aur maitri ka sandesh dete hain, jahan hamare shilpi gandhar aur yawan kalakaron ke sath milkar patthar mein jaan Dal rahe hain, jahan arab aur iran ke manishiyon ke sath milkar we chikitsa aur jyotish ka parchar kar rahe hain, jahan malay aur yawadwip mein wahan ke niwasiyon se milkar shilp aur kala mein naya paran sanchar kar rahe hain, main us param mohak lok mein aapko na le jakar shastriy niras wicharon mein uljhaye raha; parantu iske liye mujhe kshama mangne ki zarurat nahin hai, kyonki mera wishwas hai ki bharatiy manishiyon ne apne deshwasiy mein jiwan ke awashyak kartawyon, sanyam aur wairagy ki mahima aur sthool ki apeksha sookshm ki or jhukne ka jo prem paida kiya uska hi parinam hai ki bharatwarsh deergh kal tak pashusulabh kshaudr swarthon ka ghulam nahin ban saka aaj hum sanskritik drishti se jo bahut niche gir gaye hain uska pardhan karan yahi hai ki hum is mahan adarsh ko bhool gaye hain mera wishwas hai ki in adarshon ko nai paristhitiyon ke anukul banakar grahn karne se hum to upar uthenge hi, sare sansar ko bhi usmen kuch na kuch aisa awashy milega, jisse use wartaman pralyankar awastha se ubarne ka mauqa mile
bharatawarshan ne samany manawiy sanskriti ko poorn aur wyapak banane ki jo mahati sadhana ki hai, uske pratyek pahlu ka adhyayan aur prakashan hamara atyant mahatwapurn kartawya hona chahiye
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।