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उँचा उँचा पावत तहि वसई

u.ncha u.ncha paavat tahi vas.ii

शबरपा

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उँचा उँचा पावत तहि वसई

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    उँचा उँचा पावत तहि वसई सवरी बाली।

    मोरङ्गि पीच्छ परहिण सबरी गिवत गुन्जरी माली॥

    उमत सवरो पागल सवरो मा कर गुली गुहाडा तोहोरि।

    णिअ घरिणी नामे सहज सुन्दरी॥ध्रुवपद॥

    नाना तरुवर मौलिल रे गअणत लागेली डाली।

    एकेली सवरी वण हिण्डई कर्णकुण्डलवज्रधारी॥ध्रु॥

    तिअ धाउ खाट पड़िला सवरो महासुखे सेजि छाइली।

    सवरो भुजुङ्ग नैरामणि दारी पेम्ह राति पोहाइली॥ध्रु॥

    हिअ ताँबोला महासुहे कापुर खाइ।

    सुन नैरामणि कण्ठे लइआ महासुहे राति पोहाई॥ध्रु॥

    गुरुवाक पुच्छिा बिन्ध निअमण बाणे।

    एके शरसन्धाने बिन्धह बिन्धह परमणिवाणे॥ध्रु॥

    उमत सवरो गरुआ रोषे।

    गिरिवर सिहर सन्धि पइसन्ते सवरो लोड़िब कइसे॥ध्रु॥

    सबसे ऊँचे पर्वत (महासुख चक्र) में बालिका शबरी (ज्ञानमुद्रा नैरात्मा) वास करती है। शबरी के परिधान भावविकल्प रूपी मयूरपुच्छ एवं गले (संभोग चक्र) में (मंत्ररूपी) गुंजमाला है।

    वह शबर से कहती है—ओ विषय-विह्वलचित्त शबर! पागल शबर! मुझे तुम मेरुगुहा में लीन मत करो। सहजसुन्दरी नाम है मेरा, मैं तुम्हारी अपनी गृहिणी हूँ। मैं तुम्हारी ही गुहा (मेरुपर्वत) में विचरण करती हूँ।

    लो देखो, अविद्यारूपी महातरु मुकुलित हुआ। उसकी (पंचस्कंधरूपी) समस्त शाखाएँ (प्रभास्वर) आकाश से जा लगीं। किंतु यहाँ शबरी पंचमुद्रारूपी निरंशुकलंकार कुण्डल धारण कर इस (शरीररूपी) वन में अकेली क्रीड़ा करती है।

    शबर ने तीन धातुओं (काय-वाक्-चित्त, प्रभास्वर- सुखरूप) को खाट पर डाला और उसी महासुखरूपी खाट पर शय्या बिछाई। भुजंगधारी शबर ने उस शय्या पर निजगृहिणी नैरात्मा के संग प्रेमलीला रस में रात्रि बिताई अर्थात् अंधकाररूपी विकल्प का नाश किया।

    उन दोनों ने हृदय को तांबुल (भोगसंबंधों से मुक्त) कर, महासुख को फल-हेतु संबंधों से मुक्त एवं कार्य-कारण से परे कर्पूररूप में भक्षण किया। शून्य निरामणि को कंठ (संभोग चक्र) में लेकर (महासुखरूपी ज्ञानरश्मि द्वारा) रात्रि बिताई एवं (स्वकायक्लेशरूपी) अंधकार का नाश किया।

    गुरु ज्ञान को धनुष तथा अपने मन को बाण बना एक ही शरसंधान द्वारा परम निर्वाण को विद्ध करो। महाक्रोध से उन्मत्त शबर ने गिरिधरशिखर के संधिस्थल में प्रवेश किया। वहाँ शबर किस प्रकार युद्ध करेंगे?

    स्रोत :
    • पुस्तक : सहज सिद्ध : चर्यागीति विमर्श (पृष्ठ 132)
    • संपादक : रणजीत साहा
    • रचनाकार : शबरपा
    • प्रकाशन : यश पब्लिकेशन्स
    • संस्करण : 2010

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