डायरी लिखने की कला
Dayri likhne ki kala
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
किताब के दो आवरण पृष्ठों के बीच जो लेखक डालता है—वह लोक की संपदा है। जो कुछ वह ख़ुद नहीं डालता—निजी संपदा वह है!
—गेल हैमिल्टन
अमरीकी पत्रकार
मोटे गत्ते की जिल्द वाली उस नोटबुक से आप सभी परिचित होंगे, जिसके पन्नों पर साल के 365 दिनों की तिथियाँ क्रम से सजी होती हैं और हर तिथि के साथ एक या आधे पृष्ठ की ख़ाली जगह छोड़ी जाती है। यह ख़ाली जगह उस तिथि विशेष के साथ संबद्ध सूचनाओं या निजी बातों को दर्ज़ करने के लिए होती है। मसलन, आनेवाले किसी ख़ास दिन के लिए तयशुदा दायित्व और कार्य-योजनाएँ उसमें लिखकर छोड़ी जा सकती हैं, ताकि डायरी उस तिथि के आने पर हमें हमारे संकल्प की याद दिला दे। इसी तरह हमने कभी कोई ऐसा काम किया या किसी ऐसे अनुभव से गुज़रे, जिसे हम याद रखना चाहते हैं, तो उसे डायरी में उस तिथि विशेष के पन्ने पर दर्ज़ किया जा सकता है। ऐसा करके हम अपने काम या अनुभव को लिखित शब्दों के सुरक्षित ठिकाने पर पहुँचा देते हैं और सुनिश्चित करते हैं कि वह विस्मृति का शिकार न हो।
सामान्यतः डायरी-लेखन की जब चर्चा होती है. तो उसका आशय डायरी के इसी दूसरे उपयोग से होता है। दिनभर आप जिन घटनाओं, गतिविधियों और विचारों से गुज़रते रहे, उन्हें डायरी के पृष्ठों पर शब्दबद्ध करना ही डायरी-लेखन है। यह लेखन मूलतः आपके अपने उपयोग एवं उपभोग के लिए होता है। हालाँकि यह भी सच है कि पिछले कुछ दशकों में ऐसा लेखन एक विधा के रूप में पाठक समाज के बीच ख़ासा लोकप्रिय हो चला है। पिछली सदी की सर्वाधिक पढ़ी गई पुस्तकों में से एक है ऐनी फ्रैंक नामक एक किशोरी की पुस्तकाकार छपी हुई डायरी, जो उसने 1942-44 के दरम्यान नाजी अत्याचार के बीच एम्स्टर्डम में छुप कर रहते हुए लिखी थी। यह डायरी जब प्रकाशित हुई, तो उसे एक ऐतिहासिक दस्तावेज के साथ-साथ एक साहित्यिक कृति के रूप में भी महत्त्वपूर्ण माना गया। यह तो महज़ एक उदाहरण है। इस तरह चर्चा में आनेवाली कई समानधर्मा कृतियाँ रही है। हिंदी में भी पिछले कुछ दशकों में कई बड़े रचनाकारों की डायरियाँ जैसे मोहन राकेश की डायरी, रमेशचंद्र शाह की डायरी आदि भी किताब की शक्ल में छप चुकी हैं जिन्हें उनकी निजी ज़िंदगी तथा उनके दौर में झाँकने के एक नायाब निमंत्रण के तौर पर बड़े चाव से पढ़ा गया है। यात्रा-वृत्तांत तो काफ़ी पहले से डायरी के रूप में लिखे जाते रहे हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी की 'पैरों में पंख बाँधकर', राहुल सांकृत्यायन की 'रूस में पच्चीस मास', सेठ गोविंददास की 'सुदूर दक्षिण पूर्व', कर्नल सज्जन सिंह की 'लद्दाख यात्रा की डायरी', डॉ. रघुवंश की 'हरी घाटी' इत्यादि पुस्तकें यात्रा-डायरी ही हैं। उन्नीसवीं सदी के पाँचवे दशक में हिंदी के महान कवि और विचारक गजानन माधव मुक्तिबोध ने 'एक साहित्यिक की डायरी' लिखकर साहित्यिक समस्याओं से संबंधित अपनी उधेड़बुन को उपयोगी पाठ बनाने का एक अद्भुत प्रयोग किया था। समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में भी रचनाकारों को डायरी के अंश छपते रहते हैं, जिनमें पाठकों को अक्सर उधेड़-बुन की शैली में प्रकट होनेवाले कुछ उत्तेजक विचारबिंदु, किसी यात्रा का वृत्तांत या फिर साहित्य-जगत की चटपटी ख़बरें पढ़ने को मिल जाती है।
लेकिन इन सब बातों का मतलब यह नहीं कि डायरी सचमुच कहानी, उपन्यास, कविता या नाटक की तरह पाठकों के लिए लिखी जानेवाली कुछ ख़ास तरह की रचनाओं का विधागत नाम है। डायरी उस अर्थ में साहित्यिक विधा नहीं है, भले ही वह किसी और साहित्यिक विधा की कृति को अपना रूप उधार दे दे। मसलन, निबंध, कहानी या उपन्यास डायरी की शक्ल में लिखे जा सकते हैं, लेकिन वहाँ डायरी का सिर्फ़ ‘रूप’ होगा। अंतरवस्तु के लिहाज़ से उसे डायरी नहीं कहा जा सकता।
तो फिर डायरी सचमुच में क्या है? हम कह सकते हैं कि वह नितांत निजी स्तर पर घटित घटनाओं और तत्संबंधी बौद्धिक भावनात्मक प्रतिक्रियाओं का लेखा-जोखा है। इन्हें हम किसी और के लिए नहीं, स्वयं अपने लिए शब्दबद्ध करते हैं। ऐसा अवश्य हो सकता है कि किसी समय उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक उपयोगिता का कोई पहलू हमारे ऊपर उन्हें सार्वजनिक कर देने का दबाव बनाए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह सार्वजनिक किए जाने के लिए ही लिखी जाती है। शुद्ध लेखन के स्तर पर देखें, तो वह अपना ही अंतरंग साक्षात्कार है अपने ही साथ स्थापित होनेवाला संवाद है—एक ऐसा साक्षात्कार और संवाद, जिसमें हम सभी तरह की वर्जनाओं से मुक्त होते हैं। जिन बातों को हम दुनिया में किसी और व्यक्ति के सामने नहीं कह सकते, उन्हें भी डायरी के पन्नों पर शब्दबद्ध करके ख़ुद को सुना डालते हैं। ऐसा करके हम पहले ख़ुद को बेहतर तरीक़े से समझ पाते हैं, दूसरे अपने अंदर अनजाने इकट्ठा होते भार से मुक्त होते हैं और विस्मृति के अँधेरे में खोते अपने ही व्यक्तित्त्व के पहलुओं को इस तरह रिकॉर्ड कर लेते हैं कि उन्हें पलट कर कभी भी छुआ जा सकता है।
ऐनी फ्रैंक (1929-1945) जर्मनी में पैदा हुई एक यहदी लड़की थी। जर्मनी में जब नाज़ियों की सत्ता क़ायम हुई और यहूदियों पर अत्याचार शुरू हुए, तो वह परिवार समेत एम्स्टर्डम चली गई। फिर नीदरलैंड्स पर भी नाज़ियों का क़ब्ज़ा हुआ और यहूदियों पर अत्याचार का दौर वहाँ भी शुरू हो गया। ऐसी स्थिति में जुलाई, 1942 में उसका परिवार एक दफ़्तर के गुप्त कमरे में छुप कर रहने लगा, जहाँ दो साल बिताने के बाद वे नाज़ियों को पकड़ में आ गए और उन्हें यातना कैंप में पहुँचा दिया गया। यहाँ फरवरी या मार्च 1945 में ऐनी की मृत्यु हो गई। यही नहीं, उसके पिता को छोड़कर परिवार का कोई प्राणी जीवित नहीं बचा। द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने पर उसके पिता वापस एम्स्टर्डम पहुँचे। वहाँ उन्होंने ऐनी की डायरी की तलाश की और संयोग से सफल रहे। ये डायरी ऐनी को उसके तेरहवें जन्मदिन पर मिली थी और जून, 1942 से अगस्त, 1944 तक वह उसमें अपनी ख़ास-ख़ास बातें और नान्ती आतंक के अनुभवों को लिखती रही थी। उसके पिता ने महसूस किया कि ऐनी की डायरी इतिहास के उस भयावह दौर का एक अप्रतिम दस्तावेत है। उन्होंने उसे प्रकाशित करवाने को दौड़-धूप शुरू की। 1947 में मूलतः डच में लिखी गई यह डायरी अँग्रेज़ी में 'द डायरी ऑफ़ अ यंग गर्ल' के नाम से प्रकाशित हुई।
यह बीसवीं सदी की सर्वाधिक पढ़ी गई पुस्तकों में से है। कई जगह इसे पाठ्यक्रम में भी रखा गया है। इल्या इहरनबुर्ग ने एक वाक्य में इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता को रेखांकित किया है—यह साठ लाख लोगों की तरफ़ से बोलने वाली एक आवाज़ है—एक ऐसी आवाज़, जो किसी संत या कवि की नहीं, बल्कि एक साधारण लड़की की है।
सार्वजनिक कर देने का दबाव बनाए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह सार्वजनिक किए जाने के लिए ही लिखी जाती है। शुद्ध लेखन के स्तर पर देखें, तो वह अपना ही अंतरंग साक्षात्कार है अपने ही साथ स्थापित होनेवाला संवाद है—एक ऐसा साक्षात्कार और संवाद, जिसमें हम सभी तरह की वर्जनाओं से मुक्त होते हैं। जिन बातों को हम दुनिया में किसी और व्यक्ति के सामने नहीं कह सकते, उन्हें भी डायरी के पन्नों पर शब्दबद्ध करके ख़ुद को सुना डालते हैं। ऐसा करके हम पहले ख़ुद को बेहतर तरीक़े से समझ पाते हैं, दूसरे अपने अंदर अनजाने इकट्ठा होते भार से मुक्त होते हैं और विस्मृति के अँधेरे में खोते अपने ही व्यक्तित्त्व के पहलुओं को इस तरह रिकॉर्ड कर लेते हैं कि उन्हें पलटकर कभी भी छुआ जा सकता है।
लेकिन ऐसा नहीं है कि डायरी सिर्फ़ ऐसे ही निजी सत्यों को शब्द देने का ज़रिया हो, जिनकी किसी और रूप में अभिव्यक्ति वर्जित है। वह एक तरह का व्यक्तिगत दस्तावेज भी है, जिसमें अपने जीवन के ख़ास क्षणों, किसी समय विशेष में मन के अंदर कौंध जानेवाले विचारों, यादगार मुलाक़ातों और बहस मुबाहिसों को हम दर्ज़ कर लेते हैं। अपनी कई तरह की स्मृतियों को हम कैमरे की मदद से भी रिकॉर्ड करते हैं, पर ख़ुद अपना पाठ तैयार करना और जो कुछ घटित हुआ, उसकी कहानी कहना एक ऐसा तरीक़ा है, जो हमें आनेवाले दिनों में उन लम्हों को दुबारा जीने का मौक़ा देता है। आज की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में यह तरीक़ा सचमुच नायाब है। ज़िंदगी की तेज़ रफ़्तार में इस बात की आशंका हमेशा बनी रहती है कि सतही और फ़ौरी क़िस्म की चिंताओं के अनवरत हमलों के बीच गहरे आशय वाली घटनाओं और वैचारिक उत्तेजनाओं को हम भूल जाएँ। डायरी हमें भूलने से बचाती है। यात्राओं के दौरान डायरी लिखना तो बहुत ही उपयोगी साबित होता है। एक लंबे सफ़र का वृत्तांत अगर आप सफ़र से लौटकर लिखना चाहें, तो शायद पूरे अनुभव का दो-तिहाई हिस्सा ही बच-बचाकर शब्दों में उतर पाएगा, लेकिन अगर आपने सफ़र के दरम्यान प्रतिदिन अपनी डायरी लिखी है, तो अपने तज़ुर्बे को लगभग मुकम्मल तौर पर दुहरा पाना आपके लिए संभव होगा।
डायरी लिखना अपने साथ एक अच्छी दोस्ती क़ायम करने का बेहतरीन जरिया है। अगर आप भी ख़ुद अपने साथ अच्छी दोस्ती गाँठना चाहते हैं, तो इन ख़ास-ख़ास बातों को ध्यान में रखें—
• डायरी या तो किसी नोटबुक में या पुराने साल की डायरी में लिखी जानी चाहिए। पुराने साल की डायरी में पहले की पड़ी हुई तिथियों की जगह अपने हाथ से तिथि डालें। यह सुझाव इसलिए दिया जा रहा है कि आप कहीं मौजूदा साल की डायरी में तिथियों के अनुसार बने हुए सीमित स्थान से अपने को बंधा हुआ न महसूस करें। ऐसा भी हो सकता है कि हम किसी दिन दो-तीन पक्तियाँ ही लिखना चाहे और किसी दिन हमारी बात पाँच पन्नों में पूरी हो। कहा भी गया है, सभी दिन एक समान नहीं होते। ऐसे में डायरी का किसी निश्चित तिथि के साथ दिया गया सीमित स्थान हमारे लिए बंधन बन जाएगा। इसीलिए नोटबुक या पुराने साल की डायरी अधिक उपयोगी साबित हो सकती है। उसमें अपनी सुविधा के अनुसार तिथियाँ डाली जा सकती हैं और स्थान का उपयोग किया जा सकता है।
• लेखन करते हुए आप स्वयं तय करें कि आप क्या सोचते हैं और ख़ुद को क्या कहना चाहते हैं। यह तय करते हुए आपको यथासंभव सभी तरह के बाहरी दबावों से मुक्त होना चाहिए। अपनी दिनभर की घटनाओं, मुलाक़ातों, ख़यालातों इत्यादि में से कौन-कौन सी आपको दर्ज़ करने लायक़ लगती हैं, किन्हें आप किन-किन वजहों से भविष्य में भी याद करना चाहेंगे—यह विचार कर लेने के बाद ही उन्हें शब्दबद्ध करने की ओर बढ़ें।
• डायरी बिलकुल निजी वस्तु है और यह मानकर ही उसे लिखा जाना चाहिए कि वह किसी और के द्वारा पढ़ी नहीं जाएगी। अगर आप किसी और को पढ़वाने की बात सोच कर डायरी लिखते हैं तो उसका आपकी लेखन-शैली, विषय-वस्तु के चयन और बातों के बेबाकपन पर पूरा असर पड़ेगा। इसलिए यह मानते हुए डायरी लिखें कि उसका पाठक आपके अलावा कोई और नहीं है।
• यह क़तई ज़रूरी नहीं कि डायरी परिष्कृत और मानक भाषा-शैली में लिखी जाए। परिष्कार और मानकता का दवाव कथ्य के स्तर पर कई तरह के समझौतों के लिए आपको बाध्य कर सकता है। डायरी-लेखन में इस समझौता परस्ती के लिए कोई जगह नहीं है। डायरी का डायरीपन इसी में है कि आप जो कुछ दर्ज करना चाहते हैं और जिस तरीक़े से दर्ज करना चाहते हैं, करें। इस सिलसिले में भाषाई शुद्धता कितनी बरक़रार रहती है और शैली-सौंदर्य कितना सध पाता है, इसकी चिंता न करें। आपके अंदर के स्वाभाविक वेग से शैली जो रूप ग्रहण करती है, वही डायरी की उचित शैली है।
• आख़िरी, पर बहुत अहम बात ये कि डायरी नितांत निजी स्तर की घटनाओं और भावनाओं का लेखा-जोखा होने के साथ-साथ, आपके मन के आईने में आपके दौर का अक्स भी है। आप अपने जिन अनुभवों को वहाँ दर्ज करते हैं, उनमें आपकी नज़र से देखा-परखा गया समकालीन इतिहास किसी-न-किसी मात्रा में मौजूद रहता है। डायरी लिखते हुए अगर यह बात हमारे ज़ेहन में रहे, तो अपने काम के महत्त्व को लेकर हम अधिक आश्वस्त हो सकते हैं।
तो आइए, इन बातों को मद्देनज़र रखते हुए हम अपने रोज़ के कामों के बीच थोड़ा-सा समय डायरी लिखने के लिए यानी ख़ुद को अपना हालचाल बताने के लिए सुरक्षित करें।
- पुस्तक : अभिवक्ति और माध्यम (पृष्ठ 128)
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
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