नवगीत का सूरज डूब गया

माहेश्वर तिवारी [1939-2024]—एक भरा-पूरा नवगीत नेपथ्य में चला गया—अपनी कभी न ख़त्म होने वाली गूँज छोड़कर। एक किरन अकेली पर्वत पार चली गई। एक उनका होना, सचमुच क्या-क्या नहीं था! उन्हें रेत के स्वप्न आते थे और वह मछलियों की तरह नींद में छटपटाते थे। वह चिट्ठियाँ  भिजवाते थे—गाँव से। उनके पाँव धूप में जलते थे तो उन्हें घर की याद आती थी। वह गीत में पेंटिग बनाते थे :

अगले घुटने मोड़े 
झाग उगलते घोड़े
जबड़ों में कसती वल्गाएँ हैं, मैं हूँ
आस-पास जंगली हवाएँ हैं, मैं हूँ

माहेश्वर जी अपने को चिट्ठी लिखते थे और कहते थे :

बहुत बहुत बहुत दिन हुए
अपने को ख़त लिखे हुए

बहुत शिद्दत से आज के दौर के रहनुमाओं से सवाल पूछते थे :

सुनो सभासद
हम केवल विलाप सुनते हैं
तुम कैसे सुनते हो अनहद
और यह भी कहते थे
आ जा आ जा राजा बाबू
सूखा-बाढ़-महामारी है
आकर इन्हें चबा जा बाबू
बेटी बहन लुगाई हाज़िर
इज़्ज़त पाई पाई हाज़िर
हम हैं नहीं बाँसुरी, हम हैं
बाजा, हमें बजा जा बाबू

गई ईद पर उन्होंने समस्त देशवासियों को त्योहार की मुबारकबाद दी थी और 5 अप्रैल को अपना यह मुक्तक फ़ेसबुक पर पोस्ट किया था :

कितनी सदियाँ गुज़र गईं लेकिन
सारी दुनिया सफ़र में है अब भी
धूप में तप रहा है वर्षों से
छाँव बूढ़े शजर में है अब भी

ये पंक्तियाँ बताती हैं कि वह दुनिया से जाते-जाते तक रचनाशील रहे।

आज सुबह-सुबह ही नवगीत का यह सूर्य अस्त हो गया। मन बहुत-बहुत भरा है।

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