आरंभिक जीवन
arambhik jivan
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा आठवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
सिद्धार्थ का जन्म
प्राचीन काल में भारत में एक प्रसिद्ध राजवंश था नाम था 'इक्ष्वाकु वंश'। इसी वंश के शाक्य-कुल में शुद्धोदन नाम के एक राजा हुए। कपिलवस्तु उनके राज्य की राजधानी थी। उनके राज्य में सारी प्रजा सब प्रकार से सुखी और सुरक्षित थी। पृथ्वी जैसी गौरवशाली उनकी पत्नी थी, नाम था-माया।
एक रात महारानी माया ने एक विचित्र स्वप्न देखा, उन्होंने देखा, जैसे चंद्रमा बादलों में चुपचाप प्रवेश करता है, वैसे ही एक सफ़ेद हाथी उनके शरीर में प्रवेश कर गया है। इससे उन्हें न किसी प्रकार का भय हुआ न कष्ट। उन्हें सुखद अनुभूति हुई कि उन्होंने गर्भधारण कर लिया है।
सचमुच गर्भधारण करने के कुछ मास बाद महारानी माया को किसी सघन वन में एकांतवास करने की इच्छा हुई। उन्होंने अपने पति महाराज शुद्धोदन से निवेदन किया कि अब वे कुछ समय के लिए नंदन वन के समान सुंदर लुंबिनी वन में निवास करना चाहती हैं। अपनी गर्भवती पत्नी की इच्छा का सम्मान करते हुए महाराज शुद्धोदन ने स्वीकृति प्रदान की और अनेक सेवक-सेविकाओं के साथ महारानी ने लुंबिनी वन के लिए प्रस्थान किया।
कुछ समय तक सुख से लुंबिनी वन में निवास करने के बाद एक दिन महारानी को लगा कि अब प्रसवकाल आ गया है। अतः वे एक शय्या पर लेट गईं। उस समय अनेक स्त्रियों ने उनका अभिनंदन किया। जैसे ही पुष्य नक्षत्र का उदय हुआ, महारानी माया ने बिना किसी पीड़ा के एक पुत्र को जन्म दिया। उन्हें लगा, जैसे वह आकाश से उतर आया हो। उसका अंत:करण पवित्र था, उसके शरीर से तेज निकल रहा था, जिससे सभी दिशाएँ प्रकाशित हो गईं। सूर्य के समान तेजस्वी, परंतु देखने में चंद्रमा के समान प्रिय लगने वाले इस बालक के शरीर से प्रकाश निकल रहा था।
उसी समय आकाश से दो जल-धाराएँ प्रवाहित हुई—एक शीतल और दूसरी उष्ण। इनसे इस बालक का अभिषेक हुआ। सोने और चाँदी से निर्मित तथा मूँगे-मणियों से जड़ित शुभ्र शय्या पर जब वह बालक विराजमान हुआ तो उसके चारों ओर स्वर्ण-कमल हाथों में लेकर यक्षों के राजा खड़े हो गए, आकाश में देवताओं ने उसका अभिनंदन किया और बुद्धत्व-प्राप्ति के लिए आशीर्वाद दिए।
इस बालक के जन्म के समय आकाश से सुगंधित लाल और नीले कमलों की वर्षा होने लगी। मंद-मंद पवन प्रवाहित होने लगी तथा सूर्य और भी अधिक चमकने लगा।
इस नवजात दिव्य शिशु के दर्शन करने के लिए आए दिव्य पुरुषों से वह वन-प्रांतर पूरी तरह भर गया, उन्होंने बालक पर पुष्पों की वर्षा की। इस बालक के जन्म का कुछ ऐसा प्रभाव हुआ कि जो पशु प्रकृति से ही हिंसक थे, वे हिंसा भूल गए, सारे संसार ने अपूर्व शांति का अनुभव किया। विभिन्न पशु-पक्षी मधुर स्वर में बोलने लगे, नदियाँ शांतिपूर्वक बहने लगीं, सारी दिशाएँ निर्मल हो गईं और निरभ्र आकाश में दुँदुभि बजने लगी। केवल माया को छोड़कर सारा संसार इस बालक के जन्म से अत्यंत प्रसन्न हो गया।
बालक के अद्भुत दिव्य जन्म को देखकर महाराज शुद्धोदन की आँखों से भय और प्रसन्नता की अश्रुधाराएँ प्रवाहित होने लगीं। बालक की अतिमानवीय शक्ति को देखकर माता माया भी भय और प्रीति से भर गईं। इस अवसर पर वृद्ध महिलाओं ने मंगलाचरण किया और नवजात शिशु के उज्ज्वल भविष्य के लिए देवताओं से प्रार्थना की।
आचरणशास्त्र के ज्ञाता और शीलवान ब्राह्मणों ने जब बालक के सभी लक्षण सुने और उन पर विचार किया तो अत्यंत प्रसन्न होकर उन्होंने राजा से कहा—हे राजन, आपका पुत्र आपके कुल का दीपक है। आप किसी प्रकार की चिंता न कीजिए। आनंद-उत्सव मनाइए, क्योंकि यह बालक न केवल आपके वंश की वृद्धि करेगा अपितु यह संसार में दुखियों का संरक्षक भी होगा। दीपक के सम्मान प्रकाशवान तथा सोने की कांति से युक्त शरीरवाले इस बालक में जो लक्षण हैं, उनसे लगता है कि यह तो बुद्धों में श्रेष्ठ होगा या परम राज्यश्री प्राप्त करेगा। यदि यह पृथ्वी के राज्य की इच्छा करेगा तो न्याय से सारी पृथ्वी को जीतकर सभी राजाओं में ऐसे ही शोभायमान होगा, जैसे सभी ग्रहों के बीच सूर्य प्रकाशित होता है। यदि वह मोक्ष के लिए वन जाएगा तो अपने तत्वज्ञान से सभी मतों को परास्त कर सारे संसार में सम्मानित होगा और सुमेरु पर्वत के समान प्रतिष्ठित होगा। जैसे सभी धातुओं में स्वर्ण, पर्वतों में सुमेरु, जलाशयों में समुद्र, प्रकाशपुंजों में सूर्य श्रेष्ठ है वैसे ही आपका यह पुत्र सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ सिद्ध होगा।
ब्राह्मणों की ऐसी बातें सुनकर राजा ने पूछा—“आपने इस बालक में जिन लक्षणों को देखा है, वे न तो पूर्ववर्ती राजाओं में देखे गए हैं और न ही ऋषि-मुनियों में। इसका क्या कारण है?” ब्राह्मणों ने राजा का समझाते हुए कहा—बुद्धि, सुकर्म और यश के विषय में पूर्ववर्ती या परवर्ती का प्रश्न महत्त्वपूर्ण नहीं होता है। इस प्रकार के गुण किसी विशेष कारण से ही उत्पन्न होते हैं। इस संबंध में आप कुछ दृष्टांत सुनिए। विभिन्न गोत्रों के आदि पुरुष-भृगु और अंगिरस जिस राजनीति शास्त्र को नहीं बता सके, उसी राजनीति शास्त्र को उनके पुत्र शुक्र और बृहस्पति ने बता दिया। पुराकाल में जब वेद लुप्त हो गए थे तो आगे चलकर व्यास ने उन्हें संपादित किया। इस कार्य को वशिष्ठ जैसे ऋषि भी न कर सके थे। इसी तरह जिस कार्य को वाल्मीकि ने कर दिखाया था वह कार्य उनके पूर्ववर्ती च्यवन ऋषि नहीं कर सके थे। अतः राजन, इस श्रेष्ठता का प्रमाण न तो अवस्था से है और न ही वंश से। श्रेष्ठता को कोई भी, कहीं भी प्राप्त कर सकता है। इतिहास बताता है कि जिन कार्यों को पूर्ववर्ती ऋषि और राजा नहीं कर सके, उन्हीं कार्यों को उनके परवर्ती व्यक्तियों ने कर दिखाया।
ब्राह्मणों से इस प्रकार आश्वासन और अभिनंदन प्राप्त कर राजा के मन की शंकाएँ मिट गईं। वे अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने ब्राह्मणों को ख़ूब दान-दक्षिणा दी और उन्हें सम्मानित कर विदा किया।
उसी समय महर्षि असित को अनुभूति हुई कि इस समय कपिलवस्तु में जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त करने वाले शाक्य मुनि ने जन्म लिया है। अतः वे उनके दर्शन के लिए अपने आश्रम से कपिलवस्तु की ओर चल दिए।
कपिलवस्तु में ब्रह्मवेत्ता राजपुरोहितों ने महर्षि असित का स्वागत किया और उन्हें सम्मानपूर्वक राजा के पास ले गए। राजा ने उन्हें सिंहासन पर बैठाया, उनके चरण धोए और विधिवत् पूजा की। राजा ने महर्षि से निवेदन किया—हे महर्षि! मैं धन्य हूँ। आपके आगमन से मेरा कुल अनुगृहीत हुआ है। हे सौम्य, आज्ञा दीजिए मैं क्या सेवा करूँ? मैं आपका शिष्य हूँ। आप आज्ञा दें।
राजा के वचन सुनकर ऋषि गद्गद् हो गए और धीर-गंभीर वाणी में बोले—“हे राजन, आप अतिथिप्रिय हैं, धर्माभिलाषी महात्मा हैं। आपने जो कुछ कहा है, वह आपकी अवस्था और आपके वंश के अनुरूप है। किंतु मेरे आने का प्रयोजन कुछ और ही है। मैंने दिव्य आकाशवाणी सुनी थी कि आपको जो पुत्र प्राप्त हुआ है, वह अवश्य ही बुद्धत्व को प्राप्त करेगा। इसके बाद मैंने स्वयं ध्यानयोग से इसके भविष्य को भी जान लिया है। इसीलिए मैं यहाँ आया हूँ। शाक्य कुल की उस पताका के दर्शन करना चाहता हूँ।
राजा ने ऋषि असित की सारी बातें ध्यान से सुनीं और प्रसन्न होकर धाय की गोद से शिशु को लेकर उन्हें दिखाया।
महर्षि ने राजकुमार को बड़े विस्मय के साथ देखा। उन्होंने देखा कि उसके चरणों में चक्र के चिह्न हैं, अँगुलियों और हाथ-पैरों पर अन्य शुभ लक्षण अंकित हैं। बालक को देखकर महर्षि की आँखों में आँसू आ गए और उन्होंने दीर्घ निःश्वास लेकर आकाश की ओर देखा।
महर्षि असित की आँखों में आँसू देखकर राजा का हृदय धड़कने लगा। उनका कंठ अवरुद्ध हो गया। उन्होंने हाथ जोड़कर पूछा—जिस बालक के शरीर पर दिव्य चिह्न हैं, जिसका जन्म चमत्कारी है और जिसके भविष्य को आप उज्ज्वल बताते हैं, उसे देखकर हे धीर, आपकी आँखों में आँसू क्यों आ गए हैं? हे भगवन, कुमार चिरायु तो है? क्या वह मेरी मृत्यु के बाद मुझे जलांजलि दे सकेगा? हे महर्षि, मुझे शीघ्र बताएँ। मेरा हृदय व्यग्र हो रहा है।
महर्षि असित ने राजा को समझाया कि ऐसी कोई बात नहीं है। मैंने प्रारंभ में ही कहा था कि तुम्हारा पुत्र बुद्ध होगा। वह शाक्य-कुलभूषण बनेगा। यह निश्चित है। मैं तो इसलिए विकल हूँ कि में मेरे जाने का समय आ गया है और जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति के सुलभ उपायों को बताने वाला यह बालक अब उत्पन्न हुआ है। यह कुमार विषयों से विरक्त होकर, राज्य को त्यागकर, अपने तप से तत्वज्ञान प्राप्त करेगा। यह ज्ञानमय सूर्य सांसारिक मोह के अंधकार को अवश्य नष्ट करेगा।
महर्षि असित ने बताया—दु:ख रूपी समुद्र में डूबते हुए संसार को यह बालक ज्ञान की विशाल नौका से उस पार ले जाएगा। यह धर्म की ऐसी नदी प्रवाहित करेगा, जिसमें प्रज्ञा का जल होगा, शील का तट होगा और समाधि की शीतलता होगी। इसी धर्म-नदी के जल को पीकर तृष्णा की पिपासा से व्याकुल यह संसार शांति लाभ करेगा।
जैसे भटके हए राही को कोई राह बताता है, वैसे ही संसार रूपी जंगल में भटके मनुष्यों को यह मोक्ष का सीधा मार्ग बताएगा। इसलिए हे राजन! आप किसी प्रकार की चिंता न करें, चिंता तो उन्हें करनी चाहिए जो इसके बनाए धर्म को मोहवश या आसक्तिवश नहीं मानेंगे। मैं ही अभागा हूँ कि में इसके उपदेशों को सुनने के लिए जीवित नहीं रहूँगा।
महर्षि की इन बातों को सुनकर राजा शुद्धोदन, उनकी पत्नी तथा अन्य सभी संबंधी अत्यंत प्रसन्न हुए। महर्षि भी राजकुमार के भविष्य के बारे में बताकर जैसे वायुमार्ग से आए थे, वैसे ही चले गए। बाद में उन्होंने अपनी बहन के पुत्र को समझाया कि वह बड़ा होकर बुद्ध के मार्ग का ही अनुसरण करे।
ज्योतिषियों तथा महर्षि असित से अपने पुत्र के भविष्य के बारे में सारी बातें सुनने के बाद राजा ने बड़े उत्साह से जन्मोत्सव का आयोजन किया। उसने अपने कुल के अनुरूप बालक का जात-कर्म संस्कार किया। दस दिन पूरे होने पर अपने पुत्र के कल्याण के लिए जप-होम तथा अन्य मंगल कार्य किए। पुत्र की उन्नति के लिए स्वर्ण मंडित सींगों वाली बहुत-सी गायों का दान दिया और शुभ मुहूर्त देखकर प्रसन्नतापूर्वक नगर में प्रवेश किया। पुत्र को लेकर, अनेक सगे-संबंधियों के साथ महारानी हाथी-दाँतों से निर्मित श्वेत पालकी पर सवार होकर नगर में आईं। पुरवासियों ने उनका स्वागत किया। जब रानी ने पुत्र के साथ अपने महल में प्रवेश किया तो राजा शुद्धोदन वैसे ही प्रसन्न हुए जैसे कार्तिकेय के जन्म से शिव प्रसन्न हुए थे।
अंतःपुर विहार
महाराज शुद्धोदन के पुत्र के जन्म का कुछ प्रभाव हुआ कि उनका घर धन-धान्य और हाथी-घोड़ों से संपन्न हो गया। उनके सभी मनोरथ सफल हो गए। उनके जो शत्रु थे, वे मध्यस्थ हो गए, जो मध्यस्थ थे, वे मित्र हो गए और जो मित्र थे वे और भी अधिक प्रिय हो गए। इंद्र ने उचित समय पर वर्षा की और खेत लहलहाने लगे।
महाराज शुद्धोदन के राज्य में धार्मिक जनों ने स्वर्ग जैसे सुंदर उद्यान, देव मंदिर, आश्रम, कुएँ और तालाब बनवाए। राज्य में किसी ने धन के लोभ के लिए धर्माचरण नहीं किया और धर्म के लिए किसी प्रकार की हिंसा नहीं की। इस तरह उनका राज्य चोर, शत्रु आदि के भय से मुक्त, स्वतंत्र और धन-धान्य से संपन्न हो गया। सूर्य-पुत्र मनु के समान इस राजा के राज्य में बालक के जन्मकाल से ही सर्वत्र प्रसन्नता छा गई, पाप नष्ट हो गए और धर्म प्रकाशित हो गया। इस बालक के जन्म से ही राज्य और राजकुल में संपत्ति आई और सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हुईं। इसीलिए राजा ने बालक को सर्वार्थ-सिद्ध कहते हुए उसका नाम ‘सिद्धार्थ' रखा।
महारानी माया अपने पुत्र का देवर्षियों जैसा प्रभाव देखकर अतिशय प्रसन्न थीं। पर इस आनंदातिरेक को वह अधिक दिनों तक सह न सकीं और कुछ ही दिनों में स्वर्गवासी हो गईं।
माता के स्वर्गवासी होने पर मौसी गौतमी ने उस बालक का अत्यंत स्नेहपूर्वक लालन-पालन किया। बालक उदयाचल पर उदित सूर्य के समान, वायु प्रेरित अग्नि के समान तथा शुक्ल पक्ष के चंद्रमा के समान धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। सगे-संबंधियों और मित्रों ने बालक को अनेक उपहार दिए। किसी ने बहुमूल्य चंदन के खिलौने दिए तो किसी ने मोतियों की माला दीं। किसी ने सोने के रथ, तो किसी ने सोने-चाँदी की रंग-बिरंगी पुतलियाँ दीं। इस प्रकार बालक सिद्धार्थ विविध प्रकार की बाल-क्रीड़ाएँ करते हुए बड़ा होने लगा।
सिद्धार्थ की कुमारावस्था बीतने पर राजा ने अपने कुल के अनुरूप उसका विधिवत उपनयन संस्कार किया और बालक की शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था की।
बालक सिद्धार्थ अत्यंत मेधावी था। जिन विद्याओं को सामान्य बालक वर्षों में सीखते हैं, उनको उसने कुछ ही समय में सीख लिया। इस प्रकार विद्याभ्यास करते हुए सिद्धार्थ ने किशोरावस्था पूरी की और वह युवावस्था की ओर बढ़ने लगा।
महाराज शुद्धोदन को महर्षि असित द्वारा की गई भविष्यवाणी याद थी कि यह बालक बड़ा होकर मोक्ष-प्राप्ति के लिए वन की ओर प्रस्थान कर सकता है। इसीलिए उन्होंने अंतःपुर में ऐसी व्यवस्था करवाई जिससे सिद्धार्थ की आसक्ति सांसारिक विषयों में बढ़े और वह भोग-विलास में इतना लिप्त हो जाए कि उसे किसी प्रकार का वैराग्य न हो और वह राजमहलों में रहकर भोग-विलास में डूबा रहे।
इसी विचार से राजा शुद्धोदन ने सिद्धार्थ का विवाह करने का निश्चय किया और इसके लिए उपयुक्त कन्या की तलाश शुरू की। अंत में उन्होंने यशोधरा नाम की सुंदर कन्या का चयन किया और फिर बड़े उत्साह से उसका विवाह कुमार के साथ कर दिया।
विवाह के बाद राजकुमार सिद्धार्थ और यशोधरा सुखपूर्वक वैवाहिक जीवन बिताने लगे। महाराज शुद्धोदन ने राजमहल में ऐसी व्यवस्था की थी कि राजकुमार राजमहल में ही रहे, भोग-विलास में तल्लीन रहे और ऐसा कोई दृश्य उसके सामने न आए जिससे उसके मन में वैराग्य उत्पन्न हो।
राजमहल में राजकुमार सिद्धार्थ सुंदर स्त्रियों के नृत्य, गान तथा वीणा वादन आदि का आनंद लेते रहे। सुंदरियों के साथ राजकुमार ऐसे तन्मय हो गए कि राजमहल से बाहर निकलते ही न थे। राजकुमार को भोग-विलास में तल्लीन देखकर राजा बहुत प्रसन्न थे। इसलिए उन्होंने और अधिक दान दिए, पंरतु राजकुमार सिद्धार्थ विषय सुखों में आसक्त नहीं था। उसने चपल घोड़ों जैसी इंद्रियों को वश में कर लिया था। उसने अपने गुणों से सारे राजपरिवार और पुरवासियों के मन को जीत लिया था।
राजा शुद्धोदन राजकुमार के क्रिया-कलापों से अत्यंत प्रसन्न थे। उन्होंने अपने पुत्र की दीर्घ आयु के लिए ग्रहों की पूजा की तथा गायों और स्वर्ण का दान दिया। राजा स्वयं सदा सत्य का आचरण करते थे, राग-द्वेष से रहित होकर शासन-व्यवस्था चलाते थे तथा प्रजा से अधिक कर नहीं लेते थे। जैसे योगी की इंद्रियाँ उसके अनुकूल रहती हैं, वैसे ही राजा के सदाचरण के कारण सारी प्रजा उनके अनुकूल रहती थी।
यशोधरा के साथ राजकुमार सिद्धार्थ के विवाह के कुछ समय बाद उन्हें चंद्रमा के समान सुंदर मुखवाला पुत्र प्राप्त हुआ। उसका नाम राहुल रखा गया। राजा ने बड़े उत्साह के साथ अपने पौत्र का जन्मोत्सव मनाया। उन्हें अब पूरा विश्वास हो गया कि उनके वंश का विस्तार होगा। जैसे वे अपने पुत्र से प्रेम करते हैं वैसे ही उनका पुत्र भी अपने पुत्र से प्रेम करे, इस अभीष्टपूर्ति के लिए उन्होंने अनेक धार्मिक अनुष्ठान किए।
राजा शुद्धोदन ने अपने पुत्र के लिए राज-काज चलाया, वंशवृद्धि के लिए पुत्र का पालन किया, यश के लिए कुल की रक्षा की और स्वर्ग के लिए वेदों का अध्ययन किया। सामान्यतः-राजा अपनी राज्य-लक्ष्मी की रक्षा के लिए पुत्र की रक्षा करते हैं, परंतु इस राजा ने धर्म-रक्षा की इच्छा से पुत्र की रक्षा की।
संवेग उत्पत्ति
एक बार राजकुमार सिद्धार्थ ने सुना कि राजमहल से बाहर एक सुंदर उद्यान है। वहाँ घने वृक्ष हैं, जिन पर कोयलें कूकती हैं तथा कमलों से भरे सुंदर सरोवर हैं। राजकुमार सिद्धार्थ को वह उद्यान देखने की इच्छा हुई। उसने महाराज से वन-विहार करने के लिए आज्ञा माँगी। राजा ने आज्ञा दे दी। वे चाहते थे कि राजकुमार के मन में किसी प्रकार का वैराग्य-भाव उत्पन्न न हो। इसलिए अनुचरों को ऐसी व्यवस्था करने की आज्ञा दी कि जिधर से राजकुमार निकलें उस मार्ग पर कोई रोगी या पीड़ित व्यक्ति दिखाई न दे। राज कर्मचारियों ने राजमार्ग से उन सभी व्यक्तियों को शांतिपूर्वक हटा दिया, जो विकलांग थे, वृद्ध थे या रोग-पीड़ित थे। इतना ही नहीं उन्होंने राजमहल से लेकर उद्यान तक का मार्ग अच्छी तरह सजा भी दिया।
राजा की आज्ञा प्राप्त कर अपने कुछ मित्रों को साथ लेकर राजकुमार सिद्धार्थ उद्यान देखने के लिए राजमहल से बाहर निकले। वे स्वर्ण आभूषणों से अलंकृत और चार घोड़ों से युक्त रथ में बैठे थे जो श्वेत पुष्पों और पताकाओं से भली-भाँति सुसज्जित था।
जब नगरवासियों ने सुना कि राजकुमार पुरकानन देखने जा रहे हैं तो राजकुमार के दर्शनों के लिए वे अपने-अपने घरों से बाहर आ गए। उन्होंने मन-ही-मन उनका अभिवादन किया और उनके दीर्घ जीवन के लिए शुभकामनाएँ व्यक्त कीं।
राजपथ पर राजकुमार के दर्शनों के लिए जगह-जगह प्रजाजन एकत्रित हो गए थे। स्त्रियाँ अटारियों पर चढ़कर या झरोखों से झाँककर उनका दर्शन कर रहीं थीं। सुंदर वेशवाले पुरवासियों से भरे इस राजपथ को देखकर राजकुमार सिद्धार्थ बहुत ही प्रसन्न थे। उन्हें लग रहा था, जैसे उनका यह नया जन्म हुआ है।
राजकुमार और पुरवासियों को इस प्रकार प्रसन्न देखकर देवताओं को बड़ी चिंता हुई। वे सोचने लगे कि यदि कुमार में वैराग्य-भाव पैदा नहीं हुआ तो क्या होगा! इतने में सिद्धार्थ को राजपथ पर एक वृद्ध पुरुष दिखाई दिया।
अन्य सभी व्यक्तियों से विलक्षण उस जर्जर शरीरवाले वृद्ध पुरुष को जैसे ही सिद्धार्थ ने देखा, वह चौंका और बड़े ध्यान से उसकी ओर देखने लगा। फिर उसने अपने सारथी से पूछा—हे सूत, यह कौन है? यह कहाँ से आया है? सफ़ेद बालोंवाला यह पुरुष हाथ में लाठी क्यों लिए हुए है? इसकी आँखें भौंहों से कैसे ढँक गई हैं? इसका शरीर क्यों झुका हुआ है? क्या यह कोई विकृति है? या इसकी यही स्वाभाविक स्थिति है? या यह अनायास ही ऐसा हो गया है?
राजकुमार के इन प्रश्नों को सुनकर सारथी सोचने लगा, अब मैं क्या कहूँ? राजा की आज्ञा के अनुसार वह इस बारे में कुछ भी बताना नहीं चाहता था किंतु न चाहते हुए भी उसने सभी बातें राजकुमार को बता दीं। उसने राजकुमार से कहा—हे राजकुमार! रूप और शक्ति का नाश करने वाली यह जरावस्था है; यह बुढ़ापा है; जिसमें स्मृति का नाश हो जाता है; इंद्रियाँ शिथिल हो जाती हैं; इसी वृद्धावस्था ने इस पुरुष को तोड़ दिया है; इसने भी बाल्यावस्था में दूध पिया है; सुंदर शरीर प्राप्त कर यौवन का सुख भोगा है और अब कालक्रम से यह बूढ़ा हो गया है।
सारथी की बातें सुनकर राजकुमार चकित हो गया, क्योंकि उसे इस प्रकार का कोई पूर्व अनुभव नहीं था। उसने फिर बूढ़े की ओर देखा और सारथी से पूछा—क्या यह दोष मुझे भी होगा? क्यों, मैं भी बूढ़ा हो जाऊँगा? सारथी ने उत्तर दिया—हाँ, आयुष्मान! समय आने पर आपको भी वृद्धावस्था अवश्य प्राप्त होगी।
सारथी का उत्तर सुनकर राजकुमार उद्विग्न हो उठा। उसने दीर्घ निःश्वास लिया, सिर हिलाया और बड़े ध्यान से पुनः उस पुरुष को देखा, फिर चारों ओर प्रसन्नचित्त जनता की भीड़ को देखकर वह सोचने लगा कि ये लोग कैसे हैं। जो स्मरणशक्ति और सारे पराक्रमों को समाप्त कर देने वाली इस वृद्धावस्था को देखकर भी अनुदविग्न बने रहते हैं? उसने फिर सारथी से कहा—हे सूत! चलो, घर चलें, अपने घोड़ों को मोड़ दो। मन में जब बुढ़ापे का भाव भर गया हो तो इस उद्यान में मेरा मन कैसे रम सकता है!
राजकुमार की आज्ञा पाकर सारथी ने रथ को राजभवन की ओर मोड़ दिया। थोड़े ही समय में वह राजभवन आ गया। राजकुमार अब भी बुढ़ापे के बारे मे सोच रहा था। वह रथ से उतरकर अपने भवन में गया और तरह-तरह से इसी विषय में सोचता रहा, परंतु उसे किसी प्रकार शांति का अनुभव न हुआ। वह अपने पिता के पास आया। उनसे पुनः उद्यान-भ्रमण की आज्ञा ली और उसी राजपथ पर पुनः उसी प्रकार बाहर आ गया।
राजकुमार सिद्धार्थ का रथ जैसे ही उद्यान की ओर अग्रसर हुआ उसे एक रोगी दिखाई पड़ा, उसका पेट बढ़ा हुआ था, कंधे झुके थे और वह लंबी-लंबी साँसें ले रहा था। सिद्धार्थ ने उसी समय रथ को रुकवाया और सारथी से पूछा—हे सूत, यह दुबला-पतला व्यक्ति कौन है, जो दूसरों का सहारा लेकर चल रहा है और कराहता हुआ 'हाय माँ, 'हाय माँ' कह रहा है?
सारथी ने उत्तर दिया—“हे सौम्य! यह व्यक्ति बीमार है। रोग से पीड़ित है और असमर्थ हो गया है। राजकुमार ने दया भरी दृष्टि से उस रोगी को देखा और फिर सारथी से पूछा—क्यों सारथी! यह रोग इसी व्यक्ति को हुआ है या किसी को भी हो सकता है? सारथी ने बताया कि रोग-भय तो सभी प्राणियों को लगा रहता है। कोई भी रोग से पीड़ित हो सकता है, परंतु लोग यह जानते हुए भी परवाह नहीं करते।
सारथी का उत्तर सुनकर राजकुमार का मन और भी बेचैन हो उठा। उसका हृदय काँपने लगा, फिर करुण स्वर से वह बोला—अरे! ये मनुष्य कैसे अज्ञानी हैं जो रोग-भय से ग्रस्त होने के बाद भी निश्चिंत रहते हैं! उसने सारथी से कहा—हे सूत! अब तुम रथ को घर की ओर ले चलो, लौट चलो, मुझसे यह रोग-भय सहा नहीं जाता।
राजकुमार का आदेश पाकर सारथी ने रथ को महल की ओर मोड़ दिया। राजकुमार का हृदय पहले बुढ़ापे के भय से और अब रोग के भय से दु:खी था। वह शीघ्र महल में लौट आया और कमरे में जाकर विचारों में डूब गया।
महाराज शुद्धोदन ने इस प्रकार जब दो बार राजकुमार को दु:खी मन से लौटा हुआ देखा तो उन्होंने इसका कारण जानना चाहा। उन्होंने सारथी को बुलाया और उससे सारा वृत्तांत सुना। राजा को जब यह ज्ञात हुआ कि राजकुमार जरा और रोग से ग्रस्त व्यक्तियों को देखकर बहुत व्याकुल हो गए हैं और घर लौट आए हैं, तो उन्हें लगा जैसे राजकुमार ने उन्हें त्याग दिया है। उन्होंने जिस भय से राजमार्ग से वृद्ध, रोगी तथा असुंदर लोगों को हटाने का आदेश दिया था, वहीं भय कैसे उपस्थित हो गया? उन्हें अपने कर्मचारियों और अधिकारियों पर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने राजकुमार की यात्रा से पूर्व सारे राजमार्ग को सुसज्जित करने तथा रोगी, वृद्ध आदि लोगों को हटाने का आदेश दिया था। परंतु राजा ने अब इसे अपनी नियति मान लिया और उन अधिकारियों को दंडित नहीं किया।
उन्होंने अपने मंत्रियों को बुलाकर इस विषय पर विस्तार से विचार-विमर्श किया। राजकुमार के मन को बदलने के लिए उन्होंने और अधिक भोग-विलास तथा आमोद-प्रमोद की अच्छी व्यवस्था अंतःपुर में ही कर दी। राजा ने सोचा था, इंद्रियाँ स्वभावतः चंचल होती हैं, अतः राजकुमार भोग-विलास और आमोद-प्रमोद में सब कुछ भूल सकता है। हो सकता है, वह इस प्रकार विषयों में आसक्त होकर यहीं रहे और हमें छोड़कर कहीं अन्यत्र न जाए।
परंतु राजमहल के आमोद-प्रमोद के विशेष आयोजन का भी राजकुमार के मन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। इस पर राजा ने यह सोचकर कि नगर-दर्शन से राजकुमार का मन बदल सकता है, राजकुमार के लिए पुनः नगर-दर्शन की विशेष व्यवस्था की। उन्होंने पूरे नगर को भली-भाँति सुसज्जित करवाया। सर्वत्र विविध कलाओं में निपुण सुंदरियों को नियुक्त किया और ऐसी व्यवस्था की जिससे राजकुमार का मन किसी भी प्रकार उद्विग्न न हो। उन्होंने राजकुमार के रथ और उसके सारथी को भी बदल दिया।
सारी व्यवस्था करने के बाद महाराज शुद्धोदन ने पुनः राजकुमार सिद्धार्थ को नगर-दर्शन के लिए प्रेरित किया और अनेक युवक-युवतियों के साथ नगर दर्शन के लिए बाहर भेज दिया।
नगर के सुसज्जित मार्गों और सुंदर युवक-युवतियों को देखकर राजकुमार सिद्धार्थ बहुत प्रसन्न थे। प्रसन्नतापूर्वक नगर-दर्शन करते हुए जब वे आगे बढ़ रहे थे, तभी उन्हें किसी मृत व्यक्ति की शव-यात्रा दिखाई दी।
राजकुमार ने जब इस सुंदर वातावरण में शव-यात्रा देखी और उसके साथ रोते-बिलखते लोगों को देखा तो वह चौंक गया। उसने रथ रुकवाया और सारथी से पूछा—हे सूत! यह क्या है, जिसे चार आदमी अपने कंधों पर उठाकर ले जा रहे हैं, उसके पीछे आने वाले लोग क्यों रो रहे हैं? जिसे लोग उठाकर ले जा रहे हैं, उसे तो अच्छी तरह से सजाया है, फिर भी ये लोग रो क्यों रहे हैं? मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है। मुझे ठीक-ठीक बताइए, यह सब क्या है?
यद्यपि राजा ने सारथी को समझा दिया था कि वह ऐसी कोई बात राजकुमार को न बताए जिससे उसका मन बेचैन हो परंतु सारथी राजकुमार का आग्रह नहीं टाल सका। उसने राजकुमार को बताया कि यह ऐसा व्यक्ति है जिसकी चेतना, बुद्धि, प्राण, इंद्रिय गुण आदि समाप्त हो चुके हैं। अब यह लकड़ी के टुकड़े के समान है। जिसे बड़े लाड़-प्यार से पाला-पोसा गया था, उसे ही आज ये लोग रो-धोकर हमेशा के लिए छोड़ने जा रहे हैं।
सारथी की ये बातें सुनकर राजकुमार अत्यंत व्यग्र हो गया। उसने पहली बार मृत व्यक्ति के दर्शन किए थे। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। उसने पुनः सारथी से पूछा—क्या यह स्थिति सभी की होती है या इसी की है? क्या यह इसी का अंत है या सभी का यही अंत होता है?
सारथी ने उत्तर दिया, हाँ, राजकुमार सभी प्राणियों की यही अंतिम गति है, क्योंकि सभी नाशवान हैं; चाहे कोई व्यक्ति उत्तम हो; मध्यम हो या अधम हो; अंत सभी का है और अंत सबका एक-सा ही है।
सारथी की बातें सुनकर राजकुमार यद्यपि अधीर तो नहीं हुआ, परंतु मृत्यु की प्रथम प्रतीति के कारण वह उसके विषय में सोचने लगा। थोड़ी देर विचारों में डूबे रहने के बाद उसने गंभीर स्वर में कहा—सभी प्राणियों की मृत्यु निश्चित है फिर भी लोगों को डर नहीं लगता। मनुष्य क्यों सावधान नहीं होते? लगता है, लोगों का मन बड़ा कठोर है, तभी तो मृत्यु मार्ग पर चलते हुए भी, वे उसे भूले रहते हैं। हे सारथी! लौट चलो, चलो घर चलें। यह समय आमोद-प्रमोद का नहीं है। मृत्यु को जानकर भी भला कोई बुद्धिमान व्यक्ति कैसे अपने आपको आमोद-प्रमोद में डुबो सकता है। सारथी को घर लौटने की आज्ञा देकर राजकुमार संसार की असारता के विषय में सोचता हुआ...विचारों में डूब गया।
यद्यपि राजकुमार ने सारथी से रथ को राजमहल ले चलने के लिए कहा था, परंतु उसे राजा की आज्ञा याद थी, अतः वह राजकुमार के रथ को राजमहल न ले जाकर 'पद्म खंड' नाम के उद्यान की ओर ले गया। राजा की आज्ञा के अनुसार इस उद्यान को विशेष रूप से सुसज्जित किया गया था। धीरे-धीरे राजकुमार का रथ वन-प्रांतर की ओर अग्रसर होने लगा। राजकुमार ने विविध प्रकार के पुष्पों से युक्त छोटे-छोटे वृक्षों को देखा, जिन पर मतवाली कोयलें कूक रहीं थीं। पास ही सुंदर पुष्पकरिणी थी, जिसमें अनेक कमल खिले हुए थे। सारा उद्यान नंदन वन जैसा सुंदर लग रहा था।, परंतु इस सुंदर वन-प्रांतर में भी राजकुमार का मन नहीं लग रहा था।
पद्म-खंड—उद्यान में राजा शुद्धोदन द्वारा नियुक्त नवयुवतियों ने जब सुना कि राजकुमार सिद्धार्थ उपवन में प्रवेश कर चुके हैं तो उन्होंने द्वारा के पास ही उनका स्वागत किया। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक राजकुमार को रथ से उतारा और प्रेमभरी आँखों से निहारा। उन्हें ऐसा लग रहा था कि जैसे स्वयं कामदेव उनके सामने आ गया हो। राजकुमार के सुंदर रूप को निहार कर वे इतनी मुग्ध हो गईं कि न कुछ बोल सकीं, न हँस सकीं, बस देखती ही रहीं।
इस प्रकार प्रेम-विह्वल स्त्रियों को कुछ न करते देखकर कुमार के मित्र तथा राजपुरोहित के पुत्र उदायी ने सुंदरियों से कहा कि आप सभी रूप और यौवन से संपन्न हैं, सभी कलाओं में निपुण हैं, अतः अपने हाव-भाव से राजकुमार को आमोद-प्रमोद में तल्लीन कीजिए। उनके मन के वैराग्य-भाव को दूर कीजिए।
उदायी की ये बातें सुनकर सभी स्त्रियाँ राजकुमार को आकर्षित करने के लिए प्रयत्न करने लगीं। उन्होंने राजकुमार को निकट से निहारा और अपने हाव-भाव से उन्हें आकर्षित करने का प्रयास किया। सुरम्य वातावरण में सुंदर स्त्रियों के बीच राजकुमार प्रसन्न तो दिखा परंतु वह जितेंद्रिय था, अतः अनासक्त भाव से सब कुछ देखता रहा। मन-ही-मन सोचता रहा कि क्या ये स्त्रियाँ यौवन की अस्थिरता नहीं जानतीं? क्या ये नहीं जानतीं कि जिस रूप के कारण ये उन्मत्त हैं, उसे बुढ़ापा शीघ्र ही समाप्त कर देगा। अवश्य ही इन स्त्रियों ने रोग नहीं देखा, तभी तो ये इस प्रकार प्रसन्न हैं। इन्हें मृत्यु का भी भय नहीं है, तभी तो इस प्रकार हँस रहीं हैं।
नवयुवतियों के बीच भी राजकुमार को ध्यान-मग्न देखकर साथ में आए उनके मित्र उदायी ने उन्हें समझाते हुए कहा—हे मित्र! यह क्या है? आप क्यों इतने उदासीन हैं? आप तो बलवान हैं, सुंदर हैं, युवक हैं, फिर भोग-विलास का तिरस्कार क्यों कर रहे हैं?
उदायी की ये बातें सुनकर राजकुमार ने धीर-गंभीर वाणी में उत्तर दिया—हे मित्र! आप जो कह रहे हैं, वह ठीक ही है, परंतु में भी आपसे कुछ कहना चाहता हूँ। मैं विषयों की उपेक्षा नहीं करता और मैं यह जानता हूँ कि सारा संसार विषयों की उपेक्षा नहीं करता। मैं यह भी जानता हूँ कि सारा संसार विषयों में ही डूबा हुआ है। किंतु इस जगत को अनित्य जानकर, अब मेरा मन इनमें रम नहीं रहा। जरा, व्याधि और मृत्यु न होती तो मेरा मन भी इनमें अनुरक्त होता, परंतु मैं जानता हूँ, इस यौवन और सौंदर्य को बुढ़ापा समाप्त कर देगा। हे मित्र! ऐसे क्षणभंगुर यौवन में अनुराग अज्ञान के कारण ही हो सकता है।
राजकुमार सिद्धार्थ जब अपने मित्र से वैराग्य उत्पन्न करने वाली बातें कर रहा था, तभी सूर्य अस्त होने लगा। सभी नवयुवतियाँ नगर की ओर लौटने लगीं और सारे उद्यान और नगर की शोभा अंधकार की चादर में सिमटने लगी।
इस समय राजकुमार सिद्धार्थ को बोध हुआ कि इस जगत में सब कुछ क्षणिक है, सब कुछ अनित्य है। जगत की अनित्यता के विषय में सोचते हुए वह अपने राजभवन की ओर चल पड़ा। थोड़े समय में राजभवन पहुँचकर वह सीधे अपने महल में गया और संसार की नश्वरता के विषय में और विचार करता रहा।
महाराज शुद्धोदन ने जब सुना कि राजकुमार सभी विषयों से विमुख होकर लौट आया है, तो उन्हें बहुत दु:ख हुआ। जैसे किसी हाथी के हृदय में बाण लग जाने से वह रातभर सो नहीं पाता वैसे ही महाराज भी रातभर सो नहीं सके। उन्होंने अपने मंत्रियों को बुलाया और उनके साथ मंत्रणा करते रहे कि क्या उपाय किए जाएँ, जिससे राजकुमार का मन बदले, उसका वैराग्य समाप्त हो और विषयों के प्रति आसक्ति जागे।
- पुस्तक : संक्षिप्त बुद्धचरित (पृष्ठ 1)
- रचनाकार : अश्वघोष
- प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
- संस्करण : 1999
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