द्वैज-सुधा दीधिति-कला
dwaij sudha didhiti kala
द्वैज-सुधा दीधिति-कला, वह लखि, दीठि लगाइ।
मनौ अकास-अगस्तिया, एकै कली लखाइ॥
नायक नायिका ने शुक्ल पक्ष की द्वितीया को अगस्त्य वृक्ष के नीचे मिलने की योजना बना रखी थी। नायक पहुँच गया लेकिन वहाँ नायिका नहीं आयी। दूती नायक का संदेश लेकर नायिका के पास जाती है लेकिन वहाँ नायिका अपने परिवार वालों के बीच में बैठी हुई है। अत: दूती नायिका को श्लेषात्मक शब्दावली में चंद्रमा दिखलाती है और कहती है कि हे सखी, तू अपनी नज़र से दूज के चंद्रमा को तो देख जो अपनी कलाओं से प्रकाशित है और उसकी कलाएँ ऐसी प्रतीत हो रही हैं मानों आकाश रूपी अगस्त्य वृक्ष में केवल एक ही कली दिखाई पड़ रही है। दूती दूज के चंद्रमा से तो अवधि का स्मरण दिलाती है और अगस्त्य वृक्ष का नाम लेकर संकेत-स्थल की ओर इशारा करती है और एक कली कहकर नायक के अकेले होने का संकेत करती है। अगस्त्य की कली शरदागम के साथ खिला करती है, इससे यह भी स्पष्ट होता है कि वह दिन शरदकाल की शुक्ल पक्ष की द्वितीया का है।
- पुस्तक : बिहारी सतसई (पृष्ठ 224)
- संपादक : हरिचरण शर्मा
- रचनाकार : बिहारी
- प्रकाशन : श्याम प्रकाशन, जयपुर
- संस्करण : 2007
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