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किताब उसकी है जिसने उसे पढ़ा, उसकी नहीं जिसके किताबघर में सजी है

एक 

हर किताब अपने समझे जाने को एक दूसरी किताब में बताती है।

—वागीश शुक्ल, ‘छंद छंद पर कुमकुम’

जब बाज़ार आपको, आपका निवाला भी चबा कर दे रहा है; तब क्या पढ़ें और किसको पढ़ें? एक अच्छा सवाल है। कोशिश यही रहे कि इसको कोई सीमा से अधिक आपके लिए हल न करे।

लगभग 13-14 साल पहले गुलज़ार और ओरहान पामुक के साक्षात्कार पढ़े थे। दोनों ने अपनी पसंदीदा किताबें बताते हुए कहा कि इन किताबों ने उनके जीवन बदल दिए। गुलज़ार ने टैगोर की ‘द गार्डनर’ का नाम लिया और पामुक ने विलियम फ़ॉकनर की ‘The Sound and the Fury’ का। 

प्रभाव के क्रम में ऐसे ही कभी मार्खे़ज (Gabriel García Márquez) ने मेटामॉरफोसिस का हवाला दिया था। बिला-शक इन सभी रचनाकारों ने कालजयी रचनाएँ लिखीं। अपनी सही उम्र में मैंने भी ये किताबें ख़रीदीं, पढ़ीं और बारंबार पढ़ीं। मुझे रत्तीभर कुछ महसूस नहीं हुआ।

2015 में, मैं नौकरी के चलते पुणे आ गया। किसी ख़ब्त में मैंने एक शाम तय किया कि सुबह-सुबह अपने घर से नंगे पैर पैदल शनिवार वाडा जाऊँगा (लगभग 11 किलोमीटर)। मैं गया और वहाँ पहुँचते ही जब मेरी नज़र शनिवार वाडा पर पड़ी तो मैंने जाना कि यह सबका शनिवार वाडा नहीं है। यह मेरा निजी है और इस यात्रा से मैंने इसको हासिल किया है, इसका अर्थ सबके शनिवार वाडा से अलग है।

मैंने जाना कि पामुक, गुलज़ार और मार्खे़ज को जिन किताबों ने बदल कर रख दिया, उन किताबों तक की यात्रा मेरी अपनी नहीं है। वह इन्हीं की है, जिस पर मैं चल कर पहुँचना चाह रहा था। 2016 में, मुझे दो उपन्यास और एक कविता मिली जिन्होंने मेरे जीवन को बदल दिया। वह थी दोस्तोएवस्की का ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’, क़ुर्रतुलऐन हैदर की ‘निशांत के सहयात्री’, पामुक की ‘Snow’ और केदारनाथ सिंह की कविता ‘माँझी का पुल’। इन्हें मेरे मित्रों ने भी पढ़ा, लेकिन जब वह बहुत प्रभावित नहीं हुए तो मुझे एक गोपनीय प्रसन्नता हुई। नोवालिस (Novalis) की यह बात मैंने सही पढ़ी थी—

“The others experienced nothing like it
even though they heard the same tales”

दो

(वह उन सबको पढ़ता है जो उसको पढ़ते हैं)

मैं जब भी उससे मिलता हूँ। बातों के बीच वह ज़रूर एक दफ़ा कहता है कि वह बहुत पढ़ता था और कभी-कभी तो एक बैठक में एक किताब ख़त्म कर देता था। उसके पढ़ने की कोई हद नहीं थी। वह बसों में, ट्रेनों में, सड़कों में और महफ़िलों में पढ़ता था। उसने ग्रंथ पढ़े, महाकाव्य दीमक के तरह चाटे। लेकिन वह अब नहीं पढ़ता है, उसे ज़िंदगी ने घेर लिया है। 

वह नौकरी से परेशान है, सास से तंग, सरकार से उदास और महँगाई से नाराज़ है। उसे शुगर है, उसके तलवों में दर्द है, उसकी आँखें छोटे अक्षर नहीं पढ़ पातीं, वो थका हुआ और चिड़चिड़ा है।

उसके जीवन में सब कुछ यथावत है। नौकरी, शाम की बैठकें, सरकारी क़दमों का विरोध और समर्थन, चिंताएँ और चिंतन। वह सब कुछ में सक्षम है बस पढ़ नहीं सकता।

वह इसीलिए भी नहीं पढ़ता कि उसके रचना सामर्थ्य और कौशल पर कहीं होमर, वर्जिल और कालिदास की छाया न पड़ जाए।

वह लिखता बहुत है। धुआँधार और लगातार... उसकी रचनाएँ विश्वयुद्धों पर उसके परिप्रेक्ष्य को अंकित करती हैं। वह सूक्ष्म लिखता है, कभी-कभी माइक्रो और नैनो।

वह अन्य की रचनाओं पर बधाई देता है और अपनी पर समीक्षा माँगता है। वह उन सबको पढ़ता है जो उसको पढ़ते हैं। 

तीन

ग़ालिब दुनिया में वाहिद शायर है जो समझ में न आए तो दुगना मज़ा देता है।

—मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

बातों के बीच ग़ालिब और उसकी शायरी का ज़िक्र करना वज़न पैदा करता है, रुचि और संशय भी। कुछ हैरान होते हैं, कुछ प्रभावित होते हैं और कुछ बस यह कहकर रह जाते हैं—“भाई साहब यह ग़ालिब का नहीं है”  

ज़्यादा संभावना है कि मीर, ज़ौक़, सौदा और दाग़ जब भी उद्धृत होंगे, सटीक होंगे। जो कहते हैं कि दीवान-ए-ग़ालिब को पढ़ा है, उन्होंने अली सरदार जाफ़री द्वारा संपादित दीवान को पढ़ा होगा। ग़ालिब सबसे कम पढ़े गए और सबसे ज़्यादा उद्धृत शायर है। 

ससम्मान, कुछ गुलज़ार ने उनको प्रतिष्ठित शायर बनाया, कुछ मरहूम जगजीत सिंह ने। थोड़ा आगे बढ़ो तो आम, कलकत्ता, पेंशन और चिराग़-ए-दैर की वह बात—“बनारस दुनिया के दिल का नुक़्ता है” तक घिसते-घिसते, आते-आते ग़ालिब ठिठक गए। 

नसीरुद्दीन शाह ने वीडियो रिकॉर्डिंग में आम खाते हुए बताया कि ग़ालिब को आम पसंद थे। संसद और ट्विटर पर शशि थरूर के ग़ालिब तेल के दीए जला रहे थे और दोस्तों की सलामती की दुआ कर रहे थे। हमारे एक पसंदीदा लेखक के ग़ालिब “बिजली की तारों पर एक पैर से बैठी चिड़िया की तरह ज़िंदगी जीना चाहिए” जैसी सलाहें दे रहे थे। ग़ालिब को सबने पकड़ा, सबके हाथ उतना ही आया जितना उड़ने पर हवा में रह गए चिड़िया के पंख। 

चार

If you're looking for self-help, why would you read a book written by somebody else? That's not self-help, that's help.

—जॉर्ज कार्लिन, अमेरिकी कॉमेडियन

किताब उसकी है जिसने उसे पढ़ा, उसकी नहीं जिसके किताबघर में सजी है। किताबों का मालिक पाठक है। यह कोई उत्तर-आधुनिक शिगूफ़ा नहीं है। जहाँ लेखक की मौत हो चुकी है।

शराब की महफ़िलों, फ़िल्मों और कई बैठकों को कई बार मैंने मना किया।

“मुझे पढ़ना है और मैं नहीं शामिल हो सकता।”
उन्होंने इस पर पूछ ही लिया, “क्या पढ़ रहे हो? कोई परीक्षा है?”
“नहीं।” 
“ऐसे ही, कहानी, कविताएँ वग़ैरह।”
“Oh! I see, you are into literature.”

मैं गया उस शाम उनके साथ। उन्होंने बताया कि उनके घर में भी किताबघर है और वह भी उतने ही पाठक हैं जितना कि मैं या फिर कोई और। मैं मुत्तफ़िक़ था।

मैंने सागवानी पल्लों और काँच का किताबघर देखा। जिसमें दोस्त बनाने की कला, दोस्ती टूटने के बाद जीने की कला, प्रेम की कला, प्रेम-प्रसंग समाप्त होने के बाद जीने की कला, प्रभावित करने की कला, प्रभाव से बचने की कला, दफ़्तर के तनाव झेलने की कला, कुछ फ़र्क़ न महसूस करने की कला, सब कुछ महसूस करने की और आज में जीने के कला, सोचने की कला और बहुत सोचने से बचने की कला। वहाँ कला पर कोई किताब नहीं थी। यहीं थीं और ऐसी ही थीं।

मैंने उसे बताया कि जीवन जीने की हर कला जीवन से ख़ाली है। यह जीवन से बचकर सीधे जीवन के अर्थ पर झपट्टा मारना है। यह बस तैयारियाँ ही तैयारियाँ हैं। मैंने आगे जोड़ा कि मैं होशियार या समझदार होने के लिए नहीं पढ़ता। कुछ होने के लिए तो नहीं ही पढ़ता।

“इसी विषय पर एक और किताब है मेरे पास, ये देखो” उसने कहा।

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