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प्रेम-कथा कछु कही न जाई

prem katha kachhu kahi na jai

ध्रुवदास

ध्रुवदास

प्रेम-कथा कछु कही न जाई

ध्रुवदास

और अधिकध्रुवदास

    प्रेम-कथा कछु कही जाई। उलटी चाल तहाँ सब भाई॥

    प्रेम-बात सुनि बौरा होई। तहाँ सयान रहै नहिं कोई॥

    तन मन प्रान तिहीं छिन हारै। भली-बुरी कछुवै विचारै॥

    ऐसो प्रेम उपजिहैं जबहीं। ‘हित ध्रुव' बात बनेगी तबहीं॥

    ताकौ जतन नदी खै कोई। कुँवरि कृपा तें कहा होई॥

    बृंदावन-रस सब ते न्यारो। प्रीतम जहाँ अपनपौ हारो॥

    श्री हरिबंस-चरन उर धरई। तब या रस में मन अनुसरई॥

    सो मति कौन कहै या बानी। तिन चरननि-बल कछुक बखानी॥

    जुगुल प्रेम मनहीं में राखौ। अनमिलसों कबहूँ जिन भाखौ॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : ब्रजमाधुरी सार (पृष्ठ 163)
    • रचनाकार : ध्रुवदास
    • प्रकाशन : हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
    • संस्करण : 2002

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