औरै भाँति भएऽब
aurai bhanti bhaeऽba
औरै भाँति भएऽब, ए चौसरु, चंदनु, चंदु।
पति-बिनु अति पारतु बिपति, मारतु मारुतु मंदु॥
प्रस्तुत दोहे में एक विरह-निपीड़ता नायिका के संताप की शांति के लिए उसकी सखी पुष्पों की माला आदि शीतल पदार्थ जुटाती है। विरह का ताप इतना अधिक है कि नायिका को इस प्रकार के पदार्थ भी अच्छे नहीं लगते हैं। वह इन पदार्थों को देखकर और अपनी मन:स्थिति के अनुसार अपनी सखी से कहती है कि हे सखी, ध्यान से सुन कि अब तो पुष्पों की यह माला, चंदन और चंद्रमा आदि सभी शीतल पदार्थ मेरे लिए कुछ और प्रकार के हो गए हैं। भाव यह है कि ये सभी वस्तुएँ शीतल हैं, किंतु मेरी वर्तमान स्थिति में ये सभी मुझे दुःखद प्रतीत हो रही हैं। इतना ही नहीं, प्रिय के बिना शीतल मन्द पवन भी मुझे दाहक प्रतीत हो रहा है। संकेत यह है कि संयोग के सुखद क्षणों में जो वस्तुएँ शीतल और आनंददायक प्रतीत होती हैं, वे सभी अब प्रिय के अभाव में कष्टदायक प्रतीत हो रही हैं।
विरह-दग्ध नायिका अपनी सहेली से कहती है कि कि अब तो पुष्पों की यह माला, चंदन और चंद्रमा आदि सभी शीतल पदार्थ मेरे लिए कुछ और प्रकार के हो गए हैं। भाव यह है कि ये सभी वस्तुएँ शीतल हैं, किंतु मेरी वर्तमान स्थिति में ये सभी मुझे दुःखद प्रतीत हो रही हैं। इतना ही नहीं, प्रिय के बिना शीतल मंद पवन भी मुझे दाहक प्रतीत हो रहा है। संकेत यह है कि संयोग के सुखद क्षणों में जो वस्तुएँ शीतल और आनंददायक प्रतीत होती हैं, वे सभी अब प्रिय के अभाव में कष्टदायक प्रतीत हो रही हैं।
- पुस्तक : बिहारी सतसई (पृष्ठ 221)
- संपादक : हरिचरण शर्मा
- रचनाकार : बिहारी
- प्रकाशन : श्याम प्रकाशन, जयपुर
- संस्करण : 2007
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