भाव न होई अभाव ण जाइ
bhaav na hoi abhav na jai
भाव न होई अभाव ण जाइ।
अइस संबोहेँ को पतिआइ॥
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लुइ भणइ बढ़ दुलक्ख विणाणा।
तिअ धाए विलसइ उह लागे णा॥
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जाहेर बाण चिह्न स्व ण जाणी।
सो कइसे आगम वेएँ वखाणी॥
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काहेरे किष भणि अई दिवि पिरिच्छा।
उदक चान्द जिम साच न मिच्छा॥
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लुई भणइ मइ भाइब किष।
जा लई अच्छम ताहेर उह ण दिष॥
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भाव वह तत्व नहीं, क्योंकि एक पिंड के ग्रहण करने पर उसके समस्त अणु को भेदने पर, भावगत की उपलब्धि नहीं होती। अभाव को भी तत्वरूप में पाया नहीं जाता; क्योंकि वह तो सर्वथा असत् है।
लुई कहते हैं—तत्व विज्ञान निश्चय ही दुर्लभ है। इसी कारण सहज तत्व काय-वाक्-चित-रूपी इन तीन धातुओं में क्रीड़ा करता है। जिसका वर्ण, चिह्न और रूप नहीं जाना जा सकता वह शास्त्र द्वारा वह किस प्रकार व्याख्येय हो सकता है?
अतत्वज्ञ व्यक्ति के प्रश्न करने पर, मैं क्या उत्तर दूँ? जिस प्रकार जल में प्रतिबिंबित चंद्रमा, सत्य भी नहीं और असत्य भी नहीं।
लुई कहते हैं कि भाव्य, भावक और भावना—इन तीनों का अभाव होने पर मैं चिंता क्यों करूँ? जिस चतुर्थ रूप को साथ लिए हूँ, मैं उसका उद्देश्य भी देख नहीं पाता।
- पुस्तक : सहज सिद्ध : चर्यागीति विमर्श (पृष्ठ 137)
- संपादक : रणजीत साहा
- रचनाकार : लुईपा
- प्रकाशन : यश पब्लिकेशन्स
- संस्करण : 2010
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