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विशाल अनुभव-सागर की एक झलक

हिंदी में लेखकों का अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा लिया गया साक्षात्कार संकलित होकर पुस्तक के रूप में प्रकाशित होता रहा है और ऐसी पुस्तकों की संख्या भी अच्छी-ख़ासी (एक प्रकाशक ने तो ऐसे ‘साक्षात्कार’ की पूरी शृंखला ही प्रकाशित की है।) है, लेकिन दो लेखकों के आपसी संवाद से निर्मित किताबें कम ही हैं। उसमें भी एक वरिष्ठ लेखक और अपेक्षाकृत युवा रचनाकार के बीच की सघन बातचीत का दस्तावेजी रूप लगभग न के बराबर है। 

लेखकों के आपसी संवाद के नाम से छपी दो किताबों को यहाँ याद किया जा सकता है। एक तो ‘मित्र-संवाद’ है जो दरअस्ल डॉ. रामविलास शर्मा तथा केदारनाथ अग्रवाल के पत्रों का संकलन है और दूसरी है—‘सोबती-वैद संवाद’ जो ‘भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला’ में इन दोनों लेखकों के एकत्र होने की स्थिति में संभव हुई थी। इन दोनों किताबों की एक सामान्य विशेषता यह है कि इन दोनों में समकालीन लेखक एक-दूसरे से संवाद कर रहे थे। पर जैसा कि कहा गया कि एक वरिष्ठ लेखक और अपेक्षाकृत युवा लेखक के संवाद हिंदी में नगण्य हैं। इसी कमी को अभी-अभी प्रकाशित किताब ‘परख’ बहुत हद तक पूरी करती है।

‘परख’ किताब में वरिष्ठ कवि एवं आलोचक अशोक वाजपेयी तथा युवा कवयित्री और कथाकार पूनम अरोड़ा की बातचीत दर्ज है। यह बातचीत आमने-सामने बैठकर नहीं की गई है। पूनम जी ने ‘ई-मेल’ द्वारा प्रश्न पूछे और फिर अशोक जी ने उन का जवाब भी ‘ई-मेल’ से ही भेजा। ‘परख’ पुस्तक को कई रूपों में देखा जा सकता है। पहला तो यही कि यह दो कवियों की बातचीत है। दूसरा यह कि यह एक वरिष्ठ लेखक का युवा लेखिका के साथ संवाद है। तीसरा यह कि यह एक पुरुष रचनाकार का एक स्त्री-रचनाकार के साथ संवाद है। इन्हीं सब बातों के कारण यह किताब अपना एक विशिष्ट रूप धारण कर लेती है।

अशोक वाजपेयी हिंदी के वरिष्ठ लेखकों में सब से अधिक सक्रिय हैं। पिछले साठ-सत्तर वर्षों से वह साहित्य रच रहे हैं। स्वयं को मूलतः वह कवि मानते हैं लेकिन साहित्य के साथ-साथ उनकी बहुत गहरी रुचि ललित कलाओं, शास्त्रीय संगीत तथा शास्त्रीय नृत्य में है। इन सबके साथ-साथ वह कई संस्थाओं के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाते रहे हैं और अभी प्रख्यात चित्रकार सैयद हैदर रज़ा द्वारा स्थापित ‘रज़ा फ़ाउंडेशन’ के प्रबंध न्यासी हैं। ‘रज़ा फ़ाउंडेशन’ साहित्य, कला और विचार से संबंधित अनेक आयोजन करता है जिनके पीछे अशोक जी की अंतर्दृष्टि और उनकी परिकल्पना काम करती है। इन सबके साथ अशोक जी अपने व्याख्यानों, लेखन आदि से एक सक्रिय जन-बौद्धिक का दायित्व भी निभाते रहे हैं। अशोक जी के बारे में इस अति संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट हो गया होगा कि उन का अनुभव-संसार बहुत दीर्घ, व्यापक और विविध है। ऐसे व्यक्ति के साथ कोई भी बातचीत किसी भी पाठक या लेखक को समृद्ध ही करेगी।

स्वाभाविक ही है कि ‘परख’ किताब में सबसे अधिक बातचीत कविता को लेकर है। अशोक जी के गद्य में सूत्रात्मकता और भाषा की अर्थपूर्ण चमक महसूस की जा सकती है। इन दोनों बातों की उपस्थिति इस किताब में आद्यंत देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए एक सवाल के जवाब में अशोक जी ने लिखा कि “कविता अदृश्य को, अकथ को दृश्य और कथन के अहाते में लाने की कोशिश करती है।” इसी तरह एक सवाल के उत्तर में वह लिखते हैं कि “कविता भाषिक इबारत भी होती है और आवाज़ भी।” इस तरह के ढेरों वाक्य इस पूरी बातचीत में फैले हुए हैं। 

पूनम जी के प्रश्नों और अशोक जी के उत्तरों से यह समझा जा सकता है कि अशोक जी के लिए कविता का संसार अपने-आप में व्यापक है, अपेक्षाकृत स्वायत्त है लेकिन कविता की व्यापकता तभी आकार लेती है जब कोई ‘रसिक पाठक’ उस में अपना सच मिलाता है तथा उस की स्वायत्ता भी हवाई नहीं बल्कि गहरे सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों जे जुड़ी हुई है। जैसे एक सवाल के जवाब में अशोक जी लिखते हैं कि “कविता और साहित्य की अपनी वैचारिक सत्ता होती है—वे सोच-विचार की विधाएँ भी हैं।” साथ ही एक दूसरे प्रश्न के उत्तर में वह लिखते हैं कि “सच्ची कविता हमें दुनिया में रहना-रचना-बदलना सिखाती है। अगर मुक्ति है तो इसी दुनिया में रह कर, उसे ख़ारिज या तज कर या उससे भागकर नहीं।” इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि ‘परख’ किताब में कविता और साहित्य के अनेक बिंदुओं पर सैद्धांतिक चर्चा के सूत्र हमें मिलते हैं। ऐसा इसीलिए संभव हो पाया है कि अशोक जी का काव्य-अनुभव अत्यंत व्यापक है। उस में संस्कृत, हिंदी और उर्दू कविता से लेकर विश्व कविता के श्रेष्ठतम का संस्कार शामिल है। अशोक जी ने दुनिया के कई श्रेष्ठ कवियों की कविताओं का अनुवाद भी किया है। यह भी उन के दृष्टिकोण को व्यापक करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

‘परख’ किताब में शामिल कविता पर चर्चा से हमें अशोक जी की कविताओं को समझने के सूत्र एवं दृष्टि भी मिलती है । अशोक जी बार-बार इस पर इसरार करते हैं कि उनकी कविता के दो प्रमुख कारक इस संसार के प्रति उनका अनुराग और संसार के प्रति कृतज्ञता है। उनकी कविताओं का दूसरा सिरा स्वतंत्रता, समानता और न्याय की अवधारणा से भी जुड़ा है। उनकी कविताओं का एक सिरा उनकी इस मान्यता से भी जुड़ता है कि ‘धर्म-मुक्त अध्यात्म’ संभव है। साथ ही उन्होंने कविताओं के जो अनुवाद किए हैं उनका भी असर उन की कविता पर गहराई से पड़ा है जैसा कि वह पूनम जी के एक प्रश्न के जवाब में लिखते भी हैं कि “पोलिश कविता का अनुवाद करते हुए उसका इतना आंतरिकीकरण हो गया कि मेरी कविता में एक पोलिश चरण देखा जा सकता है, ख़ासकर ‘इबारत से गिरी मात्राएँ’, ‘उम्मीद का दूसरा नाम’, ‘दु:ख़ चिट्ठीरसा है’ आदि बाद के संग्रहों में।”

ऊपर यह भी संकेत किया गया है कि अशोक जी अपनी लेखकीय सामाजिक प्रतिबद्धता के फलस्वरूप एक जन-बौद्धिक का दायित्व भी निभाते आ रहे हैं। हिंदी क्षेत्र की साहित्यिक और सांस्कृतिक विपन्नता को लेकर अशोक जी वर्षों से चिंतित बल्कि कई बार क्षुब्ध भी होते रहे हैं। उन्हें यह बार-बार लगता है कि हिंदी समाज—साहित्य से प्रेरणा नहीं लेता। हिंदी क्षेत्र में जातिवाद, सांप्रदायिकता में भारी वृद्धि और हिंदी क्षेत्र के मध्य वर्ग की एक निष्क्रिय उदासीनता का बिंदु इस बातचीत में बार-बार आता है। साथ ही पिछले कुछ वर्षों में ‘हिंदुत्व’ का वर्चस्व हिंदी-क्षेत्र पर जो बढ़ता हुआ दिखता है उसकी विवेचना भी अशोक जी जगह-जगह करते चलते हैं। कई बार यह कड़वी बात की तरह लग सकता है लेकिन इस में व्यक्त सच्चाई से मुँह मोड़ना असंभव है। अशोक जी साफ़-साफ़ लिखते हैं कि “सबसे ज़्यादा पतन तो हिंदी मध्यवर्ग का है, जो परंपरा, इतिहास, संस्कृति, स्वतंत्रता-समता-न्याय की संवैधानिक मूल्यत्रयी से, अपने साहित्य और मातृभाषा से विश्वासघात करनेवाला उठाईगीर संप्रदाय बनकर रह गया है।” इसी प्रकार पूनम जी के ‘हिंदुत्व’ के प्रश्न पर स्पष्ट स्वरों में अशोक जी लिखते हैं कि “हिंदुत्व हिंदू धर्म का कोई नया या वैध संस्करण नहीं है। हिंदू परंपरा का अनिवार्य पक्ष रहा है प्रश्नवाचकता, विवाद, संवाद। ...हिंदुत्व अब अपने प्रकट सत्तारूढ़ रूप में बहुलता, प्रश्नवाचकता और निर्भीकता का लगातार, क्रूर और अलोकतांत्रिक, हनन करता है। ...हिंदुत्व न सिर्फ़ हिंदू धर्म का कोई संस्करण है, वह न तो हिंदुओं का वैध या समुचित प्रतिनिधित्व करता है और न ही उसकी लंबी परंपरा से उसका कोई संबंध या संवाद है। वह धर्म का सहारा लेकर उसी की एक भयावह विकृति है।”

जैसा कि यह कहा ही गया कि ‘परख’ को एक पुरुष रचनाकार और एक स्त्री रचनाकार के संवाद के रूप में भी देखा जा सकता है। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि पूनम जी अशोक जी से स्त्रीवाद, यौनिकता, दलित लेखन आदि के मुद्दों पर भी सवाल पूछतीं। इन सबसे जुड़े सवालों और अशोक जी द्वारा दिए गए जवाबों से सबसे पहले तो यही ध्यान जाता है कि अशोक जी के दृष्टिकोण में इन सारे मुद्दों पर एक उदार खुलापन है। दूसरी बात यह कि किसी भी नई विचार-स्थिति या तकनीक को अशोक जी संदेह की निगाह से नहीं देखते बल्कि उसके प्रति एक आशा उनके मन में नज़र आती है, भले वह उसकी सीमाओं को लेकर थोड़े चिंतित हों! जैसे जब पूनम जी यह पूछती हैं कि “क्या आप मानते हैं कि आज का स्त्रीवाद, विशेष रूप से सोशल मीडिया के युग में, व्यक्तिगत अनुभवों पर अधिक ध्यान केंद्रित है, और इससे आंदोलन की समग्रता में कोई कमी आयी है?” तो अशोक जी जवाब लिखते हैं कि “स्त्रीवाद अगर अपनी सामाजिकी में निजता की जगह बनाए रख रहा है तो यह बहुत विधेयात्मक बात है और मार्क्सवाद की एक बड़ी चूक से सबक़ लेने जैसा है। व्यक्तिगत अनुभव, उसकी उपस्थिति आदि किसी विचार के लिए बहुत समृद्ध उपजीव्य होते हैं। उनसे तो स्त्रीवाद अधिक समग्र बन रहा है।” इसी प्रकार यौनिकता के सवाल पर अशोक जी लिखते हैं कि “विक्टोरियन मानसिकता से ग्रस्त और अपनी ही शृंगार की लंबी और महान् परंपरा से दायवंचित हिंदी मानस, ख़ासकर उसके पढ़े-लिखे मध्यवर्ग के लिए, यौनिकता हमेशा विवादास्पद मामला है।” इन सबसे समझा और महसूस किया जा सकता है कि अशोक जी के विचारों में एक ‘युवापन’, ताजगी और उदारता है जहाँ असहमति का निर्द्वंद्व स्वीकार भी है।

‘परख’ में शामिल बातचीत में एक बात और लक्ष्य की जा सकती है कि अशोक जी में उदारता के साथ-साथ बहुत अधिक आत्मसंयम भी है, भले वह अपने-आप को यों ही बातूनी मानते रहे हों! यह आत्मसंयम इस पूरी बातचीत में अंत:सलिला रूप में विन्यस्त है। इसे भी एक उदाहरण से समझा जा सकता है। पूनम जी पूछती हैं कि “क्या आप अपने जीवन के सबसे सुंदर और अर्थवान रिश्ते के विषय में हमसे साझा करना चाहेंगे?” अशोक जी उत्तर देते हैं कि “ऐसे सुंदर-सघन-सार्थक-स्मरणीय रिश्ते बहुत से रहे हैं और उनको मैंने, किसी हद तक अपने लिखे में सँजोया और चरितार्थ किया है। उनके बीच चुनना या उनकी सार्वजनिक शिनाख़्त करना मुझे ज़रूरी नहीं लगता।”

‘परख’ किताब में ललित कला, संगीत और नृत्य से जुड़े सवाल तुलनात्मक रूप से संख्या में कम हैं। अशोक जी का जितना व्यापक अनुभव इन क्षेत्रों में है यदि उनसे जुड़े सवाल कुछ अधिक होते तो यह और भी अच्छा होता पर यह भी है कि एक किताब में कितना कुछ समेटा जा सकता है! ‘परख’ निश्चित ही अशोक वाजपेयी के अनुभव-सागर की स्पष्ट, प्रचुर और उदात्त झलक है।

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यह समीक्षा 'द वायर' (हिंदी) पर पूर्व-प्रकाशित, वहीं से साभार।

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