प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
यह अप्रत्याशित नहीं है कि भारत के सामाजिक विकास और बदलाव के आंदोलन में जिन पाँच समाज-सुधारकों के नाम लिए जाते हैं, उनमें महात्मा ज्योतिबा फुले के नाम का शुमार नहीं है। इस सूची को बनाने वाले उच्चवर्णीय समाज के प्रतिनिधि हैं। ज्योतिबा फुले ब्राह्मण वर्चस्व और सामाजिक मूल्यों को क़ायम रखने वाली शिक्षा और सुधार के समर्थक नहीं थे। उन्होंने पूँजीवादी और पुरोहितवादी मानसिकता पर हल्ला बोल दिया। उनके द्वारा स्थापित 'सत्यशोधक समाज' और उनका क्रांतिकारी साहित्य इसका प्रमाण है। जब ब्राह्मणों ने कहा—‘विद्या शूद्रों के घर चली गई’ तो फुले ने तत्काल उत्तर दिया—‘सच का सबेरा होते ही वेद डूब गए, विद्या शूद्रों के घर चली गई, भू-देव (ब्राह्मण) शरमा गए।’
महात्मा ज्योतिबा फुले ने वर्ण, जाति और वर्ग-व्यवस्था में निहित शोषण-प्रक्रिया को एक-दूसरे का पूरक बताया। उनका कहना था कि राजसत्ता और ब्राह्मण आधिपत्य के तहत धर्मवादी सत्ता आपस में साँठ-गाँठ कर इस सामाजिक व्यवस्था और मशीनरी का उपयोग करती है। उनका कहना था कि इस शोषण-व्यवस्था के ख़िलाफ़ दलितों के अलावा स्त्रियों को भी आंदोलन करना चाहिए।
महात्मा ज्योतिबा फुले के मौलिक विचार 'ग़ुलामगिरी', 'शेतकऱ्यांचा आसूड' (किसानों का प्रतिशोध) 'सार्वजनिक सत्यधर्म' आदि पुस्तकों में संगृहीत हैं। उनके विचार अपने समय से बहुत आगे थे। आदर्श परिवार के बारे में उनकी अवधारणा है—‘जिस परिवार में पिता बौद्ध, माता ईसाई, बेटी मुसलमान और बेटा सत्यधर्मी हो, वह परिवार एक आदर्श परिवार है।'
आधुनिक शिक्षा के बारे में फुले कहते हैं—‘यदि आधुनिक शिक्षा का लाभ सिर्फ़ उच्च वर्ग को ही मिलता है, तो उसमें शूद्रों का क्या स्थान रहेगा? ग़रीबों से कर जमा करना और उसे उच्चवर्गीय लोगों के बच्चों को शिक्षा पर ख़र्च करना—किसे चाहिए ऐसी शिक्षा?’
स्वाभाविक है कि विकसित वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले और सर्वांगीण समाज-सुधार न चाहने वाले तथाकथित संभ्रांत समीक्षकों ने महात्मा फुले को समाज-सुधारकों की सूची में कोई स्थान नहीं दिया—यह ब्राह्मणी मानसिकता की असलियत का भी पर्दाफ़ाश करता है। 1883 में ज्योतिबा फुले अपने बहुचर्चित ग्रंथ 'शेतकऱ्यांचा आसूड' के उपोद्घात में लिखते हैं—
'विद्या बिना मति गई
मति बिना नीति गई
नीति बिना गति गई
गति बिना वित्त गया
वित्त बिना शूद्र गए
इतने अनर्थ एक अविद्या ने किए।'
महात्मा ज्योतिबा फुले ने लिखा है—'स्त्री-शिक्षा के दरवाज़े पुरुषों ने इसलिए बंद कर रखे है कि वह मानवीय अधिकारों को समझ न पाए, जैसी स्वतंत्रता पुरुष लेता है, वैसी ही स्वतंत्रता स्त्री ले तो? पुरुषों के लिए अलग नियम और स्त्रियों के लिए अलग नियम—यह पक्षपात है।' ज्योतिबा ने स्त्री-समानता को प्रतिष्ठित करने वाली नई विवाह-विधि की रचना की। पूरी विवाह-विधि से उन्होंने ब्राह्मण का स्थान ही हटा दिया। उन्होंने नए मंगलाष्टक (विवाह के अवसर पर पढ़े जाने वाले मंत्र) तैयार किए। वे चाहते थे कि विवाह-विधि में पुरुष प्रधान संस्कृति के समर्थक और स्त्री की ग़ुलामगिरी सिद्ध करने वाले जितने मंत्र है, वे सारे निकाल दिए जाएँ। उनके स्थान पर ऐसे मंत्र हों, जिन्हें वर-वधू आसानी से समझ सकें। ज्योतिबा ने जिन मंगलाष्टकों की रचना की, उनमें वधू वर से कहती है—'स्वतंत्रता का अनुभव हम स्त्रियों को है ही नहीं। इस बात की आज शपथ लो कि स्त्री को उसका अधिकार दोगे और उसे अपनी स्वतंत्रता का अनुभव करने दोगे।' यह आकांक्षा सिर्फ़ वधू की ही नहीं, ग़ुलामी से मुक्ति चाहने वाली हर स्त्री की थी। स्त्री के अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए ज्योतिबा फुले ने हर संभव प्रयत्न किए।
1888 में जब ज्योतिबा फुले को 'महात्मा' की उपाधि से सम्मानित किया गया तो उन्होंने कहा—“मुझे 'महात्मा' कहकर मेरे संघर्ष को पूर्णविराम मत दीजिए। जब व्यक्ति मठाधीश बन जाता है तब वह संघर्ष नहीं कर सकता। इसलिए आप सब साधारण जन ही रहने दे, मुझे अपने बीच से अलग न करें। महात्मा ज्योतिबा फुले की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे जो कहते थे, उसे अपने आचरण और व्यवहार में उतारकर दिखाते थे। इस दिशा में अग्रसर उनका पहला क़दम था—अपनी पत्नी सावित्री बाई को शिक्षित करना। ज्योतिबा ने उन्हें मराठी भाषा ही नहीं, अँग्रेज़ी लिखना-पढ़ना और बोलना भी सिखाया। सावित्री बाई की भी बचपन से शिक्षा में रुचि थी और उनकी ग्राह्य-शक्ति तेज़ थी। उनके बचपन की एक घटना बहुत प्रसिद्ध है, छह-सात साल की उम्र में वह हाट-बाज़ार अकेली ही चली जाती थी। एक बार सावित्री शिखल गाँव के हाट में गई। वहीं कुछ ख़रीदकर खाते-खाते उसने देखा कि एक पेड़ के नीचे कुछ मिशनरी स्त्रियों और पुरुष गा रहे हैं। एक लाट साहब ने उसे खाते हुए और रुककर गाना सुनते देखा तो कहा, इस तरह रास्ते में खाते-खाते घूमना अच्छी बात नहीं है। सुनते ही सावित्री ने हाथ का खाना फेंक दिया। लाट साहब ने कहा—बड़ी अच्छी लड़की हो तुम। यह पुस्तक ले जाओ। तुम्हें पढ़ना न आए तो भी इसके चित्र तुम्हें अच्छे लगेंगे। घर आकर सावित्री ने वह पुस्तक अपने पिता को दिखाई। आगबबूला होकर पिता ने उसे कूड़े में फेंक दिया, ईसाइयों से ऐसी चीज़ें लेकर तू भ्रष्ट हो जाएगी और सारे कुल को भ्रष्ट करेगी। तेरी शादी कर देनी चाहिए। सावित्री ने वह पुस्तक उठाकर एक कोने में छुपा दी। सन् 1840 में ज्योतिबा फुले से विवाह होने पर वह अपने सामान के साथ उस किताब को सहेजकर ससुराल ले आई और शिक्षित होने के बाद वह पुस्तक पढ़ी।
14 जनवरी 1848 को पुणे के बुधवार पेठ निवासी भिड़े के बाड़े में पहली कन्याशाला की स्थापना हुई। पूरे भारत में लड़कियों की शिक्षा की यह पहली पाठशाला थी। भारत में 3000 सालों के इतिहास में इस तरह का काम नहीं हुआ था। शूद्र और शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक के बाद एक पाठशालाएँ खोलने में ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई को लगातार व्यवधानों, अड़चनों, लाँछनों और बहिष्कार का सामना करना पड़ा। ज्योतिबा के धर्मभीरू पिता ने पुरोहितों और रिश्तेदारों के दबाव में अपने बेटे और बहू को घर छोड़ देने पर मज़बूर किया। सावित्री जब पढ़ाने के लिए घर से पाठशाला तक जाती तो रास्ते में खड़े लोग उसे गालियाँ देते, थूकते, पत्थर मारते और गोबर उछालते। दोनों पति-पत्नी सारी बाधाओं से जूझते हुए अपने काम में डटे रहे। 1840-1890 तक पचास वर्षों तक, ज्योतिबा और सावित्री बाई ने एक प्राण होकर अपने मिशन को पूरा किया। कहते हैं—एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने हर मुक़ाम पर कंधे-से-कंधा मिलाकर काम किया—मिशनरी महिलाओं की तरह किसानों और अछूतों की झुग्गी-झोपड़ी में जाकर लड़कियों को पाठशाला भेजने का आग्रह करना या बालहत्या प्रतिबंधक गृह में अनाथ बच्चों और विधवाओं के लिए दरवाज़े खोल देना और उनके नवजात बच्चों की देखभाल करना या महार, चमार और मांग जाति के लोगों की एक घूँट पानी पीकर प्यास बुझाने की तकलीफ़ देखकर अपने घर के पानी का हौद सभी जातियों के लिए खोल देना—हर काम पति-पत्नी ने डंके की चोट पर किया और कुरीतियों, अंध-श्रद्धा और पारंपरिक अनीतिपूर्ण रूढ़ियों को ध्वस्त कर दलितों-शोषितों के हक़ में खड़े हुए। आज के प्रतिस्पद्धत्मिक समय में, जब प्रबुद्ध वर्ग के प्रतिष्ठित जाने-माने दंपती साथ रहने के कई बरसों के बाद अलग होते ही एक-दूसरे को संपूर्णतः नष्ट-भ्रष्ट करने और एक-दूसरे की जड़ें खोदने पर आमादा हो जाते हैं, महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले का एक-दूसरे के प्रति और एक लक्ष्य के प्रति समर्पित जीवन एक आदर्श दांपत्य की मिसाल बनकर चमकता है।
ye apratyashit nahin hai ki bharat ke samajik vikas aur badlav ke andolan mein jin paanch samaj sudharkon ke naam liye jate hain, unmen mahatma jyotiba phule ke naam ka shumar nahin hai. is suchi ko banane vale uchchvarniy samaj ke pratinidhi hain. jyotiba phule brahman varchasv aur samajik mulyon ko qayam rakhne vali shiksha aur sudhar ke samarthak nahin the. unhonne punjivadi aur purohitvadi manasikta par halla bol diya. unke dvara sthapit satyshodhak samaj aur unka krantikari sahitya iska prmaan hai. jab brahmnon ne kaha—‘vidya shudron ke ghar chali gai’ to phule ne tatkal uttar diya— ‘sach ka sabera hote hi ved Doob ge, vidya shudron ke ghar chali gai, bhu dev (brahman) sharma ge. ’
mahatma jyotiba phule ne varn, jati aur varg vyavastha mein nihit shoshan prakriya ko ek dusre ka purak bataya. unka kahna tha ki rajasatta aur brahman adhipatya ke tahat dharmavadi satta aapas mein saanth gaanth kar is samajik vyavastha aur mashinri ka upyog karti hai. unka kahna tha ki is shoshan vyavastha ke khilaf daliton ke alava striyon ko bhi andolan karna chahiye.
mahatma jyotiba phule ke maulik vichar ghulamagiri, shetkaryancha asuD (kisanon ka pratishodh) sarvajnik satydharm aadi pustkon mein sangrihit hain. unke vichar apne samay se bahut aage the. adarsh parivar ke bare mein unki avdharna hai—‘jis parivar mein pita bauddh, mata iisai, beti musalman aur beta satydharmi—ho, wo parivar ek adarsh parivar hai.
adhunik shiksha ke bare mein phule kahte hain—‘yadi adhunik shiksha ka laabh sirf uchch varg ko hi milta hai, to usmen shudron ka kya sthaan rahega? gharibon se kar jama karna aur use uchchvargiy logon ke bachchon ko shiksha par kharch karna—kise chahiye aisi shiksha?’
svabhavik hai ki viksit varg ka pratinidhitv karne vale aur sarvangin samaj sudhar na chahne vale tathakathit sambhrant samikshkon ne mahatma phule ko samaj sudharkon ki suchi mein koi sthaan nahin diya—yah brahmni manasikta ki asliyat ka bhi pardafash karta hai. 1883 mein jyotiba phule apne bahucharchit granth shetkaryancha asuD ke upodghat mein likhte hain—
vidya bina mati gai
mati bina niti gai
niti bina gati gai
gati bina vitt gaya
vitt bina shoodr ge,
itne arth ek avidya ne kiye.
mahatma jyotiba phule ne likha hai—stri shiksha ke darvaze purushon ne isliye band kar rakhe hai ki wo manaviy adhikaron ko samajh na pae, jaisi svtantrta purush leta hai, vaisi hi svtantrta stri le to? purushon ke liye alag niyam aur striyon ke liye alag niyam—yah pakshapat hai. jyotiba ne stri samanata ko pratishthit— karne vali nai vivah vidhi ki rachna ki. puri vivah vidhi se unhonne brahman ka sthaan hi hata diya. unhonne ne manglashtak (vivah ke avsar par paDhe jane vale mantr) taiyar kiye. ve chahte the ki vivah vidhi mein purush pardhan sanskriti ke samarthak aur stri ki ghulamagiri siddh karne vale jitne mantr hai, ve sare nikal diye jayen. unke sthaan par aise mantr hon, jinhen var vadhu asani se samajh saken. jyotiba ne jin manglashtkon ki rachna ki, unmen vadhu var se kahti hai—svtantrta ka anubhav hum striyon ko hai hi nahin. is baat ki aaj shapath lo ki stri ko uska adhikar doge aur use apni svtantrta ka anubhav karne doge. ye akanksha sirf vadhu ki hi nahin, ghulami se mukti chahne vali har stri ki thi. stri ke adhikaron aur svtantrta ke liye jyotiba phule ne har sambhav prayatn kiye.
1888 mein jab jyotiba phule ko mahatma ki upadhi se sammanit kiya gaya to unhonne kaha—“mujhe mahatma kahkar mere sangharsh ko purnaviram mat dijiye. jab vyakti mathadhish ban jata hai tab wo sangharsh nahin kar sakta. isliye aap sab sadharan jan hi rahne de, mujhe apne beech se alag na karen. mahatma jyotiba phule ki sabse baDi visheshata ye thi ki ve jo kahte the, use apne achran aur vyvahar mein utarkar dikhate the. is ye thi ki ve jo kahte the, use apne achran aur vyvahar mein utarkar dikhate the. is disha mein agrasar unka pahla qadam tha—apni patni savitri bai ko shikshit karna. jyotiba ne unhen marathi bhasha hi nahin, angrezi likhna paDhna aur bolna bhi sikhaya. savitri bai ki bhi bachpan se shiksha mein ruchi thi aur unki grahya shakti tez thi. unke bachpan ki ek ghatna bahut prasiddh hai, chhah saat saal ki umr mein wo haat bazar akeli hi chali jati thi. ek baar savitri shikhal gaanv ke haat mein gai. vahin kuch kharidkar khate khate usne dekha ki ek peD ke niche kuch mishanri striyon aur purush ga rahe hain. ek laat sahab ne use khate hue aur rukkar gana sunte dekha to kaha, is tarah raste mein khate khate ghumna achchhi baat nahin hai. sunte hi savitri ne haath ka khana phenk diya. laat sahab ne kaha—baDi achchhi laDki ho tum. ye pustak le jao. tumhein paDhna na aaye to bhi iske chitr tumhein achchhe lagenge. ghar aakar savitri ne wo pustak apne pita ko dikhai. agabbula hokar pita ne use kuDe mein phenk diya, iisaiyon se aisi chizen lekar tu bhrasht ho jayegi aur sare kul ko bhrasht karegi. teri shadi kar deni chahiye. savitri ne wo pustak uthakar ek kone mein chhupa di. san 1840 mein jyotiba phule se vivah hone par wo apne saman ke saath us kitab ko sahejkar sasural le aai aur shikshit hone ke baad wo pustak paDhi.
14 janavri 1848 ko pune ke budhvar peth nivasi bhiDe ke baDe mein pahli kanyashala ki sthapana hui. pure bharat mein laDakiyon ki shiksha ki ye pahli pathashala thi. bharat mein 3000 salon ke itihas mein is tarah ka kaam nahin hua tha. shoodr aur shudratishudr laDakiyon ke liye ek ke baad ek pathshalayen kholne mein jyotiba phule aur savitri bai ko lagatar vyavdhanon, aDachnon, lanchhanon aur bahishkar ka samna karna paDa. jyotiba ke dharmbhiru pita ne purohiton aur rishtedaron ke dabav mein apne bete aur bahu ko ghar chhoD dene par mazbur kiya. savitri jab paDhane ke liye ghar se pathashala tak jati to raste mein khaDe log use galiyan dete, thukte, patthar marte aur gobar uchhalte. donon pati patni sari badhaon se jujhte hue apne kaam mein Date rahe. 1840 1890 tak pachas varshon tak, jyotiba aur savitri bai ne ek praan hokar apne mishan ko pura kiya. kahte hain—ek aur ek milkar gyarah hote hain. jyotiba phule aur savitri bai phule ne har muqam par kandhe se kandha milakar kaam kiya— mishanri mahilaon ki tarah kisanon aur achhuton ki jhuggi jhopDi mein jakar laDakiyon ko pathashala bhejne ka agrah karna ya balhatya pratibandhak grih mein anath bachchon aur vidhvaon ke liye darvaze khol dena aur unke navjat bachchon ki dekhbhal karna ya mahar, chamar aur maang jati ke logon ki ek ghoont pani pikar pyaas bujhane ki taklif dekhkar apne ghar ke pani ka haud sabhi jatiyon ke liye khol dena—har kaam pati patni ne Danke ki chot par kiya aur kuritiyon, andh shraddha aur paramprik anitipurn ruDhiyon ko dhvast kar daliton shoshiton ke haq mein khaDe hue. aaj ke prtispaddhatmik samay mein, jab prabuddh varg ke pratishthit jane mane dampti saath rahne ke kai barson ke baad alag hote hi ek dusre ko sampurnatः nasht bhrasht karne aur ek dusre ki jaDen khodne par amada ho jate hain, mahatma jyotiba phule aur savitri bai phule ka ek dusre ke prati aur ek lakshya ke prati samarpit jivan ek adarsh dampatya ki misal bankar chamakta hai.
ye apratyashit nahin hai ki bharat ke samajik vikas aur badlav ke andolan mein jin paanch samaj sudharkon ke naam liye jate hain, unmen mahatma jyotiba phule ke naam ka shumar nahin hai. is suchi ko banane vale uchchvarniy samaj ke pratinidhi hain. jyotiba phule brahman varchasv aur samajik mulyon ko qayam rakhne vali shiksha aur sudhar ke samarthak nahin the. unhonne punjivadi aur purohitvadi manasikta par halla bol diya. unke dvara sthapit satyshodhak samaj aur unka krantikari sahitya iska prmaan hai. jab brahmnon ne kaha—‘vidya shudron ke ghar chali gai’ to phule ne tatkal uttar diya— ‘sach ka sabera hote hi ved Doob ge, vidya shudron ke ghar chali gai, bhu dev (brahman) sharma ge. ’
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mahatma jyotiba phule ke maulik vichar ghulamagiri, shetkaryancha asuD (kisanon ka pratishodh) sarvajnik satydharm aadi pustkon mein sangrihit hain. unke vichar apne samay se bahut aage the. adarsh parivar ke bare mein unki avdharna hai—‘jis parivar mein pita bauddh, mata iisai, beti musalman aur beta satydharmi—ho, wo parivar ek adarsh parivar hai.
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mahatma jyotiba phule ne likha hai—stri shiksha ke darvaze purushon ne isliye band kar rakhe hai ki wo manaviy adhikaron ko samajh na pae, jaisi svtantrta purush leta hai, vaisi hi svtantrta stri le to? purushon ke liye alag niyam aur striyon ke liye alag niyam—yah pakshapat hai. jyotiba ne stri samanata ko pratishthit— karne vali nai vivah vidhi ki rachna ki. puri vivah vidhi se unhonne brahman ka sthaan hi hata diya. unhonne ne manglashtak (vivah ke avsar par paDhe jane vale mantr) taiyar kiye. ve chahte the ki vivah vidhi mein purush pardhan sanskriti ke samarthak aur stri ki ghulamagiri siddh karne vale jitne mantr hai, ve sare nikal diye jayen. unke sthaan par aise mantr hon, jinhen var vadhu asani se samajh saken. jyotiba ne jin manglashtkon ki rachna ki, unmen vadhu var se kahti hai—svtantrta ka anubhav hum striyon ko hai hi nahin. is baat ki aaj shapath lo ki stri ko uska adhikar doge aur use apni svtantrta ka anubhav karne doge. ye akanksha sirf vadhu ki hi nahin, ghulami se mukti chahne vali har stri ki thi. stri ke adhikaron aur svtantrta ke liye jyotiba phule ne har sambhav prayatn kiye.
1888 mein jab jyotiba phule ko mahatma ki upadhi se sammanit kiya gaya to unhonne kaha—“mujhe mahatma kahkar mere sangharsh ko purnaviram mat dijiye. jab vyakti mathadhish ban jata hai tab wo sangharsh nahin kar sakta. isliye aap sab sadharan jan hi rahne de, mujhe apne beech se alag na karen. mahatma jyotiba phule ki sabse baDi visheshata ye thi ki ve jo kahte the, use apne achran aur vyvahar mein utarkar dikhate the. is ye thi ki ve jo kahte the, use apne achran aur vyvahar mein utarkar dikhate the. is disha mein agrasar unka pahla qadam tha—apni patni savitri bai ko shikshit karna. jyotiba ne unhen marathi bhasha hi nahin, angrezi likhna paDhna aur bolna bhi sikhaya. savitri bai ki bhi bachpan se shiksha mein ruchi thi aur unki grahya shakti tez thi. unke bachpan ki ek ghatna bahut prasiddh hai, chhah saat saal ki umr mein wo haat bazar akeli hi chali jati thi. ek baar savitri shikhal gaanv ke haat mein gai. vahin kuch kharidkar khate khate usne dekha ki ek peD ke niche kuch mishanri striyon aur purush ga rahe hain. ek laat sahab ne use khate hue aur rukkar gana sunte dekha to kaha, is tarah raste mein khate khate ghumna achchhi baat nahin hai. sunte hi savitri ne haath ka khana phenk diya. laat sahab ne kaha—baDi achchhi laDki ho tum. ye pustak le jao. tumhein paDhna na aaye to bhi iske chitr tumhein achchhe lagenge. ghar aakar savitri ne wo pustak apne pita ko dikhai. agabbula hokar pita ne use kuDe mein phenk diya, iisaiyon se aisi chizen lekar tu bhrasht ho jayegi aur sare kul ko bhrasht karegi. teri shadi kar deni chahiye. savitri ne wo pustak uthakar ek kone mein chhupa di. san 1840 mein jyotiba phule se vivah hone par wo apne saman ke saath us kitab ko sahejkar sasural le aai aur shikshit hone ke baad wo pustak paDhi.
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।