उद्भ्रांत की आत्मकथा : हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर
दिनेश कुमार माली
04 दिसम्बर 2025
उद्भ्रांत हिंदी साहित्य की उस पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि हैं, जिन्होंने ‘नई कविता’ के बाद सातवें दशक में छंद में हाथ आज़माते हुए, कविता के अन्य आंदोलनों के बीच अपनी जगह बनाई—यद्यपि बाद में उन्होंने अपने समकालीनों से भी अलग हटकर कविता के रूपाकार में नए प्रयोग करते हुए उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य दिया। उनकी रचनाएँ जीवन के कठोर संघर्षों से उपजी हैं, जिनमें व्यक्तिगत अनुभवों की गहनता के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य की झलक मिलती है। उनकी आत्मकथा शृंखला ‘मैंने जो जिया’ का तीसरा खंड ‘काली रात का मुसाफ़िर’ (अमन प्रकाशन, कानपुर, 2025) एक ऐसा दस्तावेज़ है, जो न केवल लेखक के जीवन के अंधकारपूर्ण दौर को उजागर करता है, बल्कि हिंदी साहित्य में आत्मकथा विधा की नई संभावनाओं को भी खोलता है। यह पुस्तक 440 पृष्ठों में फैली है—जिसमें 21 अध्याय हैं और यह 23 दिसंबर 1987 से 6 अप्रैल 1995 तक के घटनाक्रम पर केंद्रित है। लेखक की पत्नी उषा को समर्पित उनकी आत्मकथा की 8 वर्षीय अवधि का यह तीसरा खंड उनके जीवन के कष्टदायी पलों को उस मुसाफ़िर की तरह देखता-चित्रित करता है, जो काली रात में भी तमाम अवरोधकों को पारकर उत्साह, उमंग और हास्य के साथ अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता है।
वर्ष 2018 के ‘विश्व पुस्तक मेला’ नई दिल्ली में उनकी आत्मकथा का प्रथम भाग ‘बीज की यात्रा’ बेस्ट सेलर रहा, उसमें वर्ष 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम और पुरखों के संदर्भ के प्रारंभिक अध्यायों के बाद, वर्ष 1948 में उनके जन्म से लेकर सत्ताईस साल यानि 1975 तक का जीवंत साहित्यिक ब्यौरा है; जिसमें उनके साहित्यिक जीवन के आरंभिक संघर्षशील प्रसंगों की अनूठी प्रस्तुति है। दूसरा खंड ‘किस राह से गुज़रा हूँ’ 27 साल से आगे 40वें साल की उम्र तक का सफ़र है। उक्त अवधि में कवि अनेक पारिवारिक संघर्षों के बीच जीवन की कंटकों भरी टेढ़ी-मेढ़ी दुखभरी राहों से गुज़रता है। ‘मैंने जो जिया’ शृंखला का पहला खंड 2018 में आया, दूसरा 2022 में और तीसरा 2025 में। हिंदी साहित्य में आत्मकथा विधा न केवल व्यक्तिगत जीवन-वृत्तांत का माध्यम बनी, बल्कि सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक चेतना को भी प्रतिबिंबित करने लगी। उद्भ्रांत की आत्मकथा समकालीन हिंदी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण कृति है, जो कवि के व्यक्तिगत संघर्ष, साहित्यिक यात्रा और सामाजिक अवलोकनों को इतिवृत्तात्मक (नैरेटिव) शैली में प्रस्तुत करती है। यह तीन भागों में विभक्त है, जो लेखक के जीवन के विभिन्न चरणों—बचपन से अधेड़ावस्था तक के सृजन संघर्ष—को कवर करती है। इसमें गद्य में काव्यात्मक गहराई है और यह हिंदी आत्मकथाओं की परंपरा में एक बेबाक़ आधुनिक स्वर लाती है।
तीसरे खंड का लेखन जून 2024 से शुरू हुआ, जो लेखक की पत्नी उषा की लंबी बीमारी और मृत्यु के बाद की अवधि में लिखा गया। प्रस्तावना में लेखक कहते हैं : “आत्मकथा का यह तीसरा खंड है, जो दूसरे खंड के प्रकाशन के 5 वर्ष बाद जून 2024 से लिखना प्रारंभ हुआ। बीच की यह अवधि उषा की लंबी बीमारी से जूझते, उसकी सेवा-शुश्रूषा करते, उसे जाते देखने के बाद के दो वर्षों में अपने को सँभालते बीती।”
यह खंड लेखक के जीवन के उस दौर को दर्शाता है, जहाँ नौकरी से इस्तीफ़ा, साहित्यिक ईर्ष्या, पुरस्कारों की राजनीति और व्यक्तिगत संघर्ष प्रमुख हैं। लेखक इसे ‘तूफ़ानी जीवन की रोमांचक घटनाओं और स्मृतियों का रेला’ कहते हैं, जो 1995 की पहली तिमाही तक पहुँचता है। यह आत्मकथा मात्र जीवन-वृत्तांत नहीं, बल्कि हिंदी साहित्य जगत की आंतरिक राजनीति का खुलासा भी है।
पुस्तक की संरचना अध्याय-आधारित है, जिसमें प्रत्येक अध्याय एक विशिष्ट घटना या थीम पर केंद्रित है। अनुक्रमणिका से स्पष्ट है कि अध्यायों के शीर्षक काव्यात्मक हैं, जैसे ‘काली रात का मुसाफ़िर’, ‘लाश-सी चलते हुए देखी’, ‘खूँ से भरा यह दौर’, ‘स्वयंप्रभा समुज्ज्वला’ ‘काल के मायावी आलोक में’, ‘अग्नि-चक्र के भीतर’, ‘ये कहाँ तक आये’, ‘इंसाफ़ चाहे है’, ‘यह पाल उठा दे’,’ उतर रहा है महानगर’, ‘नग्मे मुहब्बत के जब सुनाने को चला’, ‘किसी क़ारवाँ में थे’ आदि।
आत्मकथा के इस खंड की शुरुआत 23 दिसंबर 1987 से होती है, जब रमाकांत (उद्भ्रांत का मूल दस्तावेज़ी नाम) एलिमको (ALIMCO) से एक दिन पहले इस्तीफ़ा देते हैं। उनकी पत्नी की प्रतिक्रिया—“उषा स्तब्ध रह गई, मगर कुछ नहीं बोली। वह हमेशा पति के फ़ैसलों के साथ रहती थी”—लेखक के जीवन में स्त्री की सहयोगी भूमिका को उजागर करती है।
पहले अध्याय ‘काली रात का मुसाफ़िर’ में लेखक के इस्तीफ़े, आकाशवाणी में आवेदन, विश्वविद्यालय से सहयोग की कशमकश और सुमन पुरस्कार की घोषणा आदि का वर्णन है। इस अध्याय के पूर्व उन्होंने अपने वृहद कविता सग्रह ‘अस्ति’ में कविता का यह अंश दिया है :
“कठिन है काली रात का सफ़र / ओ अकेले मुसाफ़िर / मगर हैरत है / कि तू फिर भी चले जा रहा अलमस्त / चेहरे पर एक भी शिक़न लाये बिना / उत्साह की एक भी बूँद कम किये बिना / जिये जा रहा / कठिन ज़िम्मेदारियों से आँखें मिलाते, / हँसते-मुस्कुराते।”
लेखक हरिवंशराय बच्चन के पत्रों के प्रकाशन के लिए कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति से मिलते हैं, लेकिन घूस की माँग और साहित्यिक ईर्ष्या का सामना करते हैं। कुलपति का कथन—“बच्चन जी के पत्रों को प्रकाशित करने के लिए विश्वविद्यालय क्यों पैसा दे? अरे, उनका बेटा अमिताभ सुपर स्टार है। आप उससे संपर्क करिए।”—साहित्य जगत की व्यावसायिकता और ईर्ष्या को दर्शाता है।
‘लाश-सी चलते हुए देखी’ अध्याय उद्भ्रांत की व्यक्तिगत पीड़ा और सामाजिक संघर्ष को चित्रित करता है। कई दिनों तक उन्हें लेट्रिन नहीं होने, शराब पीने और घर में माता-पिता और भाइयों द्वारा उनकी पत्नी के साथ मारपीट की घटना से उनकी अवस्था एक जीवित लाश की तरह हो जाती है। जहाँ ‘खूँ से भरा यह दौर’ अध्याय में 1988 की राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल को दर्शाया गया है, वहीं ‘स्वयंप्रभा समुज्ज्वला’ में उनके खंड काव्य ‘स्वयंप्रभा’ की रचना-प्रक्रिया का वर्णन है।
‘मैं भटकना चाहता हूँ’ अध्याय उद्भ्रांत की भटकन और खोज की कहानी है; जहाँ लेखक जीवन की भटकन में उद्देश्य की तलाश करते हुए अपनी पहचान ढूँढ़ता है। ‘रसमग्न हो गई वसुंधरा’ में उनकी कालजयी कविता ‘रुद्रावतार’ की पृष्ठभूमि है तो ‘प्रज्ञावेणु की धुन’ में गीता के मुक्त-छंद में अनुवाद-प्रक्रिया का निदर्शन है।
अन्य अध्यायों में वर्णित अनेक रोचक-रोमांचक घटनाओं से होते हुए यह आत्म-कथा अप्रैल 1995 तक पहुँचती है, जहाँ लेखक का सफ़र ‘किसी क़ारवाँ में थे’ अध्याय के साथ समाप्त होता है। कथानक एक रेखीय नहीं है, स्मृतियों का रेला है; जो घटनाओं को भावुकता से जोड़ता है। पत्नी के प्रति समर्पण, बच्चन, केदारनाथ अग्रवाल, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, नागार्जुन के साथ पत्राचार, नीरज, आलोकधन्वा, अरुण कमल, सोम ठाकुर जैसे कवियों और ज्ञानरंजन, विश्वंभर नाथ उपाध्याय जैसे साहित्यकारों के साथ मित्रता—इस पुस्तक को महत्त्वपूर्ण बनाते हैं।
उद्भ्रांत की भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण और काव्यात्मक है। वाक्य छोटे-छोटे हैं, लेकिन भावुकता से भरे। उदाहरण : “उसे विश्वास था कि पति जो भी फैसला लेता है—भले ही उस समय ठीक न लगे, मगर परिणाम सुखद होता है।” शैली संस्मरणात्मक है, जिसमें संवाद और वर्णन का संतुलन है। साहित्यिक मूल्य के रूप में, यह आत्मकथा हिंदी में दुर्लभ है, क्योंकि लेखक ईमानदारी से अपनी असफलताओं और दर्द को छिपाते नहीं। यह रस्किन बांड या नेरूदा की आत्मकथाओं की तरह व्यक्तिगत है, लेकिन हिंदी के संदर्भ में बच्चन की ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ से मिलती-जुलती है। हरिवंशराय बच्चन ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ (1969) में लिखते हैं कि “मैंने जो देखा, जो सुना, जो भोगा, वही लिखा है।” तो उद्भ्रांत अपनी आत्मकथा ‘मैंने जो जिया’ (2018) में लिखते है कि “मैंने जो जिया, वही लिखा है’”—उद्भ्रांत बच्चन को गुरु मानते हैं।
दोनों की आत्मकथाएँ बहु-खंडीय; काव्यात्मक और स्मृति-आधारित संरचनाएँ हैं। बच्चन के खंड जीवन के चरणों (शिक्षा, विवाह, साहित्यिक उन्नति) को विभाजित करते हैं, जबकि उद्भ्रांत की आत्मकथा इतिवृत्तात्मक (घटनाओं का क्रमिक वर्णन) है। बच्चन की संरचना भावुक स्मृतियों पर ज़ोर देती है, उद्भ्रांत की संघर्ष-केंद्रित। इसी तरह महादेवी वर्मा की ‘अज्ञात के चरणों पर’ (1964) उद्भ्रांत की आत्मकथा से भिन्न है, क्योंकि महादेवी की संरचना दार्शनिक और अंतर्मुखी है, न कि उद्भ्रांत की तरह कालक्रमिक।
यशपाल की आत्मकथा ‘सिंहावलोकन’ (3 खंड, 1951-1955) उनके बहु-खंडीय और ऐतिहासिक, क्रांतिकारी जीवन को कवर करता है। इसकी उद्भ्रांत की आत्मकथा से समानता यह है कि दोनों सामाजिक परिवर्तन को जोड़ती हैं, लेकिन यशपाल की आत्मकथा राजनीतिक और घटना-प्रधान अधिक है। उद्भ्रांत की पुस्तक समकालीन हिंदी में बेबाक़ आत्मकथाओं की कमी पूरी करती है। यह युवा साहित्यकारों के लिए प्रेरणास्पद है और सृजन की कठिनाइयों को उजागर करती है।
यद्यपि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने आत्म-कथा नहीं लिखी, मगर उनके साहित्य के आत्म-कथात्मक संस्मरणों को उद्भ्रांत की आत्मकथा से तुलना करेंगे तो पाते हैं कि दोनों के जीवन में काफ़ी समानता रही है। उदाहरण के तौर पर ग़रीबी और मज़दूरी का दर्द सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ अपनी कृति ‘कुल्ली भाट’ (1937) में उजागर करते है कि “मैं कुल्ली भाट हूँ, मज़दूरी करता हूँ, पेट भरने को, दिन-रात खटता हूँ।” उद्भ्रांत अपनी आत्म-कथा के भाग-1 : ‘बीज की यात्रा’ में लिखते है कि “पुस्तक छपवाने के लिए क़र्ज़ लिया, उसे चुकाने के लिए दिन-रात लिखता रहा।” दोनों में ‘मज़दूरी’ का रूप बदल गया है—निराला की शारीरिक, उद्भ्रांत की बौद्धिक मज़दूरी। दोनों का पेट साहित्य से नहीं भरता।
जिस तरह निराला ने सृजन के दौरान आर्थिक तंगी के बारे में प्रेमचंद को वर्ष 1936 में पत्र लिखा कि “बीमार हूँ, पैसा नहीं, घर में अन्न का एक दाना नहीं। फिर भी लिखता हूँ।” उसी तरह अपनी आत्म-कथा के भाग-2 : ‘किस राह से गुज़रा हूँ’ में उद्भ्रांत जी लिखते है कि प्रारंभ में किताबें छपाने हेतु पैसा न होने के कारण, उन्हें उदास-परेशान देख नव विवाहिता पत्नी द्वारा अपने गहने बेच देने के बाद ही उनकी किताबें छप सकीं! दोनों साहित्यकारों में विद्रोह है, मगर आत्म-गरिमा के प्रति सम्मान भी। जिस तरह निराला ‘चतुरी चमार’ में जाति से विद्रोह कराते हैं, उसी तरह उद्भ्रांत साहित्यिक बाज़ारवाद और गुटबंदी से विद्रोह। उद्भ्रांत जी लिखते है कि “हरिवंश राय बच्चन मेरे गुरु हैं, पर निराला मेरे भीतर बसते हैं”; उसी तरह निराला भी लिखते हैं कि “जब मैं क़र्ज़ में डूबा लिखता हूँ, तो लगता है—कुल्ली भाट मेरे कंधे पर सवार है।” हिंदी साहित्य में दो कवि, दो युग, एक ही दर्द। दोनों ने सृजन को मज़दूरी बनाया और मज़दूरी को आत्मकथा। यह स्वीकारोक्ति कोई साहित्यिक शिष्टाचार नहीं; यह विरासत का हस्तांतरण है। निराला और उद्भ्रांत दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों ने साबित किया कि सृजन मज़दूरी नहीं, मुक्ति है।
आत्म-कथा का तीसरा खंड उनकी साहित्यिक स्मृतियों का कोलाज है, जिसमें दूरदर्शन और आकाशवाणी में काव्य-पाठ की रिकॉर्डिंग होते रहने के कारण जहाँ कार्यरत अनेक साहित्यकारों से जुडने की स्मृतियाँ शामिल हैं, वहीं नौकरी के दौरान उन्हें मणिपुर इम्फ़ाल में क्षेत्रीयता का शिकार होना पड़ता है और मुंबई कार्यालय में भी उच्च अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित होने जैसे अनेक प्रसंग गूँथे हुए हैं। उसी तरह पुणे के फ़िल्म टेलीविज़न इंस्टीट्यूट में ट्रेनिंग के दौरान कथक नृत्य पर गहराई से आलोकपात किया गया है। ऐसे अवसर बहुत कम साहित्यकारों को मिल पाते हैं।
उद्भ्रांत ने आत्म-कथा के तीनों खंडों द्वारा अनेक प्रसिद्ध साहित्यकारों के जीवन के अनछुए प्रसंगों को प्रस्तुत कर न केवल हिंदी साहित्य जगत में पारदर्शिता लाने का प्रयास किया है, वरन् हिंदी भाषा के सजग प्रहरी की तरह उसकी आन-बान-शान और अक्षुण्णता के लिए जीवन के पार्थिव सुखों को तिलांजलि भी दी है। आशा ही नहीं; अपितु पूर्ण विश्वास है कि यह आत्म-कथा हिंदी जगत की एक अमूल्य धरोहर के रूप में प्रतिष्ठित होगी।
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