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तिष्यरक्षिता की डायरी

tishyrakshita ki Diary

श्री नरेश मेहता

श्री नरेश मेहता

तिष्यरक्षिता की डायरी

श्री नरेश मेहता

और अधिकश्री नरेश मेहता

    यह डायरी तिब्बत के एक बौद्धमठ से अपनी पिछली तिब्बत यात्रा में मुझे प्राप्त हुई थी। मैंने इस का मात्र संपादन किया है। इस की प्रति अत्यंत जीर्ण-शीर्ण हो गई है। इसे पढ़ने का काम मेरे एक बौद्ध भाषाविज्ञ मित्र ने किया है।—लेखक

    पाटलिपुत्र : राजभवन

    वैशाख पूर्णिमा : मध्यरात्रि

    आज अब लोटना हुआ है—धर्मराजि-कोत्सव से। नयनतारा, दासी ही नहीं है, बल्कि अच्छी मित्र है। कितना शीतल, सुगंधित जल था, स्नान मे कितना सुख मिला! आज दिन भर लूँ चलती रही। मेघ घिरने की ऋतु चली है। आज की यह क्षीण गंगा तब इसी गवाक्ष के नीचे से प्रवाहेगी। अब जाकर वातास थोड़ी शीतल है। हवा मे पके आमों की कैसी मादक गंध घुली हुई है! धर्मराजिकोत्सव आज जाकर कही शेष हुआ। एक सप्ताह तक पाटलिपुत्र चषक की भाँति उफनाता रहा। आर्यपुत्र अत्यंत संतुष्ट है।

    बहुत थक गई हूँ, संभवत: इसीलिए नींद नहीं रही है। एक सप्ताह के इस आयोजन ने तो एकदम ही थका डाला है। सूर्योदय से सूर्यास्त तक छत्र-चामर के नीचे मर्यादित बैठे रहने से बड़ा कोई दुःख नहीं। लेकिन यह दुःख ही कितना मादक तथा आकर्षक है! चारों ओर का जयकार आप को विस्तार देता है और राज्यासन, देदीप्यमान एकनिष्ठता। देश-विदेश के विनम्र होते हुए राजमुकुट, बलाधिकृतों के विद्युत्फल की समर्पित खड्ग, रत्नों और वस्त्रों के असंख्य चाल और विभिन्न दास-दासियाँ—लगता है पृथिवी, दासी बन कर समर्पित है। लोगों को विनय ही शोभा देता है और आपको उस विनय को स्वीकार करना।

    आज का धर्मराजिकोत्सव का आयोजन अद्वितीय था।

    क्योकि एक महान् मौर्य सम्राट् ने बौद्ध प्रव्रज्या ली। आज समस्त मौर्य साम्राज्य में चौरासी हजार धर्मराजिको (स्तूपो) की स्थापना की गई। सिंहध्वज रोपे गए जिन पर देवानामप्रिय के अनुसयान खुदे हुए है। आज उपरांत मौर्य सम्राट् महाराज अशोक, प्रियदर्शी अशोक कहें जाएँगे। संभवत मे भी उन्हें अब आर्यपुत्र नहीं कह पाऊँगी, इसलिए तिष्यरक्षिता आज से पतिहीन पत्नी, सम्राट्हीन पट्टमहियो ही मानी जाएँगी क्योकि भिक्षु तो संबंधहीन होते है। क्या मैं भिक्षुणी हो सकूँगी? वृद्धापकाल कापाय में सुंदर लगता है लेकिन यौवन तो नहीं न? आर्यपुत्र कापाय घार चुके लेकिन क्या तिष्यरक्षिता ऐसा कर सकती है? क्या उसके वाचन तन पर स्वयं कापाय सुलग उठेगा? और क्यो? किस प्रयोजन के लिए?

    चारों ओर कितनी शांति हैं। गवाक्ष के बाहर विशाखा चाँदनी कैसे होले-हौले बरस रही है। आकाश चाँदनी में स्फटिक लग रहा है। पट्टमहिषी होने पर भी सहज पत्नी के सुख से वचित। संभवत कोई भी सब कुछ प्राप्त नहीं कर सकता है। हमें चुनना होता है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम या चुनते हैं।

    इस उत्सव के लिए यूनान और मिस्त्र ने विशेष रूप से अपने राजवशी शिष्टमंडल भेजे।

    अन्य पड़ोसी राष्ट्रो ने भी अपने आमात्य, राजदूत आदि भेजकर मैत्री प्रदर्शित की। कलिंग का राजकुमार नीलरत्न भी उपस्थित था। उसे देयकर मोह होता है। लगता है कलिंग बहुत सुंदर प्रदेश है। सुना है उस का सिंधु तट बड़ा हो रमणीक है। कभी जाना चाहती हूँ। नोलरत्न कितना सरल है। उसे किंचित् भी राजसी गरिमा नहीं आती। अपने हाथ के मयूरपख से कितना वरजती रही कि सम्राज्ञियो को घूरा नहीं जाता—किसी सीमा तक मूर्ख भी हैं। हँसता है तो लगता हैं कि जैसे एकांत सिंधु-जल हँस रहा हो।

    पाटलिपुत्र के वैभव को आज पराकाष्ठा थी। नगर और आकाश अभी भी आलोकित है। कितने तोरण, द्वार, वंदनवारे, मनोरजन आदि आयोजित थे। मार्ग के दोनों ओर दर्शनार्थी प्रजा की पक्तियाँ। गगनभेदी जयकार। रथ पर लौटते हुए आज सहसा ध्यान आया कि यह जयकार किसकी की जा रही है क्या उस सम्राट् की जो कि भिक्षु हो गया या सम्राजी की, जो कि अभी भी पट्टमहिपी है? सम्राट् के पास त्यागने को कितनी वस्तुएँ थी—साम्राज्य, पत्नी, परिवार, युद्ध, दास-दासियाँ, हिंसा। इस त्याग की जयकार होगी तो किस की होगी? मैं क्या त्यागती? एक वृद्ध पति था, सो उसने ही त्याग दिया। और त्याग, वृद्धापकाल को हो शोभता भी है।

    आज आठ बरस हुए विवाह को। क्या इसी छोड़ देने को वृद्धापकाल में विवाह लाए थे? एक दिन भी तो हम पति-पत्नी की भाँति नहीं रहे। लेकिन आज उन सब बातों पर सोच करना व्यर्थ है। निद्रा नहीं रही है। कानों में उत्सव की ध्वनियाँ जैसे भर गई है। दृश्य और लोग आँखों में तिर रहे हैं। झँझरी के पार नयनतारा कितनी निश्चिंत सो रही है! कोई कामना नहीं, कोई महत्वाकांक्षा नहीं—सब से हीन, इसीलिए नयनतारा के लिए रात्रि, नींद है और दिन-दिन है। अभी मुझे स्वरमंडल पर विहाग सुनाकर गई। समझी मैं सो गई और आप भी जाकर सो गई। सब सो गए है। दीर्घाएँ तथा भित्तियाँ तक सो रही है। केवल गवाक्ष वाला दीपाधार ही आलोकित है। बाहर निर्मल एकांत प्रशस्त है। नीचे कहीं दूर पहरूओ का सावधान चौका जाता है। गंगा की क्षीण धारा में कोई बालू भरी नौका काशी की ओर जा रही है। मछुआ कितना तन्मय मानकर रहा है। संभवतः उसकी युवती पत्नी मस्तूल के खंभ से सटी अपने पति के संगीत में डूबी होगी और पति की साँचे ढली देह के लिए आकुल भी।—ओ कुणाल! मेरे प्रेम को तुमने 'अभिगमन' कहकर तिरस्कृत किया। क्यों किया? मैं तुम्हारे पिता की पत्नी अवश्य हूँ लेकिन तुम्हारी माता तो नहीं। तुम मुझे अपनी ही दृष्टि में गिरा देना चाहते थे? लेकिन क्यों? कही तुम्हे अपनी सुंदर आँखों पर गर्व तो नहीं है?

    तुम धर्मराजिकोत्सव मे आए हुए हो, लेकिन भूलकर भी मेरे भवन नहीं आए परसों महाराज के सम्मान—में मैंने भोज दिया उसमें भी तुम सम्मिलित नहीं हुए। अपनी पत्नी कांचनमाला को भी नहीं आने दिया क्यों? एक बार ही आते तुम तो देखते कि, मेरे पति के पुत्र मेरे प्रेमी! तुम्हारे पिता की पत्नी तुम्हारी प्रेमिका तिष्यरक्षिता अनुक्षण तुम्हे स्मरण करती है। जानते हो कुणाल! मेरी इन बाहुओं में बँधने के लिए यूनान के सम्राट् तक लालायित हो सकते है? एक संकेत में साम्राज्यों का उत्थान-पतन कर सकती हूँ? तुम्हें किस बात का गर्व है? युवराज होने का? कुणाल पक्षी की भाँति नयन पा जाने का दर्प है? मैंने तुमसे याचना की और तुम मेरा तिरस्कार कर सके—इस बात का घमंड है? तो कुणाल। तुम भो याद रखना कि तुम मे तिष्यरक्षिता का तिरस्कार किया था। जाओ, तक्षशिला जाओ, प्रशासक बनकर रहो, देखती हूँ कितने दिनों तक! मैं या तो कामना करती नहीं हूँ और कामना करने के बाद पराजित होना नहीं जानती मैं अशोक नहीं कि क्षमा, करुणा, अहिंसा में दीक्षित हो जाऊँ। यदि तुम मुझे प्राप्य हो सके तो किसी अन्य के भी हो पाओगे।

    कुणाल! मैं फिर कहती हूँ कि जाओ बस एक बार अपने उन कुणाल-नयनों से मुझे एक प्रेमी की भाँति निहार लो। मैं इतनी सुंदर आँखों वाला पुत्र नहीं, प्रेमी चाहती हूँ।

    मैं नहीं जानती कि मेरी इस वाँछा का क्या होगा।

    कल यूनान के शिष्टमंडल ने भोज दिया हैं। महाराज की इच्छानुसार ही भोज में केवल दो मोर और एक हरिण ही होंगे। महाराज इसीलिए पूण अहिंसा के पक्षपाती नहीं है, ये तो केवल विहिंसा चाहते हैं। इस वार पशुओं का समाज-प्रदर्शन भी फीका ही रहा। धर्म की भी सीमा होगी, क्या महाराज इसको नहीं समझते?

    क्या स्वर्गीय सम्राट् चंद्रगुप्त और बिंदु-सार के साम्राज्य का यही होना था?

    आश्चर्य नहीं कि महाराज किसी दिन साम्राज्य ही विहारों की सेवा के लिए दे दें। लेकिन आज तो नहीं दे रहे है न? सप्तर्षि डूबने ही वाले है। पलकें कड़वाहट से भर उठी है। अग-अग में कितनी थकान भर गई है। नयनतारा को जगाकर थोडा सिर दबवा लिया जाए तो नींद अच्छी आएगी।

    ज्येष्ठ प्रतिपदा रात्रि दिन भर वही व्यस्तता रही। आज एक यूनानी नृत्य भी देखने को मिला। मौर्य साम्राज्य के उत्कर्ष से यूनान कोई प्रसन्न नहीं है। यूनानी, तक्षशिला पर दृष्टि लगाए हुए है। तक्षशिला में आमात्य लोगों ने विशेष अच्छा व्यवहार नहीं किया था। सभी असंतुष्ट थे इसीलिए युवराज को वहाँ भेजा गया ताकि सीमा पर राजवंश का संपूर्ण अधिकार बना रहे। कुछ भी हो, यूनानी प्रसन्न जाति है जीवन को उत्सव मानती है।

    महाराजा से इस बार फिर प्रार्थना करना चाहते है कि कुछ ज्योतिषी, कारीगर, भवन निर्माता के यहाँ से अपने देश ले जाना चाहते हैं। मुझसे इस बारे में प्रातिसाख्य चाहते हैं।

    वृष्टि की प्रतीक्षा है। गरमियो में पाटलिपुत्र कैसा झुलस जाता है।

    एकाध दिन में कुणाल तक्षशिला बला जाएगा। आज वह यूनानी भोज में मात्र प्रदर्शन के लिए ही उपस्थित हुआ था। जिस समय मैं यूनानी राजकुमार से आलाप कर रही थी वह मान सौजन्यता निर्वाह के लिए ही आया। मैं उस पर क्रोध करना चाहती हूँ लेकिन पता नहीं क्यों मैं उसे देखकर विह्वल हो जाती है। उस के नेत्रों में जादू है।

    आषाढ़ प्रतिपदा रात्रि

    आजकल ख़ूब वृष्टि हो रही है, लेकिन उमस नहीं गई।

    आज महाराज के साथ नौकानयन के लिए गई थी। लगता है महाराज सबसे उदासीन हो गए है। किसी सीमा तक असामाजिक भी। संभवत ये मुझसे प्रसन्न नहीं है। वे समझते है कि इस बढ़ी आयु में तिष्यरक्षिता से विवाह कर बड़ी भारी भूल की। आयु का इतना अंतर वे माला फेरकर नहीं पाट सकते। सबकी अपनी नियति होती है, मैं इसमें क्या कर सकती हूँ? कुणाल ने मुझे महाराज की दृष्टि में नीचे गिरा दिया। लेकिन मैं कहती हूँ कि पिता-पुत्र दोनों को राज्य छोटकर किसी मठ में चला जाना चाहिए। भिक्षु शासन करेंगे! सब पुरुष और नारियाँ भिक्षु-भिक्षुणी हो जाएँ तो सृष्टि चल चुकी। कितना अच्छा होता यदि आमात्य चाणक्य के समय में होती! सम्राट् चंद्रगुप्त का खड्ग होता, चाणक्य की नीति होती और तिष्यरक्षिता की महत्वाकांक्षा होती। नौका-विहार में स्थविर के प्रवचन ने तो उबा दिया। क्यों लोग चाहते हैं कि जब वे वृद्ध होने लगें तो सब उन के साथ वृद्धाने लगें? यह एकदम निरी मूर्खता है। वृद्ध होने वाले को पशुओं के समाज में खेल के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। वृद्ध होना अपमान है।

    कुणाल को गए आज एक पक्ष हो गया है। जाने के दिन वह जाने क्या सोचकर यहाँ आया था साथ मे कांचनमाला को नहीं लाया, अच्छा किया। व्यक्ति प्रत्येक समय हर किसी को नहीं चाहता कि कोई दूसरा भी हो उसने बताया कि वह आजकल वीणा सीख रहा है। जब तक यह बैठा रहा ऋतु संगीत, ज्योतिष की ही चर्चा करता रहा। लगता है स्थिति को टाल जाने का ढँग उसे गया है।

    मैं कुणाल को विदा देने महाराज के साथ नगरसीमा तक नहीं गई।

    महाराज बता रहे थे कि इस चातुर्मास के बाद धर्मयात्रा पर निकलना चाहते है। मुझे डर है कि कहीं मुझे भी साथ चलने के लिए बाध्य किया जाए। धर्म की जय-जयकार करते हुए घूमने से तो अच्छा है कि व्यक्ति आत्महत्या कर ले। बड़ा घृणास्पद लगता है। कल एक मूर्तिकार आने वाला है जो मेरी प्रतिमा बनाना चाहता है।

    श्रावण नवमी : मध्यरात्रि

    मूर्तिकार कलिंग का एक वृद्ध कलाकार है जो कि कलिंग युद्ध में बंदी बना लिया गया था। महाराज ने उसे मुक्त कर दिया है उस ने राज-परिवार के सभी लोगों की मूर्तियाँ बनाई है। मैं उसे बराबर टालती रही थी। जब उसने बताया कि यह मेरी मूर्ति बनाए बिना कलिंग नहीं जाएगा तो अगत्या बनवानी ही पड़ी। मूर्तिकार अपने को सिंधुसेन कहता है। मूर्ति अच्छी बनाई। आज महाराज भी मूर्ति देखने आए थे। कई महीनों बाद आर्यपुत्र मेरे भवन पधारे थे। वे काफ़ी अस्वस्थ दिखने भी लगे है। उन्हे चाहिए कि जिस प्रकार राजकाज से वे विश्रांती लिए हुए हैं उसी प्रकार इन घेरों से भी मुक्त हों, अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें, लेकिन उनसे कौन कहे?

    कल यदि मेघाच्छत्र नहीं रहा तो किसी उपवन को ओर जाना चाहती हूँ नयनतारा होती तो मैं कितनी विवश हो जाती! लगता है सामंत कुमारसेन नयनतारा से मित्रता के लिए बहुत उत्सुक है। मित्रता हो जाए तो अच्छा है न?

    कुणाल तक्षशिला पहुँच गया है, अश्वा-रोही आए थे।

    इतना बड़ा उत्सव सहसा समाप्त हो गया; लगता है पाटलिपुत्र एकदम ही रिता गया।

    कभी-कभी मृगया के लिए जाना चाहती हूँ, लेकिन संभव है महाराज इसे पसंद करें। आजकल जी उवा देने वाली निष्क्रिय शांति है। राजभवन भी मठ बनता जा रहा है।

    —श्रावण अमावस्था रात्रि

    प्रियदर्शी महाराज अत्यंत रुग्ण है। आज ही हिमालय के प्रशासक को महाराज की प्रस्तावित धर्मयात्रा को अस्वीकृति की सूचना भेजी गई है। यूनानी तथा भारतीय वैद्यो की समझ में कुछ नहीं रहा है। वे निदान ही नहीं कर पा रहे है। बेचारे वैद्य, यह भी नहीं जानते कि वृद्धापकाल स्वयं ही असाध्य रोग है, और विशेषकर तब जब असीम सुंदरी पत्नी दिन-रात सामने हो। सम्राट् धीरे-धीरे विवश होते जा रहे हैं।

    क्या यह नहीं लगता है कि सारे सम्राट् और सम्राज्ञियाँ भी सहज मनुष्यों की ही तरह है? सम्राट् का भार आजकल मुझ पर गया है। सारा राजकार्य भी करना पड़ रहा हैं लेकिन मेरी इसमें कोई रुचि नहीं है कि किस प्रशासक को प्रजारजन के लिए कौन-सा आदेश दिया जा रहा है। सिंहल में धर्म प्रचार का कार्य व्यापक हो गया है। राजकुमार महेंद्र तथा राजकुमारी सघमित्रा को आए दिन इस बारे में पत्र जाते है।

    पिछले दिनों से राजमुद्रिका लगाने का काम भी मुझे ही करना पड़ रहा है। कैसी विडंबना है कि महाराज मुझे पूरी तरह नहीं विश्वासते फिर भी भार मुझ पर छोड़ने को बाध्य हैं। मुझे शंका है कि आमात्यों में से किसी को कह रखा होगा कि वह मुख पर चौक्सी करता रहे कि कहीं मैं महाराज के विरुद्ध कोई षड्यंत्र कर बैठूँ। महाराज किसी हठी बड़े बच्चे से कम थोड़े ही है। षड्यंत्र बच्चा और भिक्षुओं के विरद्ध थोड़ ही किया जाता है। महाराज समझते हैं कि यूनान का जो शिष्टमंडल आया था वह मुख से प्रभावित होकर गया है। इतने राजकुमारी के रहते संतानहींन पट्टमहिषी से प्रभावित होने का अर्थ? यदि मेरे मन में कोई ऐसी बात भी हो तो भी महाराज मुझे ऐसी स्थिति में कर देना चाहते हैं कि कोई भी षड्यंत्र किया जा सके।

    धर्मराजिकोत्सव में सम्मिलित होने की बधाई वाले सारे पत्र महाराज को दिखा देती रही हूँ। लगता है महाराज चौंक चौंक उठते है और ये निरीह से कक्ष ताकने लगते है। संभव है वे मेरे हाथों में अपने को आश्वस्त पाते हो। कहीं वे अपने पुत्रों को तो नहीं अपने पास देखना चाहते हैं? तो क्या वे मुझे अपना नहीं मानते है? अब मेरा क्या होगा? क्या मुझे जीवन भर मात्र जलना ही होगा?

    कल पूछूँगी कि क्या महाराज किसी कुमार को पाटलिपुत्र में देखना चाहते हैं?

    —भाद्रपद चतुर्थी मध्या

    मेरा लशय ठीक ही निकला। काफ़ी बड़ा भूभाग बौद्धमठो के लिए दिए जाने के पक्ष में महाराज है। मैं क्या कर सकती हूँ? कुणाल को बुलवाया गया है। युवराज के तिलक की चर्चा आमात्यों के स्तर पर की जा रही है। मुझे से छुपाई गई है चर्चा क्यों? क्या महाराज मेरी उपेक्षा कर अपने पुत्र का भविष्य बना सकेंगे? मुझे कोई आपत्ति नहीं होती यदि मुझसे भी परामर्श कर लिया गया होता। अस्तु

    तो—

    भिक्षुसम्राट् प्रियदर्शी अशोक के पुत्र युवराज कुणाल!

    कलंकिनी तिष्यरक्षिता के प्रेमी!

    मेरे पति ने तुम्हें कितनी सुंदर आँखें दीं और मैं उन्हें चाहती थी लेकिन तुम अस्वीकार किया। राजमहिषी का तुमने अपमान किया युवराज! तो, ठीक है, तक्षशिला के पौर को आज ही आदेश एक तीव्र अश्वारोही के हाथों भेजा गया है कि वह प्रशासक कुणाल की दोनों आँखें शीघ्र प्रेषित करें— महाराज की यही आज्ञा है!!

    नहीं समझे??

    कोई बात नहीं। मैं समझाती हूँ। महाराज तुम्हारा तिलक करना चाहते है। ये तुम्हे पाटलिपुत्र में उपस्थित देखना चाहते है। यही अवसर था कि मैं तुम्हारे वे दोनों सुंदर नवन प्राप्त कर सकूँ। महाराज का आदेश लेकर जो अश्वारोही गया है उसे दो माह लगेंगे, लेकिन पौर को भेजा गया आदेश एक माह तक तक्षशिला पहुँच जाएगा और संभयतः आश्विन के समाप्त होते तक में उन दोनों सुंदर नेत्रों को अपने ओठों से लगा सकूँगी।

    कुणाल!

    मेरे पति के पुत्र मेरे प्रेमी!

    तुम्हारे पिता की पत्नी तिष्यरक्षिता ने, जिसके प्रेम को तुम 'अभिगमन' कहकर कलंकित कर गए, उसी तुम्हारी 'माता' ने एक मादा कुणाल पाली है। उसका नर एक वृद्ध कुणाल था उस मादा कुणाल को नर कुणाल की सुंदर आँखें चाहिए।

    मेरे प्रेमी पुत्र!

    तक्षशिला की ओर जाते हुए तीव्रगामी अश्वारोही की टापें तक सुन रही हूँ। इसी गंगा के

    काँठे-काँठे वह हिमालय की उपत्यका तक जाएगा और फिर पँचनद के तीव्र नदों को पार कर एक दिन तक्षशिला के पौर को ले जाकर महाराज का आदेश देगा सच मानों मेरे प्रेमी पुत्र! मैं उन दोनों नयनों की प्रतीक्षा तुम्हारे पिता से भी अधिक कर रही हूँ जो कि तुम्हारा युवराजाभिषेक करना चाहते हैं।

    कुणाल!

    मेरे पति के पुत्र मेरे प्रेमी!

    तुम्हारे उन कुणाल-नयनों के लिए मैंने दक्षिण के कलाकारों द्वारा एक माणिक-मंजूषा बनवाई है। तुम सच मानों मेरे प्रेमी पुत्र! मैं उन नेत्रों के लिए कोई-सा पाप कर सकती हूँ। कैसी ही नारकीय यातना भोगने को भी तत्पर हूँ। मुझे अपने प्रेमी के वे नेत्र चाहिए। तुम मेरी व्याकुलता किसी जन्म में भी समझ सकोगे।

    मैं जानती हूँ, मेरा कलंक कोई नहीं सहन कर सकता| सच मानो, इस गवाक्ष के पास वर्षों से बैठी हुई तुम्हारी प्रतीक्षा करती रही, लेकिन उस दिन दोष देकर जो तुम गए तो कभी नहीं लौटे। और उस दिन तक्षशिला जाते हुए आए भी तो ऋतुओं की बातें करते रहे। भारत ने यूनान को ज्योतिष में क्या देन दी है इस बात पर चर्चा करते रहे। क्या तुम ज्योतिष की बातें करने के लिए तक्षशिला से आए थे? जानती हूँ कि तुम्हें काचनमाला ने चतुर बना दिया है।

    कभी तुमने सोचा कि कोई पत्नी, पिता के समान वृद्ध पति को क्या सौंप सकती है? पत्नीत्व का समर्पण पिता को तो नहीं किया जाता न? और संभव भी होता तो वृद्ध पति जाकर भिक्षु बन गया। अब बताओ कुणाल मेरा प्रेम 'अभिगमन' है? कभी मेरा वैदग्घ्य क्यों नहीं समझा तुमने? तुम्हारे पिता विवाह लाए थे, मात्र इस तथ्य से ही 'माता' मान ले गए? जबकि मैं उन की पत्नी कितनी थी, कभी यह भी सोचा?

    मेरा निवेदन, मात्र नारी का एक पुरुष के प्रति था। तुम भूल गए कि नारी भी पृथिवी की भाँति वीरभोग्या होती है। मैने तुम्हें प्रेम देना चाहा और प्रतिदान में तुम मुझे धर्म देने लगे। बताओ मैं धर्म लेकर क्या करती? और तुम मुझे सदा के लिए लाछित कर गए।

    कोई बात नहीं, कलकिनी तिष्यरक्षिता के धर्मभीरु प्रेमीपुत्र। अपने इसी गवाक्ष के पास बैठकर मैं तुम्हारे उन कुणाल नयनों से पूछूँगी कि बताओ धर्म बड़ा था या प्रेम?

    भाद्रपद पूर्णिमा मध्यरात्रि

    गत एक पक्ष से मेघ थमने का नाम भी नहीं लेते। दूर किले की दीवारें हरी काई में कितनी सुंदर लगती है दिन में। पहले तो काम को निश्चिंतता थी लेकिन अब काम ही काम रहता है। महाराज का स्वास्थ्य ठीक ही नहीं हो रहा है। पिछले दिनों महाराज के ही भवन में रहना पड़ा। अनेक दिनों उपरांत महाराज के भवन में रहने पर सहसा कितना अजीब लगा। आरंभ के वर्ष स्मरण गए। तब आँखो के सामने अजीब स्वर्णिम स्वप्न था। इस समय जिस प्रकार चंद्रमा ओर मेघों ने मिलकर आकाश में जो एक रहस्यलोक बना रखा है ठीक ऐसा ही रहस्य लेकर प्रथम यौवनवती-सी यहाँ आई थी। महाराज तब भी वृद्ध थे लेकिन फिर भी सम्राट् ये वीतरागिता भले ही रही हो किन्तु भिक्षुत्व नहीं था। वे तब भी मादक अवश्य थे, भले ही उद्दाम रहे हो।

    इन आठ-नौ वर्षों में जाने कितनी बार गंगा की भाँति उफनाती रही। प्रत्येक बाढ़ याद आती है। लगता है इस बार कगार चूर-चूर हो जाएँगे। प्रलय हो जाएगा। लेकिन वाह रे विस्तार के धैर्य, कि कैसी ही बाढ़ सदा उतर जाती रही है।

    गंगा में आजकल ख़ूब बाढ़ है। घाटो पर पानी या गया है। किले की दीवारों को छूकर जब पानी बहने लगता है तो लगता है जैसे आप किसी विशाल पोत में बैठे हुए हों।

    आज पूर्णिमा वाला ब्रह्मभोज था। गत् वर्षों से इस दिन भिक्षुओं को भी भोज दिया जाने लगा है। चाहती हूँ कुछ दिनों के लिए किसी समुद्रयात्रा पर चली जाऊँ। क्यों नहीं नीलरत्न को सूचना कर दी जाए। कलिंग भी देख लिया जाएगा। हमारी नौ सेना का एक बेड़ा वहाँ है ही अनेक दिन हुए समुद्र-यात्रा किए। किसी दिन महाराज से कहूँगी।

    क्या अश्वरोही तक्षशिला नहीं पहुँचा होगा अब तक?

    मैं तो नयनतारा की सामंत कुमारसेन से मित्रता करवाने की बात सोच रही थी और कल ज्ञात हुआ कि आगामी फ़ाल्गुन में दोनों विवाह करना चाहते हैं। इस बात से मुझे उतना सुख नहीं हुआ जितना कि होना चाहिए या फिर भी मैं सुखी हूँ। नयनतारा और उसका सामंत दोनों ही चाहते है कि इस की आशा महाराज से दिलवा दूँ। कुछ भी सही, नयनतारा अगत्या सुखी हो यहीं मेरी भी कामना है।

    —आधिन द्वितीया: उत्तर रात्रि

    आज विंध्या पार की एक गायिका आई थी। अभी-अभी यह गान समाप्त कर गई है। महाराज को अब किसी कला में रुचि नहीं रह गई है और फलतः मुझे ही खटना पड़ता है। शिल्पियों के लिए तो स्तूपों, ध्वजों तथा शिलालेखों का ढेर सारा काम है लेकिन संगीत में महाराज की रुचि पहले भी विशेष नहीं थी, क्या किया जाए इन लोगों का?

    आज महाराज पूछ रहे थे कि मैं कुणाल के बुलाए जाने से प्रसन्न हूँ कि नहीं। मैं समझती हूँ इस पूछने का क्या मतलब था। युवराज के अभिषेक के बारे में वे दूसरी चर्चाओं के बीच इस प्रकार बता गए जैसे मुझे पहले से ही ज्ञात था। मैंने भी कोई आश्चर्य प्रकट नहीं किया। बल्कि महाराज को थोड़ा आश्चर्य अवश्य हुआ।

    महाराज कहीं मेरा अपमान तो नहीं करना चाहते हैं?

    कुणाल! मैं क्या चाहती थी? यही कि कुणाल सम्राट् बने और तब मुझे पट्टमहिषी बनकर पार्श्व में बैठना मिले और मैं सार्थक हो जाऊँ। इसमें क्या अनैतिक या और क्या अनैसर्गिक? जिन सुंदर नेत्रों के बारे में सुनकर यूनान के सम्राट् ने अपनी पुत्री तुम्हें विवाह देनी चाही जब वे ही नेत्र मेरी इस देह को देख लेते तो मैं उपकृत हो जाती। ठीक है, तिष्यरक्षिता और धर्म के बीच जब तुम ने धर्म को चुना तब देखें धर्म किस प्रकार तुम्हारी रक्षा करता है।

    आओ, पाटलिपुत्र आओ, भावी मोर्य-सम्राट!

    पाटलिपुत्र अपने सुंदर नेत्रों वाले अंधे युवराज का स्वागत करने के लिए आतुर है! तुम्हारे भिक्षु पिता शून्यकक्ष ताकते हुए तुम्हारे तिलक के दिवास्वप्नों मे डूबे रहते हैं। मैं तक्षशिला के पौर का भय से पीला पड़ा मुख देख रही हूँ। उसे विश्वास नहीं हो रहा है कि महा सम्राट् मौर्य साम्राज्य के यूवराज के नेत्र निकालने का आदेश अकारण ही दे सकते हैं। वह तुम्हारी ओर देखता है और हतप्रभ।

    उन परम सुंदर कुणालनयनो से जाने कितने सूर्योदय और सूर्यास्त तुमने देखे होंगे कुणाल। और दो-चार सूर्य देख लो मेरे प्रेमी-पुत्र। उसके बाद तो ये आँखें मेरे गवाल को इस वेदी पर शोभित रहेंगी। कुणाल। स्वप्न में तुम्हारे ये दोनों मेरा पीछा करते हैं और मैं उन्हें पुकारती हुई आकाशी में खो जाती हूँ।

    —कार्तिक पचमी रात्रि प्रथम प्रहर

    आज तीन दिन से गंगा पार एक सेवक भेजा जाता रहा है ताकि तक्षशिला से लौटा अश्वारोही जो भी लाया हो वह ले लिया जा सके। तीन दिन कितने वैसे बोते सहज हो पा रही थी। बार-बार मेरे चौंकने पर महाराज ने हलके टोका भी था।

    अश्वारोही को तीन दिन विलम्ब हुआ। नयनतारा का सांकेतिक समाचार मिलते ही मैं किंचित् अधीर हुई, सिर पीड़ा का बहाना बना उठ आई। शिविका में रास्ते भर उत्सुकता, भय, वितृष्णा और जाने क्या-क्या होता रहा। यदि मर्यादा का ध्यान होता तो पूरा भवन, सीढ़ियाँ सब कुछ दौड़कर पार करती।

    नयनतारा ने जब एकांत में निकालकर गुणानयन दिखाए, एक क्षण को मैं विभोर हो गई। कितने अप्रतिम सुंदर नेत्र। मैं सोच नहीं पा रही थी कि वे कुणाल के नेत्र है। कैसे निरीह दो उज्जल सीपियों की तरह। यदि उन्हें आकाश में उड़ जाने को कह दिया जाता तो वे सीधे

    तक्षशिला पहुँचते।

    मेरे नेत्रहीन प्रेमी। मैं जानती हूँ कि तुम्हारे ये दो देवशिशुओ की तरह है। कुणाल। तुम सोच नहीं सकते कि आज मैं इन दोनों को क्षण भर को भी होठों से विलग कर सकी।

    आज मैं कितना प्रसन्न हूँ। आज मुझे कितना पश्चाताप है।

    ये अमृतनयन मेरे लिए विषनयन क्यों हो रहे है?

    मेरे पति के पुत्र मेरे प्रेमी। ये नयन अब हँसते नहीं है, उस दिन का क्रोध कहाँ है? ये अब घृणा भी नहीं करते और, कुणाल। ये अब कुछ नहीं देखते, कुछ नहीं देखते। इतने अपरिचित नयनो को तो समर्पण नहीं कर सकती कुणाल। मैं इन्हें पाकर अमर होना चाहती थी। मेरी पीड़ा का कहीं अंत नहीं दिखता। जानती हूँ कि नेत्र निकलवा कर मैंने असहय पीड़ा तुम्हें पहुँचाई है। आओ मेरे प्रेमपुत्र। मैं उन खोखले रंध्रों को चूमकर सारी पीड़ा हर लूँगी।

    हमारे-तुम्हारे बीच ये दो ही तो नयन थे कुणाल।

    पहले मैं अंधी थी और तुम नेत्रवान् थे। आज तुम अंधे हो और कैसे कहूँ कि मैं नेत्रवाती हुँ। , कुणाल। मैं आजन्म अंधा ही रही क्या?

    तुम इन्हें पाकर नहीं रख सके और मैं इन्हें उपलब्ध करके भी सहेज सकूँगी।

    ये नेत्र दुःख के देवता हो रहे कुणाल!

    पंचमी का तिर्यक् चंद्रमा कार्तिकी आकाश में फूट आया हूँ। रात्रि आलाप-सी आरम्भ होने लगी है। जानती हूँ कि जैसे ही महाराज को इस कृत्य की सूचना मिलेगी वे मेरी बोटी-बोटी कुत्तों से नुचवा डालेंगे। उनके एक मात्र प्रिय पुत्र को नेत्रहीन करने वाले व्यक्ति को वे कभी भी जीवित नहीं छोड़ेंगे। कोई बात नहीं कुणाल! मैं तुम्हारी देह के श्रेष्ठ को किसी भी रूप मे सही, पा तो सकी। जानती हूँ मेरा भविष्य शताब्दियों के लिए मर चुका। केवल उपेक्षिता, लाँछिता तिष्यरक्षिता को ही लोग बूझेंगे। लेकिन कोई मेरी असीम

    परितृप्ति, दाह को नहीं बुझ पाएगा कुणाल! संभवतः तुम भी नहीं जिस के लिए मैं, तिष्यरक्षिता पापिष्ठा हुई।

    अगत्या कुणाल! मैं सदा आभारी रहूँगी कि तुमने मेरी परितृप्ति के लिए नेत्रदान किया।

    आज मैं पवित्र हो गई कुणाल! आज मैं परितापित हो गई! मैं उज्ज्वल कलंकिनी सही कुणाण, तुम तो अकलंक रह सके।

    राजकारागृह पौष चतुर्थी : ब्राह्मवेला

    आज एक मास से बंदिनी हूँ यहाँ।

    इस बीच घटनाएँ इतनी तीव्रता से हुई है कि जैसे सूत्र सारे बिखर गए हों। एक महान् नाटक पटाक्षेप की प्रतीक्षा कर रहा है। साम्राज्य के लिए असह्य हो उठा है कि एक मौर्य पट्टमहिषी दुराचारिणी, कलंकिनी निकली। प्रियदर्शी लज्जा से विक्षिप्त है। सुना कांचनमाला के साथ युवराज को लेकर तक्षशिला का पौर स्वयं उपस्थित हुआ है। न्याय-अभिषद् के सामने दुरभिसंधि रही कि पट्टमहिषी का क्या किया जाए। इतिहास मे कोई उदाहरण नहीं मिलता।

    बिना मुझसे पूछे ही महाराज आश्वस्त हो गए कि यह कुकृत्य तिष्यरक्षिता ने ही किया है। नयनतारा ने जब रात्रि के प्रथम प्रहर में आए पाटलिपुत्र के पौर से सुना कि सवेरे सूर्योदय के पूर्व गंगातट पर मेरा अग्निदाह किया जाएगा, वह मूर्खा पगला उठी है।

    पौर से कहने को मन हुआ कि महाराज से निवेदन कर दो कि मैं उन्हे अंतिम बार देखना चाहती हूँ, लेकिन व्यर्थ!!

    मैं इस समय सैनिकों की प्रतीक्षा कर रही हूँ। वे किसी भी समय सकते है। पौ फटने में विलंब तो नहीं लगता।

    आज रात भर इस गंगा तट पर उल्काओं का आलोक तथा लोगों के आवागमन का अपार नाद सुनती रही हूँ। कितना उत्साह है लोगों में रात भर में लाखों की संख्या में प्रजा एकत्र हो गई है। किस लिए? दुराचारी को दंडित होते देखने के लिए अथवा पट्टमहिषी को जो जीवित जलाया जाएगा वह देखने के लिए?

    आज रात कितनी ठंडी हवा चलती रही! अभी भी कुहरा साफ़ नहीं हुआ है। यह तो सैनिकों के चलने की आहट है।

    तो—

    तुम इन्हें पाकर नहीं रख सके और में इन्हें उपलब्ध करके भी सहेज सकूँगी। ये नेत्र दुःख के देवता ही रहे कुणाल!

    पंचमी का तिर्यक चंद्रमा कार्तिकी आकाश में फूट आया है। रात्रि आलाप-सी आरंभ होने लगी है। जानती हूँ कि जैसे ही महाराज को इस कृत्य की सूचना मिलेगी, ये मेरी बोटी-बोटी कुत्तों से नुचवा डालेंगे। उनके एकमात्र प्रिय पुत्र को नेत्रहीन करने वाले व्यक्ति को ये कभी भी जीवित नहीं छोड़ेंगे कोई बात नहीं कुणाल में तुम्हारी देह के श्रेष्ठ को किसी भी रूप में सही पा तो सकी। जानती हूँ, मेरा भविष्य शताब्दियों के लिए मर चुका। केवल उपेक्षिता, लाक्षिता, तिष्यरक्षिता को ही लोग बूझेंगे। लेकिन कोई मेरी असीम परितृप्ति, दाह को नहीं बुझ पाएगा कुणाल संभवतः तुम भी नहीं, जिसके लिए मैं, तिष्यरक्षिता पापिष्ठा हुई।

    अगत्या कुणाल में सदा आभारी रहूंगी कि तुमने मेरी परितृप्ति के लिए नेत्रदान किया।

    आज में पवित्र हो गई कुणाल आज में परितापित हो गई।

    मैं उज्ज्वल कलंकिनी सही कुणाल! तुम तो अकलंक रह सके।

    राजकारागृह : पौष चतुर्थी : प्रायवेला

    आज एक मास से बंदिनी हूँ यहाँ!

    इस बीच घटनाएँ इतनी तीव्रता से हुई हैं कि जैसे सारे सूत्र बिखर गए हों। एक महान् नाटक पटाक्षेप की प्रतीक्षा कर रहा है। साम्राज्य के लिए अस से उठा है कि एक मौर्य पट्टमहिषी दुराचारिणी, कलंकिनी निकली। प्रियदर्शी लज्जा से विक्षिप्त हैं सुना, कांचनमाला के साथ युवराज को लेकर तक्षशिला का पौर स्वयं उपस्थित हुआ है।

    न्याय अभिषद् के सामने दुरभिसंधि रही कि पट्टमहिषी का क्या किया जाए? इतिहास में कोई उदाहरण नहीं मिलता।

    बिना मुझसे पूछे ही महाराज आश्वस्त हो गए कि यह कुकृत्य तिष्यरक्षिता ने ही किया है नयनतारा ने जब रात्रि के प्रथम प्रहर में आए पाटलिपुत्र के पौर से सुना कि सवेरे सूर्योदय के पूर्व गंगातट पर मेरा अग्निदाह किया जाएगा, वह मूर्ख पगला उठी है।

    पौर से कहने को मन हुआ कि महाराज से निवेदन कर दो कि में उन्हें अंतिम बार देखना चाहती हूँ, लेकिन व्यर्थ।

    मैं इस समय सैनिकों की प्रतीक्षा कर रही हूँ। ये किसी भी समय सकते हैं। पौ फटने में विलंब तो नहीं लगता।

    आज रात-भर इस गंगा तट पर उल्काओं का आलोक तथा लोगों के आवागमन का अपार नाद देखती सुनती रही हूँ। कितना उत्साह है लोगों में रात भर से लाखों की संख्या में प्रजा एकत्र हो गई है किसलिए दुराचारी को दंडित होते देखने के लिए अथवा पट्टमहिषी को, जो जीवित जलाया जाएगा, वह देखने के लिए?

    आज रात कितनी ठंडी हवा चल रही है अभी भी कुहरा साफ नहीं हुआ है यह तो सैनिकों के चलने की आहट है।

    तो—

    सैनिक भी गए। लेकिन अभी मैंने रात की भूषा नहीं बदली। नयनतारा भूषा ले रही है सो— पटाक्षेप?

    अभी-अभी राजमहिषी को सैनिक ले गए हैं। मशाल के काँपते प्रकाश में अभी उनकी काली भूषा सामने के अँधेरे में तिरोहित हुई है। यह भूषा पीर ही दे गए थे। भूषा पहनाते मेरे हाथ कांप रहे थे मैं फूट पड़ना चाह रही थी लेकिन महादेवी एकदम निर्विकार थीं। मुझे एक बार देखा और ईषत् मुसकान के साथ वे सैनिकों के साथ हो लीं।

    सैनिकों के साथ कारागृह का बड़ा-सा जीना उतरकर पंक्तिबद्ध सैनिकों से रक्षित मार्ग से होती हुई उस वेदी की ओर बढ़ीं, जहाँ कि उन्हें जलाया जाना था।

    पीषिया तेज शीतल हवा इस समय सपाटे मारती हुई यह रही है अपार समूह साँस रोक भय, वितृष्णा से महादेवी की ओर देख रहा है। सूर्योदय होने को है।

    उस वेदी से हटकर एक ऊँचे मंच पर सम्राट और युवराज दोनों ही उपस्थित हैं। महाराज को देखकर वे क्षण को हलके रुकीं, फिर बढ़ गई। उन्हें वेदी के खंभ से बाँध दिया गया और तत्क्षणात् ही महाराज का काँपता हाथ उठा और वेदी सुलग उठी।

    लाल-लाल लपटों में महादेवी का मुँह झुलसे ताँबे-सा एक क्षण चमका और उसके बाद...

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिष्यरक्षिता की डायरी
    • रचनाकार : श्रीनरेश मेहता
    • प्रकाशन : ज्ञानोदय (श्रेष्ठ संचयन अंक : दिसंबर 1969-जनवरी 1970)

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