एक से शुण्डिनि दुइ घरे सान्धअ
ek se shunDini dui ghare sandha
एक से शुण्डिनि दुइ घरे सान्धअ
चीअण ण वाकलअ वारुणी बान्धअ॥
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सहजे थिर करी वारुणी बान्ध।
जे अजरामर होइ दिढ कान्धे॥
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दशमि दुआरत चिह्न देखिआ।
आइल गराहक अपणे बहिआ॥
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चउशटी घडिये देत पसारा।
पइठेल गराहक नाहि निसारा॥
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एक घदुली सरुइ नाल।
भणन्ति विरुआ थिर करि चाल॥
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एकस्वरूपा शुण्डिनी योगी के वाम और दक्षिण भाग में प्रवाहित सूर्य और चंद्र दोनों को घर के बीच यानी नासिकाओं के घंटिका रन्ध्र में स्थित मध्यमा पथ में प्रवेश करा दिया और तब शुण्डिनी ने स्वयं आकर चिकने (अज्ञान और अमल रहित) वस्त्र (बोधिचित्तरूप) द्वारा वारुणी (मद्य) के बीच बाँध दिया।
हे योगी!) सहज को स्थिर कर बोधिचित्तरूपी वारुणी में प्रवेश करो, इससे तुम अजर और अमर होकर दृढ़ स्कंध लाभ करोगे।
दशम द्वारा में—चिह्न देखकर ग्राहक (गंधर्वसत्व) अपने आप आ गए और उसी द्वार से प्रवेश किया।
चौंसठघड़ी महासुख कमलरस पान के लिए वे वहाँ फैल गए। जिन लोगों ने वहाँ प्रवेश किया, वहाँ से बाहर नहीं आए।
वह जो एक घटी है, उसकी नाल महीन अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्म है। विरुपा कहते हैं कि बोधिसत्व को निस्तरंग रूप में प्राप्त करो।
- पुस्तक : सहज सिद्ध : चर्यागीति विमर्श (पृष्ठ 27)
- संपादक : रणजीत साहा
- रचनाकार : विरूपा
- प्रकाशन : यश पब्लिकेशन्स
- संस्करण : 2010
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