यह डायरी तिब्बत के एक बौद्धमठ से अपनी पिछली तिब्बत यात्रा में मुझे प्राप्त हुई थी। मैंने इस का मात्र संपादन किया है। इस की प्रति अत्यंत जीर्ण-शीर्ण हो गई है। इसे पढ़ने का काम मेरे एक बौद्ध भाषाविज्ञ मित्र ने किया है।—लेखक
पाटलिपुत्र : राजभवन
वैशाख पूर्णिमा : मध्यरात्रि
आज अब लोटना हुआ है—धर्मराजि-कोत्सव से। नयनतारा, दासी ही नहीं है, बल्कि अच्छी मित्र है। कितना शीतल, सुगंधित जल था, स्नान मे कितना सुख मिला! आज दिन भर लूँ चलती रही। मेघ घिरने की ऋतु आ चली है। आज की यह क्षीण गंगा तब इसी गवाक्ष के नीचे से प्रवाहेगी। अब जाकर वातास थोड़ी शीतल है। हवा मे पके आमों की कैसी मादक गंध घुली हुई है! धर्मराजिकोत्सव आज जाकर कही शेष हुआ। एक सप्ताह तक पाटलिपुत्र चषक की भाँति उफनाता रहा। आर्यपुत्र अत्यंत संतुष्ट है।
बहुत थक गई हूँ, संभवत: इसीलिए नींद नहीं आ रही है। एक सप्ताह के इस आयोजन ने तो एकदम ही थका डाला है। सूर्योदय से सूर्यास्त तक छत्र-चामर के नीचे मर्यादित बैठे रहने से बड़ा कोई दुःख नहीं। लेकिन यह दुःख ही कितना मादक तथा आकर्षक है! चारों ओर का जयकार आप को विस्तार देता है और राज्यासन, देदीप्यमान एकनिष्ठता। देश-विदेश के विनम्र होते हुए राजमुकुट, बलाधिकृतों के विद्युत्फल की समर्पित खड्ग, रत्नों और वस्त्रों के असंख्य चाल और विभिन्न दास-दासियाँ—लगता है पृथिवी, दासी बन कर समर्पित है। लोगों को विनय ही शोभा देता है और आपको उस विनय को स्वीकार करना।
आज का धर्मराजिकोत्सव का आयोजन अद्वितीय था।
क्योकि एक महान् मौर्य सम्राट् ने बौद्ध प्रव्रज्या ली। आज समस्त मौर्य साम्राज्य में चौरासी हजार धर्मराजिको (स्तूपो) की स्थापना की गई। सिंहध्वज रोपे गए जिन पर देवानामप्रिय के अनुसयान खुदे हुए है। आज उपरांत मौर्य सम्राट् महाराज अशोक, प्रियदर्शी अशोक कहें जाएँगे। संभवत मे भी उन्हें अब आर्यपुत्र नहीं कह पाऊँगी, इसलिए तिष्यरक्षिता आज से पतिहीन पत्नी, सम्राट्हीन पट्टमहियो ही मानी जाएँगी क्योकि भिक्षु तो संबंधहीन होते है। क्या मैं भिक्षुणी हो सकूँगी? वृद्धापकाल कापाय में सुंदर लगता है लेकिन यौवन तो नहीं न? आर्यपुत्र कापाय घार चुके लेकिन क्या तिष्यरक्षिता ऐसा कर सकती है? क्या उसके वाचन तन पर स्वयं कापाय सुलग न उठेगा? और क्यो? किस प्रयोजन के लिए?
चारों ओर कितनी शांति हैं। गवाक्ष के बाहर विशाखा चाँदनी कैसे होले-हौले बरस रही है। आकाश चाँदनी में स्फटिक लग रहा है। पट्टमहिषी होने पर भी सहज पत्नी के सुख से वचित। संभवत कोई भी सब कुछ प्राप्त नहीं कर सकता है। हमें चुनना होता है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम या चुनते हैं।
इस उत्सव के लिए यूनान और मिस्त्र ने विशेष रूप से अपने राजवशी शिष्टमंडल भेजे।
अन्य पड़ोसी राष्ट्रो ने भी अपने आमात्य, राजदूत आदि भेजकर मैत्री प्रदर्शित की। कलिंग का राजकुमार नीलरत्न भी उपस्थित था। उसे देयकर मोह होता है। लगता है कलिंग बहुत सुंदर प्रदेश है। सुना है उस का सिंधु तट बड़ा हो रमणीक है। कभी जाना चाहती हूँ। नोलरत्न कितना सरल है। उसे किंचित् भी राजसी गरिमा नहीं आती। अपने हाथ के मयूरपख से कितना वरजती रही कि सम्राज्ञियो को घूरा नहीं जाता—किसी सीमा तक मूर्ख भी हैं। हँसता है तो लगता हैं कि जैसे एकांत सिंधु-जल हँस रहा हो।
पाटलिपुत्र के वैभव को आज पराकाष्ठा थी। नगर और आकाश अभी भी आलोकित है। कितने तोरण, द्वार, वंदनवारे, मनोरजन आदि आयोजित थे। मार्ग के दोनों ओर दर्शनार्थी प्रजा की पक्तियाँ। गगनभेदी जयकार। रथ पर लौटते हुए आज सहसा ध्यान आया कि यह जयकार किसकी की जा रही है क्या उस सम्राट् की जो कि भिक्षु हो गया या सम्राजी की, जो कि अभी भी पट्टमहिपी है? सम्राट् के पास त्यागने को कितनी वस्तुएँ थी—साम्राज्य, पत्नी, परिवार, युद्ध, दास-दासियाँ, हिंसा। इस त्याग की जयकार न होगी तो किस की होगी? मैं क्या त्यागती? एक वृद्ध पति था, सो उसने ही त्याग दिया। और त्याग, वृद्धापकाल को हो शोभता भी है।
आज आठ बरस हुए विवाह को। क्या इसी छोड़ देने को वृद्धापकाल में विवाह लाए थे? एक दिन भी तो हम पति-पत्नी की भाँति नहीं रहे। लेकिन आज उन सब बातों पर सोच करना व्यर्थ है। निद्रा नहीं आ रही है। कानों में उत्सव की ध्वनियाँ जैसे भर गई है। दृश्य और लोग आँखों में तिर रहे हैं। झँझरी के पार नयनतारा कितनी निश्चिंत सो रही है! कोई कामना नहीं, कोई महत्वाकांक्षा नहीं—सब से हीन, इसीलिए नयनतारा के लिए रात्रि, नींद है और दिन-दिन है। अभी मुझे स्वरमंडल पर विहाग सुनाकर गई। समझी मैं सो गई और आप भी जाकर सो गई। सब सो गए है। दीर्घाएँ तथा भित्तियाँ तक सो रही है। केवल गवाक्ष वाला दीपाधार ही आलोकित है। बाहर निर्मल एकांत प्रशस्त है। नीचे कहीं दूर पहरूओ का सावधान चौका जाता है। गंगा की क्षीण धारा में कोई बालू भरी नौका काशी की ओर जा रही है। मछुआ कितना तन्मय मानकर रहा है। संभवतः उसकी युवती पत्नी मस्तूल के खंभ से सटी अपने पति के संगीत में डूबी होगी और पति की साँचे ढली देह के लिए आकुल भी।—ओ कुणाल! मेरे प्रेम को तुमने 'अभिगमन' कहकर तिरस्कृत किया। क्यों किया? मैं तुम्हारे पिता की पत्नी अवश्य हूँ लेकिन तुम्हारी माता तो नहीं। तुम मुझे अपनी ही दृष्टि में गिरा देना चाहते थे? लेकिन क्यों? कही तुम्हे अपनी सुंदर आँखों पर गर्व तो नहीं है?
तुम धर्मराजिकोत्सव मे आए हुए हो, लेकिन भूलकर भी मेरे भवन नहीं आए परसों महाराज के सम्मान—में मैंने भोज दिया उसमें भी तुम सम्मिलित नहीं हुए। अपनी पत्नी कांचनमाला को भी नहीं आने दिया क्यों? एक बार ही आते तुम तो देखते कि, ओ मेरे पति के पुत्र मेरे प्रेमी! तुम्हारे पिता की पत्नी तुम्हारी प्रेमिका तिष्यरक्षिता अनुक्षण तुम्हे स्मरण करती है। जानते हो कुणाल! मेरी इन बाहुओं में बँधने के लिए यूनान के सम्राट् तक लालायित हो सकते है? एक संकेत में साम्राज्यों का उत्थान-पतन कर सकती हूँ? तुम्हें किस बात का गर्व है? युवराज होने का? कुणाल पक्षी की भाँति नयन पा जाने का दर्प है? मैंने तुमसे याचना की और तुम मेरा तिरस्कार कर सके—इस बात का घमंड है? तो कुणाल। तुम भो याद रखना कि तुम मे तिष्यरक्षिता का तिरस्कार किया था। जाओ, तक्षशिला जाओ, प्रशासक बनकर रहो, देखती हूँ कितने दिनों तक! मैं या तो कामना करती नहीं हूँ और कामना करने के बाद पराजित होना नहीं जानती मैं अशोक नहीं कि क्षमा, करुणा, अहिंसा में दीक्षित हो जाऊँ। यदि तुम मुझे प्राप्य न हो सके तो किसी अन्य के भी न हो पाओगे।
कुणाल! मैं फिर कहती हूँ कि आ जाओ बस एक बार अपने उन कुणाल-नयनों से मुझे एक प्रेमी की भाँति निहार लो। मैं इतनी सुंदर आँखों वाला पुत्र नहीं, प्रेमी चाहती हूँ।
मैं नहीं जानती कि मेरी इस वाँछा का क्या होगा।
कल यूनान के शिष्टमंडल ने भोज दिया हैं। महाराज की इच्छानुसार ही भोज में केवल दो मोर और एक हरिण ही होंगे। महाराज इसीलिए पूण अहिंसा के पक्षपाती नहीं है, ये तो केवल विहिंसा चाहते हैं। इस वार पशुओं का समाज-प्रदर्शन भी फीका ही रहा। धर्म की भी सीमा होगी, क्या महाराज इसको नहीं समझते?
क्या स्वर्गीय सम्राट् चंद्रगुप्त और बिंदु-सार के साम्राज्य का यही होना था?
आश्चर्य नहीं कि महाराज किसी दिन साम्राज्य ही विहारों की सेवा के लिए दे दें। लेकिन आज तो नहीं दे रहे है न? सप्तर्षि डूबने ही वाले है। पलकें कड़वाहट से भर उठी है। अग-अग में कितनी थकान भर गई है। नयनतारा को जगाकर थोडा सिर दबवा लिया जाए तो नींद अच्छी आएगी।
ज्येष्ठ प्रतिपदा रात्रि दिन भर वही व्यस्तता रही। आज एक यूनानी नृत्य भी देखने को मिला। मौर्य साम्राज्य के उत्कर्ष से यूनान कोई प्रसन्न नहीं है। यूनानी, तक्षशिला पर दृष्टि लगाए हुए है। तक्षशिला में आमात्य लोगों ने विशेष अच्छा व्यवहार नहीं किया था। सभी असंतुष्ट थे इसीलिए युवराज को वहाँ भेजा गया ताकि सीमा पर राजवंश का संपूर्ण अधिकार बना रहे। कुछ भी हो, यूनानी प्रसन्न जाति है जीवन को उत्सव मानती है।
महाराजा से इस बार फिर प्रार्थना करना चाहते है कि कुछ ज्योतिषी, कारीगर, भवन निर्माता के यहाँ से अपने देश ले जाना चाहते हैं। मुझसे इस बारे में प्रातिसाख्य चाहते हैं।
वृष्टि की प्रतीक्षा है। गरमियो में पाटलिपुत्र कैसा झुलस जाता है।
एकाध दिन में कुणाल तक्षशिला बला जाएगा। आज वह यूनानी भोज में मात्र प्रदर्शन के लिए ही उपस्थित हुआ था। जिस समय मैं यूनानी राजकुमार से आलाप कर रही थी वह मान सौजन्यता निर्वाह के लिए ही आया। मैं उस पर क्रोध करना चाहती हूँ लेकिन पता नहीं क्यों मैं उसे देखकर विह्वल हो जाती है। उस के नेत्रों में जादू है।
आषाढ़ प्रतिपदा रात्रि
आजकल ख़ूब वृष्टि हो रही है, लेकिन उमस नहीं गई।
आज महाराज के साथ नौकानयन के लिए गई थी। लगता है महाराज सबसे उदासीन हो गए है। किसी सीमा तक असामाजिक भी। संभवत ये मुझसे प्रसन्न नहीं है। वे समझते है कि इस बढ़ी आयु में तिष्यरक्षिता से विवाह कर बड़ी भारी भूल की। आयु का इतना अंतर वे माला फेरकर नहीं पाट सकते। सबकी अपनी नियति होती है, मैं इसमें क्या कर सकती हूँ? कुणाल ने मुझे महाराज की दृष्टि में नीचे गिरा दिया। लेकिन मैं कहती हूँ कि पिता-पुत्र दोनों को राज्य छोटकर किसी मठ में चला जाना चाहिए। भिक्षु शासन करेंगे! सब पुरुष और नारियाँ भिक्षु-भिक्षुणी हो जाएँ तो सृष्टि चल चुकी। कितना अच्छा होता यदि आमात्य चाणक्य के समय में होती! सम्राट् चंद्रगुप्त का खड्ग होता, चाणक्य की नीति होती और तिष्यरक्षिता की महत्वाकांक्षा होती। नौका-विहार में स्थविर के प्रवचन ने तो उबा दिया। क्यों लोग चाहते हैं कि जब वे वृद्ध होने लगें तो सब उन के साथ वृद्धाने लगें? यह एकदम निरी मूर्खता है। वृद्ध होने वाले को पशुओं के समाज में खेल के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। वृद्ध होना अपमान है।
कुणाल को गए आज एक पक्ष हो गया है। जाने के दिन वह जाने क्या सोचकर यहाँ आया था साथ मे कांचनमाला को नहीं लाया, अच्छा किया। व्यक्ति प्रत्येक समय हर किसी को नहीं चाहता कि कोई दूसरा भी हो उसने बताया कि वह आजकल वीणा सीख रहा है। जब तक यह बैठा रहा ऋतु संगीत, ज्योतिष की ही चर्चा करता रहा। लगता है स्थिति को टाल जाने का ढँग उसे आ गया है।
मैं कुणाल को विदा देने महाराज के साथ नगरसीमा तक नहीं गई।
महाराज बता रहे थे कि इस चातुर्मास के बाद धर्मयात्रा पर निकलना चाहते है। मुझे डर है कि कहीं मुझे भी साथ चलने के लिए बाध्य न किया जाए। धर्म की जय-जयकार करते हुए घूमने से तो अच्छा है कि व्यक्ति आत्महत्या कर ले। बड़ा घृणास्पद लगता है। कल एक मूर्तिकार आने वाला है जो मेरी प्रतिमा बनाना चाहता है।
श्रावण नवमी : मध्यरात्रि
मूर्तिकार कलिंग का एक वृद्ध कलाकार है जो कि कलिंग युद्ध में बंदी बना लिया गया था। महाराज ने उसे मुक्त कर दिया है उस ने राज-परिवार के सभी लोगों की मूर्तियाँ बनाई है। मैं उसे बराबर टालती आ रही थी। जब उसने बताया कि यह मेरी मूर्ति बनाए बिना कलिंग नहीं जाएगा तो अगत्या बनवानी ही पड़ी। मूर्तिकार अपने को सिंधुसेन कहता है। मूर्ति अच्छी बनाई। आज महाराज भी मूर्ति देखने आए थे। कई महीनों बाद आर्यपुत्र मेरे भवन पधारे थे। वे काफ़ी अस्वस्थ दिखने भी लगे है। उन्हे चाहिए कि जिस प्रकार राजकाज से वे विश्रांती लिए हुए हैं उसी प्रकार इन घेरों से भी मुक्त हों, अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें, लेकिन उनसे कौन कहे?
कल यदि मेघाच्छत्र नहीं रहा तो किसी उपवन को ओर जाना चाहती हूँ नयनतारा न होती तो मैं कितनी विवश हो जाती! लगता है सामंत कुमारसेन नयनतारा से मित्रता के लिए बहुत उत्सुक है। मित्रता हो जाए तो अच्छा है न?
कुणाल तक्षशिला पहुँच गया है, अश्वा-रोही आए थे।
इतना बड़ा उत्सव सहसा समाप्त हो गया; लगता है पाटलिपुत्र एकदम ही रिता गया।
कभी-कभी मृगया के लिए जाना चाहती हूँ, लेकिन संभव है महाराज इसे पसंद न करें। आजकल जी उवा देने वाली निष्क्रिय शांति है। राजभवन भी मठ बनता जा रहा है।
—श्रावण अमावस्था रात्रि
प्रियदर्शी महाराज अत्यंत रुग्ण है। आज ही हिमालय के प्रशासक को महाराज की प्रस्तावित धर्मयात्रा को अस्वीकृति की सूचना भेजी गई है। यूनानी तथा भारतीय वैद्यो की समझ में कुछ नहीं आ रहा है। वे निदान ही नहीं कर पा रहे है। बेचारे वैद्य, यह भी नहीं जानते कि वृद्धापकाल स्वयं ही असाध्य रोग है, और विशेषकर तब जब असीम सुंदरी पत्नी दिन-रात सामने हो। सम्राट् धीरे-धीरे विवश होते जा रहे हैं।
क्या यह नहीं लगता है कि सारे सम्राट् और सम्राज्ञियाँ भी सहज मनुष्यों की ही तरह है? सम्राट् का भार आजकल मुझ पर आ गया है। सारा राजकार्य भी करना पड़ रहा हैं लेकिन मेरी इसमें कोई रुचि नहीं है कि किस प्रशासक को प्रजारजन के लिए कौन-सा आदेश दिया जा रहा है। सिंहल में धर्म प्रचार का कार्य व्यापक हो गया है। राजकुमार महेंद्र तथा राजकुमारी सघमित्रा को आए दिन इस बारे में पत्र जाते है।
पिछले दिनों से राजमुद्रिका लगाने का काम भी मुझे ही करना पड़ रहा है। कैसी विडंबना है कि महाराज मुझे पूरी तरह नहीं विश्वासते फिर भी भार मुझ पर छोड़ने को बाध्य हैं। मुझे शंका है कि आमात्यों में से किसी को कह रखा होगा कि वह मुख पर चौक्सी करता रहे कि कहीं मैं महाराज के विरुद्ध कोई षड्यंत्र न कर बैठूँ। महाराज किसी हठी बड़े बच्चे से कम थोड़े ही है। षड्यंत्र बच्चा और भिक्षुओं के विरद्ध थोड़ ही किया जाता है। महाराज समझते हैं कि यूनान का जो शिष्टमंडल आया था वह मुख से प्रभावित होकर गया है। इतने राजकुमारी के रहते संतानहींन पट्टमहिषी से प्रभावित होने का अर्थ? यदि मेरे मन में कोई ऐसी बात न भी हो तो भी महाराज मुझे ऐसी स्थिति में कर देना चाहते हैं कि कोई भी षड्यंत्र किया जा सके।
धर्मराजिकोत्सव में सम्मिलित होने की बधाई वाले सारे पत्र महाराज को दिखा देती रही हूँ। लगता है महाराज चौंक चौंक उठते है और ये निरीह से कक्ष ताकने लगते है। संभव है वे मेरे हाथों में अपने को आश्वस्त न पाते हो। कहीं वे अपने पुत्रों को तो नहीं अपने पास देखना चाहते हैं? तो क्या वे मुझे अपना नहीं मानते है? अब मेरा क्या होगा? क्या मुझे जीवन भर मात्र जलना ही होगा?
कल पूछूँगी कि क्या महाराज किसी कुमार को पाटलिपुत्र में देखना चाहते हैं?
—भाद्रपद चतुर्थी मध्या
मेरा लशय ठीक ही निकला। काफ़ी बड़ा भूभाग बौद्धमठो के लिए दिए जाने के पक्ष में महाराज है। मैं क्या कर सकती हूँ? कुणाल को बुलवाया गया है। युवराज के तिलक की चर्चा आमात्यों के स्तर पर की जा रही है। मुझे से छुपाई गई है चर्चा क्यों? क्या महाराज मेरी उपेक्षा कर अपने पुत्र का भविष्य बना सकेंगे? मुझे कोई आपत्ति नहीं होती यदि मुझसे भी परामर्श कर लिया गया होता। अस्तु —
तो—
भिक्षुसम्राट् प्रियदर्शी अशोक के पुत्र युवराज कुणाल!
कलंकिनी तिष्यरक्षिता के प्रेमी!
मेरे पति ने तुम्हें कितनी सुंदर आँखें दीं और मैं उन्हें चाहती थी लेकिन तुम अस्वीकार किया। राजमहिषी का तुमने अपमान किया युवराज! तो, ठीक है, तक्षशिला के पौर को आज ही आदेश एक तीव्र अश्वारोही के हाथों भेजा गया है कि वह प्रशासक कुणाल की दोनों आँखें शीघ्र प्रेषित करें— महाराज की यही आज्ञा है!!
नहीं समझे??
कोई बात नहीं। मैं समझाती हूँ। महाराज तुम्हारा तिलक करना चाहते है। ये तुम्हे पाटलिपुत्र में उपस्थित देखना चाहते है। यही अवसर था कि मैं तुम्हारे वे दोनों सुंदर नवन प्राप्त कर सकूँ। महाराज का आदेश लेकर जो अश्वारोही गया है उसे दो माह लगेंगे, लेकिन पौर को भेजा गया आदेश एक माह तक तक्षशिला पहुँच जाएगा और संभयतः आश्विन के समाप्त होते तक में उन दोनों सुंदर नेत्रों को अपने ओठों से लगा सकूँगी।
कुणाल!
मेरे पति के पुत्र मेरे प्रेमी!
तुम्हारे पिता की पत्नी तिष्यरक्षिता ने, जिसके प्रेम को तुम 'अभिगमन' कहकर कलंकित कर गए, उसी तुम्हारी 'माता' ने एक मादा कुणाल पाली है। उसका नर एक वृद्ध कुणाल था उस मादा कुणाल को नर कुणाल की सुंदर आँखें चाहिए।
मेरे प्रेमी पुत्र!
तक्षशिला की ओर जाते हुए तीव्रगामी अश्वारोही की टापें तक सुन रही हूँ। इसी गंगा के
काँठे-काँठे वह हिमालय की उपत्यका तक जाएगा और फिर पँचनद के तीव्र नदों को पार कर एक दिन तक्षशिला के पौर को ले जाकर महाराज का आदेश देगा सच मानों मेरे प्रेमी पुत्र! मैं उन दोनों नयनों की प्रतीक्षा तुम्हारे पिता से भी अधिक कर रही हूँ जो कि तुम्हारा युवराजाभिषेक करना चाहते हैं।
कुणाल!
मेरे पति के पुत्र मेरे प्रेमी!
तुम्हारे उन कुणाल-नयनों के लिए मैंने दक्षिण के कलाकारों द्वारा एक माणिक-मंजूषा बनवाई है। तुम सच मानों मेरे प्रेमी पुत्र! मैं उन नेत्रों के लिए कोई-सा पाप कर सकती हूँ। कैसी ही नारकीय यातना भोगने को भी तत्पर हूँ। मुझे अपने प्रेमी के वे नेत्र चाहिए। तुम मेरी व्याकुलता किसी जन्म में भी समझ न सकोगे।
मैं जानती हूँ, मेरा कलंक कोई नहीं सहन कर सकता| सच मानो, इस गवाक्ष के पास वर्षों से बैठी हुई तुम्हारी प्रतीक्षा करती रही, लेकिन उस दिन दोष देकर जो तुम गए तो कभी नहीं लौटे। और उस दिन तक्षशिला जाते हुए आए भी तो ऋतुओं की बातें करते रहे। भारत ने यूनान को ज्योतिष में क्या देन दी है इस बात पर चर्चा करते रहे। क्या तुम ज्योतिष की बातें करने के लिए तक्षशिला से आए थे? जानती हूँ कि तुम्हें काचनमाला ने चतुर बना दिया है।
कभी तुमने सोचा कि कोई पत्नी, पिता के समान वृद्ध पति को क्या सौंप सकती है? पत्नीत्व का समर्पण पिता को तो नहीं किया जाता न? और संभव भी होता तो वृद्ध पति जाकर भिक्षु बन गया। अब बताओ कुणाल मेरा प्रेम 'अभिगमन' है? कभी मेरा वैदग्घ्य क्यों नहीं समझा तुमने? तुम्हारे पिता विवाह लाए थे, मात्र इस तथ्य से ही 'माता' मान ले गए? जबकि मैं उन की पत्नी कितनी थी, कभी यह भी सोचा?
मेरा निवेदन, मात्र नारी का एक पुरुष के प्रति था। तुम भूल गए कि नारी भी पृथिवी की भाँति वीरभोग्या होती है। मैने तुम्हें प्रेम देना चाहा और प्रतिदान में तुम मुझे धर्म देने लगे। बताओ मैं धर्म लेकर क्या करती? और तुम मुझे सदा के लिए लाछित कर गए।
कोई बात नहीं, कलकिनी तिष्यरक्षिता के धर्मभीरु प्रेमीपुत्र। अपने इसी गवाक्ष के पास बैठकर मैं तुम्हारे उन कुणाल नयनों से पूछूँगी कि बताओ धर्म बड़ा था या प्रेम?
भाद्रपद पूर्णिमा मध्यरात्रि
गत एक पक्ष से मेघ थमने का नाम भी नहीं लेते। दूर किले की दीवारें हरी काई में कितनी सुंदर लगती है दिन में। पहले तो काम को निश्चिंतता थी लेकिन अब काम ही काम रहता है। महाराज का स्वास्थ्य ठीक ही नहीं हो रहा है। पिछले दिनों महाराज के ही भवन में रहना पड़ा। अनेक दिनों उपरांत महाराज के भवन में रहने पर सहसा कितना अजीब लगा। आरंभ के वर्ष स्मरण आ गए। तब आँखो के सामने अजीब स्वर्णिम स्वप्न था। इस समय जिस प्रकार चंद्रमा ओर मेघों ने मिलकर आकाश में जो एक रहस्यलोक बना रखा है ठीक ऐसा ही रहस्य लेकर प्रथम यौवनवती-सी यहाँ आई थी। महाराज तब भी वृद्ध थे लेकिन फिर भी सम्राट् ये वीतरागिता भले ही रही हो किन्तु भिक्षुत्व नहीं था। वे तब भी मादक अवश्य थे, भले ही उद्दाम न रहे हो।
इन आठ-नौ वर्षों में जाने कितनी बार गंगा की भाँति उफनाती रही। प्रत्येक बाढ़ याद आती है। लगता है इस बार कगार चूर-चूर हो जाएँगे। प्रलय हो जाएगा। लेकिन वाह रे विस्तार के धैर्य, कि कैसी ही बाढ़ सदा उतर जाती रही है।
गंगा में आजकल ख़ूब बाढ़ है। घाटो पर पानी या गया है। किले की दीवारों को छूकर जब पानी बहने लगता है तो लगता है जैसे आप किसी विशाल पोत में बैठे हुए हों।
आज पूर्णिमा वाला ब्रह्मभोज था। गत् वर्षों से इस दिन भिक्षुओं को भी भोज दिया जाने लगा है। चाहती हूँ कुछ दिनों के लिए किसी समुद्रयात्रा पर चली जाऊँ। क्यों नहीं नीलरत्न को सूचना कर दी जाए। कलिंग भी देख लिया जाएगा। हमारी नौ सेना का एक बेड़ा वहाँ है ही अनेक दिन हुए समुद्र-यात्रा किए। किसी दिन महाराज से कहूँगी।
क्या अश्वरोही तक्षशिला नहीं पहुँचा होगा अब तक?
मैं तो नयनतारा की सामंत कुमारसेन से मित्रता करवाने की बात सोच रही थी और कल ज्ञात हुआ कि आगामी फ़ाल्गुन में दोनों विवाह करना चाहते हैं। इस बात से मुझे उतना सुख नहीं हुआ जितना कि होना चाहिए या फिर भी मैं सुखी हूँ। नयनतारा और उसका सामंत दोनों ही चाहते है कि इस की आशा महाराज से दिलवा दूँ। कुछ भी सही, नयनतारा अगत्या सुखी हो यहीं मेरी भी कामना है।
—आधिन द्वितीया: उत्तर रात्रि
आज विंध्या पार की एक गायिका आई थी। अभी-अभी यह गान समाप्त कर गई है। महाराज को अब किसी कला में रुचि नहीं रह गई है और फलतः मुझे ही खटना पड़ता है। शिल्पियों के लिए तो स्तूपों, ध्वजों तथा शिलालेखों का ढेर सारा काम है लेकिन संगीत में महाराज की रुचि पहले भी विशेष नहीं थी, क्या किया जाए इन लोगों का?
आज महाराज पूछ रहे थे कि मैं कुणाल के बुलाए जाने से प्रसन्न हूँ कि नहीं। मैं समझती हूँ इस पूछने का क्या मतलब था। युवराज के अभिषेक के बारे में वे दूसरी चर्चाओं के बीच इस प्रकार बता गए जैसे मुझे पहले से ही ज्ञात था। मैंने भी कोई आश्चर्य प्रकट नहीं किया। बल्कि महाराज को थोड़ा आश्चर्य अवश्य हुआ।
महाराज कहीं मेरा अपमान तो नहीं करना चाहते हैं?
कुणाल! मैं क्या चाहती थी? यही न कि कुणाल सम्राट् बने और तब मुझे पट्टमहिषी बनकर पार्श्व में बैठना मिले और मैं सार्थक हो जाऊँ। इसमें क्या अनैतिक या और क्या अनैसर्गिक? जिन सुंदर नेत्रों के बारे में सुनकर यूनान के सम्राट् ने अपनी पुत्री तुम्हें विवाह देनी चाही जब वे ही नेत्र मेरी इस देह को देख लेते तो मैं उपकृत हो जाती। ठीक है, तिष्यरक्षिता और धर्म के बीच जब तुम ने धर्म को चुना तब देखें धर्म किस प्रकार तुम्हारी रक्षा करता है।
आओ, पाटलिपुत्र आओ, भावी मोर्य-सम्राट!
पाटलिपुत्र अपने सुंदर नेत्रों वाले अंधे युवराज का स्वागत करने के लिए आतुर है! तुम्हारे भिक्षु पिता शून्यकक्ष ताकते हुए तुम्हारे तिलक के दिवास्वप्नों मे डूबे रहते हैं। मैं तक्षशिला के पौर का भय से पीला पड़ा मुख देख रही हूँ। उसे विश्वास नहीं हो रहा है कि महा सम्राट् मौर्य साम्राज्य के यूवराज के नेत्र निकालने का आदेश अकारण ही दे सकते हैं। वह तुम्हारी ओर देखता है और हतप्रभ।
उन परम सुंदर कुणालनयनो से जाने कितने सूर्योदय और सूर्यास्त तुमने देखे होंगे कुणाल। और दो-चार सूर्य देख लो मेरे प्रेमी-पुत्र। उसके बाद तो ये आँखें मेरे गवाल को इस वेदी पर शोभित रहेंगी। कुणाल। स्वप्न में तुम्हारे ये दोनों मेरा पीछा करते हैं और मैं उन्हें पुकारती हुई आकाशी में खो जाती हूँ।
—कार्तिक पचमी रात्रि प्रथम प्रहर
आज तीन दिन से गंगा पार एक सेवक भेजा जाता रहा है ताकि तक्षशिला से लौटा अश्वारोही जो भी लाया हो वह ले लिया जा सके। तीन दिन कितने वैसे बोते सहज न हो पा रही थी। बार-बार मेरे चौंकने पर महाराज ने हलके टोका भी था।
अश्वारोही को तीन दिन विलम्ब हुआ। नयनतारा का सांकेतिक समाचार मिलते ही मैं किंचित् अधीर हुई, सिर पीड़ा का बहाना बना उठ आई। शिविका में रास्ते भर उत्सुकता, भय, वितृष्णा और जाने क्या-क्या होता रहा। यदि मर्यादा का ध्यान न होता तो पूरा भवन, सीढ़ियाँ सब कुछ दौड़कर पार करती।
नयनतारा ने जब एकांत में निकालकर गुणानयन दिखाए, एक क्षण को मैं विभोर हो गई। कितने अप्रतिम सुंदर नेत्र। मैं सोच नहीं पा रही थी कि वे कुणाल के नेत्र है। कैसे निरीह दो उज्जल सीपियों की तरह। यदि उन्हें आकाश में उड़ जाने को कह दिया जाता तो वे सीधे
तक्षशिला पहुँचते।
मेरे नेत्रहीन प्रेमी। मैं जानती हूँ कि तुम्हारे ये दो देवशिशुओ की तरह है। कुणाल। तुम सोच नहीं सकते कि आज मैं इन दोनों को क्षण भर को भी होठों से विलग न कर सकी।
आज मैं कितना प्रसन्न हूँ। आज मुझे कितना पश्चाताप है।
ये अमृतनयन मेरे लिए विषनयन क्यों हो रहे है?
ओ मेरे पति के पुत्र मेरे प्रेमी। ये नयन अब हँसते नहीं है, उस दिन का क्रोध कहाँ है? ये अब घृणा भी नहीं करते और, कुणाल। ये अब कुछ नहीं देखते, कुछ नहीं देखते। इतने अपरिचित नयनो को तो समर्पण नहीं कर सकती कुणाल। मैं इन्हें पाकर अमर होना चाहती थी। मेरी पीड़ा का कहीं अंत नहीं दिखता। जानती हूँ कि नेत्र निकलवा कर मैंने असहय पीड़ा तुम्हें पहुँचाई है। आओ मेरे प्रेमपुत्र। मैं उन खोखले रंध्रों को चूमकर सारी पीड़ा हर लूँगी।
हमारे-तुम्हारे बीच ये दो ही तो नयन थे कुणाल।
पहले मैं अंधी थी और तुम नेत्रवान् थे। आज तुम अंधे हो और कैसे कहूँ कि मैं नेत्रवाती हुँ। , कुणाल। मैं आजन्म अंधा ही रही क्या?
तुम इन्हें पाकर नहीं रख सके और मैं इन्हें उपलब्ध करके भी सहेज न सकूँगी।
ये नेत्र दुःख के देवता हो रहे कुणाल!
पंचमी का तिर्यक् चंद्रमा कार्तिकी आकाश में फूट आया हूँ। रात्रि आलाप-सी आरम्भ होने लगी है। जानती हूँ कि जैसे ही महाराज को इस कृत्य की सूचना मिलेगी वे मेरी बोटी-बोटी कुत्तों से नुचवा डालेंगे। उनके एक मात्र प्रिय पुत्र को नेत्रहीन करने वाले व्यक्ति को वे कभी भी जीवित नहीं छोड़ेंगे। कोई बात नहीं कुणाल! मैं तुम्हारी देह के श्रेष्ठ को किसी भी रूप मे सही, पा तो सकी। जानती हूँ मेरा भविष्य शताब्दियों के लिए मर चुका। केवल उपेक्षिता, लाँछिता तिष्यरक्षिता को ही लोग बूझेंगे। लेकिन कोई मेरी असीम
परितृप्ति, दाह को नहीं बुझ पाएगा कुणाल! संभवतः तुम भी नहीं जिस के लिए मैं, तिष्यरक्षिता पापिष्ठा हुई।
अगत्या कुणाल! मैं सदा आभारी रहूँगी कि तुमने मेरी परितृप्ति के लिए नेत्रदान किया।
आज मैं पवित्र हो गई कुणाल! आज मैं परितापित हो गई! मैं उज्ज्वल कलंकिनी सही कुणाण, तुम तो अकलंक रह सके।
राजकारागृह पौष चतुर्थी : ब्राह्मवेला
आज एक मास से बंदिनी हूँ यहाँ।
इस बीच घटनाएँ इतनी तीव्रता से हुई है कि जैसे सूत्र सारे बिखर गए हों। एक महान् नाटक पटाक्षेप की प्रतीक्षा कर रहा है। साम्राज्य के लिए असह्य हो उठा है कि एक मौर्य पट्टमहिषी दुराचारिणी, कलंकिनी निकली। प्रियदर्शी लज्जा से विक्षिप्त है। सुना कांचनमाला के साथ युवराज को लेकर तक्षशिला का पौर स्वयं उपस्थित हुआ है। न्याय-अभिषद् के सामने दुरभिसंधि रही कि पट्टमहिषी का क्या किया जाए। इतिहास मे कोई उदाहरण नहीं मिलता।
बिना मुझसे पूछे ही महाराज आश्वस्त हो गए कि यह कुकृत्य तिष्यरक्षिता ने ही किया है। नयनतारा ने जब रात्रि के प्रथम प्रहर में आए पाटलिपुत्र के पौर से सुना कि सवेरे सूर्योदय के पूर्व गंगातट पर मेरा अग्निदाह किया जाएगा, वह मूर्खा पगला उठी है।
पौर से कहने को मन हुआ कि महाराज से निवेदन कर दो कि मैं उन्हे अंतिम बार देखना चाहती हूँ, लेकिन व्यर्थ!!
मैं इस समय सैनिकों की प्रतीक्षा कर रही हूँ। वे किसी भी समय आ सकते है। पौ फटने में विलंब तो नहीं लगता।
आज रात भर इस गंगा तट पर उल्काओं का आलोक तथा लोगों के आवागमन का अपार नाद सुनती रही हूँ। कितना उत्साह है लोगों में रात भर में लाखों की संख्या में प्रजा एकत्र हो गई है। किस लिए? दुराचारी को दंडित होते देखने के लिए अथवा पट्टमहिषी को जो जीवित जलाया जाएगा वह देखने के लिए?
आज रात कितनी ठंडी हवा चलती रही! अभी भी कुहरा साफ़ नहीं हुआ है। यह तो सैनिकों के चलने की आहट है।
तो—
तुम इन्हें पाकर नहीं रख सके और में इन्हें उपलब्ध करके भी सहेज न सकूँगी। ये नेत्र दुःख के देवता ही रहे कुणाल!
पंचमी का तिर्यक चंद्रमा कार्तिकी आकाश में फूट आया है। रात्रि आलाप-सी आरंभ होने लगी है। जानती हूँ कि जैसे ही महाराज को इस कृत्य की सूचना मिलेगी, ये मेरी बोटी-बोटी कुत्तों से नुचवा डालेंगे। उनके एकमात्र प्रिय पुत्र को नेत्रहीन करने वाले व्यक्ति को ये कभी भी जीवित नहीं छोड़ेंगे कोई बात नहीं कुणाल में तुम्हारी देह के श्रेष्ठ को किसी भी रूप में सही पा तो सकी। जानती हूँ, मेरा भविष्य शताब्दियों के लिए मर चुका। केवल उपेक्षिता, लाक्षिता, तिष्यरक्षिता को ही लोग बूझेंगे। लेकिन कोई मेरी असीम परितृप्ति, दाह को नहीं बुझ पाएगा कुणाल संभवतः तुम भी नहीं, जिसके लिए मैं, तिष्यरक्षिता पापिष्ठा हुई।
अगत्या कुणाल में सदा आभारी रहूंगी कि तुमने मेरी परितृप्ति के लिए नेत्रदान किया।
आज में पवित्र हो गई कुणाल आज में परितापित हो गई।
मैं उज्ज्वल कलंकिनी सही कुणाल! तुम तो अकलंक रह सके।
राजकारागृह : पौष चतुर्थी : प्रायवेला
आज एक मास से बंदिनी हूँ यहाँ!
इस बीच घटनाएँ इतनी तीव्रता से हुई हैं कि जैसे सारे सूत्र बिखर गए हों। एक महान् नाटक पटाक्षेप की प्रतीक्षा कर रहा है। साम्राज्य के लिए अस से उठा है कि एक मौर्य पट्टमहिषी दुराचारिणी, कलंकिनी निकली। प्रियदर्शी लज्जा से विक्षिप्त हैं सुना, कांचनमाला के साथ युवराज को लेकर तक्षशिला का पौर स्वयं उपस्थित हुआ है।
न्याय अभिषद् के सामने दुरभिसंधि रही कि पट्टमहिषी का क्या किया जाए? इतिहास में कोई उदाहरण नहीं मिलता।
बिना मुझसे पूछे ही महाराज आश्वस्त हो गए कि यह कुकृत्य तिष्यरक्षिता ने ही किया है नयनतारा ने जब रात्रि के प्रथम प्रहर में आए पाटलिपुत्र के पौर से सुना कि सवेरे सूर्योदय के पूर्व गंगातट पर मेरा अग्निदाह किया जाएगा, वह मूर्ख पगला उठी है।
पौर से कहने को मन हुआ कि महाराज से निवेदन कर दो कि में उन्हें अंतिम बार देखना चाहती हूँ, लेकिन व्यर्थ।
मैं इस समय सैनिकों की प्रतीक्षा कर रही हूँ। ये किसी भी समय आ सकते हैं। पौ फटने में विलंब तो नहीं लगता।
आज रात-भर इस गंगा तट पर उल्काओं का आलोक तथा लोगों के आवागमन का अपार नाद देखती सुनती रही हूँ। कितना उत्साह है लोगों में रात भर से लाखों की संख्या में प्रजा एकत्र हो गई है किसलिए दुराचारी को दंडित होते देखने के लिए अथवा पट्टमहिषी को, जो जीवित जलाया जाएगा, वह देखने के लिए?
आज रात कितनी ठंडी हवा चल रही है अभी भी कुहरा साफ नहीं हुआ है यह तो सैनिकों के चलने की आहट है।
तो—
सैनिक भी आ गए। लेकिन अभी मैंने रात की भूषा नहीं बदली। नयनतारा भूषा ले आ रही है सो— पटाक्षेप?
• अभी-अभी राजमहिषी को सैनिक ले गए हैं। मशाल के काँपते प्रकाश में अभी उनकी काली भूषा सामने के अँधेरे में तिरोहित हुई है। यह भूषा पीर ही दे गए थे। भूषा पहनाते मेरे हाथ कांप रहे थे मैं फूट पड़ना चाह रही थी लेकिन महादेवी एकदम निर्विकार थीं। मुझे एक बार देखा और ईषत् मुसकान के साथ वे सैनिकों के साथ हो लीं।
सैनिकों के साथ कारागृह का बड़ा-सा जीना उतरकर पंक्तिबद्ध सैनिकों से रक्षित मार्ग से होती हुई उस वेदी की ओर बढ़ीं, जहाँ कि उन्हें जलाया जाना था।
पीषिया तेज शीतल हवा इस समय सपाटे मारती हुई यह रही है अपार समूह साँस रोक भय, वितृष्णा से महादेवी की ओर देख रहा है। सूर्योदय होने को है।
उस वेदी से हटकर एक ऊँचे मंच पर सम्राट और युवराज दोनों ही उपस्थित हैं। महाराज को देखकर वे क्षण को हलके रुकीं, फिर बढ़ गई। उन्हें वेदी के खंभ से बाँध दिया गया और तत्क्षणात् ही महाराज का काँपता हाथ उठा और वेदी सुलग उठी।
लाल-लाल लपटों में महादेवी का मुँह झुलसे ताँबे-सा एक क्षण चमका और उसके बाद...
ye Diary tibbat ke ek bauddhmath se apni pichhli tibbat yatra mein mujhe prapt hui thi mainne is ka matr sampadan kiya hai is ki prati atyant jeern sheern ho gai hai ise paDhne ka kaam mere ek bauddh bhashawigya mitr ne kiya hai —lekhak
pataliputr ha rajabhwan
waishakh purnaima ha madhyratri
aj ab lotna hua hai—dharmraji kotsaw se nayantara, dasi hi nahin hai, balki achchhi mitr hai kitna shital, sugandhit jal tha, snan mae kitna sukh mila! aaj din bhar loon chalti rahi megh ghirne ki ritu aa chali hai aaj ki ye kshain ganga tab isi gawaksh ke niche se prwahegi ab jakar watas thoDi shital hai hawa mae pake amon ki kaisi madak gandh ghuli hui hai! dharmrajikotsaw aaj jakar kahi shesh hua ek saptah tak pataliputr chashak ki bhanti uphnata raha aryaputr atyant santusht hai
bahut thak gai hoon, sambhawtah isiliye neend nahin aa rahi hai ek saptah ke is ayojan ne to ekdam hi thaka Dala hai suryoday se suryast tak chhatr chamar ke niche maryadit baithe rahne se baDa koi duःkh nahin lekin ye duःkh hi kitna madak tatha akarshak hai! charon or ka jaykar aap ko wistar deta hai aur rajyasan, dedipyaman eknishthta desh widesh ke winamr hote hue rajamukut, baladhikriton ke widyutphal ki samarpit khaDg, ratnon aur wastron ke asankhya chaal aur wibhinn das dasiyan—lagta hai prithiwi, dasi ban kar samarpit hai logon ko winay hi shobha deta hai aur aapko us winay ko swikar karna
aj ka dharmrajikotsaw ka ayojan adwitiy tha
kyoki ek mahan maury samrat ne bauddh prawrajya li aaj samast maury samrajy mein chaurasi hajar dharmrajiko (stupo) ki sthapana ki gai sinhadhwaj rope gaye jin par dewanamapriy ke anusyan khude hue hai aaj uprant maury samrat maharaj ashok, priydarshi ashok kahen jayenge sambhwat mae bhi unhen ab aryaputr nahin kah paungi, isliye tishyrakshita aaj se patihin patni, samrathin pattamahiyo hi mani jayengi kyoki bhikshu to sambandhhin hote hai kya main bhikshuni ho sakungi? wriddhapkal kapay mein sundar lagta hai lekin yauwan to nahin n? aryaputr kapay ghaar chuke lekin kya tishyrakshita aisa kar sakti hai? kya uske wachan tan par swayan kapay sulag na uthega? aur kyo? kis prayojan ke liye?
charon or kitni shanti hain gawaksh ke bahar wishakha chandni kaise hole haule baras rahi hai akash chandni mein sphatik lag raha hai pattamhishai hone par bhi sahj patni ke sukh se wachit sambhwat koi bhi sab kuch prapt nahin kar sakta hai hamein chunna hota hai ye hum par nirbhar karta hai ki hum ya chunte hain
is utsaw ke liye yunan aur mistr ne wishesh roop se apne rajawshi shishtmanDal bheje
any paDosi rashtro ne bhi apne amatya, rajadut aadi bhejkar maitri pradarshit ki kaling ka rajakumar nilratn bhi upasthit tha use deykar moh hota hai lagta hai kaling bahut sundar pardesh hai suna hai us ka sindhu tat baDa ho ramnik hai kabhi jana chahti hoon nolratn kitna saral hai use kinchit bhi rajasi garima nahin aati apne hath ke mayurpakh se kitna warajti rahi ki samragyiyo ko ghura nahin jata—kisi sima tak moorkh bhi hain hansta hai to lagta hain ki jaise ekant sindhu jal hans raha ho
pataliputr ke waibhaw ko aaj parakashtha thi nagar aur akash abhi bhi alokit hai kitne toran, dwar, wandanware, manorjan aadi ayojit the marg ke donon or darshanarthi praja ki paktiyan gaganbhedi jaykar rath par lautte hue aaj sahsa dhyan aaya ki ye jaykar kiski ki ja rahi hai kya us samrat ki jo ki bhikshu ho gaya ya samraji ki, jo ki abhi bhi pattamahipi hai? samrat ke pas tyagne ko kitni wastuen thi—samrajy, patni, pariwar, yudh, das dasiyan, hinsa is tyag ki jaykar na hogi to kis ki hogi? main kya tyagti? ek wriddh pati tha, so usne hi tyag diya aur tyag, wriddhapkal ko ho shobhta bhi hai
aj aath baras hue wiwah ko kya isi chhoD dene ko wriddhapkal mein wiwah laye the? ek din bhi to hum pati patni ki bhanti nahin rahe lekin aaj un sab baton par soch karna byarth hai nidra nahin aa rahi hai kanon mein utsaw ki dhwaniyan jaise bhar gai hai drishya aur log ankhon mein tir rahe hain jhanjhari ke par nayantara kitni nishchint so rahi hai! koi kamna nahin, koi mahatwakanksha nahin—sab se heen, isiliye nayantara ke liye ratri, neend hai aur din din hai abhi mujhe swarmanDal par wihag sunakar gai samjhi main so gai aur aap bhi jakar so gai sab so gaye hai dirghayen tatha bhittiyan tak so rahi hai kewal gawaksh wala dipadhar hi alokit hai bahar nirmal ekant prashast hai niche kahin door pahruo ka sawdhan chauka jata hai ganga ki kshain dhara mein koi balu bhari nauka kashi ki or ja rahi hai machhua kitna tanmay mankar raha hai sambhwatः uski yuwati patni mastul ke khambh se sati apne pati ke sangit mein Dubi hogi aur pati ki sanche Dhali deh ke liye aakul bhi —o kunal! mere prem ko tumne abhigman kahkar tiraskrit kiya kyon kiya? main tumhare pita ki patni awashy hoon lekin tumhari mata to nahin tum mujhe apni hi drishti mein gira dena chahte the? lekin kyon? kahi tumhe apni sundar ankhon par garw to nahin hai?
tum dharmrajikotsaw mae aaye hue ho, lekin bhulkar bhi mere bhawan nahin aaye parson maharaj ke samman—men mainne bhoj diya usmen bhi tum sammilit nahin hue apni patni kanchanmala ko bhi nahin aane diya kyon? ek bar hi aate tum to dekhte ki, o mere pati ke putr mere premi! tumhare pita ki patni tumhari premika tishyrakshita anukshan tumhe smarn karti hai jante ho kunal! meri in bahuon mein bandhne ke liye yunan ke samrat tak lalayit ho sakte hai? ek sanket mein samrajyon ka utthan patan kar sakti hoon? tumhein kis baat ka garw hai? yuwaraj hone ka? kunal pakshi ki bhanti nayan pa jane ka darp hai? mainne tumse yachana ki aur tum mera tiraskar kar sake—is baat ka ghamanD hai? to kunal tum bho yaad rakhna ki tum mae tishyrakshita ka tiraskar kiya tha jao, takshashila jao, prashasak bankar raho, dekhti hoon kitne dinon tak! main ya to kamna karti nahin hoon aur kamna karne ke baad parajit hona nahin janti main ashok nahin ki kshama, karuna, ahinsa mein dikshait ho jaun yadi tum mujhe prapy na ho sake to kisi any ke bhi na ho paoge
kunal! main phir kahti hoon ki aa jao bus ek bar apne un kunal naynon se mujhe ek premi ki bhanti nihar lo main itni sundar ankhon wala putr nahin, premi chahti hoon
main nahin janti ki meri is wanchha ka kya hoga
kal yunan ke shishtmanDal ne bhoj diya hain maharaj ki ichchhanusar hi bhoj mein kewal do mor aur ek harin hi honge maharaj isiliye poon ahinsa ke pakshapati nahin hai, ye to kewal wihinsa chahte hain is war pashuon ka samaj pradarshan bhi phika hi raha dharm ki bhi sima hogi, kya maharaj isko nahin samajhte?
kya saurgiyah samrat chandrgupt aur bindu sar ke samrajy ka yahi hona tha?
ashchary nahin ki maharaj kisi din samrajy hi wiharon ki sewa ke liye de den lekin aaj to nahin de rahe hai n? saptarshai Dubne hi wale hai palken kaDwahat se bhar uthi hai ag ag mein kitni thakan bhar gai hai nayantara ko jagakar thoDa sir dabwa liya jaye to neend achchhi ayegi
jyeshth pratipda ratri din bhar wahi wyastata rahi aaj ek yunani nrity bhi dekhne ko mila maury samrajy ke utkarsh se yunan koi prasann nahin hai yunani, takshashila par drishti lagaye hue hai takshashila mein amatya logon ne wishesh achchha wywahar nahin kiya tha sabhi asantusht the isiliye yuwaraj ko wahan bheja gaya taki sima par rajwansh ka sampurn adhikar bana rahe kuch bhi ho, yunani prasann jati hai jiwan ko utsaw manti hai
maharaja se is bar phir pararthna karna chahte hai ki kuch jyotishi, karigar, bhawan nirmata ke yahan se apne desh le jana chahte hain mujhse is bare mein pratisakhya chahte hain
wrishti ki pratiksha hai garamiyo mein pataliputr kaisa jhulas jata hai
ekadh din mein kunal takshashila bala jayega aaj wo yunani bhoj mein matr pradarshan ke liye hi upasthit hua tha jis samay main yunani rajakumar se alap kar rahi thi wo man saujanyata nirwah ke liye hi aaya main us par krodh karna chahti hoon lekin pata nahin kyon main use dekhkar wihwal ho jati hai us ke netron mein jadu hai
ashaDh pratipda ratri
ajkal khoob wrishti ho rahi hai, lekin umas nahin gai
aj maharaj ke sath naukanyan ke liye gai thi lagta hai maharaj sabse udasin ho gaye hai kisi sima tak asamajik bhi sambhwat ye mujhse prasann nahin hai we samajhte hai ki is baDhi aayu mein tishyrakshita se wiwah kar baDi bhari bhool ki aayu ka itna antar we mala pherkar nahin pat sakte sabki apni niyti hoti hai, main ismen kya kar sakti hoon? kunal ne mujhe maharaj ki drishti mein niche gira diya lekin main kahti hoon ki pita putr donon ko rajy chhotkar kisi math mein chala jana chahiye bhikshu shasan karenge! sab purush aur nariyan bhikshu bhikshuni ho jayen to sirishti chal chuki kitna achchha hota yadi amatya chanakya ke samay mein hoti! samrat chandrgupt ka khaDg hota, chanakya ki niti hoti aur tishyrakshita ki mahatwakanksha hoti nauka wihar mein sthawir ke prawchan ne to uba diya kyon log chahte hain ki jab we wriddh hone lagen to sab un ke sath wriddhane lagen? ye ekdam niri murkhata hai wriddh hone wale ko pashuon ke samaj mein khel ke liye chhoD diya jana chahiye wriddh hona apman hai
kunal ko gaye aaj ek paksh ho gaya hai jane ke din wo jane kya sochkar yahan aaya tha sath mae kanchanmala ko nahin laya, achchha kiya wekti pratyek samay har kisi ko nahin chahta ki koi dusra bhi ho usne bataya ki wo ajkal wina seekh raha hai jab tak ye baitha raha ritu sangit, jyotish ki hi charcha karta raha lagta hai sthiti ko tal jane ka Dhang use aa gaya hai
main kunal ko wida dene maharaj ke sath nagarsima tak nahin gai
maharaj bata rahe the ki is chaturmas ke baad dharmyatra par nikalna chahte hai mujhe Dar hai ki kahin mujhe bhi sath chalne ke liye baadhy na kiya jaye dharm ki jay jaykar karte hue ghumne se to achchha hai ki wekti atmahatya kar le baDa ghrinaspad lagta hai kal ek murtikar aane wala hai jo meri pratima banana chahta hai
shrawan nawmi ha madhyratri
murtikar kaling ka ek wriddh kalakar hai jo ki kaling yudh mein bandi bana liya gaya tha maharaj ne use mukt kar diya hai us ne raj pariwar ke sabhi logon ki murtiyan banai hai main use barabar talti aa rahi thi jab usne bataya ki ye meri murti banaye bina kaling nahin jayega to agatya banwani hi paDi murtikar apne ko sindhusen kahta hai murti achchhi banai aaj maharaj bhi murti dekhne aaye the kai mahinon baad aryaputr mere bhawan padhare the we kafi aswasth dikhne bhi lage hai unhe chahiye ki jis prakar rajakaj se we wishranti liye hue hain usi prakar in gheron se bhi mukt hon, apne swasthy ka dhyan rakhen, lekin unse kaun kahe?
kal yadi meghachchhatr nahin raha to kisi upwan ko or jana chahti hoon nayantara na hoti to main kitni wiwash ho jati! lagta hai samant kumarsen nayantara se mitrata ke liye bahut utsuk hai mitrata ho jaye to achchha hai n?
kunal takshashila pahunch gaya hai, ashwa rohi aaye the
itna baDa utsaw sahsa samapt ho gaya; lagta hai pataliputr ekdam hi rita gaya
kabhi kabhi mrigaya ke liye jana chahti hoon, lekin sambhaw hai maharaj ise pasand na karen ajkal ji uwa dene wali nishkriy shanti hai rajabhwan bhi math banta ja raha hai
—shrawan amawastha ratri
priydarshi maharaj atyant rugn hai aaj hi himale ke prashasak ko maharaj ki prastawit dharmyatra ko aswikriti ki suchana bheji gai hai yunani tatha bharatiy waidyo ki samajh mein kuch nahin aa raha hai we nidan hi nahin kar pa rahe hai bechare waidy, ye bhi nahin jante ki wriddhapkal swayan hi asadhy rog hai, aur wisheshkar tab jab asim sundri patni din raat samne ho samrat dhire dhire wiwash hote ja rahe hain
kya ye nahin lagta hai ki sare samrat aur samragyiyan bhi sahj manushyon ki hi tarah hai? samrat ka bhaar ajkal mujh par aa gaya hai sara rajakary bhi karna paD raha hain lekin meri ismen koi ruchi nahin hai ki kis prashasak ko prjarjan ke liye kaun sa adesh diya ja raha hai sinhal mein dharm parchar ka kary wyapak ho gaya hai rajakumar mahendr tatha rajakumari saghmitra ko aaye din is bare mein patr jate hai
pichhle dinon se rajmudrika lagane ka kaam bhi mujhe hi karna paD raha hai kaisi wiDambna hai ki maharaj mujhe puri tarah nahin wishwaste phir bhi bhaar mujh par chhoDne ko baadhy hain mujhe shanka hai ki amatyon mein se kisi ko kah rakha hoga ki wo mukh par chauksi karta rahe ki kahin main maharaj ke wiruddh koi shaDyantr na kar baithun maharaj kisi hathi baDe bachche se kam thoDe hi hai shaDyantr bachcha aur bhikshuon ke wiraddh thoD hi kiya jata hai maharaj samajhte hain ki yunan ka jo shishtmanDal aaya tha wo mukh se prabhawit hokar gaya hai itne rajakumari ke rahte santanhinn pattamhishai se prabhawit hone ka arth? yadi mere man mein koi aisi baat na bhi ho to bhi maharaj mujhe aisi sthiti mein kar dena chahte hain ki koi bhi shaDyantr kiya ja sake
dharmrajikotsaw mein sammilit hone ki badhai wale sare patr maharaj ko dikha deti rahi hoon lagta hai maharaj chaunk chaunk uthte hai aur ye nirih se kaksh takne lagte hai sambhaw hai we mere hathon mein apne ko ashwast na pate ho kahin we apne putron ko to nahin apne pas dekhana chahte hain? to kya we mujhe apna nahin mante hai? ab mera kya hoga? kya mujhe jiwan bhar matr jalna hi hoga?
kal puchhungi ki kya maharaj kisi kumar ko pataliputr mein dekhana chahte hain?
—bhadrapad chaturthi madhya
mera lashay theek hi nikla kafi baDa bhubhag bauddhamtho ke liye diye jane ke paksh mein maharaj hai main kya kar sakti hoon? kunal ko bulwaya gaya hai yuwaraj ke tilak ki charcha amatyon ke star par ki ja rahi hai mujhe se chhupai gai hai charcha kyon? kya maharaj meri upeksha kar apne putr ka bhawishya bana sakenge? mujhe koi apatti nahin hoti yadi mujhse bhi paramarsh kar liya gaya hota astu —
to—
bhikshusamrat priydarshi ashok ke putr yuwaraj kunal!
kalankini tishyrakshita ke premi!
mere pati ne tumhein kitni sundar ankhen deen aur main unhen chahti thi lekin tum aswikar kiya rajamhishai ka tumne apman kiya yuwaraj! to, theek hai, takshashila ke paur ko aaj hi adesh ek teewr ashwarohi ke hathon bheja gaya hai ki wo prashasak kunal ki donon ankhen sheeghr preshait karen— maharaj ki yahi aagya hai!!
nahin samjhe??
koi baat nahin main samjhati hoon maharaj tumhara tilak karna chahte hai ye tumhe pataliputr mein upasthit dekhana chahte hai yahi awsar tha ki main tumhare we donon sundar nawan prapt kar sakun maharaj ka adesh lekar jo ashwarohi gaya hai use do mah lagenge, lekin paur ko bheja gaya adesh ek mah tak takshashila pahunch jayega aur sambhyatः ashwin ke samapt hote tak mein un donon sundar netron ko apne othon se laga sakungi
kunal!
mere pati ke putr mere premi!
tumhare pita ki patni tishyrakshita ne, jiske prem ko tum abhigman kahkar kalankit kar gaye, usi tumhari mata ne ek mada kunal pali hai uska nar ek wriddh kunal tha us mada kunal ko nar kunal ki sundar ankhen chahiye
mere premi putr!
takshashila ki or jate hue tiwrgami ashwarohi ki tapen tak sun rahi hoon isi ganga ke
kanthe kanthe wo himale ki upatyaka tak jayega aur phir panchanad ke teewr nadon ko par kar ek din takshashila ke paur ko le jakar maharaj ka adesh dega sach manon mere premi putr! main un donon naynon ki pratiksha tumhare pita se bhi adhik kar rahi hoon jo ki tumhara yuwrajabhishek karna chahte hain
kunal!
mere pati ke putr mere premi!
tumhare un kunal naynon ke liye mainne dakshain ke kalakaron dwara ek manaik manjusha banwai hai tum sach manon mere premi putr! main un netron ke liye koi sa pap kar sakti hoon kaisi hi narakiy yatana bhogne ko bhi tatpar hoon mujhe apne premi ke we netr chahiye tum meri wyakulta kisi janm mein bhi samajh na sakoge
main janti hoon, mera kalank koi nahin sahn kar sakta sach mano, is gawaksh ke pas warshon se baithi hui tumhari pratiksha karti rahi, lekin us din dosh dekar jo tum gaye to kabhi nahin laute aur us din takshashila jate hue aaye bhi to rituon ki baten karte rahe bharat ne yunan ko jyotish mein kya den di hai is baat par charcha karte rahe kya tum jyotish ki baten karne ke liye takshashila se aaye the? janti hoon ki tumhein kachanmala ne chatur bana diya hai
kabhi tumne socha ki koi patni, pita ke saman wriddh pati ko kya saump sakti hai? patnitw ka samarpan pita ko to nahin kiya jata n? aur sambhaw bhi hota to wriddh pati jakar bhikshu ban gaya ab batao kunal mera prem abhigman hai? kabhi mera waidagghya kyon nahin samjha tumne? tumhare pita wiwah laye the, matr is tathy se hi mata man le gaye? jabki main un ki patni kitni thi, kabhi ye bhi socha?
mera niwedan, matr nari ka ek purush ke prati tha tum bhool gaye ki nari bhi prithiwi ki bhanti wirbhogya hoti hai maine tumhein prem dena chaha aur pratidan mein tum mujhe dharm dene lage batao main dharm lekar kya karti? aur tum mujhe sada ke liye lachhit kar gaye
koi baat nahin, kalakini tishyrakshita ke dharmabhiru premiputr apne isi gawaksh ke pas baithkar main tumhare un kunal naynon se puchhungi ki batao dharm baDa tha ya prem?
bhadrapad purnaima madhyratri
gat ek paksh se megh thamne ka nam bhi nahin lete door kile ki diwaren hari kai mein kitni sundar lagti hai din mein pahle to kaam ko nishchintta thi lekin ab kaam hi kaam rahta hai maharaj ka swasthy theek hi nahin ho raha hai pichhle dinon maharaj ke hi bhawan mein rahna paDa anek dinon uprant maharaj ke bhawan mein rahne par sahsa kitna ajib laga arambh ke warsh smarn aa gaye tab ankho ke samne ajib swarnaim swapn tha is samay jis prakar chandrma or meghon ne milkar akash mein jo ek rahasylok bana rakha hai theek aisa hi rahasy lekar pratham yauwanawti si yahan i thi maharaj tab bhi wriddh the lekin phir bhi samrat ye witragita bhale hi rahi ho kintu bhikshutw nahin tha we tab bhi madak awashy the, bhale hi uddam na rahe ho
in aath nau warshon mein jane kitni bar ganga ki bhanti uphnati rahi pratyek baDh yaad aati hai lagta hai is bar kagar choor choor ho jayenge prlay ho jayega lekin wah re wistar ke dhairya, ki kaisi hi baDh sada utar jati rahi hai
ganga mein ajkal khoob baDh hai ghato par pani ya gaya hai kile ki diwaron ko chhukar jab pani bahne lagta hai to lagta hai jaise aap kisi wishal pot mein baithe hue hon
aj purnaima wala brahmabhoj tha gat warshon se is din bhikshuon ko bhi bhoj diya jane laga hai chahti hoon kuch dinon ke liye kisi samudryatra par chali jaun kyon nahin nilratn ko suchana kar di jaye kaling bhi dekh liya jayega hamari nau sena ka ek beDa wahan hai hi anek din hue samudr yatra kiye kisi din maharaj se kahungi
kya ashwrohi takshashila nahin pahuncha hoga ab tak?
main to nayantara ki samant kumarsen se mitrata karwane ki baat soch rahi thi aur kal gyat hua ki agami falgun mein donon wiwah karna chahte hain is baat se mujhe utna sukh nahin hua jitna ki hona chahiye ya phir bhi main sukhi hoon nayantara aur uska samant donon hi chahte hai ki is ki aasha maharaj se dilwa doon kuch bhi sahi, nayantara agatya sukhi ho yahin meri bhi kamna hai
—adhin dwitiyah uttar ratri
aj windhya par ki ek gayika i thi abhi abhi ye gan samapt kar gai hai maharaj ko ab kisi kala mein ruchi nahin rah gai hai aur phalatः mujhe hi khatna paDta hai shilpiyon ke liye to stupon, dhwjon tatha shilalekhon ka Dher sara kaam hai lekin sangit mein maharaj ki ruchi pahle bhi wishesh nahin thi, kya kiya jaye in logon ka?
aj maharaj poochh rahe the ki main kunal ke bulaye jane se prasann hoon ki nahin main samajhti hoon is puchhne ka kya matlab tha yuwaraj ke abhishaek ke bare mein we dusri charchaon ke beech is prakar bata gaye jaise mujhe pahle se hi gyat tha mainne bhi koi ashchary prakat nahin kiya balki maharaj ko thoDa ashchary awashy hua
maharaj kahin mera apman to nahin karna chahte hain?
kunal! main kya chahti thee? yahi na ki kunal samrat bane aur tab mujhe pattamhishai bankar parshw mein baithna mile aur main sarthak ho jaun ismen kya anaitik ya aur kya anaisargik? jin sundar netron ke bare mein sunkar yunan ke samrat ne apni putri tumhein wiwah deni chahi jab we hi netr meri is deh ko dekh lete to main upakrt ho jati theek hai, tishyrakshita aur dharm ke beech jab tum ne dharm ko chuna tab dekhen dharm kis prakar tumhari rakhsha karta hai
ao, pataliputr aao, bhawi morya samrat!
pataliputr apne sundar netron wale andhe yuwaraj ka swagat karne ke liye aatur hai! tumhare bhikshu pita shunykaksh takte hue tumhare tilak ke diwaswapnon mae Dube rahte hain main takshashila ke paur ka bhay se pila paDa mukh dekh rahi hoon use wishwas nahin ho raha hai ki maha samrat maury samrajy ke yuwraj ke netr nikalne ka adesh akaran hi de sakte hain wo tumhari or dekhta hai aur hataprabh
un param sundar kunalanayno se jane kitne suryoday aur suryast tumne dekhe honge kunal aur do chaar surya dekh lo mere premi putr uske baad to ye ankhen mere gawal ko is wedi par shobhit rahengi kunal swapn mein tumhare ye donon mera pichha karte hain aur main unhen pukarti hui akashi mein kho jati hoon
—kartik pachmi ratri pratham prahar
aj teen din se ganga par ek sewak bheja jata raha hai taki takshashila se lauta ashwarohi jo bhi laya ho wo le liya ja sake teen din kitne waise bote sahj na ho pa rahi thi bar bar mere chaunkne par maharaj ne halke toka bhi tha
ashwarohi ko teen din wilamb hua nayantara ka sanketik samachar milte hi main kinchit adhir hui, sir piDa ka bahana bana uth i shiwika mein raste bhar utsukta, bhay, witrshna aur jane kya kya hota raha yadi maryada ka dhyan na hota to pura bhawan, siDhiyan sab kuch dauDkar par karti
nayantara ne jab ekant mein nikalkar gunanyan dikhaye, ek kshan ko main wibhor ho gai kitne apratim sundar netr main soch nahin pa rahi thi ki we kunal ke netr hai kaise nirih do ujjal sipiyon ki tarah yadi unhen akash mein uD jane ko kah diya jata to we sidhe
takshashila pahunchte
mere netrahin premi main janti hoon ki tumhare ye do dewashishuo ki tarah hai kunal tum soch nahin sakte ki aaj main in donon ko kshan bhar ko bhi hothon se wilag na kar saki
aj main kitna prasann hoon aaj mujhe kitna pashchatap hai
ye amritanyan mere liye wishanyan kyon ho rahe hai?
o mere pati ke putr mere premi ye nayan ab hanste nahin hai, us din ka krodh kahan hai? ye ab ghrina bhi nahin karte aur, kunal ye ab kuch nahin dekhte, kuch nahin dekhte itne aprichit nayno ko to samarpan nahin kar sakti kunal main inhen pakar amar hona chahti thi meri piDa ka kahin ant nahin dikhta janti hoon ki netr nikalwa kar mainne ashay piDa tumhein pahunchai hai aao mere premputr main un khokhle randhron ko chumkar sari piDa har lungi
hamare tumhare beech ye do hi to nayan the kunal
pahle main andhi thi aur tum netrwan the aaj tum andhe ho aur kaise kahun ki main netrwati hun, kunal main ajanm andha hi rahi kya?
tum inhen pakar nahin rakh sake aur main inhen uplabdh karke bhi sahej na sakungi
ye netr duःkh ke dewta ho rahe kunal!
panchmi ka tiryak chandrma kartiki akash mein phoot aaya hoon ratri alap si arambh hone lagi hai janti hoon ki jaise hi maharaj ko is krity ki suchana milegi we meri boti boti kutton se nuchwa Dalenge unke ek matr priy putr ko netrahin karne wale wekti ko we kabhi bhi jiwit nahin chhoDenge koi baat nahin kunal! main tumhari deh ke shreshth ko kisi bhi roop mae sahi, pa to saki janti hoon mera bhawishya shatabdiyon ke liye mar chuka kewal upekshita, lanchhita tishyrakshita ko hi log bujhenge lekin koi meri asim
paritrpti, dah ko nahin bujh payega kunal! sambhwatः tum bhi nahin jis ke liye main, tishyrakshita papishtha hui
agatya kunal! main sada abhari rahungi ki tumne meri paritrpti ke liye netrdan kiya
aj main pawitra ho gai kunal! aaj main paritapit ho gai! main ujjwal kalankini sahi kunan, tum to aklank rah sake
rajkaragrih paush chaturthi ha brahmwela
aj ek mas se bandini hoon yahan
is beech ghatnayen itni tiwrata se hui hai ki jaise sootr sare bikhar gaye hon ek mahan natk patakshaep ki pratiksha kar raha hai samrajy ke liye asahy ho utha hai ki ek maury pattamhishai duracharini, kalankini nikli priydarshi lajja se wikshaipt hai suna kanchanmala ke sath yuwaraj ko lekar takshashila ka paur swayan upasthit hua hai nyay abhishad ke samne durabhisandhi rahi ki pattamhishai ka kya kiya jaye itihas mae koi udaharn nahin milta
bina mujhse puchhe hi maharaj ashwast ho gaye ki ye kukrty tishyrakshita ne hi kiya hai nayantara ne jab ratri ke pratham prahar mein aaye pataliputr ke paur se suna ki sawere suryoday ke poorw gangatat par mera agnidah kiya jayega, wo murkha pagla uthi hai
paur se kahne ko man hua ki maharaj se niwedan kar do ki main unhe antim bar dekhana chahti hoon, lekin byarth!!
main is samay sainikon ki pratiksha kar rahi hoon we kisi bhi samay aa sakte hai pau phatne mein wilamb to nahin lagta
aj raat bhar is ganga tat par ulkaon ka aalok tatha logon ke awagaman ka apar nad sunti rahi hoon kitna utsah hai logon mein raat bhar mein lakhon ki sankhya mein praja ekatr ho gai hai kis liye? durachari ko danDit hote dekhne ke liye athwa pattamhishai ko jo jiwit jalaya jayega wo dekhne ke liye?
aj raat kitni thanDi hawa chalti rahi! abhi bhi kuhra saf nahin hua hai ye to sainikon ke chalne ki aahat hai
to—
tum inhen pakar nahin rakh sake aur mein inhen uplabdh karke bhi sahej na sakungi ye netr duःkh ke dewta hi rahe kunal!
panchmi ka tiryak chandrma kartiki akash mein phoot aaya hai ratri alap si arambh hone lagi hai janti hoon ki jaise hi maharaj ko is krity ki suchana milegi, ye meri boti boti kutton se nuchwa Dalenge unke ekmatr priy putr ko netrahin karne wale wekti ko ye kabhi bhi jiwit nahin chhoDenge koi baat nahin kunal mein tumhari deh ke shreshth ko kisi bhi roop mein sahi pa to saki janti hoon, mera bhawishya shatabdiyon ke liye mar chuka kewal upekshita, lakshita, tishyrakshita ko hi log bujhenge lekin koi meri asim paritrpti, dah ko nahin bujh payega kunal sambhwatः tum bhi nahin, jiske liye main, tishyrakshita papishtha hui
agatya kunal mein sada abhari rahungi ki tumne meri paritrpti ke liye netrdan kiya
aj mein pawitra ho gai kunal aaj mein paritapit ho gai
main ujjwal kalankini sahi kunal! tum to aklank rah sake
rajkaragrih ha paush chaturthi ha praywela
aj ek mas se bandini hoon yahan!
is beech ghatnayen itni tiwrata se hui hain ki jaise sare sootr bikhar gaye hon ek mahan natk patakshaep ki pratiksha kar raha hai samrajy ke liye as se utha hai ki ek maury pattamhishai duracharini, kalankini nikli priydarshi lajja se wikshaipt hain suna, kanchanmala ke sath yuwaraj ko lekar takshashila ka paur swayan upasthit hua hai
nyay abhishad ke samne durabhisandhi rahi ki pattamhishai ka kya kiya jaye? itihas mein koi udaharn nahin milta
bina mujhse puchhe hi maharaj ashwast ho gaye ki ye kukrty tishyrakshita ne hi kiya hai nayantara ne jab ratri ke pratham prahar mein aaye pataliputr ke paur se suna ki sawere suryoday ke poorw gangatat par mera agnidah kiya jayega, wo moorkh pagla uthi hai
paur se kahne ko man hua ki maharaj se niwedan kar do ki mein unhen antim bar dekhana chahti hoon, lekin byarth
main is samay sainikon ki pratiksha kar rahi hoon ye kisi bhi samay aa sakte hain pau phatne mein wilamb to nahin lagta
aj raat bhar is ganga tat par ulkaon ka aalok tatha logon ke awagaman ka apar nad dekhti sunti rahi hoon kitna utsah hai logon mein raat bhar se lakhon ki sankhya mein praja ekatr ho gai hai kisaliye durachari ko danDit hote dekhne ke liye athwa pattamhishai ko, jo jiwit jalaya jayega, wo dekhne ke liye?
aj raat kitni thanDi hawa chal rahi hai abhi bhi kuhra saph nahin hua hai ye to sainikon ke chalne ki aahat hai
to—
sainik bhi aa gaye lekin abhi mainne raat ki bhusha nahin badli nayantara bhusha le aa rahi hai so— patakshaep?
• abhi abhi rajamhishai ko sainik le gaye hain mashal ke kanpte parkash mein abhi unki kali bhusha samne ke andhere mein tirohit hui hai ye bhusha peer hi de gaye the bhusha pahnate mere hath kaamp rahe the main phoot paDna chah rahi thi lekin mahadewi ekdam nirwikar theen mujhe ek bar dekha aur ishat muskan ke sath we sainikon ke sath ho leen
sainikon ke sath karagrih ka baDa sa jina utarkar panktibaddh sainikon se rakshait marg se hoti hui us wedi ki or baDhin, jahan ki unhen jalaya jana tha
pishiya tej shital hawa is samay sapate marti hui ye rahi hai apar samuh sans rok bhay, witrshna se mahadewi ki or dekh raha hai suryoday hone ko hai
us wedi se hatkar ek unche manch par samrat aur yuwaraj donon hi upasthit hain maharaj ko dekhkar we kshan ko halke rukin, phir baDh gai unhen wedi ke khambh se bandh diya gaya aur tatkshnat hi maharaj ka kanpta hath utha aur wedi sulag uthi
lal lal lapton mein mahadewi ka munh jhulse tanbe sa ek kshan chamka aur uske baad
ye Diary tibbat ke ek bauddhmath se apni pichhli tibbat yatra mein mujhe prapt hui thi mainne is ka matr sampadan kiya hai is ki prati atyant jeern sheern ho gai hai ise paDhne ka kaam mere ek bauddh bhashawigya mitr ne kiya hai —lekhak
pataliputr ha rajabhwan
waishakh purnaima ha madhyratri
aj ab lotna hua hai—dharmraji kotsaw se nayantara, dasi hi nahin hai, balki achchhi mitr hai kitna shital, sugandhit jal tha, snan mae kitna sukh mila! aaj din bhar loon chalti rahi megh ghirne ki ritu aa chali hai aaj ki ye kshain ganga tab isi gawaksh ke niche se prwahegi ab jakar watas thoDi shital hai hawa mae pake amon ki kaisi madak gandh ghuli hui hai! dharmrajikotsaw aaj jakar kahi shesh hua ek saptah tak pataliputr chashak ki bhanti uphnata raha aryaputr atyant santusht hai
bahut thak gai hoon, sambhawtah isiliye neend nahin aa rahi hai ek saptah ke is ayojan ne to ekdam hi thaka Dala hai suryoday se suryast tak chhatr chamar ke niche maryadit baithe rahne se baDa koi duःkh nahin lekin ye duःkh hi kitna madak tatha akarshak hai! charon or ka jaykar aap ko wistar deta hai aur rajyasan, dedipyaman eknishthta desh widesh ke winamr hote hue rajamukut, baladhikriton ke widyutphal ki samarpit khaDg, ratnon aur wastron ke asankhya chaal aur wibhinn das dasiyan—lagta hai prithiwi, dasi ban kar samarpit hai logon ko winay hi shobha deta hai aur aapko us winay ko swikar karna
aj ka dharmrajikotsaw ka ayojan adwitiy tha
kyoki ek mahan maury samrat ne bauddh prawrajya li aaj samast maury samrajy mein chaurasi hajar dharmrajiko (stupo) ki sthapana ki gai sinhadhwaj rope gaye jin par dewanamapriy ke anusyan khude hue hai aaj uprant maury samrat maharaj ashok, priydarshi ashok kahen jayenge sambhwat mae bhi unhen ab aryaputr nahin kah paungi, isliye tishyrakshita aaj se patihin patni, samrathin pattamahiyo hi mani jayengi kyoki bhikshu to sambandhhin hote hai kya main bhikshuni ho sakungi? wriddhapkal kapay mein sundar lagta hai lekin yauwan to nahin n? aryaputr kapay ghaar chuke lekin kya tishyrakshita aisa kar sakti hai? kya uske wachan tan par swayan kapay sulag na uthega? aur kyo? kis prayojan ke liye?
charon or kitni shanti hain gawaksh ke bahar wishakha chandni kaise hole haule baras rahi hai akash chandni mein sphatik lag raha hai pattamhishai hone par bhi sahj patni ke sukh se wachit sambhwat koi bhi sab kuch prapt nahin kar sakta hai hamein chunna hota hai ye hum par nirbhar karta hai ki hum ya chunte hain
is utsaw ke liye yunan aur mistr ne wishesh roop se apne rajawshi shishtmanDal bheje
any paDosi rashtro ne bhi apne amatya, rajadut aadi bhejkar maitri pradarshit ki kaling ka rajakumar nilratn bhi upasthit tha use deykar moh hota hai lagta hai kaling bahut sundar pardesh hai suna hai us ka sindhu tat baDa ho ramnik hai kabhi jana chahti hoon nolratn kitna saral hai use kinchit bhi rajasi garima nahin aati apne hath ke mayurpakh se kitna warajti rahi ki samragyiyo ko ghura nahin jata—kisi sima tak moorkh bhi hain hansta hai to lagta hain ki jaise ekant sindhu jal hans raha ho
pataliputr ke waibhaw ko aaj parakashtha thi nagar aur akash abhi bhi alokit hai kitne toran, dwar, wandanware, manorjan aadi ayojit the marg ke donon or darshanarthi praja ki paktiyan gaganbhedi jaykar rath par lautte hue aaj sahsa dhyan aaya ki ye jaykar kiski ki ja rahi hai kya us samrat ki jo ki bhikshu ho gaya ya samraji ki, jo ki abhi bhi pattamahipi hai? samrat ke pas tyagne ko kitni wastuen thi—samrajy, patni, pariwar, yudh, das dasiyan, hinsa is tyag ki jaykar na hogi to kis ki hogi? main kya tyagti? ek wriddh pati tha, so usne hi tyag diya aur tyag, wriddhapkal ko ho shobhta bhi hai
aj aath baras hue wiwah ko kya isi chhoD dene ko wriddhapkal mein wiwah laye the? ek din bhi to hum pati patni ki bhanti nahin rahe lekin aaj un sab baton par soch karna byarth hai nidra nahin aa rahi hai kanon mein utsaw ki dhwaniyan jaise bhar gai hai drishya aur log ankhon mein tir rahe hain jhanjhari ke par nayantara kitni nishchint so rahi hai! koi kamna nahin, koi mahatwakanksha nahin—sab se heen, isiliye nayantara ke liye ratri, neend hai aur din din hai abhi mujhe swarmanDal par wihag sunakar gai samjhi main so gai aur aap bhi jakar so gai sab so gaye hai dirghayen tatha bhittiyan tak so rahi hai kewal gawaksh wala dipadhar hi alokit hai bahar nirmal ekant prashast hai niche kahin door pahruo ka sawdhan chauka jata hai ganga ki kshain dhara mein koi balu bhari nauka kashi ki or ja rahi hai machhua kitna tanmay mankar raha hai sambhwatः uski yuwati patni mastul ke khambh se sati apne pati ke sangit mein Dubi hogi aur pati ki sanche Dhali deh ke liye aakul bhi —o kunal! mere prem ko tumne abhigman kahkar tiraskrit kiya kyon kiya? main tumhare pita ki patni awashy hoon lekin tumhari mata to nahin tum mujhe apni hi drishti mein gira dena chahte the? lekin kyon? kahi tumhe apni sundar ankhon par garw to nahin hai?
tum dharmrajikotsaw mae aaye hue ho, lekin bhulkar bhi mere bhawan nahin aaye parson maharaj ke samman—men mainne bhoj diya usmen bhi tum sammilit nahin hue apni patni kanchanmala ko bhi nahin aane diya kyon? ek bar hi aate tum to dekhte ki, o mere pati ke putr mere premi! tumhare pita ki patni tumhari premika tishyrakshita anukshan tumhe smarn karti hai jante ho kunal! meri in bahuon mein bandhne ke liye yunan ke samrat tak lalayit ho sakte hai? ek sanket mein samrajyon ka utthan patan kar sakti hoon? tumhein kis baat ka garw hai? yuwaraj hone ka? kunal pakshi ki bhanti nayan pa jane ka darp hai? mainne tumse yachana ki aur tum mera tiraskar kar sake—is baat ka ghamanD hai? to kunal tum bho yaad rakhna ki tum mae tishyrakshita ka tiraskar kiya tha jao, takshashila jao, prashasak bankar raho, dekhti hoon kitne dinon tak! main ya to kamna karti nahin hoon aur kamna karne ke baad parajit hona nahin janti main ashok nahin ki kshama, karuna, ahinsa mein dikshait ho jaun yadi tum mujhe prapy na ho sake to kisi any ke bhi na ho paoge
kunal! main phir kahti hoon ki aa jao bus ek bar apne un kunal naynon se mujhe ek premi ki bhanti nihar lo main itni sundar ankhon wala putr nahin, premi chahti hoon
main nahin janti ki meri is wanchha ka kya hoga
kal yunan ke shishtmanDal ne bhoj diya hain maharaj ki ichchhanusar hi bhoj mein kewal do mor aur ek harin hi honge maharaj isiliye poon ahinsa ke pakshapati nahin hai, ye to kewal wihinsa chahte hain is war pashuon ka samaj pradarshan bhi phika hi raha dharm ki bhi sima hogi, kya maharaj isko nahin samajhte?
kya saurgiyah samrat chandrgupt aur bindu sar ke samrajy ka yahi hona tha?
ashchary nahin ki maharaj kisi din samrajy hi wiharon ki sewa ke liye de den lekin aaj to nahin de rahe hai n? saptarshai Dubne hi wale hai palken kaDwahat se bhar uthi hai ag ag mein kitni thakan bhar gai hai nayantara ko jagakar thoDa sir dabwa liya jaye to neend achchhi ayegi
jyeshth pratipda ratri din bhar wahi wyastata rahi aaj ek yunani nrity bhi dekhne ko mila maury samrajy ke utkarsh se yunan koi prasann nahin hai yunani, takshashila par drishti lagaye hue hai takshashila mein amatya logon ne wishesh achchha wywahar nahin kiya tha sabhi asantusht the isiliye yuwaraj ko wahan bheja gaya taki sima par rajwansh ka sampurn adhikar bana rahe kuch bhi ho, yunani prasann jati hai jiwan ko utsaw manti hai
maharaja se is bar phir pararthna karna chahte hai ki kuch jyotishi, karigar, bhawan nirmata ke yahan se apne desh le jana chahte hain mujhse is bare mein pratisakhya chahte hain
wrishti ki pratiksha hai garamiyo mein pataliputr kaisa jhulas jata hai
ekadh din mein kunal takshashila bala jayega aaj wo yunani bhoj mein matr pradarshan ke liye hi upasthit hua tha jis samay main yunani rajakumar se alap kar rahi thi wo man saujanyata nirwah ke liye hi aaya main us par krodh karna chahti hoon lekin pata nahin kyon main use dekhkar wihwal ho jati hai us ke netron mein jadu hai
ashaDh pratipda ratri
ajkal khoob wrishti ho rahi hai, lekin umas nahin gai
aj maharaj ke sath naukanyan ke liye gai thi lagta hai maharaj sabse udasin ho gaye hai kisi sima tak asamajik bhi sambhwat ye mujhse prasann nahin hai we samajhte hai ki is baDhi aayu mein tishyrakshita se wiwah kar baDi bhari bhool ki aayu ka itna antar we mala pherkar nahin pat sakte sabki apni niyti hoti hai, main ismen kya kar sakti hoon? kunal ne mujhe maharaj ki drishti mein niche gira diya lekin main kahti hoon ki pita putr donon ko rajy chhotkar kisi math mein chala jana chahiye bhikshu shasan karenge! sab purush aur nariyan bhikshu bhikshuni ho jayen to sirishti chal chuki kitna achchha hota yadi amatya chanakya ke samay mein hoti! samrat chandrgupt ka khaDg hota, chanakya ki niti hoti aur tishyrakshita ki mahatwakanksha hoti nauka wihar mein sthawir ke prawchan ne to uba diya kyon log chahte hain ki jab we wriddh hone lagen to sab un ke sath wriddhane lagen? ye ekdam niri murkhata hai wriddh hone wale ko pashuon ke samaj mein khel ke liye chhoD diya jana chahiye wriddh hona apman hai
kunal ko gaye aaj ek paksh ho gaya hai jane ke din wo jane kya sochkar yahan aaya tha sath mae kanchanmala ko nahin laya, achchha kiya wekti pratyek samay har kisi ko nahin chahta ki koi dusra bhi ho usne bataya ki wo ajkal wina seekh raha hai jab tak ye baitha raha ritu sangit, jyotish ki hi charcha karta raha lagta hai sthiti ko tal jane ka Dhang use aa gaya hai
main kunal ko wida dene maharaj ke sath nagarsima tak nahin gai
maharaj bata rahe the ki is chaturmas ke baad dharmyatra par nikalna chahte hai mujhe Dar hai ki kahin mujhe bhi sath chalne ke liye baadhy na kiya jaye dharm ki jay jaykar karte hue ghumne se to achchha hai ki wekti atmahatya kar le baDa ghrinaspad lagta hai kal ek murtikar aane wala hai jo meri pratima banana chahta hai
shrawan nawmi ha madhyratri
murtikar kaling ka ek wriddh kalakar hai jo ki kaling yudh mein bandi bana liya gaya tha maharaj ne use mukt kar diya hai us ne raj pariwar ke sabhi logon ki murtiyan banai hai main use barabar talti aa rahi thi jab usne bataya ki ye meri murti banaye bina kaling nahin jayega to agatya banwani hi paDi murtikar apne ko sindhusen kahta hai murti achchhi banai aaj maharaj bhi murti dekhne aaye the kai mahinon baad aryaputr mere bhawan padhare the we kafi aswasth dikhne bhi lage hai unhe chahiye ki jis prakar rajakaj se we wishranti liye hue hain usi prakar in gheron se bhi mukt hon, apne swasthy ka dhyan rakhen, lekin unse kaun kahe?
kal yadi meghachchhatr nahin raha to kisi upwan ko or jana chahti hoon nayantara na hoti to main kitni wiwash ho jati! lagta hai samant kumarsen nayantara se mitrata ke liye bahut utsuk hai mitrata ho jaye to achchha hai n?
kunal takshashila pahunch gaya hai, ashwa rohi aaye the
itna baDa utsaw sahsa samapt ho gaya; lagta hai pataliputr ekdam hi rita gaya
kabhi kabhi mrigaya ke liye jana chahti hoon, lekin sambhaw hai maharaj ise pasand na karen ajkal ji uwa dene wali nishkriy shanti hai rajabhwan bhi math banta ja raha hai
—shrawan amawastha ratri
priydarshi maharaj atyant rugn hai aaj hi himale ke prashasak ko maharaj ki prastawit dharmyatra ko aswikriti ki suchana bheji gai hai yunani tatha bharatiy waidyo ki samajh mein kuch nahin aa raha hai we nidan hi nahin kar pa rahe hai bechare waidy, ye bhi nahin jante ki wriddhapkal swayan hi asadhy rog hai, aur wisheshkar tab jab asim sundri patni din raat samne ho samrat dhire dhire wiwash hote ja rahe hain
kya ye nahin lagta hai ki sare samrat aur samragyiyan bhi sahj manushyon ki hi tarah hai? samrat ka bhaar ajkal mujh par aa gaya hai sara rajakary bhi karna paD raha hain lekin meri ismen koi ruchi nahin hai ki kis prashasak ko prjarjan ke liye kaun sa adesh diya ja raha hai sinhal mein dharm parchar ka kary wyapak ho gaya hai rajakumar mahendr tatha rajakumari saghmitra ko aaye din is bare mein patr jate hai
pichhle dinon se rajmudrika lagane ka kaam bhi mujhe hi karna paD raha hai kaisi wiDambna hai ki maharaj mujhe puri tarah nahin wishwaste phir bhi bhaar mujh par chhoDne ko baadhy hain mujhe shanka hai ki amatyon mein se kisi ko kah rakha hoga ki wo mukh par chauksi karta rahe ki kahin main maharaj ke wiruddh koi shaDyantr na kar baithun maharaj kisi hathi baDe bachche se kam thoDe hi hai shaDyantr bachcha aur bhikshuon ke wiraddh thoD hi kiya jata hai maharaj samajhte hain ki yunan ka jo shishtmanDal aaya tha wo mukh se prabhawit hokar gaya hai itne rajakumari ke rahte santanhinn pattamhishai se prabhawit hone ka arth? yadi mere man mein koi aisi baat na bhi ho to bhi maharaj mujhe aisi sthiti mein kar dena chahte hain ki koi bhi shaDyantr kiya ja sake
dharmrajikotsaw mein sammilit hone ki badhai wale sare patr maharaj ko dikha deti rahi hoon lagta hai maharaj chaunk chaunk uthte hai aur ye nirih se kaksh takne lagte hai sambhaw hai we mere hathon mein apne ko ashwast na pate ho kahin we apne putron ko to nahin apne pas dekhana chahte hain? to kya we mujhe apna nahin mante hai? ab mera kya hoga? kya mujhe jiwan bhar matr jalna hi hoga?
kal puchhungi ki kya maharaj kisi kumar ko pataliputr mein dekhana chahte hain?
—bhadrapad chaturthi madhya
mera lashay theek hi nikla kafi baDa bhubhag bauddhamtho ke liye diye jane ke paksh mein maharaj hai main kya kar sakti hoon? kunal ko bulwaya gaya hai yuwaraj ke tilak ki charcha amatyon ke star par ki ja rahi hai mujhe se chhupai gai hai charcha kyon? kya maharaj meri upeksha kar apne putr ka bhawishya bana sakenge? mujhe koi apatti nahin hoti yadi mujhse bhi paramarsh kar liya gaya hota astu —
to—
bhikshusamrat priydarshi ashok ke putr yuwaraj kunal!
kalankini tishyrakshita ke premi!
mere pati ne tumhein kitni sundar ankhen deen aur main unhen chahti thi lekin tum aswikar kiya rajamhishai ka tumne apman kiya yuwaraj! to, theek hai, takshashila ke paur ko aaj hi adesh ek teewr ashwarohi ke hathon bheja gaya hai ki wo prashasak kunal ki donon ankhen sheeghr preshait karen— maharaj ki yahi aagya hai!!
nahin samjhe??
koi baat nahin main samjhati hoon maharaj tumhara tilak karna chahte hai ye tumhe pataliputr mein upasthit dekhana chahte hai yahi awsar tha ki main tumhare we donon sundar nawan prapt kar sakun maharaj ka adesh lekar jo ashwarohi gaya hai use do mah lagenge, lekin paur ko bheja gaya adesh ek mah tak takshashila pahunch jayega aur sambhyatः ashwin ke samapt hote tak mein un donon sundar netron ko apne othon se laga sakungi
kunal!
mere pati ke putr mere premi!
tumhare pita ki patni tishyrakshita ne, jiske prem ko tum abhigman kahkar kalankit kar gaye, usi tumhari mata ne ek mada kunal pali hai uska nar ek wriddh kunal tha us mada kunal ko nar kunal ki sundar ankhen chahiye
mere premi putr!
takshashila ki or jate hue tiwrgami ashwarohi ki tapen tak sun rahi hoon isi ganga ke
kanthe kanthe wo himale ki upatyaka tak jayega aur phir panchanad ke teewr nadon ko par kar ek din takshashila ke paur ko le jakar maharaj ka adesh dega sach manon mere premi putr! main un donon naynon ki pratiksha tumhare pita se bhi adhik kar rahi hoon jo ki tumhara yuwrajabhishek karna chahte hain
kunal!
mere pati ke putr mere premi!
tumhare un kunal naynon ke liye mainne dakshain ke kalakaron dwara ek manaik manjusha banwai hai tum sach manon mere premi putr! main un netron ke liye koi sa pap kar sakti hoon kaisi hi narakiy yatana bhogne ko bhi tatpar hoon mujhe apne premi ke we netr chahiye tum meri wyakulta kisi janm mein bhi samajh na sakoge
main janti hoon, mera kalank koi nahin sahn kar sakta sach mano, is gawaksh ke pas warshon se baithi hui tumhari pratiksha karti rahi, lekin us din dosh dekar jo tum gaye to kabhi nahin laute aur us din takshashila jate hue aaye bhi to rituon ki baten karte rahe bharat ne yunan ko jyotish mein kya den di hai is baat par charcha karte rahe kya tum jyotish ki baten karne ke liye takshashila se aaye the? janti hoon ki tumhein kachanmala ne chatur bana diya hai
kabhi tumne socha ki koi patni, pita ke saman wriddh pati ko kya saump sakti hai? patnitw ka samarpan pita ko to nahin kiya jata n? aur sambhaw bhi hota to wriddh pati jakar bhikshu ban gaya ab batao kunal mera prem abhigman hai? kabhi mera waidagghya kyon nahin samjha tumne? tumhare pita wiwah laye the, matr is tathy se hi mata man le gaye? jabki main un ki patni kitni thi, kabhi ye bhi socha?
mera niwedan, matr nari ka ek purush ke prati tha tum bhool gaye ki nari bhi prithiwi ki bhanti wirbhogya hoti hai maine tumhein prem dena chaha aur pratidan mein tum mujhe dharm dene lage batao main dharm lekar kya karti? aur tum mujhe sada ke liye lachhit kar gaye
koi baat nahin, kalakini tishyrakshita ke dharmabhiru premiputr apne isi gawaksh ke pas baithkar main tumhare un kunal naynon se puchhungi ki batao dharm baDa tha ya prem?
bhadrapad purnaima madhyratri
gat ek paksh se megh thamne ka nam bhi nahin lete door kile ki diwaren hari kai mein kitni sundar lagti hai din mein pahle to kaam ko nishchintta thi lekin ab kaam hi kaam rahta hai maharaj ka swasthy theek hi nahin ho raha hai pichhle dinon maharaj ke hi bhawan mein rahna paDa anek dinon uprant maharaj ke bhawan mein rahne par sahsa kitna ajib laga arambh ke warsh smarn aa gaye tab ankho ke samne ajib swarnaim swapn tha is samay jis prakar chandrma or meghon ne milkar akash mein jo ek rahasylok bana rakha hai theek aisa hi rahasy lekar pratham yauwanawti si yahan i thi maharaj tab bhi wriddh the lekin phir bhi samrat ye witragita bhale hi rahi ho kintu bhikshutw nahin tha we tab bhi madak awashy the, bhale hi uddam na rahe ho
in aath nau warshon mein jane kitni bar ganga ki bhanti uphnati rahi pratyek baDh yaad aati hai lagta hai is bar kagar choor choor ho jayenge prlay ho jayega lekin wah re wistar ke dhairya, ki kaisi hi baDh sada utar jati rahi hai
ganga mein ajkal khoob baDh hai ghato par pani ya gaya hai kile ki diwaron ko chhukar jab pani bahne lagta hai to lagta hai jaise aap kisi wishal pot mein baithe hue hon
aj purnaima wala brahmabhoj tha gat warshon se is din bhikshuon ko bhi bhoj diya jane laga hai chahti hoon kuch dinon ke liye kisi samudryatra par chali jaun kyon nahin nilratn ko suchana kar di jaye kaling bhi dekh liya jayega hamari nau sena ka ek beDa wahan hai hi anek din hue samudr yatra kiye kisi din maharaj se kahungi
kya ashwrohi takshashila nahin pahuncha hoga ab tak?
main to nayantara ki samant kumarsen se mitrata karwane ki baat soch rahi thi aur kal gyat hua ki agami falgun mein donon wiwah karna chahte hain is baat se mujhe utna sukh nahin hua jitna ki hona chahiye ya phir bhi main sukhi hoon nayantara aur uska samant donon hi chahte hai ki is ki aasha maharaj se dilwa doon kuch bhi sahi, nayantara agatya sukhi ho yahin meri bhi kamna hai
—adhin dwitiyah uttar ratri
aj windhya par ki ek gayika i thi abhi abhi ye gan samapt kar gai hai maharaj ko ab kisi kala mein ruchi nahin rah gai hai aur phalatः mujhe hi khatna paDta hai shilpiyon ke liye to stupon, dhwjon tatha shilalekhon ka Dher sara kaam hai lekin sangit mein maharaj ki ruchi pahle bhi wishesh nahin thi, kya kiya jaye in logon ka?
aj maharaj poochh rahe the ki main kunal ke bulaye jane se prasann hoon ki nahin main samajhti hoon is puchhne ka kya matlab tha yuwaraj ke abhishaek ke bare mein we dusri charchaon ke beech is prakar bata gaye jaise mujhe pahle se hi gyat tha mainne bhi koi ashchary prakat nahin kiya balki maharaj ko thoDa ashchary awashy hua
maharaj kahin mera apman to nahin karna chahte hain?
kunal! main kya chahti thee? yahi na ki kunal samrat bane aur tab mujhe pattamhishai bankar parshw mein baithna mile aur main sarthak ho jaun ismen kya anaitik ya aur kya anaisargik? jin sundar netron ke bare mein sunkar yunan ke samrat ne apni putri tumhein wiwah deni chahi jab we hi netr meri is deh ko dekh lete to main upakrt ho jati theek hai, tishyrakshita aur dharm ke beech jab tum ne dharm ko chuna tab dekhen dharm kis prakar tumhari rakhsha karta hai
ao, pataliputr aao, bhawi morya samrat!
pataliputr apne sundar netron wale andhe yuwaraj ka swagat karne ke liye aatur hai! tumhare bhikshu pita shunykaksh takte hue tumhare tilak ke diwaswapnon mae Dube rahte hain main takshashila ke paur ka bhay se pila paDa mukh dekh rahi hoon use wishwas nahin ho raha hai ki maha samrat maury samrajy ke yuwraj ke netr nikalne ka adesh akaran hi de sakte hain wo tumhari or dekhta hai aur hataprabh
un param sundar kunalanayno se jane kitne suryoday aur suryast tumne dekhe honge kunal aur do chaar surya dekh lo mere premi putr uske baad to ye ankhen mere gawal ko is wedi par shobhit rahengi kunal swapn mein tumhare ye donon mera pichha karte hain aur main unhen pukarti hui akashi mein kho jati hoon
—kartik pachmi ratri pratham prahar
aj teen din se ganga par ek sewak bheja jata raha hai taki takshashila se lauta ashwarohi jo bhi laya ho wo le liya ja sake teen din kitne waise bote sahj na ho pa rahi thi bar bar mere chaunkne par maharaj ne halke toka bhi tha
ashwarohi ko teen din wilamb hua nayantara ka sanketik samachar milte hi main kinchit adhir hui, sir piDa ka bahana bana uth i shiwika mein raste bhar utsukta, bhay, witrshna aur jane kya kya hota raha yadi maryada ka dhyan na hota to pura bhawan, siDhiyan sab kuch dauDkar par karti
nayantara ne jab ekant mein nikalkar gunanyan dikhaye, ek kshan ko main wibhor ho gai kitne apratim sundar netr main soch nahin pa rahi thi ki we kunal ke netr hai kaise nirih do ujjal sipiyon ki tarah yadi unhen akash mein uD jane ko kah diya jata to we sidhe
takshashila pahunchte
mere netrahin premi main janti hoon ki tumhare ye do dewashishuo ki tarah hai kunal tum soch nahin sakte ki aaj main in donon ko kshan bhar ko bhi hothon se wilag na kar saki
aj main kitna prasann hoon aaj mujhe kitna pashchatap hai
ye amritanyan mere liye wishanyan kyon ho rahe hai?
o mere pati ke putr mere premi ye nayan ab hanste nahin hai, us din ka krodh kahan hai? ye ab ghrina bhi nahin karte aur, kunal ye ab kuch nahin dekhte, kuch nahin dekhte itne aprichit nayno ko to samarpan nahin kar sakti kunal main inhen pakar amar hona chahti thi meri piDa ka kahin ant nahin dikhta janti hoon ki netr nikalwa kar mainne ashay piDa tumhein pahunchai hai aao mere premputr main un khokhle randhron ko chumkar sari piDa har lungi
hamare tumhare beech ye do hi to nayan the kunal
pahle main andhi thi aur tum netrwan the aaj tum andhe ho aur kaise kahun ki main netrwati hun, kunal main ajanm andha hi rahi kya?
tum inhen pakar nahin rakh sake aur main inhen uplabdh karke bhi sahej na sakungi
ye netr duःkh ke dewta ho rahe kunal!
panchmi ka tiryak chandrma kartiki akash mein phoot aaya hoon ratri alap si arambh hone lagi hai janti hoon ki jaise hi maharaj ko is krity ki suchana milegi we meri boti boti kutton se nuchwa Dalenge unke ek matr priy putr ko netrahin karne wale wekti ko we kabhi bhi jiwit nahin chhoDenge koi baat nahin kunal! main tumhari deh ke shreshth ko kisi bhi roop mae sahi, pa to saki janti hoon mera bhawishya shatabdiyon ke liye mar chuka kewal upekshita, lanchhita tishyrakshita ko hi log bujhenge lekin koi meri asim
paritrpti, dah ko nahin bujh payega kunal! sambhwatः tum bhi nahin jis ke liye main, tishyrakshita papishtha hui
agatya kunal! main sada abhari rahungi ki tumne meri paritrpti ke liye netrdan kiya
aj main pawitra ho gai kunal! aaj main paritapit ho gai! main ujjwal kalankini sahi kunan, tum to aklank rah sake
rajkaragrih paush chaturthi ha brahmwela
aj ek mas se bandini hoon yahan
is beech ghatnayen itni tiwrata se hui hai ki jaise sootr sare bikhar gaye hon ek mahan natk patakshaep ki pratiksha kar raha hai samrajy ke liye asahy ho utha hai ki ek maury pattamhishai duracharini, kalankini nikli priydarshi lajja se wikshaipt hai suna kanchanmala ke sath yuwaraj ko lekar takshashila ka paur swayan upasthit hua hai nyay abhishad ke samne durabhisandhi rahi ki pattamhishai ka kya kiya jaye itihas mae koi udaharn nahin milta
bina mujhse puchhe hi maharaj ashwast ho gaye ki ye kukrty tishyrakshita ne hi kiya hai nayantara ne jab ratri ke pratham prahar mein aaye pataliputr ke paur se suna ki sawere suryoday ke poorw gangatat par mera agnidah kiya jayega, wo murkha pagla uthi hai
paur se kahne ko man hua ki maharaj se niwedan kar do ki main unhe antim bar dekhana chahti hoon, lekin byarth!!
main is samay sainikon ki pratiksha kar rahi hoon we kisi bhi samay aa sakte hai pau phatne mein wilamb to nahin lagta
aj raat bhar is ganga tat par ulkaon ka aalok tatha logon ke awagaman ka apar nad sunti rahi hoon kitna utsah hai logon mein raat bhar mein lakhon ki sankhya mein praja ekatr ho gai hai kis liye? durachari ko danDit hote dekhne ke liye athwa pattamhishai ko jo jiwit jalaya jayega wo dekhne ke liye?
aj raat kitni thanDi hawa chalti rahi! abhi bhi kuhra saf nahin hua hai ye to sainikon ke chalne ki aahat hai
to—
tum inhen pakar nahin rakh sake aur mein inhen uplabdh karke bhi sahej na sakungi ye netr duःkh ke dewta hi rahe kunal!
panchmi ka tiryak chandrma kartiki akash mein phoot aaya hai ratri alap si arambh hone lagi hai janti hoon ki jaise hi maharaj ko is krity ki suchana milegi, ye meri boti boti kutton se nuchwa Dalenge unke ekmatr priy putr ko netrahin karne wale wekti ko ye kabhi bhi jiwit nahin chhoDenge koi baat nahin kunal mein tumhari deh ke shreshth ko kisi bhi roop mein sahi pa to saki janti hoon, mera bhawishya shatabdiyon ke liye mar chuka kewal upekshita, lakshita, tishyrakshita ko hi log bujhenge lekin koi meri asim paritrpti, dah ko nahin bujh payega kunal sambhwatः tum bhi nahin, jiske liye main, tishyrakshita papishtha hui
agatya kunal mein sada abhari rahungi ki tumne meri paritrpti ke liye netrdan kiya
aj mein pawitra ho gai kunal aaj mein paritapit ho gai
main ujjwal kalankini sahi kunal! tum to aklank rah sake
rajkaragrih ha paush chaturthi ha praywela
aj ek mas se bandini hoon yahan!
is beech ghatnayen itni tiwrata se hui hain ki jaise sare sootr bikhar gaye hon ek mahan natk patakshaep ki pratiksha kar raha hai samrajy ke liye as se utha hai ki ek maury pattamhishai duracharini, kalankini nikli priydarshi lajja se wikshaipt hain suna, kanchanmala ke sath yuwaraj ko lekar takshashila ka paur swayan upasthit hua hai
nyay abhishad ke samne durabhisandhi rahi ki pattamhishai ka kya kiya jaye? itihas mein koi udaharn nahin milta
bina mujhse puchhe hi maharaj ashwast ho gaye ki ye kukrty tishyrakshita ne hi kiya hai nayantara ne jab ratri ke pratham prahar mein aaye pataliputr ke paur se suna ki sawere suryoday ke poorw gangatat par mera agnidah kiya jayega, wo moorkh pagla uthi hai
paur se kahne ko man hua ki maharaj se niwedan kar do ki mein unhen antim bar dekhana chahti hoon, lekin byarth
main is samay sainikon ki pratiksha kar rahi hoon ye kisi bhi samay aa sakte hain pau phatne mein wilamb to nahin lagta
aj raat bhar is ganga tat par ulkaon ka aalok tatha logon ke awagaman ka apar nad dekhti sunti rahi hoon kitna utsah hai logon mein raat bhar se lakhon ki sankhya mein praja ekatr ho gai hai kisaliye durachari ko danDit hote dekhne ke liye athwa pattamhishai ko, jo jiwit jalaya jayega, wo dekhne ke liye?
aj raat kitni thanDi hawa chal rahi hai abhi bhi kuhra saph nahin hua hai ye to sainikon ke chalne ki aahat hai
to—
sainik bhi aa gaye lekin abhi mainne raat ki bhusha nahin badli nayantara bhusha le aa rahi hai so— patakshaep?
• abhi abhi rajamhishai ko sainik le gaye hain mashal ke kanpte parkash mein abhi unki kali bhusha samne ke andhere mein tirohit hui hai ye bhusha peer hi de gaye the bhusha pahnate mere hath kaamp rahe the main phoot paDna chah rahi thi lekin mahadewi ekdam nirwikar theen mujhe ek bar dekha aur ishat muskan ke sath we sainikon ke sath ho leen
sainikon ke sath karagrih ka baDa sa jina utarkar panktibaddh sainikon se rakshait marg se hoti hui us wedi ki or baDhin, jahan ki unhen jalaya jana tha
pishiya tej shital hawa is samay sapate marti hui ye rahi hai apar samuh sans rok bhay, witrshna se mahadewi ki or dekh raha hai suryoday hone ko hai
us wedi se hatkar ek unche manch par samrat aur yuwaraj donon hi upasthit hain maharaj ko dekhkar we kshan ko halke rukin, phir baDh gai unhen wedi ke khambh se bandh diya gaya aur tatkshnat hi maharaj ka kanpta hath utha aur wedi sulag uthi
lal lal lapton mein mahadewi ka munh jhulse tanbe sa ek kshan chamka aur uske baad
स्रोत :
पुस्तक : तिष्यरक्षिता की डायरी
रचनाकार : श्रीनरेश मेहता
प्रकाशन : ज्ञानोदय (श्रेष्ठ संचयन अंक : दिसंबर 1969-जनवरी 1970)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।